सोमवार, 25 अगस्त 2014

मनुष्य की सबसे लम्बी यात्रा

मई 2007 की उस सुबह, लास वेगास, अमेरिका की होटल एक्सकेलिबर के कमरे में, मैंने ब्रश किया, कुल्ला किया। चाय अभी नहीं पी थी। हिदायत थी कि न कुछ खाउं, न पियूं। नेशनल जियोग्राफिक पत्रिका द्वारा भेजी गई किट को मैंने सावधानी से खोला। इसे मैंने इन्टरनेट पर क्रेडिट कार्ड द्वारा 130 डालर में मय डाक खर्च के खरीदा था और यह किट मेरे पास एक सप्ताह में आ गई थी। इसमें दो छोटे ब्रश और दो छोटी परख नलियां थीं जिनमें साफ पानी सा कोई घोल भरा था। एक ब्रश को मैंने अपने मुंह के भीतर दायें गाल की अन्दरूनी सतह पर 30 सेकण्ड तक रगड़ा और उस ब्रश के अग्र भाग को, जो हेंडल से अलग हो जाता था, परखनली के पानी में डूबो दिया और ढक्कर कस कर बन्द कर दिया। यही प्रक्रिया दूसरे ब्रश व परखनली के लिये बायें गाल के साथ दोहराई गई। इस हरकत द्वारा मेरे गाल की अन्दरूनी सतह की अनेक .कोशिकाऐं, लार के साथ ब्रश में उलझ कर अब टेस्ट ट्यूब में पहुंच चुकी थीं। किट पर अंकित कोड नम्बर कूट संख्या को मैंने तीन जगह सम्हाल कर लिख लिया। दोनों टेस्ट ट्यूब को एक लिफाफे में बन्द कर के, डाकखाने में सुपुर्द कर आया। लिफाफे पर पाने वाले का पता था नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी, वाशिंगटन, भेजने वाला गुमनाम था। अब मुझे प्रतीक्षा करनी थी लगभग छः सप्ताह तक। मेरे गाल की कोशिकाओं में निहित जानकारी मुझे इन्टरनेट पर प्राप्त होनी थी । एक ही जरिया था - मेरी किट पर अंकित कोड नम्बर के द्वारा । मुझे मालूम पड़ना था कि मेरे या हमारे पूर्वज कहां से आये, कैसे आये, किस मार्ग से आये।
पूर्वजों के बारे में जानने की चाह मनुष्य के मन में शुरू से रही है। हम अपने पुरखों को आदर देते हैं, स्मरण करते हैं, आध्र्य चढ़ाते हैं, श्राद्ध में पूजते हैं। वंशावली का लेखा-जोखा रखना चाहते हैं। प्रायः हमारे साधन सीमित होते हैं। बहुत कम परिवारों में विस्तृत जानकारी सहेजने की परम्परा होती है। गंगा पंडित होते हैं जो पुरातन किस्म के बही खातों नुमा पुलिंदों में समय-समय पर जानकारी को अद्यतन करने का आधा-सूदा, गलत-सलत प्रयास करते रहते हैं। यूरोप व अमेरिका में गिरिजाघरों में बप्तिस्मा रिकार्ड द्वारा बेहतर तरीके से अनेक पीढि़यों की श्रंखला की जानकारी रखी जाती है। 1970 के दशक में अमेरिकी अश्वेत लेखक एलेक्स हैली का उपन्यास - रूट्स - लोकप्रिय हुआ था जिसमें उसने पश्चिम अफ्रीका से गुलाम बनाकर अमेरिका लाये गये अपने परदादाओं की लम्बी वंशावली पर शोध आधारित कहानियां गूंथ डाली थी। श्री हरिवंशराय बच्चन ने अपनी आत्मकथा के प्रथम खण्ड - ‘क्या भूलंू-क्या याद करूं’ में स्वयं के खानदान का चार सौ वर्षों का इतिहास प्रस्तुत किया है। राजाओं का वंशवृक्ष वर्णन करने के लिये दरबारी इतिहासकार होते थे, परन्तु आमजनों के लिये यह कठिन है। इस सारी उठापटक की एक सीमा है। 5-10 पीढ़ी के पीछे जाना सम्भव नहीं।

यदि हम अपना दायरा व्यक्तिगत से बढ़ाकर जातिगत, नस्लगत या समुदायगत कर लें तो और भी अधिक पुरानी पीढि़यों के बारे में जानने की दूसरी विधियां हैं। वृहत्तर परिपे्रक्ष्य में समस्त मानव जाति के पुरातन इतिहास को जानने के लिये हमारे उपाय हैं - जनश्रुतियां या किंवदन्तियां, पुराना साहित्य, महाकाव्य, धर्मशास्त्र, भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन, पुरातत्व ‘आर्कियोलाजी’ और नृविज्ञान ‘एन्थ्रोपोलाजी’। इन सब की भी अपनी सीमाऐं हैं। हालांकि एक से अधिक विधियों से प्राप्त प्रमाणों का तुलनात्मक मिलान कर के विश्वसनीयता बढ़ाई जा सकती है।

अनुमान लगाया जाता है कि हमारी अपनी स्पीशीज होमो सेपियन्स का आविर्भाव लगभग दो लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका में हुआ था। मानव जैसी दिखने वाली अन्य प्रजातियां भी थीं जिन्हें होमोनिड कहते हैं। एक उदाहरण था नीएण्डरथाल। होमोनिड् की कहानी और भी पुरानी है। लगभग साठ लाख साल पहले ओरोरियन नामक होमोनिड ने चार पैरों के बजाय पिछले दो पैरों पर खड़े होकर चलना सीखा। इसी श्रंखला में पहले से नाना प्रकार के बन्दर, चिम्पाजी, ओरांग उटांग, गोरिल्ला, आदि आते थे जिन्हें प्रायमेट्स व एप्स की जाति में रखा जाता है। एक स्पीशीज से दूसरी स्पीशीज में बदलने की प्रक्रिया में हजारों लाखों वर्ष लगते हैं। स्पीशीज या प्रजाति की परिभाषा है, एक जैसे गुण वाले वे प्राणी जो आपस में संसर्ग करके नई सन्तान को जन्म देते हैं। उदाहरण के लिये कुत्तों के बहुत सारे आकार व रूप होते हैं परन्तु आपस में ब्रीडिंग करवा के नई पीढ़ी बन सकती है। सारे कुत्ते एक स्पीशीज के हुए। कुत्ते और बिल्ली को आपस में नहीं मिलाया जा सकता क्योंकि उनकी स्पीशीज अलग है।
हमारे वर्तमान स्वरूप होमोसेपियन्स के सबसे पुराना कन्काल ‘फासिल्स’ जो दो लाख वर्ष पूर्व से मिलना शुरू होते हैं - केवल अफ्रीका में पाये गये। अन्य महाद्वीपों में वे बाद में पहुंचे। अफ्रीका के बाहर वे पहली बार लगभग साठ हजार वर्ष पूर्व पाये गये। बाद के पचास हजार सालों में, अर्थात् आज से दस हजार साल पहले तक मनुष्य धरती के समस्त कोनों में तक पहुंच चुका था क्योंकि इतने पुराने उसके कंकाल/जीवाश्म सब जगह मिलते हैं। साठ हजार वर्ष साल से पुराने फासिल्स केवल अफ्रीका में मिले। यह गाथा जो पूर्वी अफ्रीका की पहाडि़यों से शुरू हुई, पिछले एक दशक से गहन शोध का विषय बनी है। अनेक सफलताऐं मिली हैं, ढेर सारी जानकारी प्राप्त हुई हैं, कहानी के अंश जुड़ते गये हैं और खाका भरता गया है।
मेरे गाल की कोशिकाओं को भेजकर मैं जिस जानकारी को पाने की अपेक्षा कर रहा था वह कितनी पुरानी होगी लगभग साठ हजार वर्ष पूर्व से शुरू होकर लगभग 10,000 वर्ष पूर्व तक । न उसके पहले की न बाद की। मुझे यह भी न मालूम था कि पिछली पांच-दस पीढ़ी के पूर्वजों के नाम ठिकाना धन्धा आदि के बारे में कुछ भी नहीं ज्ञात होगा।

मूल रूप से इस प्रकार की पड़ताल एन्थ्रोपोलाॅजी नामक विज्ञान का हिस्सा है जिसमें मनुष्य के शारीरिक और सामाजिक पहलुओं का अध्ययन किया जाता है । विभिन्न जातियों, नस्लों और समुदायों के सदस्यों की कद-काठी, रंग रूप, चाल-ढाल, खान-पान, पहनावा, रस्म-रिवाज,भाषा-बोली, कला संस्कृति आदि अनेक पक्षों पर तुलनात्मक गौर फरमाते हैं। मनुष्य मात्र अपनी वर्तमान अवस्था तक किन-किन पायदानों पर होकर पहुंचा ? उसके विकास व परिवर्तन पर असर डालने वाले कारक कौन से थे ? इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने की कोशिश नृविज्ञानी ‘एन्थ्रोपोलाॅजिस्ट’ करते हैं। उदाहरण के लिये वे अण्डमान निकोबार द्वीप में समाप्त प्रायः जरवा जाति क बचे-खुचे लोगों के रहन-सहन, वातावरण आदि का अध्ययन करके बहस करना चाहेंगे कि जरवा जाति की दीर्घकालिक कथा कैसे गढ़ी गई।

एन्थ्रोपोलाॅजी के कुछ सबसे शाश्वत और गुरूतर प्रश्न हैं - मनुष्य का प्रथम उद्गम कहां हुआ था ? कैसे थे वे लोग ? उनकी संख्या कैसे बढ़ी ? उनका प्रवजन / माईग्रेशन किन मार्गों से किन दिशाओं में हुआ ? वातावरण, मौसम, भूगोल आदि में कौन से तत्व थे जिन्होंने मनुष्य के सांस्कृतिक विकास में भूमिका निभाई ? विभिन्न नस्लें और जातियां कैसे बनीं ? कौन पहले आया, कौन बाद में ? कौन यहां का मूल निवासी, तो कौन प्रवासी ? किसी भूखण्ड में रहने वाले समस्त नागरिक क्या सचमुच वहीं के भूमि पुत्र हैं ? कौन सी नस्ल के लोग शुद्ध रक्त वाले और कौन वर्ण संकर ?

पुरातत्व दूसरा महत्वपूर्ण विज्ञान है जिसमें विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों में मनुष्य द्वारा निर्मित भवनों, वस्तुओं आदि को खोदकर निकालते हैं जैसा कि मोहनजोदड़ो या हड़प्पा में किया गया। मनुष्य के कंकाल की हड्डियों से अनुमान लगाते हैं। कार्बन-आईसोटोप पर आधारित डेटिंग से किसी वस्तु की पुरातन आयु का पता चलता है। पुरातत्व की ये विधियां न केवल मानव जाति बल्कि अन्य सभी जीव जन्तुओं और वनस्पतियों पर भी लागू होती हैं। धरती की परतों के बीच जीवाश्म फासिल्स दब कर चपटे हो जाते हैं, अपना निशान छोड़ते हैं। फासिल्स ‘जीवाश्म’ के गहन अध्ययन से पता चला कि धरती पर कैसे जीवन का विकास हुआ। डार्विन की थ्योरी आॅफ इवाल्यूशन के सबूत के रूप में फासिल्स का महत्व बहुमूल्य है। मुश्किल यह है कि मानव के गढ़े गये पदार्थों और उसकी हड्डियों के गलने और नष्ट होने की एक उम्र होती है। फिर कुछ पता नहीं चलता।
विभिन्न इलाकों और समुदायों के बीच बोले जाने वाली भाषाओं/बोलियों का लिंग्विस्टिक अध्ययन हमें बताता है कि किस भाषा से कौन सी दूसरी भाषा निकली तथा एक भाषा से दूसरी भाषा में जाने वाले शब्दों की दिशा किस ओर थी। नस्लों और जातियों के अविर्भाव और भ्रमण का थोड़ा बहुत निष्कर्ष भाषा वैज्ञानिक शोध से सम्पन्न होता है। उदाहरण के लिये यूरोप में रहने वाली जिप्सी लोग राजस्थान, सिंध और पंजाब से निकल पड़े थे- शायद सन् 1200 - 1300 के आस-पास। और सब कुछ बदल गया। थोड़े से अवशेष रह गये गिने चुने भारतीय शब्द जो आज भी उनकी भाषा का अंग हैं।

पुराने समय में मनुष्य की खानाबदोशी पर असर डालने वाला एक और कारण था - मौसम या जलवायु में परिवर्तन। साल-दर-साल वाले परिवर्तन नहंी बल्कि दीर्घ अवधि वाले - 5000 - दस हजार - पचास हजार साल - इतने लम्बे समय तक धरती पर मौसम के अनेक युग आये और गये।

आजकल हम ग्लोबल वार्मिंग को लेकर चिंतित हैं जो शायद मनुष्य निर्मित है और अत्यन्त नवजात घटना है। धरती के करोड़ों सालों के इतिहास में अनेक हिम युग और गर्म युग आये और गये। किस काल में कितने हजार वर्षों तक कैसा मौसम रहा होगा इस विषय को पूरा मौसम विज्ञान पेलियो क्लाईमेटोलाॅजी कहा जाता है। धरती को आबाद करने की इन्सानी यात्रा का अध्ययन पुरा मौसम विज्ञान के बिना अधूरा है।

पुरातत्व व दूसरी गिनाई गई विधियों के अलावा अब एक नया उपाय सूझ पड़ा है। जिनेटिक्स ‘आनुवांशिकता’
‘‘ आनुवंशिकता का अर्थ है मातापिता न अन्य पूर्वजों से सन्तान को प्राप्त होने वाली जीन्स तथा उन जीन्स द्वारा निर्धारित और प्रभावित जोने वाले गुण। गुण हजारों प्रकार के । नाक का सुतंवा होना, आंख का नीला होना, बालों का घुंघरालु होना। दुबलापन, मोटापन, गंजापन, गोरा होना। आधे गुण मां से, आधे पिता से। बीमारी होना या न होना भी आनुवंशिकता पर निर्भर करता है।

मां के गर्भ में जब बच्चे का बीज बनता है उस समय आधी किस्मत तय हो जाती है। बाकी आधी किस्मत पर प्रभाव पड़ता है गर्भ के नौ महीने व जन्म के बाद की जिन्दगी का। परवरिश, खान-पान, किस्मत की ? जो भृगुसंहिता, लिखी जाती है उसमें से आधे मंत्र मां की तरफ से व आधे पिता की तरफ से आते हैं। कुछ मंत्र शक्तिशाली होते हैं। जो कह दिया सो घटित होकर रहता है। अन्य मंत्रों की शक्ति कम या कमतर होती है। उनका फलित घटने के लिये किन्तु परन्तु यदि जबकि वाली शर्तें पूरी होना चाहिये। इन शर्तों का पूरा होना या न होना बाद वाली आधी किस्मत के हाथ होता है अर्थात् दोनों का मेल होना जरूरी है। कुछ मामलों में ये मंत्र मौन रहते हैं या तटस्थ रहते हैं जिन्दगी को जो खेल खेलना है, खेल ले। आनुवंशिकता न इस तरफ, न उस तरफ। इसी को अंग्रेजी में कहते हैं ‘नेचर’ और नर्चर ‘परवरिश’ की साझी पारी हो पूरी जिन्दगी चलती है।

गर्भ में बच्चे का बीज बनते समय आधी किस्मत की भृगुसंहिता के हजारों मंत्र माॅं की तरफ से अण्डकोष में और पिता की तरफ से शुक्राणु में भर कर आते हैं। इन मंत्र की भाषा संस्कृत से भी करोड़ों साल पुरानी और उससे अधिक क्लिष्ट है। उस भाषा की वर्णमाला में सिर्फ चार अक्षर हैं व उनसे मंत्र, शब्दों की एक लम्बी लड़ी है। प्रत्येक लड़ी में हजारों लाखों शब्द हैं। एक मंत्र यानी एक जीन। एक जीन यानी संकेत की एक लम्बी व दोहरी कड़ी। इन मंत्रों की एक खास विशेषता है। ये अपनी फोटोकापी स्वयं बनाते हैं चाहे जितनी बनाते हैं। खूब तेजी से बनाते हैं। सटीक व सही बनाते हैं। एक कोशिका से दूसरी कोशिका। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी। फैलाते जाते हैं।

ये संदेश, ये मंत्र, ये जीन कैसे किस्मत को नियंत्रित करते हैं ? प्रोटीन नामक रासायनिक पदार्थों की रचना व निर्माण को गति देकर। प्रोटीन भी लाखों प्रकार के। प्रोटीन के अनेक काम। कोशिकाओं व उत्तकों के निर्माण में। एन्जाइम या उत्प्रेरकों के रूप में। एण्टी बाडी के रूप में, जो विदेशी पदार्थों से लड़ती है। हार्मोन्स के रूप में। शरीर का चप्पा-चप्पा किसी न किसी किस्म के प्रोटीन का बना है तथा किसी न किसी के प्रोटीन द्वारा वहां की रासायनिक क्रियाऐं नियंत्रित हो रही हैं।

हमारे शरीर की एक बूंद खून या गाल से रगड़ कर निकाली गई कोशिकाऐं पर्याप्त हैं जिनेटिक्स अध्ययन के लिये। इस सम्भावना को सबसे पहले पहचाना और परखा इटली के पुरावेत्ता और नृविज्ञानी ‘लुगाती’ ने। 1970 के दशक में उन्होंने अफ्रीका के कुछ कबीलों का जिनेटिक शोध प्रारम्भ किया। तब साधन कम थे। आनुवंशिकी विज्ञान का पर्याप्त विकास नहीं हुआ था। बड़े परिवर्तन 1990 के दशक में आये। मानव जीनोम प्रोजेक्ट शुरू हुआ और अनुमान से अधिक तेजी से पूर्ण हुआ। मनुष्य और उसके बाद अनेक जीव जन्तुओं, पौधों के जीनोम की सम्पूर्ण संरचना को जानने का काम होता चला गया। बड़ी प्रयोगशालाओं में स्वचलित, रोबोटिक्स मशीनों द्वारा जटिल रसायनिक परीक्षणों को दु्रतगति से निरन्तर किये जाने की विधियां विकसित हुई। एक साथ हजारों सेम्पल्स पर हजारों परीक्षण सम्भव हुए। वर्षों का काम सप्ताहों में होने लगा।

स्पेन्सर वेल्स नामक जीव विज्ञानी व जिनेटिसिस्ट ने महसूस किया दुनिया के कोनों-कोनों में रह रहे लोगों का इस बात का इतिहास कि उनके पुरखे कहां से किस मार्ग से किस काल में भ्रमण या प्रवजन करते हुए आये अब जीन्स के माध्यम से अधिक सटीक तरीके से जाना जा सकता है। उन्हें मदद मिली नेशनल जियोग्राफिक सोसायटी से जो इसी नाम की पत्रिका आरम्भ 1888 के लिये विख्यात है। टेलीविजन चेनल बाद में आया। यह सोसायटी भूगोल, पर्यावरण, विज्ञान आदि क्षेत्रों में शोध को मदद देती है। इसके साथ प्रसिद्ध कम्प्यूटर कम्पनी आई.बी.एम. और एक निजी ट्रस्ट वाईट फेमिली फाउण्डेशन ने सहयोग का बीड़ा उठाया। विश्व भर में दस वैज्ञानिक दल बने। समान वैज्ञानिक और नीतिगत कार्यविधि अपनाई गई। इस प्रकल्प का नाम रखा गया जीनोग्राफिक प्रोजेक्ट।

पिछली एक सदी में कुछ गिने चुने महा-प्रकल्प, मेगा प्रोजेक्ट हुए हैं जिनके लिये मिलजुल कर योजना बनाई गई, तैयारी की गई, बड़ा बजट जुटाया गया और दूरगामी परिणाम हुए। एक था आपरेशन मेनहट्टन जिसके तहत 1940 के दशक में पूर्वाद्ध में ताबड़तोड़ परमाणु बम का विकास किया गया। 1960 के दशक के उत्तरार्ध में अपोलो चन्द्र अभियान द्वारा मानव चांद पर उतरा। 1990 में मानव जीनोम प्रोजेक्ट शुरू हुआ। उसी के पदचिन्हों पर जीनोग्राफिक प्रकल्प चल रहा है। तुलनात्मक रूप से बजट कम है पर निष्कर्ष गहरे और महत्वपूर्ण होंगे।

जीनोग्राफिक प्रकल्प के तहत दुनिया भर में अनेक शोध केंद्र स्थापित किये गये हैं जो स्थानीय विशेषताओं के आधार पर निम्न प्रश्नों का उत्तर खोजने की कोशिश कर रहे हैं -
- ‘जोहान्सबर्ग, साउथ अफ्रीका’: किस अफ्रीकी समुदाय की जीन्स सबसे पुरानी है और बाहर से कौन आया ?
- ‘बेरूत/लेबनान’: सिकन्दर महान और दूसरी विश्वविजयी सेनाओं के जिनेटिक्स पदचिन्ह कहां-कहां किस प्रतिशत में मौजूद हैं ?
- ‘मदुराई/तमिलनाडू’: भारत की जटिल और रूढ़ जाति प्रथा के कारण यहां क्या सचमुच में अलग-अलग जिनेटिक समुदाय हैं या फिर आमतौर पर सच माना जाने वाला निम्न कथन भारत पर भी लागू होता है कि - भिन्न जातियों के सदस्यों के मध्य मौजूद जिनेटिक असमानताऐं और एक ही जाति के सदस्यों के मध्य मौजूद जिनेटिक असामनताऐं - इन दोनों में कोई फर्क नहीं है ?
- शंघाई/चीन: मनुष्य सबसे पहले ताइवान और जापान कब और कैसे पहुंचा ? उत्तरी और दक्षिणी शाखाओं को बांटने वाली क्या बातें थीं ? क्या उस जमाने के नाविकों ने एशिया के पूर्वी तट में विशालकाय प्रशान्त महासागर को पार करके अमेरिका तक पहुंचने की कोशिश की थी या किस हद तक सफल हो पाये थे ?
- मेलबर्न/आस्ट्रेलिया: यूरोप और एशिया के मध्य स्थित काकेशस पर्वत, एक बाधा थे या पुल ? इस क्षेत्र में पाई जाने वाली भाषागत और जिनेटिक विविधता के क्या कारण हैं ? साईबेरिया में बसने वाले प्रथम जत्थे कौन से थे और कौन सबसे अधिक प्रमाण में अमेरिका पहुंचे ?
- पेरिस/फ्रान्स: प्राचीन यूरोप की आरम्भिक जातियां कौन सी थीं ? यूरोप के बड़े-बड़े उपनिवेशों की दुनिया के जिनेटिक नक्शे पर क्या छाप पड़ी ?
- फिलाडेल्फिया/यूएसए: उत्तरी अमेरिका में मानव कब-कब किस-किस मार्ग से आया ?
- ‘मिनास/ब्राजील: क्या मूलनिवासियों के चिन्ह आज भी मौजूद हैं ? एन्डीज पर्वत और अमेजान के जंगलों में रहने वालों के मध्य क्या समानताऐं तथा क्या अन्तर हैं ?

हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका के नाभिक में गुणसूत्रों ‘क्रोमोसोम’ पर अवस्थित डी.एन.ए. का अणु हर व्यक्ति का अपना अनूठा, अद्वितीय होता है क्योंकि प्रत्येक शिशु के बनते समय मां व पिता की ओर से आने वाली हजारों जीन्स में से कौन सी आधी जीन्स शुक्राणु में आयेंगी और कौन सी आधी अण्डकोशिका में, यह जुआ है, पासा है, ताश के फेंटे गये पत्ते हैं। ‘हमशक्ल, जुड़वा बच्चों को छोड़कर, जिनका डी.एन.ए. समान होता है। डी.एन.ए. अणु हमारी हजारों जीन्स की संरचनात्मक इकाई है। वाय क्रमोसोम अपवाद है। यह पिता से पुत्र को मिलता है, बिना परिवर्तन के, बिना मिश्रण या आदान-प्रदान के। सतत् एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी। एक जैसा अवतरित होता जाता है - सिवाय फिर एक अपवाद के। कोई म्यूटेशन ‘व्युत्क्रम’ न हो गया हो।

म्यूटेशन या व्युत्क्रम-प्रजनन कोशिकाओं और नये डिम्ब की कोशिकाओं में विभाजन के समय क्रोमोसोम ‘गुणसूत्रों’ पर अवस्थित जीन्स की जब दुहरी कापी या प्रतिलिपी बनती है तो कभी-कभी नकल में खलल पड़ जाता है। प्रुफ रीडिंग में गलती हो जाती है। हर पीढ़ी में नहीं। हर विभाजन में नहीं। हजारों जीन्स में नहीं, केवल कुछ गिनीचुनी में। इस गलती को म्यूटेशन कहते हैं।

म्यूटेशन के कारण नई सन्तान की जिनेटिक संरचना में थोड़ा सा फर्क आ जाता है। प्रायः इस भेद में प्राणी के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ता। परन्तु कभी-कभी पड़ता है। कभी अच्छा, कभी बुरा। समग्र रूप में व्याप्त विविधता में म्यूटेशन की प्रमुख भूमिका है। मानव जीनोम का 99.9 प्रतिशत एक जैसा है। जो बचा रहा 0.1 प्रतिशत वह जिम्मेदार है हमारी भिन्नताओं के लिये। बदलते हुए देशकाल में कुछ जीव अधिक सफल होकर अपनी संतति फैलाते हैं तो दूसरे कालकलवित हो जाते हैं। डार्विन की थ्योरी सर्वाइकल आफ फिटेस्ट ‘श्रेष्ठजन जीता है’ इन्हीं म्यूटेशन द्वारा नियंत्रित विविधता और परिवर्तन पर आधारित है।
अनेक म्यूटेशन ऐसे भी होते हैं जो कोई प्रत्यक्ष प्रभाव र्पदा नहीं करते, बस गुपचुप रूप में मौजूद रहते हैं और परवर्ती पीढि़यों में उतरते चले जाते हैं। किन्हीं दो व्यक्तियों में यदि इस प्रकार का एक जैसा म्यूटेशन मिले तो कह सकते हैं कि उनके पूर्वज कहीं न कहीं, कभी न कभी एक रहे होंगे। विभिन्न समुदायों व नस्लों में पाये जाने वाले म्यूटेशन्स की व्यापकता का तुलनात्मक ब्यौरा देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उनके मध्य कितना और किस दिशा में, किस देशकाल में कैसा सम्बन्ध, कैसा सम्पर्क, कैसा मिश्रण रहा होगा।

एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अनवरत रूप से वहीं-वहीं म्यूटेशन या जीन के उतरते चले जाने की सम्भावना सदैव गड़बड़ हो जाती है क्योंकि मां के गर्भ में बीज बनने के पहले पिता की ओर से कौन सी पचास प्रतिशत जीन्स का समूह शुक्राणु में तथा मां की जीन्स में से कौन सी पचास प्रतिशत का समूह अण्ड कोशिका में आयेगा - यह एक शुद्ध लाटरी है। इस कारण बहुत सारे म्यूटेशन परवर्ती पीढि़यों में पहुंच नहीं पाते। उन्हें धारण करने वाले शरीर के साथ नष्ट हो जाते हैं। दो अपवाद हैं। पिता की ओर से प्राप्त वाय क्रोमोसाम पर अवस्थित समस्त जीन्स मय उनके व्युत्क्रम के ‘जो केवल पुत्र को मिलती है’ तथा माता की ओर से प्राप्त माईटोकांड्रियल जीन्स मय उनके व्युत्क्रम के जो पुत्र या पुत्री दोनों को मिलती है। ये दोनों प्रकार के जीन समूह नये डिम्ब को प्राप्त होने वाली जिनेटिक थाती ‘धरोहर’ की लाटरी प्रक्रिया से परे रहते हैं तथा अपरिवर्तित रूप से हस्तान्तरित होते हैं।

धरती पर बिछे हुए इन्सानों के गलीचे के ताने बाने में ये दोनों धागे - वाय क्रोमोसोम और माईटोकान्ड्रियल जीन पहचाने जा सकते हैं - और उस सुन्दर कालीन की जटिल अबूझ डिजाईन का रहस्य तोड़ने में हमारी मदद करते हैं।
यह म्यूटेशन स्वतः प्राकृतिक रूप से होते हैं, निष्क्रमिक ‘रेन्डम’ होते हैं और प्रायः हानिरहित होते हैं। इन्हें रासायनिक विधियों से पहचाना जा सकता है। जिनेटिक शोध में इनका उपयोग मार्कर्स ‘चिन्हक’ के रूप में करते हैं। दक्षिण भारत की कुछ परम्परावादी ब्राह्मण जाति के सदस्यों को हम उनके कपाल पर लगे टीके के रूप रंग से पहचानते हैं - शैव या वैष्णव आदि । ललाट का टीका एक तरह का चिन्हक हुआ। जीन्स में पाये जाने वाले या पुराने व्युत्क्रम झण्डाबरदार की तरह है। वे हमें आगाह करते हैं ‘यदि हमारे पास ज्ञान हो तो’ कि इस चिन्हक को धारण करने वाले में फलां-फलां गुण या अवगुण हो सकते हैं, खासियतें हो सकती हैं, रोग हो सकता है या वह फलां समुदाय या कबीले का सदस्य हो सकता है।

किसी एक पीढ़ी में पुरूष के वाय क्रोमोसोम में होने वाले व्युत्क्रम बाद की समस्त पीढि़यों को उसी रूप में हस्तान्तरित होता चला जाता है। अनेक पीढि़यों के बाद यदि फिर कोई नया म्यूटेशन हुआ तो बाद की सन्तानों, पोतों, पड़पोतों, पड़-पड़ पोतों की श्रंखला में अब दोनों प्रकार के म्यूटेशन मिलेंगे। पहले वाला भी और बाद वाला भी। इसके बाद तीसरा, चैथा, पांचवा आदि म्यूटेशन यदि अलग-अलग अन्तराल पर हुए तो वे भी जुड़ते जायेंगे। सभी शाखाओं में नहीं, किसी किसी शाखा में। कल्पना कीजिये कि एक पिता के वाय क्रोमोसोम में क, ख, ग नाम के तीन म्यूटेशन थे जो उसके अपने पितृपक्ष से प्राप्त हुए थे। अब उसके दो पुत्र हुए। उनमें से एक के अण्ड कोष में शुक्राणु बनते समय नया म्यूटेशन घ पैदा हुआ। दूसरे भाई के मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ। प्रथम पुत्र की समस्त परवर्ती पीढि़यों के वाय क्रोमोसोम पर क, ख, ग, घ चारों व्युत्क्रम का समूह ‘हेप्लोग्रुप’ पाया जावेगा जबकि द्वितीय पुत्र की वंशावली में पाये जाने वाला हेप्लोगु्रप केवल तीन म्यूटेशन के समूह क, ख, ग द्वारा चीन्हा जावेगा। अगली किसी पीढ़ी में सम्भव है कि नया म्यूटेशन जुड़ कर वह समूह क, ख, ग, च हो जावे।
मानों वृक्ष की प्रत्येक शाखा का अपना हेप्लोग्रुप होता है। सबसे मोटे तने की पहचान हेतु म्यूटेशन श्रंखला छोटी होगी। जैसे-जैसे शाखाऐं बढ़ती जायेंगी उनके हेप्लोगु्रप लम्बे होते जायेंगे। आरम्भिक अक्षर वही रहेंगे, बाद वाले अक्षर बदलते जायेंगे। दुनिया भर के लोगों में पाया जाने वाला प्रत्येक मार्कर ‘चिन्हक-म्यूटेशन’, एक नई श्रंखला की शुरूआत की ओर इशारा करता है। शोधकर्ता पता लगाने की कोशिश करते हैं कि फलां म्यूटेशन किस काल में, किस भूखण्ड में, किस समुदाय में प्रथम बार पैदा हुआ होगा और फिर किस तरह उसके बाद की पीढि़यां फैलती गई।

किसी पुराअवशेष की गहरी खुदाई में जमी हुई परतों के समान हमारे डी.एन.ए. में म्यूटेशन एक के बाद एक जमा होते गये हैं। विश्व के विभिन्न भूखण्डों में रहने वाले विभिन्न समुदायों के व्यक्तियों के रक्त में म्यूटेशन्स के क्रम को जब दुनिया के नक्शे पर रख कर देखते हैं तोएक खाका सा तैयार होने लगता है कि मानव की आरम्भिक यात्राऐं कहां से कहां की ओर रहीं होंगी। ये हमारे पूर्वज के जिनेटिक पदचिन्ह हैं, जिन्होेंने अफ्रीका से निकल कर बाकी धरती को आबाद किया। सीता द्वारा टपकाए गये गहनों या ग्रिम की परीकथा में हेन्सल द्वारा छोड़े गये रोटी के टुकड़ों से उनके अपहरण या भटकन का मार्ग खोजा गया था। डी.एन.ए. म्यूटेशन भी ऐसे ही छूटे हुए टुकड़े हैं।

अभी तक की शोध के आधार पर माना जाता है कि साठ हजार वर्ष पूर्व सब के साझा पुरखे पूर्वी अफ्रीका में पहाड़ी क्षेत्र में रहते थे। केन्या, इथियोपिया, तान्जानिया आदि देशों में। उनकी संख्या कम थी। लगभग 10,000 । विलुप्ति के कगार पर थे। शायद समाप्त हो जाते । धरती पर हिमयुग था। ठण्डा मौसम था। भोजन की कमी थी। अन्य होमोनिड्स की तुलना में हमारे होमोसेपियन्स का विकास बेहतर था। मस्तिष्क बड़ा था, अधिक क्षमता वाला था। भाषा का आविर्भाव हो रहा था। एक दूसरे से संवाद करके सहयोग की योग्यता पनपी थी। भौगोलिक स्मृति को मिट्टी या रेत में नक्शा बनाकर दर्शाने की निपुणता तब शायद जन्मी होगी। पत्थर के औजार बनाना सीखा जा चुका था। एक तरफ क्षमताऐं और सम्भावनाऐं थीं। दूसरी तरफ अस्तित्व को चुनौति देती परिस्थितियां।

फिर एक चमत्कार सा घटित होता है। न जाने कैसे और क्यों कर एक छोटा सा दल अपनी भूमि छोड़कर निकल पड़ता है। मंजिल का पता नहीं। अजीब सा जज़्बा है। कोई कल्पना आई होगी। कोई उम्मीद जागी होगी। कठिन जुआ था। पूर्वी अफ्रीका के सींग नुमा कोने से जो वर्तमान में सोमालिया है, ये लोग लाल सागर पार करके साउदी अरब पहुंचे। उस हिम युग में सागर उथले थे। कम गहरे थे। ज्यादा भूमि उजागर थी । लाल सागर में पानी न था, जमीन थी। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव प्रदेशों पर बर्फ की टोपियां विशालकाय थीं। पानी बर्फ के रूप में कैद था इसलिये सागर थोड़े कम व धरती थोड़ी अधिक थी। एशिया महाद्वीप के दक्षिणी किनारे चलते हुए ये जत्थे इरान, इराक, पाकिस्तान, भारत, बर्मा, थाई देश, मलाया होते हुए इण्डोनेशिया तक पहुंचे और वहीं से एक लघु सागर यात्रा से आस्ट्रेलिया। अफ्रीका के बाहर पाई जाने वाली समस्त आबादियों में वाय क्रोमोसोम का एक म्यूटेशन मिलता है जिसका नाम है एम-168 है। आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों में यह चिन्ह 50000 वर्ष पुराने कंकाल/फासिल्स में मिलता है। इसके पहले कहीं नहीं, केवल अफ्रीका छोड़कर।

अजीब दास्तां है। दस हजार कि.मी. की दूरी। बीच में अथाह समुद्र। सागर किनारे लम्बी यात्रा रेत के पदचिन्ह तो चन्द मिनटों में मिट जाते हैं। इस कहानी के जिनेटिक पदचिन्ह अमर-अजर हैं, जिन्हें आज पुख्ता और विश्वसनीय माना जाता है।
क्या उस जत्थे ने अपने कुछ रक्तबीज ‘जिनेटिक मार्कर्स’ मार्ग में न छोड़े होंगे ? दक्षिण भारत में तमिलनाडु राज्य के मदुराई जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में हजारों लोगों का जिनेटिक परीक्षण करके सचमुच ये चिन्हक/मार्कर्स पाये गये। स्पेन्सर वेल्स की टीम के लिये इस तरह के परिणाम उत्तेजना के क्षण होते हैं। उनका सिद्धान्त, उनकी परिकल्पना, प्रायोगिक प्रमाणों की कसौटी पर खरे उतर रहे होते हैं। जिग-साॅ पज़ल के सैंकड़ों टुकड़ों में एक, अपनी जगह पाकर सही तरह से फिट हो जाता है।

एम-168 के अलावा प्रथम म्यूटेशन वाले समुदाय केवल अफ्रीका महाद्वीप में मिलते हैं। एम-168 की दो प्रमुख शाखाऐं बनीं। पहली एम-130 आस्ट्रेलिया पहुंची। दूसरी एम-89 लाल सागर की सूखी खाड़ी पार करके अरब देश पहुंची। आस्ट्रेलिया और अफ्रीका को छोड़कर बाकी सारे महाद्वीप एशिया, यूरोप, उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका आदि एम-89 समुदाय की सन्तानें हैं। एक खास जत्था एम-9 था जो मध्य एशिया और युरेशिया के घास के मैदानों वाले इलाकों स्टेपीस में पहुंचता है। हजारों साल तक वे यहां पनपते रहे। दक्षिण की ओर पामीर, हिन्दकुश और हिमालय जैसे पर्वत तथा ताक्लीमान जैसे रेगिस्तान ने मार्ग रोका था। फिर भी कुछ जाबांज नये समुदाय ‘अपने नये म्यूटेशन मार्कर्स एम-20 के साथ’ इन बाधाओं को लांघ कर भारत पहुंचत हैं। एम-9 की एक दूसरी बड़ी शाखा एम-45 और भी उत्तरी ऐशिया में बढ़ती है। इसी दल के सदस्य अन्ततः यूरोप में और समस्त अमेरिका ‘उत्तरी और दक्षिणी’ को आबाद करते हैं।

दोनों अमेरिकी महाद्वीपों में मनुष्य सबसे बाद में पहुंचा। केवल दस हजार वर्ष पूर्व। आज हम जिन्हें रेड इंडियन या अमेरिका के मूल निवासी कहते हैं वे इसी दल के सदस्य थे। उनके आगमन का मार्ग आश्चर्यजनक था। उत्तरी एशिया में रहने वाले एम-45 समूह की एक शाखा एम-242 पूर्व में साईबेरिया की दिशा में बढ़ती है। कड़ी सर्दी में, शून्य से 50 डिग्री सेल्सियस नीचे के तापमान में जीवित रहने वाले लोग आज भी इनके सीधे वंशज के चुजकी जाति रूप में वहां मौजूद हैं तथा अपने जीनोम में उक्त एम-242 चिन्हक धारण करते हैं। साईबेरिया का पूर्वी किनारा और अलास्का, उत्तरी अमेरिका का पश्चिमी किनारा उस हिमयुग में 10,000 वर्ष पहले बर्फ मार्ग से जुड़े हुए थे। आज वहां सागर है, तब नहीं था। इसी मार्ग से एम-3 नामक शाखा वर्तमान कनाडा में प्रवेश करती हैं और फिर लगभग एक हजार वर्ष में दक्षिणी अमेरिका के दक्षिणी छोर तक जा पहुंचती हैं।
क्रिस्टोफर कोलम्बस के 1490 में अटलांटिक महासागर पार करके अपनी कल्पना के भारत पहुंचने का नया पश्चिमी मार्ग खोजने के उपक्रम में अमरीका की धरती पर कदम रखा था। पिछले पांच सौ वर्षों में यूरोपीय और अन्य देशों के लोगों ने अमेरिका को पुनः भर दिया और बहुसंख्यक हो गये। 10,000 वर्ष पूर्व पहुंचने वाले एम-3 मूलनिवासी, रेड इंडियन मारे गये, मर गये और आज मुट्ठी भर संख्या में बचे हैं। इसी प्रकार आस्ट्रेलिया में 50,000 वर्ष पहले पहुंचने वाले एबोरिज़नी एम-130 गिनती के हैं, बाकी सब वे हैं जो पिछले दो सौ सालों में ब्रिटेन व अन्य देशों में वहां पहुंचे।

नेशनल जियोग्राफिक से जो किट मैंने मंगाई थी उसमें बोनस के रूप में एक डी.वी.डी. है जिस पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म - ‘जर्नी आॅफ मेन’ रिकार्ड की गई है। मेरे गाल की कोशिकाओं में निहित जिनेटिक म्यूटेशन चिन्हकों के परिणाम की प्रतीक्षा के दिनों में मैंने इस फिल्म को बार-बार देखा। गजब का अनुभव है। कला, विज्ञान व इतिहास का अद्भुत संगम। इस प्रकल्प के प्रमुख वैज्ञानिक स्पेन्सर वेल्स ने आदि मानव की यात्रा स्वयं दोहराने का बीड़ा उठाया। पैदल कम, अन्य साधन ज्यादा, फिर भी रोमांचक, श्रमसाध्य, कठिन और खतरनाक।

स्पेन्सर वेल्स हमें कहां-कहां नहीं ले जाते। सबसे पहले अफ्रीका के साल - कबीले के बीच जो आदम व हव्वा की सीधी सन्तानों के रूप में माने जाते हैं। इसके जीनोम में जो व्युत्क्रम हैं वे और कहीं नहीं । इनकी जीवन शैली और भाषा में जो है वह कहीं नहीं। क्लिक-क्लिक, टच्-टच की चटखारे जैसी ध्वनियाॅं इनकी जिव्हा से निकलती हैं और भाषा का प्रमुख हिस्सा है। तजाकिस्तान के एक परिवार से हमारी मुलाकात है जिसके पड़-पड़ दादाओं ने उस समूह का प्रतिनिधित्व किया था। जिसने अन्ततः एशिया, यूरोप व अमेरिका को आबाद किया ‘एम-9’। मदुराई जिले के तमिल भाषी गांवों में हम एक कैम्प में पहुंचते हैं जहां तम्बुओं के बाहर ग्रामीणजन कतार में बैठे हैं और परीक्षण हेतु सहर्ष अपना रक्त दे रहे हैं। भूसे के विशाल ढेर में से वह सुई मिल ही जाती है जो सिद्ध करती है कि आस्ट्रेलिया जाने वाले प्रथम जत्थे ‘एम-130’ के कुछ वंशज दक्षिणी भारत में आज भी मौजूद हैं गोकि भारत की अधिकांश आबादी के पूर्वज अन्य मार्गों से, अन्य कबीलों के रूप में, अलग-अलग कालों में अवतरित हुए थे। धुर उत्तर में कड़ाके की ठंड में, साईबेरिया की चुचकी जाति को हम रेनडियर दौड़ाते देखते हैं और रात में तम्बु में खुद के शरीर की गर्मी से गरमाए खोल में जिन्दा रहने के दैनिक चमत्कार को देखकर ठिठुरते हैं। अमेरिका व आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों के बीच पहुंचते हैं तथा उनके परिवेश, जीन्स, नाक-नक्श और मान्यताओं से रूबरू होते हैं।

हमें यह भी जानना जरूरी है कि इस जीनोग्राफिक प्रकल्प का विरोध भी हुआ है। अमेरिकी मूल निवासियों रेड इंडियन के अधिकांश कबीलों ने इस प्रक्रिया में अपने सेम्पल्स देने से इन्कार कर दिया। मानव जीनोम विविधता प्रकल्प ‘ह्यूमन जिनेटिक डायवर्सिटी’ का भी ऐसा ही विरोध हुआ था। जैव उपनेश्वाद पर मूल निवासियों की समिति इन्डीजीनस पीपुल काउन्सिल आन बायो कालोनिएलिज्म तथा मूलनिवासियों के मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के स्थायी फोरम युनाईटेड नेशन्स पर्मानेन्ट फोरम आॅन इन्डीजीनस इश्यूज ने भी इस प्रकल्प का विरोध किया है।

इस प्रतिरोध के कारण बड़े अजीब हैं और मेरे गले में आसानी से नहीं उतरते। लोगों का डर है कि उनके सदियों पुराने विश्वास, मान्यताऐं और मिथक टूट जायेंगेे। वाचिक परम्पराओं, धर्मग्रन्थों और महाकाव्यों में बताया गया है कि दुनिया कैसे बनी, धरती कब गढ़ी गई, इन्सान कैसे आया आदि-आदि। इन आस्थाओं का क्या होगा ? हरा कबीला मानता है कि वे ही इस भूमि पर सबसे पहले अवतरित हुए या कि उनका भू-भाग, धरा का केंद्र है। वे पूछते हैं कि क्या विज्ञान की सच्चाई के खातिर हमारे हजारों वर्षों के मिथकों को कूड़े में डाल दिया जावे। कितनी मानसिक पीड़ा होगी ? कितना दुःख होगा यह जानकर कि जिन गाथाओं पर हम गर्व करते थे वे महज काल्पनिक थीं, गल्प थीं।

अनेक आस्थावान लोगों को लगता है कि पूर्वजों की जीन्स आदि के बारे में जानने से उनकी पवित्रता नष्ट होगी। पुरखों के प्रति हमारी श्रद्धा के चलते हम उनकी काल्पनिक छवि को एक अलौकिक आभा से महिमा मण्डित किये रहते हैं। हेप्लोग्रुप और म्यूटेशन की शब्दावली द्वारा वह आभा, वह महिमा खण्डित होती है। इसलिये हमको नहीं चाहिये यह विज्ञान।
बहुत से वनवासियों को डर लगता है कि उनके भूमि अधिकारों पर खतरा मण्डराएगा जो कि उन्हें इस वाचिक परम्परा की बिना पर मिले हुए हैं कि उनके पूर्वज आदि काल से यहीं रहते आये हैं। इस बात को लेकर आशंकाऐं और विरोध दर्ज हुआ कि जांच हेतु दी गई कोशिकाओं को टिश्यु कल्चर में लम्बे समय जीवित रख कर उनमें विभाजन की क्षमता विकसित करके नई कोशिकाऐं और अमत्र्य सेल लाइन्स कोशिका श्रंखला स्थापित कर ली जायेंगी।

कुछ लोगों को पेरानाइड किस्म की कुशंकाऐं सताती हैं कि जीनोग्राफिक प्रोजेक्ट के द्वारा विभिन्न नस्लों के डी.एन.ए. को हड़पने, चोरी करने, संग्रहित करने, पेटेंट करने, गुप्त शोध करने, व्यावसायिक उपयोग करने, निजता को भेद कर ब्लेकमेल करने आदि का षड़यंत्र है।

यह भी आरोप लगाया जाता है कि इस प्रकार की शोध द्वारा जातिगत उच्चता रेसियल सुपीरियोरिटी की मान्यता वाले वैज्ञानिकों द्वारा यह सिद्ध करने की कोशिशों को बढ़ावा मिलेगा कि कुछ नस्लें बेहतर हैं और कुछ घटिया। राजनैतिक उचितता ‘पोलिटिकल करेक्टनेस’ के इस जमाने में जातियों या समुदायों के मध्य विद्यमान थोड़ी बहुत बायोलाजिकल विभिन्नताओं का उल्लेख करना और थोड़ी सी उंच नीच की तरफ इशारा करना महापाप है, वर्जित विषय है। बात भी मत करो। शोध मत करो। जिस गली जाना नहीं उसका मार्ग मत खोजो।

वैज्ञानिक प्रगति और सोच के खिलाफ ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण विरोध पहले भी होता रहा है और भविष्य में भी होगा। यह मानव स्वभाव है, पर विज्ञान को कोई रोक नहीं सकता क्योंकि वह भी मानव स्वभाव है और ज्यादा ताकतवर और ज्यादा सच्चा है, और साथ ही ज्यादा सुन्दर-मोहक-काव्यमय-अलौकिक भी है। इन गुणों पर साहित्य धर्म, अध्यात्म और कला संकाय ‘ह्यूमेनिटीज’ की बपौति नहीं है। जब न्यूटन ने प्रकाश-भौतिकी के माध्यम से समझाया कि आकाश में इन्द्रधनुष की रचना पानी की लाखों बूंदों में से सूर्य किरणों के परावर्तन के द्वारा होती है तो प्रख्यात कवि जाॅन कीट्स ने कहा कि न्यूटन ने अपने शुष्क ज्ञान से इन्द्रधनुष की सुन्दरता, मोहकता, रहस्यमयता, गूढ़ता, काव्यात्मकता, अलौकिकता आदि को नष्ट कर दिया है। लेकिन मुझे लगता है कि न्यूटन की व्याख्या ने इन्द्रधनुष के आकर्षण में बढ़ोतरी करी न कि कमी। ऐसी ही मानसिकता जीनोग्राफिक शोध के साथ रखी जानी चाहिये।

उपरोक्त समस्त डर, शंकाऐं, कुशंकाऐं, विरोध आदि को बातचीत व समझाइश द्वारा दूर करने के प्रयास किये जा रहे हैं और सफल हो रहे हैं। समस्त भागीदारों का डी.एन.ए. अनाम-अज्ञात रूप से संग्रहित किया जा रहा है जिसका कोड नम्बर ‘कूट संख्या’ केवल भागीदार के पास रहता है। पूर्वजों के वाय क्रोमोसोम के म्यूटेशन के अलावा अन्य कोई जिनेटिक परीक्षण नहीं किये जा रहे हैं। इस किट की बिक्री से प्राप्त धन का पचास प्रतिशत विलुप्ति की कगार पर खड़ी नस्लों के सांस्कृतिक संरक्षण में खर्च किया जा रहा है। अलास्का में रहने वाली लोरियान रासन को शुरू में यह जानकर धक्का लगा कि उसके पूर्वज, उनकी जाति के परम्परागत रूप से दुश्मन माने जाने वाले यूपिक एस्किमो थे। लेकिन फिर उसने अपने आप को समझाया कि क्या पुरानी रूढ मान्यताओं को बनाये रखना वैज्ञानिक सत्य की तुलना में अधिक उपयोगी है ? क्या हम सदैव शुतुरमुर्ग या कूप-मण्डूक बने रहना चाहते हैं। इस प्रकल्प में भागीदारी पूर्णतया स्वैच्छिक है। किसी प्रकार का दबाव या प्रलोभन नहीं है। जीनोग्राफिक प्रकल्प की समस्त जानकारी एक खुली किताब के रूप में पारदर्शी तरीके से इन्टरनेट पर ओपन सोर्स में उपलब्ध रहेंगी ‘केवल निजी पहलू छोड़कर’। इस शोध का कोई व्यावसायिक उपयोग नहीं होगा। कोई पेटेंट नहीं किया जावेगा। मेडिकल जानकारी नहीं निकाली जायेगी। टिशुकल्चर में अमत्र्य सेल लाइन्स नहीं विकसित की जायेंगी।

कबीलाई मान्यताओं का आधार केवल किंवदन्ती या जनश्रुति या धर्मग्रन्थ ही नहीं होते। नई-नई आधुनिक लेकिन अवैज्ञानिक मान्यताऐं और विश्वास राजनैतिक कारणों से भी पनपते हैं । एक विचारधारा के अनुसार अमेरिका के मूल निवासी प्राचीन इज़राईली थे या एटलान्टिस नामक खोई सभ्यता के वंशज। नौ हजार वर्ष पूर्व पुरानी एक खोपड़ी जो उत्तरी अमेरिका के वाशिंगटन राज्य में मिली, दिखने में तथाकथित काकेशियन प्रतीत होती थी, इसलिये दावा किया गया कि प्रथम अमेरिकी जन उत्तरी यूरोप से आये होंगे। अपनी राजनैतिक व सामाजिक सोच के साथ जो सिद्धान्त या धारणा पटरी पर बैठती है, वैसा ही रंगीन चश्मा लोग अपनी आंखों पर चढ़ा लेते हैं तथा वैज्ञानिक तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं या उनका उल्टा पुल्टा अर्थ निकालते हैं। हिटलर की नाजी विचारधारा के अनुसार जर्मन लोग आर्य जाति के श्रेष्ठतम समूह का प्रतिनिधित्व करते थे।

भारत में आर्य कहां से आये ? क्या वे यहां के मूल निवासी थे या बाहर से आये ? किस काल में आये ? कितनी बार में, कितने समय तक आते रहे ? आर्य की परिभाषा क्या है ? क्या द्रविड़ और आर्य भिन्न थे ? क्या इन दोनों के अलावा अन्य भेद अधिक महत्वपूर्ण हैं जिनमें हम भारतीय जन समुदाय को वर्गीकृत कर सकते हैं ? ब्राह्मण और शुद्र या क्षत्रिय और वैश्य के पुरखे अलग थे या समान ? उपरोक्त समस्त प्रश्नों के उत्तर जिनेटिक शोध के आधार पर अधिक सटीक और पुख्ता तौर पर मिल पायेंगे। फिर अधिकांश बहसें समाप्त हो जाना चाहिये। वैसे देखा जावे तो जीनोग्राफिक सबूतों के बगैर भी इस तरह की सोचा का कोई मतलब नहीं है।

दक्षिण पंथी राष्ट्रवादी सोच वाले विचारक मानते रहे हैं कि यह सिद्ध होने के कि आर्य लोग, मध्य ऐशिया या बाहर कहीं से आये हमारी भारतीय संस्कृति की नाक नीची हो जायेगी । उनके अनुसार पश्चिमी विद्वान जानबूझ कर दुर्भावनापूर्वक, पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर आर्यों को बाहर से आया बताना प्रतिपादित करते रहे हैं ?

स्पेन के उत्तरी भाग में बास्क संस्कृति के लोग दावा करते हैं कि उनकी भाषा और दूसरी तमाम बातें शेष स्पेन से बहुत भिन्न हैं और उन्हें अपने स्वतंत्र राष्ट्र का हक है। उनका आन्दोलन अनेक दशक पुराना और आतंकवादी गतिविधियों से भरा रहा है। जिनेटिक प्रकल्प से सुस्पष्ट उत्तर मिलने की उम्मीद है। मोहम्मद अली जिन्ना के अुनसार हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र रहे हैं। हमारे क्रोमोसोम इस प्रकार की धारणाओं को सदैव के लिये समाप्त करने में सहायक होंगे। इस पृष्ठभूमि के साथ यदि कमलेश्वर होते हो अपनी रचना कितने पाकिस्तान के निष्कार्षों को और भी दृढ़ता से कह पाते।

विभिन्न जातियों के मध्य अलगाव कभी भी एक सौ प्रतिशत नहीं रहा । मिश्रण सदैव हुआ। आतिगत शुद्धता की धारणा बेमानी है। हमारा खून शुद्ध, तुम्हारा खून अशुद्ध, यह बेकार की मिथ्या धारणा है। हम सब वर्ण संकर है और हमें इस बात पर गर्व होना चाहिये न कि शर्म। वर्ण संकर होना, उत्सव मनाने की, खुशी मनाने की बात है। हर देश-काल में, हर जाति में लोगों की दूसरी जाति के साथ भेंट हुई, मित्रता हुई, प्यार हुआ, रोटी-बेटी का नाता जुड़ा और नई नस्ल की नई पीढि़याॅं बनीं। एक नृविज्ञानी ‘एन्थ्रोपोलाजिस्ट’ ने सही कहा कि दुनिया भर की जमाम जातियाॅं, नस्लें एक रात के सम्मिश्रण में गायब हो सकती हैं।

हम सब भाई-भाई, बहन या कजिन्स हैं। एक परिवार के सदस्य हैं। वसुधैव कुटुम्बकम और सबैभूमि गोपाल की। ऐसे सन्देश कितने लोग, कितनी सदियों से देते रहे हैं। वेद, उपनिषद्, पैगम्बर, मसीहा, सन्त, विद्वान, गुरू, दार्शनिक आदि यही तो कहते रहे हैं। जीनोग्राफिक प्रकल्प के निष्कर्ष उक्त सन्देशों को और भी पुख्ता आधार प्रदान करेंगे।
जीनोग्राफिक प्रकल्प द्वारा उजागर होती सच्चाईयों के बाद इस बहस में क्या दम कि कौन भूमिपुत्र ‘सन आॅफ दि साईल’ कौन बहिरागत, कौन शुद्ध खून वाला और कौन वर्ण संकर ?

विभिन्न हेप्लोग्रुप्स ‘म्यूटेशन श्रंखला’ को धारण करने वाले समुदायों की संख्या छोटी बड़ी होती है। सुदूर, अगम्य, अलग थलग इलाकों में पाये जाने वाले छोटे-छोटे कबीलों के हेप्लोगु्रप अन्य कहीं न मिलेंगे। भारत या मध्य एशिया जैसे भूभाग जहां पर लम्बे काल तक समुदायों का आवागमन और मिश्रण होता रहा वहां पर करोड़ों की जन संख्या वाले हेप्लोगु्रप समुदाय मिलेंगे। अभी यह भी ज्ञात नहीं है कि दुनियाभर में कुल कितने हेप्लोगु्रप जिनेटिक समुदाय हैं। पर्याप्त मात्रा में जानकारी ‘डाटा’ उपलब्ध नहीं है। जीनोग्राफिक प्रकल्प का प्रमुख उद्देश्य है नृविज्ञान ‘एन्थ्रोपोलाजी’ की दृष्टि से और अधिक जिनेटिक डाटा जुटाया जावे। शोधकर्ताओं के दल विश्व के कोनों तक यात्रा करके, आदिवासी, वनवासियों और मूल निवासियों के लगभग एक लाख सेम्पल इकट्ठा कर रहे हैं। अब तक जो नक्शा बना है वह अधूरा है। बहुत सारे गेपा बाकी रह गये हैं। जंगल सा दृश्य देखा है, वृक्षों के बारे में बहुत कम मालूम है। दुनिया भर से ज्यादा देशों से, ज्यादा नस्लों के ढेर सारे सेम्पल्स की जरूरत है । विशेषकर वे कबीले जो लम्बी अवधि से अलग-थलग रहे हों, दूसरों से जिनका सम्मिश्रण न हुआ हो। उन लोगों तक पहुंचना और उन्हें इस जिनेटिक शोध में शामिल होने हेतु राजी करना, एक अर्जेन्ट चुनौति है क्योंकि ऐसे समूह तेजी से विलुप्त हो रहे हैं या मिश्रित होते जा रहे हैं।

जीनोग्राफिक प्रोजेक्ट के वेबसाईट पर कुछ-कुछ दिनों के अन्तराल पर, बार-बार मैं अपने सेम्पल के परिणाम जानने हेतु मेरी किट का कोड नम्बर उसमें भरता हूं। अनेक प्रकार के उत्तर मिलते हैं - अभी तक इस नम्बर की किट हम तक नहीं पहुंची। अब पहुंच गई है, प्रक्रिया शुरू होने वाली है, परीक्षण जारी है, परीक्षण दोहराए जा रहे हैं, यह रहा आपका परिणाम - एक नक्शा, एक प्रमाण पत्र और एक आलेख के रूप में।

मेरे पिता की ओर से हमारे पूर्वजों का हेप्लोगुप एम-124 ‘आर 2’। जैसा कि अनुमान था कि आरम्भिक म्यूटेशन एम-168 और एम-89 थे जो अफ्रीका से निकलकर अरब देश पहुंचने की पुष्टि करते थे। पश्चिम एशिया को सच ही मानव जाति का प्रथम गैर अफ्रीकी पालना कहा गया है। अनुमान के अनुसार हमारे पूर्वजों का तीसरा सबसे पुराना समूह एम-9 था जिसने 40000 वर्ष पहले, पूर्व दिशा में मुड़कर इरान और दक्षिणी मध्य एशिया को आबाद किया। इसे यूरेशियन जत्था कहते हैं क्योंकि आगामी 30000 वर्षों में इसी की सन्तानों ने यूरोप व एशिया की जनसंख्या में सबसे अधिक श्रीवृद्धि करी। मेरे पूर्वज उस आरम्भिक दल के सदस्य नहीं थे जिसने 50000 साल पहले सागर किनारे का मार्ग अपनाते हुए आस्ट्रेलिया तक की यात्रा 1000 साल में पूरी की थी और अपने चिन्ह, न्यूगिनी, मलेशिया और दक्षिण भारत में छोड़े थे। दक्षिण एशिया, भारत आने वाले बड़े समूह के रूप में एम-20 और एम-69 की पहचान भी हुई है। परन्तु मेरे पूर्वज इस समूह के सदस्य भी न थे। भारत आने से पहले उन्हें उत्तरी दिशा में भटकना था। 35000 साल पहले एम-45 चिन्हक धारण करने वाला एक समुदाय मध्य एशिया में फैलता है । आजकल के देश है, कज़ाकिस्तान, उज़्बेगिस्तान और दक्षिणी साईबेरिया। धरती के अन्तिम हिमयुग में इन लोगांे ने बड़ी कठिनाई से हजारों साल तक अपना अस्तित्व बनाये रखा। 30000 साल पहले एम-207 नामक ये नये म्यूटेशन वाला एक जत्था और उत्तर पश्चिम दिशा में बढ़ता है जो अन्ततः पश्चिमी यूरोप की आबादी बनायेगा। परन्तु मेरे पूर्वज फिर मार्ग पलटते हैं। लगभग 25000 वर्ष पहले एम-124 यह पूरी श्रृंखला मिलकर कहलाई आर-2, हेप्लोग्रुप। इस गु्रप को धारण करने वाले लोगों की संख्या भारत में 5-10 प्रतिशत है। अर्थात् मैं एक अल्पसंख्यक समुदाय का सदस्य हूं। गौर करने के लायक एक तथ्य यह भी है कि केवल 1000 साल पहले पश्चिमी भारत से पूर्वी यूरोप पहुंचने वाले जिप्सी लोगों का हेप्लोगु्रप भी आर-2 है। चलें अपना तम्बूओं का कारवां लेकर और हो जायें गीत संगीत।
भारत दुनिया के उन भू भागों में से है जहां सबसे अधिक सम्मिश्रण हुआ है। अभी बहुत कम लोगों का जिनेटिक सर्वेक्षण हुआ है और अधिक लोगों को अपना परीक्षण करवा कर जानकारी बढ़ाना और बढ़वाना चाहिये। जीनोग्राफिक वेबसाईट पर मुझे बताया गया कि मेरे पूर्वजों की पुरानी जानकारी को मैं चाहूं तो अपने तक गुप्त रख सकता हूं। किसी को भी मालूम नहीं पड़ेगा कि इस किट को भेजने वाला, मैं कौन था। या फिर चाहूं तो अपने बारे में कुछ सामान्य जानकारी बता दूं ताकि दुनिया के जिनेटिक चित्र में रंग की एक टिपकी और पड़ जाये तथा वह चित्र बिन्दु-बिन्दु, धीरे-धीरे अपनी पूर्णता प्राप्त कर सके। मैंने बाद वाला विकल्प सहर्ष स्वीकार किया और मुझे गहरे आत्मिक संतोष की अनुभूति हुई।

अच्छी कहानी सुनना सबको भाता है। यह कहानी जब पूरी लिख ली जायेगी तो सबसे महान गाथा होगी। इसकी शुरूआत दो लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका में होती है। मानव पूर्वजों का एक छोटा सा समूह। कुछ जमा कुछ सौ रहे होंगे। आज साढ़े छः अरब बाशिंदे चप्पे-चप्पे पर बसे हुए हैं। कहीं शांतिपूर्वक, कहीं लड़ते हुए, हजार किस्म के देवताओं को पूजते हुए या किसी को भी नहीं, अलग-अलग रूप व रंग के उनके चेहरों पर या तो चूल्हेे की आग की रोशनी तमतमा रही है या फिर कम्प्यूटर के पर्दे की।

मानव समूहों का परिव्राजन ‘माईग्रेशन’ आहिस्ता-आहिस्ता, मंथर, धीर-गम्भीर गति से हुआ था। मानों समुद्र किनारे, बीच पर, भीड़ अधिक होने से एक छोटा समूह अगले दि कुछ दूर जाकर, थोड़ा ख्ुले में पहुंच जावे। दिन ब दिन, सप्ताह दर सप्ताह यह फैलाव बढ़ता जावे । अनेक सहस्त्राब्दियों में मील दर मील यह यात्रा बढ़ती रही।

यह गाथा है जिन्दा रहने की, बच निकलने की, गतिमान होने की, कभी बिछुड़कर छिटक कर अलग थलग पड़े रह जाने की, कभी कारवाओं के मेलों की, कभी हार की, कभी जीत की । इस कहानी का अधिकांश अज्ञात,, अल्पज्ञात, हिस्सा प्रागैतिहासिक युग के मौन में डूबा हुआ है। जो ज्ञात है वह बहुत बात का है, हाल ही का है।

कैसे रोमांचक रही होगी यह यात्रा। अलग-अलग समूह, अलग-अलग कबीले, कोई छोटा कोई बड़ा। कोई यहां ठिठका, कोई वहां रूका, कोई चलता ही गया। भूमि के मानचित्र पर लम्बी छोटी रंगीन रेखाऐं-यहां से वहां, वहां से वहां, एक दूसरे को काटती हुई, कुछ सीधी, कुछ घूम कर मानों वापस लौटती। ये सारे कारवां या तो समुद्र तटों से सटे रहते हैं या रेगिस्तानों को टालते या घांस के मैदानों में विचरत और कभी तो पहाड़ों को लांघ जाते। महाकाल की दीर्घकालिक घड़ी की इकाईयों में, जो दिन, सप्ताह, माह या वर्ष में नहीं, वरन् सहस्त्राब्दियों में नापी जाती हैं। ये यात्राऐं चलती रहीं, कभी धीमी, कभी तेज परन्तु सदैव अनवरत्। पीढ़ी दर पीढ़ी। शिकार करते हुए, बीनते चुनते हुए।

मानव की सबसे लम्बी यात्रा अब पूर्ण हो चुकी है। इन्सान धरती के कोने-कोने तक पहुंच चुका है । पर क्या यह यात्रा सचमुच में पूर्ण हो चुकी है ? नहीं, यात्रा तब तक अधूरी रहेगी जब तक कि हम सब बंधुत्व के अहसास को नये ज्ञान के प्रकाश में, पूरी तरह अपने मन में आत्मसात न कर लेवें।

थोड़े समय पहले समाचार आया था कि एन्जीलोना जोली और ऐश्वर्या राय की नीली आंखें बताती हैं कि उनके पूर्वज एक ही रहे होंगे। जीनोग्राफिक शोध से ज्ञात हुआ कि विश्व में नीली आंखों वाले सभी लोगों का कोई पुरखा, आज से हजारों साल पहले मध्य एशिया के काला सागर क्षेत्र में रहा होगा। उसके जन्म के समय जीन में म्यूटेशन से आंख का आईरिस का रंग बदल गया जो बाद की पीढि़यों में प्रगट होता रहा है। ऐसी अनेक रोचक उपयोगी कथाऐं जन्मेंगी।

सोमवार, 18 अगस्त 2014

हिन्दी में विज्ञान लेखन में चुनौतियां।

हिन्दी में विज्ञान विषयों पर लिखने वाले को सदैव इस समस्या का सामना करना पड़ा है कि या तो वे भाषा व ज्ञान को अति सरलीकृत रखें और विषयवस्तु की गुणवत्ता व मात्रा दोनों की बलि चढ़ा दें या फिर सचमुच में कुछ गम्भीर व विस्तृत व आधुनिक लिखें, फिर चाहे ये आरोप क्यों न लग जाए कि भाषा दुरूह है। बीच का रास्ता निकालना मुश्किल है। हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में उच्च स्तर की भाषा पढ़ने समझने वालों का प्रतिशत घटता जा रहा है। हिन्दी शब्दावली इसलिये दुरूह महसूस होती है कि हमने उस स्तर की संस्कृतनिष्ठ भाषा सीखी ही नहीं और न उसका आम चलन में उपयोग किया। अंग्रेजी शब्द आसान प्रतीत होते हैं क्योंकि वे पहले ही जुबान पर चढ़ चुके होते हैं। समाज का वह बुद्धिमान व सामथ्र्यवान तबका जो उच्च स्तर की हिन्दी समझ सकता है, अपना अधिकांश पठन-मनन अंग्रेजी में करता है। हिन्दी पर उसकी पकड़ छूटती जाती है। वह निहायत ही भद्दी मिश्रित भाषा का उपयोग करने लगता है। बचे रह जाते हैं अल्पशिक्षित विपन्न वर्ग के लोग। हिन्दी जब तक श्रेष्ठिवर्ग या उच्च स्तर के बुद्धिजीवी वर्ग में प्रतिष्ठित नहीं होती तब तक इस लेखक को अपनी भाषा को सरलीकृत करने को मजबूर होना पड़ेगा और वैज्ञानिक तथ्यों को कुछ हद तक छोड़ना पड़ेगा। अं्रगे्रजी जानने वाले पाठक इस पुस्तक के अंग्रेजी रूपान्तरण का 80 प्रतिशत समझ पायेंगे। हिन्दी भाषी पाठक वर्तमान सरलीकृत रूप का 50 प्रतिशत से कम समझ जायेंगे क्योंकि या तो उन्होंने उतना विज्ञान पढा ही नहीं या अंग्रेजी पढा। हिन्दी माध्यम के विद्यालय व महाविद्यालय यदि निरन्तर निम्न वर्ग की संस्थाऐं बनती रहें तो हिन्दी में विज्ञान लेखन का स्तर एक सीमा से उपर नहीं उठ पायेगा। इस लेखक ने स्वयं हिन्दी माध्यम की शालाओं में शिक्षा प्राप्त की। आज से तीन दशक पूर्व उच्च मध्यवर्ग तक के बालक-बालिकाऐं शासकीय संस्थाओं में अध्ययन करते थे। आज निम्न मध्य वर्ग के पालक भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम की शालाओं में भेजते हैं। फिर भी उम्मीद की जाती है कि इस प्रयोग से उपयोगी प्रतिपुष्टि ‘फीडबेक’ प्राप्त होगी तथा भविष्य में हिन्दी में बेहतर मूल लेखन की प्रेरणा प्राप्त होगी। विश्व के अन्य देशों में बीमारियों पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। उसका रूपान्तरण किया गया है। अंग्रेजी भाषा की शैली इंडियन व मुहावरे का प्रभाव कहीं-कहीं दृष्टिगोचर हो सकता है। वैज्ञानिक शब्दावली के चयन में अनेक प्रयोग हैं। केंद्रीय हिन्दी निदेशालय व शिक्षा मंत्रालय द्वारा प्रकाशित वृह्त पारिभाषिक शब्द संग्रह का उपयोग किया गया, परन्तु ये शब्द प्रायः दुरूह, अति तत्सम या संस्कृत आधारित प्रतीत हुए। अन्य हिन्दी-अंग्रेजी कोशों की मदद ली गई। आम बोलचाल की हिन्दुस्तानी से उर्दू आधारित व तद्भव शब्दों को भी चुना गया है । लेखक ने स्वयं अनेक नये शब्द गढ़े हैं। प्रामाणिक एक-रूपी शब्दावली का उपयोग न करना, अकादमिक दृष्टि से श्रेयस्कर नहीं है। फिर भी सोचा यह गया कि इस साहित्य से प्रमुख लाभन्वित रहने वाले लोग हैं मरीज, रिश्तेदार व प्राथमिक स्वास्थ्य कर्मी। यह पाठ्यपुस्तक नहीं है इसलिये शब्द चयन में छूट ली गई है। भारतीय भाषाओं पर अधिकार रखने वाले चिकित्सकों व वैज्ञानिकों का कर्तव्य बनता है क् िवे जन स्वास्थ्य शिक्षा के क्षेत्र में आगे आऐं। साक्षरता, शिक्षा व आर्थिक स्तर में सुधार के साथ उम्मीद की जाती है कि विकासशील देशों में भी इस प्रकार स्वास्थ्य साहित्य की मांग व चलन बढ़ेगा। अंतिम लक्ष्य है मरीज की आत्मनिर्भरता। स्वयं की बीमारी व उपचार के सन्दर्भ में सारे निर्णय चिकित्सक के हाथों में छोड़ने के बजाय वह भी उक्त प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी निभाऐं, ऐसी अभिलाषा है। यह एक चुनौति है ं। एक टीम की दरकार है। अकेले करना मुश्किल है। एक अर्धकालिक सम्पादक तो कम से कम चाहिये। चिकित्सा विज्ञान पत्रकारिता में ग्लेमर, रसूख, सम्पर्क और पैसा नहीं मिलता। इसलिये कोई इस तरफ रूख ही नहीं करता। कलेवर में गहराई और विविधता के लिये बहुत सारे लेखक चाहिये जो समय-समय पर रचनाऐं देते रहें। पाठकों से अभी तक प्रतिसाद अच्छा मिला है परन्तु कुछ प्रतिक्रियाओं और सुझावों से मैं सहमत नहीं हो पाया। आप इसे अ्रग्रेजी में क्यों नहीं निकालते ? मेरे भाई, अंग्रेजी में चिकित्सा शिक्षा साहित्य की कोई कमी नहीं है, जरूरत तो हिन्दी व भारतीय भाषाओं में काम करने की है, इसमें न्यूरोलाॅजी के अलावा अन्य विषयों पर भी छापिये पत्रिका का नाम न्यूरोज्ञान इस बात का पक्का द्योतक है कि प्रकाशक की मंशा क्या है। एक बार में एक ही बीमारी के बारे में क्यों ? जिसे जो रोग होता है,उसे उसी के बारे में जानने की लालसा होती है और उस अंक को हम उसी रोग से पीडि़त व्यक्तियों को पोस्ट करते हैं। न्यूरोज्ञान के प्रत्येक अंक में किसी एक रोग पर तैयार सामग्री को निम्न शीर्षकों में संग्रहित किया जाता है - 1. रोग से सम्बन्धित वैज्ञानिक पहलू -सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक दोनों । 2. उक्त रोग से पीडि़त व्यक्तियों और परिवारों के हितों के लिये काम करते संगठन तथा उनकी गतिविधियों के समाचार। 3. कुछ मरीजों व देखभालकर्ताओं की आप बीती। 4. शोध के समाचार तथा भविष्य की सम्भावनाऐं 5. वैज्ञानिक पारिभाषिक शब्दावली । 5. ज्ञान की परख - आत्मपरीक्षण हेतु प्रश्नावली और उत्तर। 6. शिक्षाप्रद पोस्टर्स या कलाकृति। जीवन का पहला सुख निरोगी काया है। परन्तु बीमार पड़ना भी मनुष्य की नियति है। देह घरे का दण्ड है। मृत्यु, वृद्धावस्था व रोग के क्रूर सत्य के अहसास ने युवक सिद्धार्थ को गौतम बुद्ध बना दिया। बहुत से रोग अल्प अवधि के होते हैं। ठीक हो जाते हैं। एक लघु दुःस्वप्न के समान, हम उन्हें प्रायः भूल जाते हैं। कुछ दूसरे रोग दीर्घ अवधि के होते हैं। ठीक नहीं होते। बने रहते हैं। बार-बार लौट कर वार करते हैं। या बिगड़ते चले जाते हैं, जीवन का स्थाई अंग बन जाते हैं। ऐसी बीमारी से सामना पड़ने पर, उसकी निरंतरता से रूबरू होने पर, लोग हतप्रभ रह जाते हैं, विश्वास नहीं करते, स्वीकार नहीं करते, विद्रोह करते हैं, उदास हो निराशा के गर्त में गहरे डूब जाते हैं, हार जाते हैं। परन्तु जीवन फिर भी चलता है। दौड़ता है। हासिल करता है। मंजिलों तक पहुंचता है। ऐसे में रोग से लड़ने का सहारा कहां से मिलता है? अपने अंतर्मन की जीवनी-शक्ति से, जिजीविषा से। यह शक्ति या तो जन्मजात होती है या बाद में गढ़ी जाती है। सहारा मिलता है-परिजनों से मित्रों से, चिकित्सा व्यवसाय में रत कर्मियों से। आस्था भी एक सहारा है। आस्था अपने आप में । आस्था ईश्वर में या नियति में - आस्था अपने सत्कर्मों व सद्बुद्धि में। दो और स्रोत हैं सहारे के - ज्ञान व हमसफर। ज्ञान एक बड़ी शक्ति है। अज्ञान भय है। ज्ञान हमंे निर्भय बनाता है। ज्ञान किस बात का ? रोग का, उसके कारणों , लक्षणों, निदान, प्रयोगशाला जांचों, उपचार, पूर्वानुमान आदि अनेक पहलुओं का । बीमारी के बारे में हमारी समझ हमारा विश्वास बढ़ाती है। स्थिति हमें नियंत्रण में प्रतीत होती है। सत्य चाहे बुरा हो, अनिष्ठदर्शक हो, फिर भी उसे जानना बेहतर है, बजाय कि अज्ञान व अनिश्चय के अंधकार में डूबे रहने के । रेत में सिर छुपाने से तुफान नहीं टलता। मुंह छिपाने से यथार्थ छुप नहीं जाता। सत्य शायद उतना बुरा न हो जितना अन्यथा सोचने में आता है या सत्य शायद उतना बुरा है फिर भी वह मदद करता है - हमें मन से तैयार करता है। बीमारी का उपचार एक मार्गी उपक्रम नहीं है। डाॅक्टर ने दवा लिखी, आपने ले ली। हमें क्या करना बीमारी के बारे में जानकर! हमें मतलब है ठीक होने से। ऐसी मानसिकता ठीक नहीं। उपचार उभयमार्गी व बहुमार्गी उद्यम है। एक टीम-वर्क है। मरीज व उसके परिजनों को सक्रिय भूमिका निभानी है। चिकित्सकों के पास अधिक जानकारी है, इसका मतलब यह नहीं कि व आपके शरीर के एक मात्र नियंता हो गये। निर्णय प्रक्रिया में मरीज व घरवालों को भी भागीदारी होना चाहिये। चिकित्सकगण विकल्प बतायेंगे, सम्भावनाओं की चर्चा करेंगे। अपने हित में, अपनी सोच, अपनी रूचि, अपनी पारिवारिक स्थिति के आधार पर कौन सा विकल्प उचित होगा यह फैसला सिर्फ डाक्टर्स द्वारा थोपा नहीं जा सकता। अतः रोग का ज्ञान जरूरी है। ज्ञान के साथ दूसरा सहारा है - हमसफर, हमदर्द। उसी रोग से ग्रस्त अन्य मरीज। यह जानना सुकून देता है कि हम अकेले नहीं है हमारे जैसे और भी हैं। बीमारी से लड़ रहे हैं। कोई छोटी विजय। कोई बड़ी विजय। हार कर भी नहीं हार रहे हैं। वास्तविकता को स्वीकार कर रहे हैं। जीवन को ढाल रहे हैं। अपने आपको हालातों के अनुकूल बना रहे हैं। समझौता करना सीख रहे हैं। जीवन के लक्ष्यों को पुनः परिभाषित व संशोधित करना सीख रहे हैं। परिवर्तित जीवन शैली व मंजिल में संतोष ढूंढ रहे हैं। नई उर्जा संग्रह कर रहे हैं। अपने जैसे दूसरे रोगियों के अनुभव को जानना एक बहुत बड़ा सहारा है। न्यूरोज्ञान पत्रिका मरीजों के लिये ज्ञान और हमसफर का मिला जुला स्रोत है। इसमें निहित जानकारियां व अनुभव एक प्रतिध्वनि के समान चिकित्सकों व मरीजों के वृहत्तर होते जाते समूह में गुंजायमान होती चली जाएंगी। लघु पत्रिकाओं की यह श्रंखला, स्वास्थ्य संबंधी अन्य पत्रिकाओं से भिन्न होंगी। न्यूरोलाॅजी और फिर बाद में अन्य बीमारियों पर केंद्रित इसके अंक निकलेंगे। मिर्गी-मुकाबला और पार्किन्सोनिज्म-प्रहार नाम से प्रथम अंक निकले हैं। किसी एक बीमारी पर केंद्रित न्यूज लेटर उन्हीं को भेजा जाएगा जो उससे पीडि़त हैं। या उनके परिजनों व मित्रों को, तथा तत्सम्बन्धी ज्ञान का प्रचार प्रसार करने में योगदान हेतु तत्पर हो। विभिन्न न्यूरोलाॅजिकल बीमारियों से ग्रस्त मरीजों के नाम पतों की एक बड़ी सूची हमारे पास है। हमारी पहली मेलिंग लिस्ट इसी से बनी। पत्रिका पाने वालों से अनुरोध है कि अपने जैसे अन्य मरीजों को इसकी सूचना देवें, उनके नाम-पते हमारे पास भेजें ताकि हमारी सूची का विस्तार होता रहे। अन्य रोग जिन पर ऐसे ही न्यूजलेटर निकल रहे हैं-पक्षाघात ‘लकवा‘, वाचाघात ‘अफेजिया’, सेरीब्रल पाल्सी ‘ बाल लकवा’, बे्रन ट्यूमर, मन्द बुद्धि व सीखने में अवरोध, एल्जीमर्स-डिमेन्शिया ‘बुद्धिक्षया’, मायोपेथी, मोटरन्यूराॅन डिसीज, अधोअंग लकवा ‘स्पाइनलकार्ड रोग’ व अन्य और। कुछ बीमारियों से ग्रस्त मरीजों की संख्या लाखों में है ‘मिर्गी, पक्षाघात’, कुछ की हजारों में ‘पार्किन्सोज्मि’ कुछ सैंकड़ों में या उससे भी कम। अल्पसंख्या में होने वाले दुर्लभ रोगों तक भी प्रतिध्वनि पहुंचेगी। हमारा लक्ष्य है अधिकाधिक प्रकार के रोगियों तक ज्ञान का प्रसार करना, उन्हें हमसफर का साथ मुहैया कराना और टोली में शामिल करना। विभिन्न नगरों और बस्तियों में विभिन्न रोगों से ग्रस्त मरीजों के स्वयंसेवक समूहों का निर्माण करना इस प्रक्रिया का अगला आनुषंगित परिणाम होगा।

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

डाॅ. अपूर्व पौराणिक द्वारा हिन्दी में चिकित्सा विज्ञान और इतर विज्ञान लेखन

1. भूमिका: हिन्दी में विज्ञान लेखन की चुनौतियाॅं Challanges for science writing in Hindi.
2. हिन्दी में विज्ञान पत्रकारिता Science journalism in Hindi.
3. हिन्दी में चिकित्सा शिक्षा Medical education in Hindi.
4. चिकित्सा और मानविकी Medicine and Humanities.
5. मिथ्या विज्ञान की पहचान कैसे करें ? How to spot pseudo-science
7. मनुष्य की सबसे लम्बी यात्रा The longest journey of human being
8. इतिहास धर्म और कला के आईने में मिर्गी Epilepsy in mirror of History, religion and art
9. डाॅ. आॅलिवर साॅक्स के साथ चाय पर साक्षात्कार Tea Time with Dr. Oliver Sacks (an interview)
10. डाॅ. आॅलिवर साॅक्स लिखित पुस्तकों का परिचय Books written by Dr. Oliver Sacks
11. स्टेम सेल - हल्ला ज्यादा, फायदा दूर Stem Cell - more hype than hope
12. चित्रकथा: ‘‘क्योंकि तुम मेरे दोस्त जो हो’’ और ‘‘मिर्गी का काल बेताल’’ Comic Strip - 'Because you are my friend' and 'Phantom uncle for Epilepsy'
13. मिर्गी और हलातोल Epilepsy and artists at Indore
14 कला और न्यूरोलाॅजी Arts, Literature and Neurology
15. न्यूरोलाॅजी का चित्रमय इतिहास Image history of neurology
16. न्यूरोलाॅजी क्या है? न्यूरोलाॅजी का महत्व?: सामुदायिक बोझ /पैरवी What is Neurology ? Importance of Neurology, Community Burden of Neurology, Advocacy for Neurology
17. मरीज सहायता समूह का महत्व Importance of Patient support Group
18. न्यूरोलाॅजीकल बीमारियों के निदान में इतिवृत्त और शारीरिक जांच का महत्व Importance of history and physical examination in diagnosis of neurological diseases
19. न्यूरोसर्जरी का इतिहास History of Neuro-Surgery
20. मानसिक दुर्बलता Mental Retardation
21. सपने - विज्ञान की कसौटी पर Dreams - the scientific basis 22. डिसलेक्सिया ’कुपठन’ Dyslexia
23. लकवे का इलाज किसके पास है Who has the treatment for paralysis
24. दुर्घटनाऐं Accidents
25. एम.डी. मेडिसिन में प्रथम वर्ष के आर.एम.ओ को मार्गदर्शन Counsel for first year RMOs in M.D. Medicine Advocacy of Medical Education
26. चिकित्सा शिक्षा की पैरवी Clinical Drug Trials
27. ड्रग ट्रायल Limits to medicine - Ivan Iilich (Book Review) 28. चिकित्सा की सीमाऐं: इवान इलिच (पुस्तक समीक्षा)
29. कुछ मरीज कथाऐं । Few Patient Stories
भूमिका Introduction अधूरे सपने Unfulfilled Dreams परछाईयों से परे Beyond Shadows दुर्घटना के बहाने चिन्तन Musing by way of an accident
30 विशेषज्ञता के बहाने To be a speciailst or not to be ?
31 पुरूष पुरूष क्यों ? स्त्री स्त्री क्यों? Why He is HE ? Why She is SHE
32 हरा भरा रेगिस्तान - ‘सोनोरन’ - एक वनस्पतीय यात्रा A green desert - 'Sonoran' - A botanical tour
33 फिल्म समीक्षा ‘गजनी’ Film Gitique - 'Gajani'
34 मिर्गी: गलत यकीनों से परे Epilepsy - Beyond Myths
35 सिर की चोट Head injury
36 मूच्र्छा Syncope (Fainting)
37 चिकित्सा में समृद्धि Advances in Medicine
38 सफाई के साथ स्वयं नली डाल कर मूत्र निकालना Clean intermittent Self Catheterization 39 स्वास्थ्य शिक्षा पोस्टर्स श्रंखला: मिर्गी, सेरीब्रल पाल्सी, पक्षाघात, वाचाघात A series of posters on health Education (Epilepsy, Cerebral Palsy, Stroke, Aphasia)
40 न्यूरोलाॅजी और वाचाघात पर बुक मार्क्स का संग्रह A Collection of book marks on Neurology and Aphasia
41 मिर्गी पर हिन्दी में क्विज A quiz on Epilepsy in Hindi
42 वाचाघात पर हिन्दी में क्विज A quiz on Aphasia in Hindi
43 ट्रायजेमिलन न्यूरेल्जिया Trigeminal Neuralgia
44 मायोपेथी Myopathy
45 रीढ़: अधोलकवा Spine : Paraplegia
46 इलेक्ट्रोएन्सेफेलोग्राम: ई.ई.जी. Electroencephalogram : EEG
47 ई.एम.जी./एन.सी.वी. EMG - NCV
48 वाचाघात Aphasia
49 घर पर स्पीच थेरेपी - वाचाघात Home based speech therapy for Aphasia
50 सेरीब्रल पाल्सी ‘जन्मजात लकवा’ Cerebral Palsy
51 टेंशन टाईप हेडेक Tension Type Headache
52 माईग्रेन Migraine
53 राईटर्स क्रैम्प ऐंठन Writer's Cramp (occupational Cramp)
54 स्कूली छात्रों में मिर्गी और अध्यापकों की भूमिका Epilepsy in Schools and roles of Teachers
55 बुखारी दौरे Febrile Convulsions
56 विज्ञान के समर्थन में In support of Science
57 स्त्रीत्व का बायोलाॅजिकल सच The biological truth of feminism
58 एड्स के मनोवैज्ञानिक पहलू Psyco-social aspects of AIDS
59 मानव जीनोम परियोजना Human Genome Project
60 पत्र सम्पादक के नाम: मिर्गी उपचार पर भ्रामक विज्ञापन Letter to editor - Misleading advertisement about treatment of Epilepsy
61 प्राथमिक चिकित्सा First Aid
62 वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य Air pollution and Health
63 एल्जीमर्स रोग: नई महामारी Alzheimer's Disease : New Epidemic
64 रक्तचाप और पक्षाघात Hypertension and stroke
65 रक्तचाप: कुछ सावधानियाॅं Hypertension : some precautions
66 नकली दिल Artificial Heart
67 डाक्टर्स शहरों में ही क्यों रहना चाहते हैं ? Why doctors prefer to stay in cities.
68 डेंगू के बहाने वायरस की चर्चा Dengue and virus
69 एक डाक्टर की डायरी से: एम्स के अनुभव: इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी दंगों के दौरान From the diary of Doctor - Anti-Sikh riots as witnessed at AIIMS
70 आखिर अमिताभ बच्चन को हुआ क्या था ? After all what had happened to Amitabh Bachchan
71 जहां का दर्द हमारे जिगर में है About Liver
72 घर के पहले - मनोरोगियों के पुनर्वास में हाॅॅफ वे होम की भूमिका Role of half-way homes in rehabilitation of patients recovering from psychiatric illness
73 जलने के हैं पैमाने अलग-अलग About Burns
74 आधुनिक चिकित्सा पद्धति और भारतीय परम्पराओं में विरोधाभास Contradictions between modern medicines and Indian traditions
75 डाक्टर साहित्यकार Doctors as writers
76 अनिता की कहानी (मिर्गी पर एक टेलीफिल्म) Story of Anita : (A telefilm on epilepsy) 77 अपस्मार: मिर्गी पर पाठ्यपुस्तक (188 पृष्ठ) Apasmar : A Text book on Epileps (188 pages) 78 पार्किन्सोनिज्म: लघुपुस्तिका (60 पृष्ठ) Parkinsonism : A booklet (60 pages)
79 आडियो पाॅडकास्ट - लगभग 20 न्यूरोलाॅजिकल बीमारियों पर तथा मिथ्या विज्ञान पर Audio podcasts - about 20 neurological diseases and pseudoscience
80 वीडियो: वेबकास्ट लगभग 20 न्यूरोलाॅजिकल बीमारियो पर Video - webcast - About 20 neurological diseases

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

हिन्दी में विज्ञान पत्रकारिता 1.0 परिभाषाऐं 1.1 विज्ञान: विशिष्ट ज्ञान ज्ञान को प्राप्त करने, बढ़ाने, वृद्धि करने तथा पुष्टि करने की विशिष्ट विधियां, जिनकी शुरूआत किसी परिकल्पना या सिद्धान्त से हो सकती हैं और फिर प्रयोगों और अवलोकनों द्वारा निष्कर्ष निकाला जाता है। अनेक अवसरों पर अवलोकनों या डाटा से शुरूआत होती है और उसमें निहित पेटर्न्स द्वारा सिद्धान्त या परिकल्पनाओं का जन्म होता है। 1.2 पत्रकारिता: समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविजन या इन्टरनेट के लिये, सामयिक दृष्टि से तैयार किये गये, लिखे गये आलेख, समाचार, रिपोर्टस्, टिप्पणियां आदि। 1.3 विज्ञान पत्रकारिता और विज्ञान लेखन दोनों में थोड़ा भेद है तथा थोड़ी समानता भी है। 1.3.1 विज्ञान लेखन को दो श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं। वैज्ञानिकों द्वारा स्वयं वैज्ञानिकों के लिये लेखन जो उक्त विषय की शोध पत्रिकाओं ‘जर्नल्स’ में प्रकाशित होता है तथा जिसकी भाषा शैली गैर वैज्ञानिक या इतर वैज्ञानिक आम जनता के लिये दुरूह हो सकती है। शोध-लेख में प्रायः गैर वैज्ञानिक पत्रकार या लेखक द्वारा या फिर स्वयं वैज्ञानिक द्वारा रचा जाता है। 1.3.2 आम जनता के लिये विज्ञान लेखन जो किसी प्रयोगात्मक अध्ययन के परिणाम तथा उन पर आधारित बहस होती है। 1.4 सापेक्षता: विज्ञान पत्रकारिता और विज्ञान लेखन में सापेक्षता का भी भेद है। पत्रकारिता प्रायः समय (Topicality, Temporality) सापेक्ष, स्थान सापेक्ष (Locality) और व्यक्ति (Personality) सापेक्ष होती है जबकि गैर-पत्रकारिता लेखन इन प्रभावों में तुलनात्मक रूप से मुक्त होता है। 2.0 विज्ञान का महत्व किसी भी समाज, क्षेत्र, राज्य या राष्ट्र के लिये विज्ञान का महत्व असीम है। विज्ञान की शिक्षा, लोगों का वैज्ञानिक ज्ञान तथा आमजनों द्वारा वैज्ञानिक विधियों, प्रक्रियाओं और सोच या चिन्तन प्रणाली का आत्मसात किया जाना, किसी भी समुदाय की प्रगति, उन्नति और गुणवान बेहतन जीवन के लिये जरूरी है। मिथ्या विज्ञान और अंधविश्वासों से बहुत हानियां है। विज्ञान मनुष्य की तर्कवादी (Rationalist) प्रवृत्तियों को पोसता है तथा बौद्धिक स्तर को उंचा उठाता है। 2.1 मानविकी और विज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं। उनमें विरोधाभास नहीं है। दोनों की विधियां अलग है परन्तु अन्तिम उद्देश्य एक है - मनुष्य की स्थिति को बेहतर बनाना। दोनों धाराऐं मानव के सहज स्वभाव का हिस्सा हैं। अच्छी विज्ञान शिक्षा, बेहतर वैज्ञानिक ज्ञान और विज्ञान की विधियों को अपनी आदत बनाने वाला इन्सान और समाज, मानविकी के क्षेत्रों में भी बेहतर तरीके से योगदान देने की स्थिति में होता है। इसका विपरीत भी सत्य है। एक अच्छा वैज्ञानिक स्वयं को मानविकी के ज्ञान और अनुभूतियों से अछूता नहीं रख सकता। अर्थशास्त्र, नीति शास्त्र, साहित्य, कलाऐं, दर्शनशास्त्र, कानून, धर्म, राजनीति, समाजशास्त्र, प्रशासन आदि समस्त विषय विज्ञान की उपेक्षा नहीं कर सकते। 3.0 हिन्दी और भारतीय भाषाओं में विज्ञान लेखन और विज्ञान पत्रकारिता की स्थिति वर्तमान स्थिति दुःखद व निराशाजनक रूप से खराब है। मात्रा और गुणवत्ता दोनों का अभाव है। प्रदाता .लेखक व पत्रकार और गृहिता .पाठक, दर्शक दोनों का अभाव है। कलेवर (Content) की कमी है। भाषागत अघोसंरचना (Linguistic infrastructure) का विकास अवरूद्ध है। भारत में अंग्रेजी का अत्याधिक प्रभाव और महत्व इसका प्रमुख कारण है। अंग्रेजी भाषा से मेरा विरोध नहीं है। चाहे जो ऐतिहासिक कारण रहे हों, भारतीयों का अंग्रेजी ज्ञान एक लाभकारी गुण हो सकता है। मेरा विरोध अंग्रेजी माध्यम में स्कूली व महाविद्यालयीन शिक्षा से है, जिसकी वजह से नई पीढि़यां हिन्दी और भारतीय भाषाओं के वृहत शब्द संसार को खोती जा रही हैं । नई शब्द सम्पदा गढ़ने के अवसर खत्म हो रहे हैं। वैज्ञानिक विषयों की शब्दावली भी इस हानि का शिकार हो रही है। प्रश्न ‘कूप जल’ और ‘बहता नीर’ का नहीं है। हिंग्लिश की पिडगिन और क्रियोल रूपी खिचड़ी किसी का भला नहीं करती। न हिन्दी या अंग्रेजी भाषा का और न ही उन्हें उपयोग में लाने वाले व्यक्तियों का, जो न घर के रह जाते हैं, न घाट के। 3.1 मांग या प्रदाय में से कौन पहले ? अनेक सम्पादक व लेखक पत्रकार शिकायत करते हैं कि विज्ञान विषय पर मांग नहीं है। लोग कुछ और चीजें अधिक चाहते हैं । उन्हें चटपटा, मसालेदार माल चाहिये । राजनीति, क्रिकेट, बालीवुड, गपशप, अपराध आदि सारा स्थान और समय घेर लेते हैं। ऐसा सोेचना गलत है। लोगों में विज्ञान सम्बन्धी खबरों और विचारों को जानने की ललक है। उसे पोसने की जरूरत है। ठीक वैसे ही जैसे कि अच्छे फिल्मकार या निर्देशक और अभिनेता बेहतर कलात्मक फिल्में बनाकर, आमजनता को फूहड़ मसाला फिल्मों से परे विकल्प प्रदान करते हैं। वैसे ही पत्रकारों में से लगातार नई जमातें निकलना चाहिये जो ग्लेमर और पैसे से परे विज्ञान पत्रकारिता को अपनी विशेषज्ञता और पेशा बनाये। पत्रकारों को लीडर होना चाहिये- लोगों की वैज्ञानिक अभिरूचि और ज्ञान में श्रीवृद्धि करने वाले लीडर। विज्ञान पर वर्तमान कवरेज लगभग 3 प्रतिशत है जिसे 10 से 15 प्रतिशत तक होना चाहिये। 4.0 विज्ञान पत्रकारिता की उपयोगिता और स्वरूप सूचना देना। जानकारी देना। खबर देना। शिक्षित करना। ज्ञान बढ़ाना। किसी खबर या सूचना की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि बताना। किसी खोज या शोध प्रपत्र की कमियों और सीमाओं की विवेचना करना। मनोरंजन करना। पढ़ने में अच्छा लगना। मजा आना। अन्दर से खुश करना, आल्हादित करना। कभी-कभी दूसरे रसों की निवपत्ति भी हो सकती है जैसे कि भय, जुगुप्सा ‘वीभत्स’, आश्चर्य, करुणा, विषाद आदि। अन्ततः समस्त रस मन का रंजन ही करते है। बौद्धिक बहस में योगदान करना। दार्शनिक स्तर के प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने में मदद करना। नीति निर्धारण की प्रक्रिया में शरीक होना। 5.0 विज्ञान, विज्ञान के लिये या समाज के लिये ? यह ठीक वैसे ही है कि ‘कला कला के लिये या समाज के लिये ?’ क्या कला या विज्ञान सदैव सौद्देश्य ही होना चाहिये ? प्रायः दुहराए जाने वाले इस आव्हान का कितना महत्व कि विज्ञान को आम लोगों से तथा उनके देशकाल के सरोकारों से जुड़ना चाहिये ? बहुत सारी कलाएं और उससे कहीं अधिक विज्ञान, स्वयं के लिये होते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में रानी विक्टोरिया ने महान भौतिक शास्त्री माईकल फेराडे की एक विद्युतीय-मशीन को देख कर पूछा था ‘ इसका क्या उपयोग’ ? फेराडे ने कहा - ‘आपके पास में खड़ी इस महिला की गोद में लेटे इस शिशु की आज क्या उपयोगिता है ?’ बेसिक साईंसेस या आधारभूत विज्ञान की तात्कालिक व स्थानिक उपादेयता तथा प्रासंगिकता सदैव अगोचर व अनिश्चित रहेगी। विज्ञान में पूंजी, श्रम और समय का निवेश हमेशा एक बड़ा जुआ रहेगा। एक प्रकार का Venture capital Investment। परन्तु इतिहास गवाह है कि जिस राष्ट्र, राज्य या समाज ने विज्ञान में निवेश किया उसने सदैव प्रगति करी और आगे रहा। विज्ञान शोध और विज्ञान लेखन की तुलना में विज्ञान पत्रकारिता पर समय और स्थान सापेक्षता का बोझ कहीं अधिक होता है। 6.0 विज्ञान पत्रकारिता के कर्ता या प्रदाता 6.1 पत्रकार जिन्हें विज्ञान में रूचि और योग्यता है, की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण है। यह श्रम साध्य है। बहुत पढ़ना पड़ता है। वैज्ञानिकों से मिलकर बातचीत करनी होती है, साक्षात्कार लेने होते हैं। यह खोजी पत्रकारिता है। अपनी अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र चुन कर उसका विकास करना होता है। हरफन मौला होना अच्छा है, परन्तु उसकी सीमाऐं है। स्कूल-कालेज में यदि विज्ञान शिक्षा की पृष्ठि भूमि रही हो तो बेहतर होता है। गैर वैज्ञानिक पत्रकार जब कोई अच्छी स्टोरी विकसित करते हें तो उसे पढ़कर, देखकर, उक्त विषय के वैज्ञानिक भी चकित रह जाते हैं। परन्तु अनेक बार गलतियां हो जाती हैं, जिन्हें टालने के लिये पत्रकार को चाहिये कि आलेख को छपने के लिये भेजने के पूर्व किसी मित्र-वैज्ञानिक से जरूर पढ़वा लें। परन्तु अनेक बार समय नहीं रहता। पत्रकारों को टाइम-लाइन पर काम करना पड़ता है। 6.2 वैज्ञानिक स्वयं जिन्हें आम जनता की भाषा में लिखने बोलने में रूचि और योग्यता हो। ऐसे वैज्ञानिक बहुत कम हैं, पर हैं जरूर। उन्हें आगे आने की जरूरत है। अनेक हार्डकोर वैज्ञानिक, आम जनता के लिये लिखने के काम को तौहीन की नजर से देखते हैं। यह गलत है। एक अच्छा वैज्ञानिक अच्छा संदेश वाहक भी हो सकता है। एक पत्रकार का सोच वैज्ञानिक की तुलना में अधिक विहंगम या समग्र होगा जबकि वैज्ञानिक अपने स्वयं के विषय में निष्णात होने के कारण गहराई तक सोच पायेगा, समझ पायेगा। हालांकि वह इतर क्षेत्रों की व्यापक सोच से वंचित हो सकता है। 7.0 सूचना के स्रोत और प्रमाणिकता 7.1 प्राथमिक स्रोत। अंग्रेजी मुहावरा है ‘‘घोड़े के मुंह से’’। किसी वैज्ञानिक खोज के सन्दर्भ में उस शोध को करने वाला वैज्ञानिक या उनका दल प्राथमिक स्रोत कहलायेगा या फिर उनके द्वारा लिखित शोध पत्र। साईंटिफिक जर्नल्स में प्रकाशित किसी नये अध्ययन परा आधारित मौलिक लेख सबसे महत्वपूर्ण है और विश्वसनीय प्राथमिक स्रोत माने जाते हैं। अच्छे विज्ञान संवाददाता अनेक शोध पत्रिकाऐं नियमित रूप से पढ़ते हैं। प्रत्येक अंक में जरूरी नहीं है कि ‘‘खबर के लायक’’। कोई आलेख मिले। खूब पढ़ो, धैर्य रखो, पढ़ते रहो। तब कहीं कुछ मिलता है। उसकी स्टोरी और हेडलाईन बनाना एक दूसरी कला है। विज्ञान की किसी भी शाखा में कोई नई खोज या आविष्कार की सूचना सीधे-सीधे मीडिया में देने की मनाही है। शोध-आलेख साईंटिफिक जर्नल में प्रकाशित होने के बाद ही उससे सम्बन्धित समाचार मीडिया को जारी किया जा सकता है या पत्रकारवार्ता करी जा सकती है। यदि कोई वैज्ञानिक स्वयं प्रेस विज्ञप्ति देकर कोई दावा करे तो उसकी विश्वसनीयता नहीं मानी जा सकती, जब तक कि उस दावे की पुष्टि किसी शोध पत्रिका में न हुई हो। नया आलेख जिस विषय से सम्बन्धित हो उस क्षेत्र के दूसरे प्रतिष्ठित वरिष्ठ वैज्ञानिकों से भी साक्षात्कार द्वारा टिप्पणी प्राप्त करी जा सकती है ताकि नई खोज को सम्यक और समग्र सन्दर्भ और पृष्ठभूमि के साथ परखा जा सके। वैज्ञानिक संगठनों तथा शासकीय या अशासकीय संस्थानों द्वारा समय समय पर जारी करी जाने वाली रिपोर्ट्स व विज्ञप्तियां भी प्राथमिक स्रोत हैं। 7.2 द्वितीयक स्रोत - वैज्ञानिक व सामान्य पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले निबन्ध, टिप्पणियों, संपादकीय, रिव्यू लेख आदि अनेक प्राथमिक स्रोतों को आधार बना कर लिखी जाती हैं। विज्ञान की पाठ्य पुस्तकें व उनके विभिन्न अध्याय भी द्वितीयक स्रोत के उदाहरण हैं । विज्ञान के शिक्षक जो स्वयं शोध नहीं करते, परन्तु पढ़ते-पढ़ाते रहते हैं भी द्वितीयक स्रोत के उदाहरण हैं। 7.3 तृतीयक स्रोत - गैर वैज्ञानिक स्रोत जैसे कि सामान्य पत्रकार, आम नागरिक, प्रशासनिक अधिकारी आदि भी कभी-कभी वैज्ञानिक जानकारी प्रदान कर सकते हैं। परन्तु उनकी विश्वसनीयता सबसे कम होती है। उनके अवलोकनों और विचारों का हवाला, गैर-विशेषज्ञ गवाह के रूप में दिया जा सकता है । किसी खास बीमारी से ग्रस्त मरीजों के अनुभवों को मरीज कथा ‘क्लीनिकल टेल’ के रूप में लिखना उपयोगी है। इन्टरनेट पर अनेक प्रकार के अप्रमाणिक तृतीयक स्रोतों की भरमार हो गई है जो आम जनता को भ्रमित कर सकते हैं। विज्ञान पत्रकारिता में काम करने वालों को कुछ कसौटियों का ज्ञान और अनुभव होना चाहिये। ऐसे स्रोतों से बचना चाहिये जिनकी शैक्षणिक और अकादमिक योग्यता संदिग्ध हो, जो पूर्व घोषित ऐजेन्डा या लक्ष्य के लिये काम कर रहे हों, जो दावा करते हों कि अनेक तथाकथित शक्तिशाली ताकतें उनके व उनके काम के खिलाफ षड़यंत्र रचती हैं। असली और सच्चे वैज्ञानिक किसी षड़यंत्र का शिकार होने का बहाना नहीं बनाते। विज्ञान सत्य है। सत्य छिपाये नहीं छिपता। 8.0 विज्ञान पत्रकारिता की भाषा का स्तर और शैली। भाषा सरल हो। परन्तु जरूरत से अधिक सरल नहीं। कुछ तो स्तर बना कर रखना पड़ेगा। कक्षा दसवीं से बारहवीं तक के छात्र कुछ प्रयत्न के साथ उक्त आलेख को पढ़ें, समझें और आनन्द लें, ऐसा स्तर उचित माना जाता है। हिन्दी और भारतीय भाषाओं में विज्ञान लेखन प्रायः अंग्रेजी स्रोतों से अनुवादित हो कर आता है। अनुवाद की अपनी सीमाऐं हैं। अच्छा विज्ञान पत्रकार तीन क्षेत्रों में महारथ धारण करने वाला होना चाहिये - 1. अंगे्रजी भाषा 2. हिन्दी भाषा. 3. विज्ञान का उक्त सम्बन्धित विषय जिस पर रिपोर्टिंग करना है। शब्दानुवाद कृत्रिम और दुरूह होता है। भाषा में प्रंाजलता और बहाव की कमी हो जाती है। पत्रकार को चाहिये कि एक से अधिक प्राथमिक और द्वितीयक स्रोतों के लेख ;अंग्रेजीद्ध मनोयोग से पढ़ें, उनके बारे में मन से सोचें, विचारें फिर कल्पना करें कि उस जानकारी को बोलचाल की सरल हिन्दी में कैसे कहा जायेगा। हिन्दी में पारिभाषिक शब्दालियां हैं परन्तु वे शब्द चलन में न होने से कभी-कभी अटपटे या कठिन प्रतीत होते हैं। ऐसे शब्दों का आरम्भिक उपयोग करते समय उनकी सरल परिभाषा और अंग्रेजी पर्यायवाची .रोमन व देवनागरी दोनेां लिपियों में देना ठीक रहता है। हिन्दी अंग्रेजी पर्यायवाची युग्मों का उलटपुलट कर उपयोग करना चाहिये ताकि हिन्दी शब्दों का चलन बढ़े । डिस्कवरी और नेश्नल जियोग्राफिक जैसे चेनल्स पर वैज्ञानिक डाक्यूमेन्टरीज का हिन्दी डबिंग एक अच्छा उदाहरण है। 9.0 विवादास्पद विषयों में सम्यकता और सन्तुलन पत्रकारिता के किसी भी क्षेत्र से अपेक्षा करी जाती है कि व्यक्तियों, संस्थानों या विचारों मे विरोध की स्थिति में सम्यकता, सन्तुलन और समग्रता बनाई रखी जावेगी। हमेशा फिफ्टी फिफ्टी होना जरूरी नहीं है परन्तु समस्त पक्षों को उचित महत्व मिलना चाहिये। उचित की परिभाषा और कसौटियाॅं स्वयं विवादित हो सकती हैं। उदाहरण के लिये धार्मिक कारणों से अमेरिका जैसे आधुनिक प्रतीत होने वाले देश में लगभग आधी आबादी डार्विन के जैव विकास इवाल्यूशन सिद्धांत के बजाय बाईबिल में वर्णित जिनेसिस की कथा पर विश्वास करती है। सारे बायोलाॅजिस्ट्स जीव वैज्ञानिक डार्विन के सिद्धांत को मानते हैं। इस प्रकार की बहस में सन्तुलन के नाम पर धार्मिक अन्धविश्वास को बराबर का महत्व नहीं दिया जा सकता। जलवायु परिवर्तन ग्लोबल वार्मिंग के सन्दर्भ में अधिकांश वैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य के कार्यकलापों के कारण कार्बनडाईआक्साईड जैसे ग्रीन हाउस गैस की मात्रा बढ़ने में वायुमंडल गर्म हो रहा है। कुछ वैज्ञानिक इस परिवर्तन के सम्भावित नुकसानों और उनसे निपटने के तौर-तरीकों को लेकर दूसरे विचार रखते हैं। अच्छी पत्रकारिता का तकाजा है कि उनकी बात भी सुनी जावे, बशर्ते वह तथ्यों और तर्कों पर आधारित हो न कि अन्धविश्वासों पर । 10.0 हिन्दी में विज्ञान पत्रकारिता की मात्रा और गुणवत्ता बढ़ाने के लिये कार्य-योजनाऐं मांग और पूर्ति दोनों पक्षों पर काम करने की जरूरत है। 10.1 मांग कैसे बढ़ाऐं ? मांग है पर छिपी हुई है। भूख है पर दबी हुई है। इच्छा है पर पल्लवित नहीं हुई है। सम्पादकों को गलत फहमी है कि क्या बिकता है और क्या नहीं । उन्हें पहल करना पड़ेगी। विज्ञान पत्रकारिता का कलेवर नियमित रूप से अधिक मात्रा में पेश करना पड़ेगा। स्वाद धीरे-धीरे विकसित होते हैं। रूचियां धीरे-धीरे जाग्रत होती है। शुरूआत करना पड़ेगी। हिम्मत करना पड़ेगी। थोड़ी सी जोखिम लेना होगी। पाठकों को भागीदारी के लिये आमंत्रित करिये। प्रतियोगिता और इनाम रखिये। पाठकों और श्रोताओं का सतत् सर्वेक्षण करवाते रहिये। फीडबेक .प्रतिपुष्टि कितनी पढ़ी गई, कितनी सराही गई। वैज्ञानिक खबरों को सनसनी खेज, रोचक, मसालेदार बनाना प्रायः मुश्किल होता है। जबरदस्ती करना गलत होता है । फिर भी उन रिपोर्ट्स की पृष्ठभूमि का महत्व होता है। उसक उल्लेख किया जा सकता है। भविष्य की संभावनाओं की चर्चा करी जा सकती है। 10.2 पूर्ति कैसे बढाऐं ? अनेक कोर्सेस उपलब्ध हैं परन्तु उनकी संख्या और गुणवत्ता पर बहुत काम करना है। विज्ञान पत्रकारिता के क्षेत्र की मूर्धन्य हस्तियों को इन संस्थानों से जोड़े जाने की जरूरत है। वैज्ञानिकों को इन कोर्सेस से आज तक अछूता रखा गया है। स्वयं मुझे आज तक मौका नहीं मिला जबकि मेरे जैसे अनेक वैज्ञानिक विजिटिंग टीचर्स के रूप में अपनी सेवाऐं देना चाहते हैं। श्रेष्ठ विज्ञान पत्रकारिता के लिये अधिक संख्या में, अधिक मूल्य और प्रतिष्ठा के पुरस्कारों की वार्षिक परम्परा विकसित करने की जरूरत है। क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर वार्षिक व अन्य कालिक सम्मेलन, वर्कशाप, प्रतियोगिता आदि का आयोजन हो, उनका प्रचार प्रसार हो तथा उनमें भागीदारी बढ़े।

सोमवार, 20 जनवरी 2014

धर्मनिरपेक्षता

देश की स्वतंत्रता की शुरुआत में ही धर्मनिरपेक्षता पर करारा प्रहार हुआ। अनेक सदियों में विभिन्न धर्मावलम्बी एक साझी धरोहर के साथ रहते आ रहे थे। पर धर्म के आधार पर दो टुकड़े हुए। कहने को हमारे नेताओ ने इस विभाजन का झूठमूठ विरोध भी किया परन्तु सत्ता के लालच में उसे जल्दी ही स्वीकार कर के धर्म आधारित राजनीति के बीज बो दिये। आजादी के पचास सालों में हमें सच्ची धर्मनिरपेक्षता नहीं मिली। हम धर्म निरपेक्षता का सही अर्थ समझ नहीं पाए। जो व्यवहार में आया उसमें झूठ, धोखेबाजी, दिखावा व झांसा अधिक था। सच्चे धर्मनिरपेक्ष आचरण की कसौटी पर सब असफल निकले हमारी शासन व्यवस्था, हमारे राजनेता और हम में से अनेक नागरिक। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ होता है सर्वधर्म समभाव अर्थात सभी धर्मों का उसके मानने वालों के प्रति समान भाव, समान कानून। कहने को हमारे संविधान में ऐसी व्यवथा है। परन्तु व्यवहार में अनेक अपवाद नहीं हैं। कुछ कम्यूनिस्ट देशों में धर्म को जनता की अफीम कह कर उस पर भारी पाबंदियां लगार्इ गर्इ। हमारे यहां इतनी अति तो न हुर्इ परन्तु कभी-कभी अति उत्साह में देश की प्राचीन सांस्कृतिक परम्पराओं को नकारने की कोशिश की गर्इ। हिन्दी वर्णमाला में कभी ग गणेश का पढ़ाते थे। कुछ गलत न था। गणेश देवता न सही इस राष्ट्र के सांस्कृतिक प्रतीकों में से एक थे। उन्हें हटा कर ग गधे का पढ़ाने लगे। वन्दे मातरम जैसे गीतों को दबाने की कोशिश करी गर्इ। मां को सलाम करने से मूर्ति पूजा तो हो नही जाती, परन्तु कुछ कठमुल्ला लोगों के तुष्टीकरण के लिये ऐसा किया गया। ए.आर. रहमान जैसे सच्चे राष्ट्रवादी धर्मनिरपेक्ष कम निकले, देर से निकले। परिवार नियोजन के पोस्टर्स में महिला के चेहरे से बिन्दी हटा दी गर्इ, जबकि वह भारतीयता की पहचान है। हम समान नागरिक संहिता कामन सिविल कोड नहीं लागू कर पाए। महिलाओं के अधिकारों का धार्मिक आधार पर हनन होता रहा। एक शाहबानों सुप्रीम कोर्ट में जीती तो, संसद से संविधान संशोधन द्वारा कानून बदलवा दिया। यह सब क्यों हुआ ? वोटों की राजनीति के खातिर। एक धर्म विशेष के लोग चूंकि भेड़चाल जैसे थोक बन्द वोट देते थे, उन्हें हांकने के लिये राजनेताओं में होड़ लगी रही। फिर हम कैसे मान लें कि हमें सच्ची धर्मनिरपेक्षता मिली। जम्मू कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है। परन्तु उसे विशेष दर्जा देकर धर्म निरपेक्षता पर कुठाराघात किया गया । क्यों ? सिर्फ इसलिये कि वहां एक धर्म विशेष के लोगों का बहुमत है। देश के दूसरे भागों से वहां लोगों को बसने पर पाबन्दी लगार्इ गर्इ। खुल्लम खुल्ला धर्म के आधार पर राजनैतिक पार्टियां बनाने की छूट दी गर्इ। केरल, पंजाब, कुछ उत्तरपूर्वी राज्यों में इन दलों का पर्याप्त प्रभाव रहा। राष्ट्रीय स्तर की धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाली पार्टियों ने इन दलों के साथ समय-समय पर समझौते किये, सत्ता में भागीदारी करी। क्या यह धर्मनिरपेक्षता का हनन न था ? एक धर्मविशेष के लोगों के तुष्टीकरण की राजनीति कर के फूले न समाने वाले नेता, जाति के आधार पर राजनीति गलत नहीं मानते। यदि धर्म के आधार पर कानून, वोट, नौकरी आदि गलत हैं तो जाति के आधार पर सही कैसे हो सकते हैं। हमारे देश में सच्ची धर्मनिरपेक्षता तब तक नहीं मानी जा सकती जब तक नेता, धर्म, जाति पंथ, सम्प्रदाय के नाम पर वोट मांगते रहेंगेे और भोलीभाली अशिक्षित या अर्धशिक्षित जनता उनके बरगलाने में आती रहेगी। कोई बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता को कोसता है तो कोई अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता को जबकि दोनों ही खराब हैं।