सोमवार, 10 जनवरी 2011

एक जिन्दगी, हजार ख्वाहिशें

एक जिन्दगी, हजार ख्वाहिशें -
खूब सारा पर्यटन - देश विदेश, भूगोल, इतिहास, संस्कृति, भाषा, भोजन, लोग खूब सारा लेखन - यात्रा वृत्तांत - ट्रेवलॉग
- पडताल पुरखों की वंशवृक्ष - कैसे थे वे लोग ? प्रेरणा - हरिवंशराय बधन - क्या भूलूं क्या याद करूं ।
- तारामण्डल की पहचान और खोज। अच्छी दूरबीन । कम्प्यूटर साफ्टवेयर। घनी काली रातें।
- शौकिया फोटोग्राफी,ढेर सारे एलबम लघु टिप्पणियाँ

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

भारतीय फिल्मों तथा मीडिया में मिर्गी रोग का चित्रण।

प्रिय मित्रों,
मुझे एक लेख व भाषण तैयार करने में आपकी मदद की आवश्यकता है। विषय है - भारतीय फिल्मों तथा मीडिया में मिर्गी रोग का चित्रण। मिर्गी से पीडित व्यक्तियों के लिये बीमारी से अधिक दुखदायी है इस अवस्था के प्रति आम लोगों का रवैया - अज्ञान, अंधविश्वास, पूर्वाग्रह और मिथ्या धारणाओं के चलते मिलते हैं - उपेक्षा, भेदभाव, लांछन, लानत, दुत्कार और अकेलापन। ये हालात बदलना चाहिये। बदल तो रहे हैं परन्तु बहुत धीरे। कृपया याद कीजिये। भारतीय फिल्मों, साहित्य, कला, रंगमंच, सीरियल्स आदि में मिर्गी का किसी भी रूप में उल्लेख हुआ हो तो बताईये।

सहायता चाहिए

Can any body tell me - is it possible to tweet in Hindi/ devnagri/ on Unicode

Books Read

‘The tell-tale brain : unlocking the mystry of human nature’ by V.S. Ramchandran
‘ The Mind’s Eye’ by Dr. Oliver Sacks

My Passions & missions

1. Hindi : writing and teaching in Hindi, creating new content in Hindi on medical science and neurology.
2. Neurology education at MBBS & MD level, for internists, physicians, general practitioners.
3. Public health education and patient education in Hindi in relation to neurological diseases – through various mediums – print and electronic
4. Creating a national network of strong and active patient support groups for various common and rare neurological diseases in as many cities.
5. Research in Aphasia (in Hindi) : a disorder of language and communication due to brain diseases.
6. Creating print and electronic Hindi content for diagnostics and therapy of patients with Aphasia & children with dyslexia
7. Research in developmental dyslexia in Hindi, a common condition (5-10%) in young children with learning disability in reading and writing despite normal intelligence.
8. Propagating messages about atheism, rationalism, scientific temperament and debunking of superstitions.

पतंग को काटो पर ऊंगलियों को नहीं

पतंग दुनिया के बहुत से देशों में उडाई जाती है परन्तु लडाका पतंग (फाइटर काइट्‌स) केवल भारत और अपने उपमहाद्वीप के पडोसी देशों जैसे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका में लोकप्रिय है। दो पतंगों के पेंच की लडाई में दूसरी पतंग की डोर को काट कर गिराने के खेल का आनन्द और रोमांच उसमें भाग लेने वाले ही महसूस कर सकते हैं । अजीब सा जुनून है। मकरसंक्रांति (उत्तरायण) के अनेक दिन पहले से तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। खास दिन पर, आकाश रंगबिरंगी, नाचती, झूमती, डोलती, लहराती, इठलाती पतंगों से सज जाता है। सडकें सूनी हैं क्योंकि लोग छतों या मैदानों में जमा हैं।
पेंच की लडाई मं कई हुनर होते हैं। पतंग का संतुलित होना। पतंगबाज का अनुभवी होना। दूसरे की डोर काटने के लिये खुद की पतंग को खूब तेजी से अपनी ओर खींचते जाना या बहुत तेजी से ठील देते जाना। और साथ में झटके या उचके देना। डोर को फुर्ती से लपेटने वाले तथा जरुरत पडने पर निर्बाध रूप से छोडते जाने वाले असिस्टेंट की भूमिका भी खास बन पडती है। जैसे ही एक डोर कटती है, उसे थामने वाले हाथों को मालूम पड जाता है - तनाव की जगह ढीलापन । उसकी -कटी पतंग- निस्सहाय सी जमीन की दिशा में डूबने लगती है। चेहरा उतर जाता है। जीतने वाले समूह की चीखें आकाश गूंजा देती हैं - वह काटा- वह काटा।
इस लडाई में धागा/डोर का बहुत महत्व है। सूत का यह धागा न केवल मजबूत होना चाहिये बल्कि उसकी सतह के खुरदरे पन से दूसरे धागे को काटने की पैनी क्षमता होनी चाहिये। इस खास धागे को मांजा कहते हैं।
इसे बनाने का तरीका मेहनत भरा और खतरनाक है। एक खास किस्म की लोई तैयार करते हैं जिसमें चावल का आटा, आलू, पिसा हुआ बारीक कांच का बुरादा और रंग मिला रहता है। मजदूर इस लुग्दी को हाथों में रखकर, दो खम्बों के बीच बांधे गये सूत के सफेद धागों पर उक्त लोई की अनेक परत चढाते हैं। अहमदाबाद में उत्तरायण के कुछ सप्ताह पूर्व से सडक किनारे, फुटपाथों पर ऐसे सफेद और रंगीन धागों की अनेक पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं। उत्तर प्रदेश व बिहार से अनेक गरीब श्रमिक इसमें जुते रहते हैं। उनके हाथ व ऊंगलियाँ कांच लगे कंटीले, खुरदुरे मांजे को लीपते पोतते, सहेजते, लपेटते, जगह-जगह से कट जाते हैं। छिल जाते हैं, बिंध जाते हैं, लहुलुहान हो जाते हैं। वे हाथ पर पट्टियाँ बांधते हैं, धागे लपेटते हैं। उनके चेहरे से पीडा टपकती है फिर भी मजबूरीवश करे जाते हैं। पारिश्रमिक कम ही मिलता है। पूरा परिवार वहीं सडक किनारे दिन गुजारता है।
पिछले कुछ वर्षों से कुछ शहरों में पतंगबाजी के खेल में मांजा के उपयोग को बंद करने की मुहिम शुरू हुई है, परन्तु उसका असर अभी क्षीण है। यह आवाज इसलिये उठी है कि आसानी से न दिखाई पडने वाले मांजे की चपेट में अनेक सडक चलते राहगीर व आकाश में विचरते पक्षी आ जाते हैं। निःसन्देह यह अपने आप में एक पर्याप्त कारण है। परन्तु इससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है उन गरीब श्रमिकों के घावों की पीडा और व्यथा, जो लोगों को चंद घन्टों के जुनून और वहशीखुशी को पोसने के लिये भला क्यों सही जाना चाहिये ? दुनिया के दूसरे देशों में पतंगबाजी का आनंद एक शान्त, कलात्मक, सुन्दर हुनर के रूप में उठाया जाता है। वही क्यों न हो ? और फिर पेंच की लडाई सादे धागे से भी तो हो सकती है। उसमें ज्यादा कौशल लगेगा और अधिक देर मजा आयेगा।