गुरुवार, 27 दिसंबर 2012
चिकित्सा में समृद्धि
किसी व्यक्ति, परिवार समूह या राष्ट्र की श्री सम्पदा में उतार चड़ाव प्रायः सभी पहलुओ को एक साथ या समानान्तर रूप से प्रभावित करते हैं। भौतिक शैक्षणिक, बौधिक , स्वास्थ्य सम्बन्धी, खेलकूद, मनोरंजन आदि सभी क्षेत्र अक्सर एक साथ सुधारते या बिगड़ते हैं। हालाँकि कुछ अपवाद हो सकते हैं, जैसे की केरल, क्यूबा या श्रीलंका आर्थिक पायदान में भले ही नीचे हो, पर स्वास्थ्य सूचकांको के मामलों में वे समृध हैं। वहीँ दुनिया का सबसे धनी और ताकतवर मने जाने वावले देश अमेरिका में करोड़ों लॊग प्राथमिक स्वस्थ्य सेवाओं से वंचित हैं।
.....................................................................................
...................... पिछले कुछ दशकों में चिकित्सा क्षेत्र में भारतीय सम्पदा में श्श्रीवृद्धि हुई है। औसत आयु बढ़ी है . शिशु मृत्युदर, माता मृत्युदर, पोषणता आदि सूचकांकों में सुधार हुआ है। अनेक संक्रामक रोगों की दर कम हुई हैं। चेचक के बाद अब पोलियो भी उन्मूलन के कगार पर है। अस्पतालों, चिकित्सकों और स्वास्थ्यकर्मियों की न केवल कुल संख्या बल्कि जनसंख्या से उनके अनुपात में भी बढ़ोतरी हुई है। सुदूर ग्रामीण अंचलों तक प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं में संख्यात्मक और गुणात्मक सुधार हुआ है। चिकित्सा महाविद्यालयों और अन्य शैक्षणिक संस्थाओं से प्रशिक्षण और डिग्री प्राप्त करने वाले डाक्टर्स तथा दूसरे स्वास्थ्यकर्मियों की वार्षिक संख्या में इजाफा होने से जनसंख्या की तुलना में उनका अनुपात सुधरने की संभावना बढ़ी है। विकसित देशों में उपलब्ध नवीन औषधियॉं और तकनीकी अब भारत में लगभग उसी समय या कम विलम्ब से उपलब्ध हो जाती हैं, जबकि आज से 4 दशक पूर्व यह अंतराल बहुत लम्बा हुआ करता था। एक चिकित्सा छात्र के रूप में 1970 के दशक में मैं जो बातें मेडिकल टेक्स्ट बुक्स में पढ़ता था, वे अनेक सालों बाद मुझे देखने को मिलती थीं। आज के छात्रों के साथ ऐसा अब कम ही होता है। अच्छे स्तर का इलाज कम खर्च पर उपलब्ध होने से मेडिकल टूरिज्म बढ़ा है।
.....................................................................................
...................... अंतरराष्ट्रीय शेध में भारत की भागीदारी बढ़ी है। अनेक उच्च कोटि की नवीन औषधियों के विकास हेतु अध्ययन/परीक्षण/ट्रायल अब भारत में इतनी गुणवत्ता के साथ होने लगे हैं कि यहां से प्राप्त डाटा की विश्वसनीयता के आधार पर योरप, अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया आदि राष्ट्रों के औषधि संचालक, नवीन दवाईयों को मान्यता देने लग गए हैं। अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में भारतीय लेखकों के शोध प्रपत्रों की संख्या बढ़ी है, परंतु चीन जो पहले हमसे पीछे था, अभी आगे निकल गया है। अनेक भारतीय शोध पत्रिकाओं को पब—मेड जैसी मानक संस्थाओं द्वारा मान्य किया गया है। लेकिन अधिकांश भारतीय शोध दोयम दर्जे का तथा पुनरावृत्ति या पुष्टिकरण की शैली का है, न कि नया, मौलिक या परिवर्तनकारी।
आम लोगों की औसत आयु व क्रय शक्ति बढ़ने से अब लोग स्वास्थ्य पर अधिक खर्च करने लग गए हैं। जब सीटी स्कैन, एम.आर.आई. जैसी महंगी जांचें निजी क्षेत्र में पहली बार शुरू हुई थीं तो शक होता था कि भला कितने लोग इन्हें करा पाएंगे। परंतु देखते ही देखते हजारों—लाखों लोग इन्हें कराने लगे। सैंकड़ों नए केंद्र खुलते गए। दु:ख की बात है कि सार्वजनिक क्षेत्र की लीडरशिप स्वास्थ्य सेवाओं में पिछड़ गई। निजि क्षेत्र में इलाज करवाना स्टेटस सिम्बल/प्रतिष्ठा सूचक माना जाने लगा।
1978 में महात्मा गांधी स्मृति चिकित्सा महाविद्यालय,इन्दौर और उसकी पूर्ववर्ती संस्था किंग एडवर्ड मेडिकल स्कूल के शताब्दी समारोह में तत्कालीन राष्ट्रपति श्री नीलम संजीव रेड्डी, मुख्य अतिथि के रूप में आए थे। उन्होंने तब एक मार्के के बात कही थी — 'स्वास्थ्य सेवाओं से मेरा अच्छा परिचय है। मैं आंध्रप्रदेश का मुख्यमंत्री बना था। मंत्रिमंडल के सदस्यों के विभागों का बंटवारा हो रहा था। सब लोगों से उनकी राय और रूचि के अनुसार आवंटन होता गया। अंत में स्वास्थ्य विभाग बचा रहा, जिसे मैंने अतिरिक्त प्रभार के रूप में संभाला।'
उक्त वाकया क्या इंगित करता था ? राजनीतिज्ञों के लिये स्वास्थ्य विभाग प्रिय नहीं था। क्यों? क्योंकि उसमें बजट कम रहता था, कमाई कम रहती थी। आज स्थितियां बदली हैं। योजनाकारों और नीति—निर्माताओं ने अधोसंरचना के विकास के मूलाधारों के रूप में शिक्षा और चिकित्सा के महत्व को, देर से ही सही, पर दुरूस्ती के रूप में सराहा है। 11वीं पंचवर्षीय योजना में जिस तरह शिक्षा को प्राथमिकता दी गई, 12वीं योजना में वैसा ही स्वास्थ्य के साथ किया जा रहा है। आज भी सकल राष्ट्रीय आय का बहुत छोटा प्रतिशत शासन द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता है। निजी क्षेत्र की भूमिका अलग है पर उनकी सेवाएं, गरीबों की पहुंच से बाहर हैं या प्रतिवर्ष लाखों निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों को कर्ज में डुबोकर, गरीबी की रेखा के नीचे उतार देती है। स्वास्थ्य में समृद्धि की पहली शर्त सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश है न कि महंगे पांच सितारा अस्पताल। उम्मीद है कि आगामी वर्षों में यह प्रतिशत अन्य प्रगतिशील, विकसित व विकासवान देशों के समकक्ष हो जाएगा।
अनेक विचारवान लोगों के मन में प्रश्न उठता रहता है कि स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में दिखाई पढ़ने वाली समृद्धि महज भौतिक है, दिखावे की है। सही समृद्धि वह होगी जो लोगों के दिलों को छुए, आश्वस्त करे, दिलासा दे, भरोसा या विश्वास बनाए रखे। असली समृद्धि उंचे चमचमाते भवनों में नहीं बल्कि डॉक्टर और मरीज के आस्था भरे संबंधों में परिलक्षित होती है। क्या हम भौतिक प्रगति की कीमत पर, आत्मिक अवगति की दिशा में अग्रसर हैं? मैं नहीं जानता कि सच क्या है। मेरी आशावादी सोच कहती है कि षडयंत्रों तथा बुरे का अंदेशा मानव की सहज मनोवृत्ति है, जो अनादिकाल से चली आ रही है। पहले सब अच्छा था। अब सब खराब होता जा रहा है, ऐसा प्रत्येक पीढ़ी सोचती रहती है। जबकि इतिहास गवाह है कि समाज कभी गर्त में नहीं जाता। छोटे—मोटे स्थानीय उतार चढ़ाव चलते रहते हैं परंतु मानवजाति की मूल और सहज प्रवृत्ति और नियति, निरंतर विकास और बेहतरी में ही रही है और आगे भी रहेगी।
सच है कि आज भी करोड़ों बीमारों को सही इलाज नहीं मिल पाता है, परंतु प्रश्न यह है कि गिलास आधा भरा है या आधा खाली? हममे से अनेक लोग 1950 से 1990 तक के लाइसेंस कोटा परमिट राज व 2.5 प्रतिश्त की हिन्दू प्रगति दर के जमाने के प्रति न जाने क्यों आज भी नोस्टॉल्जिक महसूस करते हैं जबकि आंकड़े व जमीनी सच्चाई जोर—जोर से कहते हैं कि 1990 के बाद के दो दशकों में अन्य क्षेत्रों के साथ—साथ, स्वास्थ्य में समृद्धि आई है।
पुराने जमाने में अधिकतर लोग गरीब थे, अत: असमानता कम थी। अपवर्ड मोबिलिटी के इस युग में ऐसा प्रतीत होता है कि गैर बराबरी बढ़ रही है। यह अपनी—अपनी विचारधारा का चयन है कि समृद्धि और समानता के बीच श्रेष्ठतम संतुलन का स्वर कैसे तथा किन पैमानों द्वारा ढूंढा जाए?
मंगलवार, 24 अप्रैल 2012
Allegations and truths about Clinical Drug Trials at Indore
Allegations and truths about Clinical Drug Trials at Indore –
1. Allegation-1 : The doctors did illegal trials
Truth – All trials at Indore have been legal, as they were approved by Drug Controller General of India and other countries and Ethics Committees, not only at MGM Medical College, Indore but also all other participating centers.
2. Allegation-2 :- The doctors did the trials secretly, clandestinely, without informing government.
Truth – All trials at M.Y. Hospital were done with full knowledge, permission and participation of the Dean or Superintendent of the hospital. In addition, various administrative councils of the autonomous medical college (academic, executive, general) were also privy of the fact of ongoing trials as supported by many documents including signatures on tripartite trial agreements by Deans and Superintendent. There was no rule about need to inform government.
3. Allegation-3 : The doctors did the trials without proper informed consents from patients or caregivers.
Truth – All subjects were properly explained and informed about their participation in trials. Informed consent forms have been dully filled and signed, the process of obtaining Informed consent has been duly documented. The subjects kept coming for all followup visits without any complaints. Drop outs or discontinuation rates were within internationally observed range. The monitoring and auditing teams from sponsors kept a close watch on all proceedings in a uniform standard manner at all centers all over India and other country including ours.
4. Allegation-4 - The Ethics committee at M.G.M. was not properly constituted and violated ICMR guidelines and code of good clinical practice.
Truth –The Ethics committee was properly constituted and functioning as per the guidelines. It had eminent nonmedical members like (retired) High Court Justice Mr. P.D. Muley, Gandhian social worker Padmshri Govindan Kutti Menon, Journalist Jayantilal Bhandari, Advocate Yogesh Mittal, The objection to EC members themselves, sometimes being Principal Investigators is not tenable as per the guidelines and practices as all over the country.
5. Allegation-5 - The doctors have earned crores of rupees.
Truth – It is true that as principal investigator we received trial budget into our personal accounts. The medical teachers in M.P. are permitted private practice. The Dean/Superintendent and various administrative councils who were aware of this fact, did not forbid us from doing so. Various figures ranging from 10 Lac to 1.5 Crores are doing rounds in the media. These are gross receipts, the majority of which is spent in the conduct of trial. The residual income was duly accounted in the audited returns for Income Tax. The minister of Medical Education Mr. Mahendra Hardia declared on the floor of Vidhansabha that this is a legitimate, taxable, professional income for the doctors7. The Economic Offence Wing of police, after a very detailed and thorough enquiry exonerated us by saying that there is no evidence for any economic crime.8
6. Allegation-6 - So many deaths (and serious adverse events) have occurred but subjects were not paid any compensation.
Truth – A figure of 81 death is repeated ad infinitum in the media, glossing or fudging over the truth that there were ………. Deaths and ……. Serious adverse events. (………….+……………. = 81). None of the deaths and SAEs were due to or related to the participation of the subjects in the trial as supported by a report of the adjudication committee constituted by Ethics Committee 9 and also stated by Mr. Shivraj Singh Chouhan, Chief Minister in M.P. Vidhansabha 10. Hence there was no valid claim for compensation by any patient or survivors of deceased subjects
7. Allegation-7 - The doctors pocketed all the money and did not pay anything to the patients.
Truth – As per ICMR guidelines, no inducement money can be given. Only the travel expenses and per diem honorarium can be paid.
8. Allegation-8 - The doctors travelled to foreign Junkets on the expense of drug companies
Truth –The Principal Investigators all over the world, including India, travel to attend Investigators Meeting at locations which are logistically suitable for the sponsors. These meetings are serious business and mandatory, without which principal investigators and his team members cannot be trained for proper conduct of that given trial.
9. Allegation-9 - The doctors violated MCI code of conducts.
Truth – None of us violated any code of conduct by MCI, before or after the date, they were supposed to come in force in April 2009.
The code does not prohibit doctors from collaborating with pharmaceutical companies in the capacities of Principal Investigators, consultant etc. 11
10. Allegation-10 - The doctors are hiding lot of information when sought for through RTI, Vidhansabha questions, police and other investigating agencies
Truth – We have fully cooperated with all investigating agencies and RTI querreis baring a few legal exemptions – which are supposed to be confidential12 because of (a) confidentiality agreement between sponsoring company and principal investigator as per patent protection and business practices. (b) Fiduciary relationship between patient and doctors, according to which every subject has a fundamental right to privacy and particulars of his/her medical condition and demographics can not be disclosed.
The sole ulterior motive of our detractors has been to reach out to as many of the subjects, misguide and misinform them, lure them and persuade them to lodge complaints.
As a result of a high decibel sustained propaganda and numerous home visits, the mischief mongers have been able to persuade 3-4 families (out of 2000) to lodge complaints against principal investigators
11. Allegation-11 – One Mr. Sharad Gite has complained against Dr. Apoorva Pauranik that his wife Mrs. Sheela Gite died due to participation in a trial about which they did not know
Truth – Mrs. Sheela Gite, 70 yrs-Female was suffering from Alzheimer’s disease, since two years prior to inclusion in a study using Donepezil which is already available in market for 10 years. The couple came for 11 follow up visits over 1 ½ yrs and did not complaint while signing on all papers on more than one occasion after having been explained all aspect of study. The last scheduled visit was in January 2010. There after she did not report. I learnt about her death, 10 months later in October 2010 through newspaper when her gullible, innocent husband was misguided to lodge a complaint seeking compensation for the death of his wife. 13 Mr. Sharad Gite was made to believe by Dr. Anand Rai (who wrote the letter in his own handwriting on behalf of Mr. Gite) that he will get hundreds of thousands of dollars in bargain.
12. Allegation-12 – The EOW has indicated us of many wrong doings.
Truth –The EOW did exonerate us from any Economic Crime which is their sole domain. But the investigating agency, out of over enthusiasm, possible prejuicide and naiveté went beyond the mandate and area of expertise and made a few critical remarks about minor administrative and procedural issues which have been blow out of proportion by media. We have responded to all the comments in a thread-bare manner14 and Government of Madhya Pradesh has apparently accepted our explanation.
13. Allegation-13 –12 doctors have been fined Rs. 5000/- for conducting illegal, unethical drug trials.
Truth –The fine has nothing to do with legality or ethics of drug trials. A notice was served to us by Civil Surgeon Dr. Sharad Pandit in July 2011 under M.P. Nursing Home and Clinical Establishment Act 1973, under which all doctors are required to register their hospital or clinic and to send a list of the patients seen by them every quarter. The act is on statue books only and never implemented or forced in reality. If every doctor starts sending the details regularly, there will no space in civil surgeon’s office to store it. We were selectively targeted by Dr. Sharad Pandit (though being medical teachers, we do not fall in his administrative jurisdiction) for not providing patient’s names and other trial related information (which we had already given to other government agencies including EOW and Vidhansabha). We made our written representation against the notice in June 2011 and did not listen anything about it, till this news broke out in media in Jan 2012. We have not paid any fine so far15. The penalty on paper is not for conducting illegal or unethical drug trials (as the headlines cry) but for not giving some information under an old archaic impractical law.
14. Allegation-14 - Doctors at Indore did the unthinkable by conducting trials on mentally ill (read insane) patients.
Truth – This is a recent and most hilarious story so far, had it not been tragic and ironic for five psychiatrist at MGM Medical College (again the same poor institution – the same punching bag for the media), who conducted legal (approved by DCGI) and ethical (approved by a well established independent ethics committee) clinical trial of a drug dupoxitine (already available in market) for men suffering for erectile dysfunction (a common disorder treated by psychiatrist in subject who are otherwise sane or mentally sound and capable of giving informed consent).
An investigating team from DCGI has cleared the investigators from the charges of illegality and incapacity of subjects giving consent.
15. Allegation-15 – Two doctors have been banned by DCGI from doing clinical trials for 6 months.
Truth – This was a technical error by DCGI officials which has been contested by concerned doctors. 16
16. Allegation-16 – Because of illegal trials, M.P. Government has banned trials in the state.
Truth – Following the uproar in media and Vidhansabha, M.P. Government temporarily banned initiation of new trials but permitted continuation of the ones which were already ongoing (and are still going on). The ban had nothing to do with legality or ethics worthiness of trials.
17. Allegation-17 – The doctors travelled to foreign countries on expense of drug companies18.
Truth – The travels were for attending Investigator’s meeting, which is a scientific and procedural requirement before initiation of the site.
References –
1. A summary of some salient trials done at MGM Medical College, & M.Y. Hospital
2. Vikas Bajpai, Anoop Saraya, Industry sponsored clinical research, National Medical Journal of India. Vol.24, No.5, 2011, 300-302
3. Copy of Letter to Medical Council of India by Clinical Researchers at Indore complaining about Anand Rai.
4. Letter to Editor, Times of India by Clinical Researchers at Indore
5. Letter to Editor, Monthly Index of Medical Specialties by clinical researches at Indore.
6. Yuji K et al. Sharing information on adverse events. The Lancet, Volume 377, page 1654, 14 May 2011.
7. Statement by Mr. Mahendra Hardia, Minister for Medical Education
8. The report submitted by Economic Offence Wing of Police
9. Report by Adjudication Panel of Ethics Committee of MGM Medical College, Indore
10. Statement by Shri Shivraj Singh Chouhan (Chief Minister of Madhya Pradesh) in state assembly
11. Code of conduct for doctors by Medical Council of India
12. Confidentiality of Information – judgment by Chief Information Commissioner, Dated……
13. My answer in response to complaint by Mr. Sharad Gite, husband of deceased subject Mrs. Sheela Gite.
14. Our response to some of the critical observations by Economic Offence Wing.
15. Our protest against Rs. 5000/- penalty
16. Response to DCGI by Dr. Anil Bharani.
17. A partial list of various centers where same clinical trials were done as by Dr. Apoorva Pauranik.
18. Our response about foreign travels to attend investigators meetings.
Misinformation Campaign about Clinical Drug Trials_How and why it started and assumed such prominence ?
How and why it started and assumed such prominence ?
[I am myself puzzled and intrigued].
One Dr. Anand Rai (shamefully our own student) with a criminal background, having political ambitions,3 joined hands with some people in politics and media (always eager to have ‘good stories’) to project his image as a ‘whistle blower’ and ‘social activist’. He planned the whole affair very meticulously and launched the campaign in July 2010 with a blitzkrieg in local Hindi daily ‘Patrika’ and local TV channels. He complained against us to (a) Economic Offence Wing of M.P. Police, Bhopal (b) Medical Council of India and its M.P. Branch (c) Lokayukta (d) Human Right Commission, National and state chapter. (e) Income Tax Department (f) Enforcement Directorate.
He and his coterie managed to raise the issue repeatedly in Madhya Pradesh Vidhansabha through question-answer sessions and calling attention motion. Right to Information Act was misused to hilt to harass us and extract information which is legally exempted form disclosure.
Inexplicably, surprisingly and sadly the national and international media took cognizance of the noise and echoched or recycled the misinformation without verification and without giving our version4, 5. The saying by infamous propaganda minister Herr Goeblles in third Riech of Hiter’s Nazi Germany has become true – ‘repeating a lie hundred times can make it appear true’.
It is a sad commentary on the nature of media that it picks up, magnifies and sensationalizes false hood or trivial facts because cynicism sells more. Western media always laps up any negative news from India and developing countries and there is no dearth of ‘progressive intellectuals’ in our country who gleefully feed them and get rewarded amply.
I have learnt this bitter truth at a heavy personal cost though I derived some solace by realizing that this is a universal phenomenon applicable even to internationally reputed new papers – for example Asahi Shimbun (Tokyo, Japan)6. Another scandalous and horrendous attribute of media is that once they raise a issue or take a position rightly or wrongly they are loath to correct themselves in face of contrary evidence
Many investigating agencies (EOW Police, DCGI) have been seized with the matter and did not find any thing unlawful. But it is probable in their nature that, while they (obligingly) exonerate the accused from utterly false and untenable charges, they consider it their duty and right to point out a few minor administrative, procedural and technical flaws, without which, it seems, they think, they have not earned their raison-de-etre. The subsequent overkill is done by media which will cry hoarse over the trivial and bury the main news.
Letter to my senior teachers about Clinical Drug Trials
Respected Sir,
I am writing this letter with a deep sense of responsibility and sincerity. It refers to the issue of clinical drug trials at Indore, M.P.. You might have come across many reports in media about alleged irregularities in conduct of drug trials at M.G.M. Medical College & M.Y. Hospital, Indore. Myself and my 5 colleague faculty members have been victim of a totally baseless, malicious slender campaign by one Dr. Anand Rai along with a few so called NGOs, politicians and media personelles.
A perception has been created as if doing drug trials is an evil activity, indulged in only locally by a few named doctors. The truth is that all the trials in which we participated were multinational, multi centre trials at prestigious institutions. We are proud of being associated with many good trials1, contributing in a small but tangible way for advancement of medical science and betterment of human condition.
I want to assure you that I have not done anything wrong legally, ethically or morally. I have never done and will never do anything unbecoming of your student. One may doubt how anybody can vouch for integrity of others, but I do so for my colleagues too, as we been through it together for last two years.
I apolise and beg to be pardoned for shades of bitterness in my letter but it has been a long, unfinished ordeal with lot of anguish, bewilderment, harassment, sadness and frustration. It has consumed hundreds of hours of our time which could have used for better things and purposes. Our image and prestige, which had been painstakingly built over many decades has been dented and tarnished.
I am very much aware of the merits and demerits of public versus industry sponsored clinical trials2 but that pertains to policy and ideology and not so much at individual level.
Please excuse me for an unsolicited long letter but I do need that you understand the issue and give me moral support and blessings.
You may kindly write about this issue in NMJI and IJME.
Thanking you, Sincerely yours
रविवार, 22 अप्रैल 2012
मिथ्या विज्ञान की पहचान कैसे करें ?
मिथ्या विज्ञान की पहचान कैसे करें ?
पिछले एक लाख वर्षों में होमो सेपियन्स
मनुष्य जब से बुद्धिमान हुआ, उसमें धीरे-धीरे अनेक गुण और आदतें विकसित हुईं।
१. दुनिया में जो हैं तथा जो घटित हो रहा है, उसे बारीकी से देखना, याद रखना, नोट करना और उसमें छुपे हुए अर्थ निकालना
२. कार्य और कारण के आपसी सम्बन्धों पर गौर करना
३. जो समझ में नहीं आ रहा है उसके बारे में पैने सटीक सवाल पूछना और फिर
४. सवालों का उत्तर पाने के लिये प्रयोग की परिकल्पना करना, उसे अंजाम देना, अवलोकनों के आधार पर निष्कर्ष निकालना
५. नये सिद्धान्त या थ्योरी गढना, उनका परीक्षण करना
६. किन्हीं निष्कर्षों के गलत सिद्ध हो जाने पर उन्हें छोड देना, संशोधित करना, नये सिद्धान्त गढना।
७. प्रयोगों की निष्पक्षता के नियमों का पालन करना । जैसे कि दो समूहों की तुलनात्मक समानता, अवलोकन व मापने की पूर्व निर्धारित विधियाँ, सांख्यिकिया गणना, अवलोकनकर्ता का अंधाकरण, दूसरे वैज्ञानिकों द्वारा प्रयोग पुष्टि या खण्डन।
ये सारे गुण और आदतें बहुत धीरे-धीरे, इन्सान के अंदर से विकसित हुई हैं, वैज्ञानिकों ने बाहर से नहीं थोपी हैं। लेकिन यह विकास आसानी से नहीं हुआ है। इसके विपरीत गुणों वाली आदतें भी इन्सान के स्वभाव व सोच का हिस्सा रही है जैसे कि चमत्कार, भूत, प्रेत, चुडैल, उपरी हवा, नजर लगना, पूर्व जन्मों के फल, रहस्यमई ऊर्जाएं, टेलीपेथी, जन्मकुण्डली, हस्तरेखाएं, जादू टोना।
मिथ्या विज्ञान वाले उत्तर व व्याख्याएं आसान प्रतीत होते हैं। आसानी से गले उतर जाते हैं। बहुत लोकप्रिय हैं। उन्हें सामाजिक मान्यता प्राप्त है।
वैज्ञानिक सोच व समझ कुछ कठिन है। ज्ञान व शिक्षा का आधार चाहिये। संदेह करने की आदत होना चाहिये। किसी भी बात को बिना प्रयोग या तथ्य की वैज्ञानिक विधियों के स्वीकार करने के खिलाफ प्रतिरोध होना चाहिये। साहस और ईमानदारी चाहिये। भेड चाल से अलग होना पडता है।
उक्त दो विपरीत किस्म की सोच व व्यवहार में धीरे-धीरे विज्ञान का पलडा भारी होता जा रहा है क्योंकि एक के बाद एक, प्रकृति के अनेक रहस्यों पर से परदा हटता जा रहा है। फिर भी यह लडाई या संघर्ष या प्रक्रिया लम्बी, कष्टसाह्य और श्रमसाध्य है। इसमें लाखों वैज्ञानिकों ने अपनी मेधा, बुद्धि, मेहनत व समय का बलिदान साहस के साथ निःस्वार्थ भावना से किया है।
गेलीलियो अकेला नहीं था जिसने कहा था कि धरती दुनिया का केंद्र नहीं है, वह सूर्य का चर लगाती है।
मिथ्या विज्ञान की पहचान करने हेतु निम्न कसौटियों पर कसें।
१. क्या कोई दावा किसी सिद्धान्त या थ्योरी की अर्हताओं को पूरा करता है।
- मिथ्या वैज्ञानिक दावे कभी भी ज्ञात व स्वीकृत वैज्ञानिक थ्योरी पर आधारित नहीं होते।
- सिद्धान्त के पीछे प्रायोगिक सबूत होना चाहिये । सुनीसुनाई अपुष्ट बातों को आधार नहीं माना जा सकता।
- प्रायोगिक परीक्षणों द्वारा थ्योरी के गलत सिद्ध हो सकने की पात्रता होना चाहिये।
- उक्त सिद्धान्त द्वारा अभी तक न देखे गये परिणामों का अनुमान लगाना सम्भव हो, जिनकी पुष्टि या खण्डन किया जा सके।
- नये अवलोकनों, सबूतों और सिद्धान्तों के कारण जरूरत पडने पर थ्योरी में संशोधन करने का लचीलापन होना चाहिये।
२. क्या कोई दावा प्राचीन ज्ञान पर आधारित है ?
विज्ञान आधुनिक होता है। सतत परिवर्तनशीलता उसकी सबसे बडी ताकत है। पुराने सिद्धान्तां का स्थान नये लेते रहते हैं।
३. क्या कोई दावा वैज्ञानिक शोध पत्रिकाओं के बजाय पहली बार आम जन संचार या मास-मीडिया में प्रसारित किया गया है।
असली वैज्ञानिक प्रगति की घोषणा की एक लम्बी प्रक्रिया होती है। समकालीन वैज्ञानिकों की टिप्पणी तथा सम्मति पर आधारित शोध प्रपत्रों को छापने वाले प्रतिष्ठित जर्नल्स होते हैं।
एचआईवी- एड्स की दवा निकलने की सूचना प्रेस कान्फ्रेन्स द्वारा नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय, पीयर रीव्यूव्ड शोध पत्रिकाओं के माध्यम से दी गई थी।
४. क्या काई दावा किसी अज्ञान रहस्यमई ऊर्जा या इनर्जी या अन्य परा-प्राकृतिक शक्ति पर आधारित है।
भौतिक शास्त्र में वर्णित ऊर्जा या एनर्जी का अर्थ है। किसी पदार्थ को एक स्थान से दूसरे स्थान तक हिलाना।
पदार्थ गति
ऊर्जा के विभिन्न रूप आपस में परिवर्तनशील हैं । (ऊष्मा, प्रकाश, विुत, चुम्बक, ध्वनि) इनके अलावा कोई अन्य रूप नहीं हैं। पदार्थ और ऊर्जा भी आपस में परिवर्तनशील हैं। श = चउ २
५. क्या उक्त दावा करने वाले कहते हैं कि उनकी बात को सरकार या अन्य ताकतों द्वारा दबाया जा रहा है।
वैज्ञानिक कभी ऐसे आरोप नहीं लगाते। सधाई छुप नहीं सकती। वैज्ञानिक प्रगति को रोकने के लिये कभी षडयंत्र नहीं रचे जाते।
६. क्या उक्त दावा जरूरत से अधिक अच्छा प्रतीत होता है।
वैज्ञानिक प्रगति में अचानक चमत्कार या क्रान्ति नहीं होती। धीरे-धीरे, इंच दर दंच प्रगति होती है। अनेक दशकों के बाद पीछे मुडकर देखने पर जरूर वे परिवर्तन युगान्तरकारी प्रतीत हो सकते हैं परन्तु साल-दर-साल की प्रगति ऐसी है मानों बाल या नाखुन बढ रहे हों।
७. क्या उक्त दावे का श्रेय कोई एक महान वैज्ञानिक या विद्वान या संत या मसीहा को दिया जा रहा है।
वैज्ञानिक प्रगति किसी इन्सान के बूते पर नहीं होती। पूर्ववर्ती और समकालीन वैज्ञानिकों के योगदान से होती है। आइजक न्यूटन ने कहा था - यदि मैं क्षितिज में कुछ दूर तक देख पाया हूँ तो मेरे पहले के वैज्ञानिकों के कन्धों पर चढकर ही।
८. क्या दावे के साथ विज्ञापन, विपणन (मार्केटिंग) जुडा हुआ है।
वैज्ञानिक खोज के साथ कभी विज्ञापन या मार्केटिंग नहीं की जाती कि हमारी दवा या यंत्र को खरीदने से फलां फलां लाभ होंगे। वैज्ञानिक व्यापारी नहीं होते केवल पेटेन्ट अधिकार छोडकर उन्हें अन्य आर्थिक लाभ नहीं प्राप्त होते।
९. क्या उक्त दावा ओम की कसौटी पर खरा उतरता है।
वैज्ञानिक खोजों की व्याख्या करने के लिये किसी जटिल रहस्यमई सुपरनेचरल शक्ति के बजाय पहले से ज्ञात आसान सिद्धान्त पर्याप्त होते हैं । ओम की कसौटी के अनुसार सरल व सहज उत्तर बेहतर है।
१०. क्या उक्त दावा सांख्यिकीय गणनाओं पर आधारित है।
विज्ञान में गणित व सांख्यिकी में वर्णित अनेक कसौटियों पर खरा उतरना जरूरी है। संभावनाओं, गलतियों और संयोगों का अपना एक गणित होता है।
बडी संख्याओं के नियम के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के साथ, महीने में एक बार कोई ऐसी घटना घट सकती है, जिसके होने की सम्भावना दस लाख में से एक हो।
११. क्या उक्त दावा एक ऐसे व्यक्ति या संस्था द्वारा किया जा रहा है जो पहले से घोषित रूप से, उक्त विचारधारा या उद्देश्य के प्रति समर्पित है।
विज्ञान हमेशा नल-हायपोथिसिस (नेति-नेति) से शूरू होता है और फिर सबूत ढूंढता है । मिथ्या विज्ञान पहले से घोषित पोषित सिद्धान्त के समर्थन में सबूत देने का दावा करता है। वे ला विपरीत सबूतों को उल्लेख क्यों करेंगे।
१२. क्या दावा करने वाले अपने प्रयोग का पुनः परीक्षण दूसरे निष्पक्ष वैज्ञानिकों से करवाने को तैयार हैं ?
कोई भी अच्दा शोधकार्य अपनी कार्य विधि या प्रयोगविधि का खूब विस्तर से वर्णन करता है कि दूसरे लोग उसे दुहरा सकें। यदि प्रयोग के अवलोकन आपकी थ्योरी या सिद्धान्त का समर्थन नहीं करते हैं तो भी उन्हें छिपाया नहीं जावेगा।
१३. दावे का समर्थन करने वाले अवलोकनों और तथ्यों की गुणवत्ता कैसी है।
क्या सभी अवलोकनों/डाटा को शामिल किया गया है क्या तरह-तरह के पूर्वाग्रह से बचने की सावधानियाँ रखी गई हैं ? सेम्पल साइज (नमूने का आकार) कहीं बहुत छोटा तो नहीं है ? महज संयोग को कार्य-कारण सम्बन्ध का प्रमाण नहीं माना जा सकता है।
१४. दावा करने वालों की उक्त वैज्ञानिक विषय में क्या हैसियत है ?
अनेक व्यक्ति और संस्थाएं झूठ मूठ की साख पर दिखावा करते हैं। अनेक तथा कथित विश्वविालय पैसे लेकर फर्जी डाक्टरेट या पी.एच.डी. की डिग्री बांटते हैं। सफेद कोट एप्रन पहन कर फोटो खिंचवाते हैं। किसी नामी गिरामी हस्ती के हाथों इनाम या प्रशंसापत्र पाते हैं
असली वैज्ञानिकों या संस्थाओं को इस प्रकार के नाटक की जरूरत नहीं पडती।
१५. क्या दावा करने वाले यह कहते हैं कि अब तक जो चल रहा है, वह सब गलत है ? या कि यह कि चूंकि फलां विचार धारा सही है। उसके समर्थन में हमें उनके दावे स्वीकार कर लेना चाहिये।
वैज्ञानिक खोजों किसी तथाकथित गलती को सुधारने की मुहिम का हिस्सा नहंी होती। वे इस बात की भूमिका नहीं बांधते कि आजकल जो भोजन हम खा रहे हैं वह कितना जहरीला है। हम अपने धरती ग्रह को नष्ट करने पर तुले हुए हैं। बडी कम्पनियों का षडयंत्र है कि सौर ऊर्जा पर शोध न होने पायें आदि आदि।
वैज्ञानिकों को किसी विचारधारा या इडियोलाजी या फिलोसॉफी से मतलब नहीं होता। उनका लक्ष्य केवल सत्य है। रंगभेद या नस्लभेद या स्त्री पुरूष भेद पर आपके राजनैतिक, सामाजिक, विचारों में वैज्ञानिक खोज की विश्वसनीयता का सम्बन्ध नहीं होना चाहिये।
१६. क्या वह दावा - सब कुछ प्राकृतिक - पर आधारित है ?
यह जरूरी नहीं कि तथाकथित प्राकृतिक उत्पाद सदैव अच्छे हों और मानव निर्मित कृत्रिम उत्पाद खराब हों।
पिछले एक लाख वर्षों में होमो सेपियन्स
मनुष्य जब से बुद्धिमान हुआ, उसमें धीरे-धीरे अनेक गुण और आदतें विकसित हुईं।
१. दुनिया में जो हैं तथा जो घटित हो रहा है, उसे बारीकी से देखना, याद रखना, नोट करना और उसमें छुपे हुए अर्थ निकालना
२. कार्य और कारण के आपसी सम्बन्धों पर गौर करना
३. जो समझ में नहीं आ रहा है उसके बारे में पैने सटीक सवाल पूछना और फिर
४. सवालों का उत्तर पाने के लिये प्रयोग की परिकल्पना करना, उसे अंजाम देना, अवलोकनों के आधार पर निष्कर्ष निकालना
५. नये सिद्धान्त या थ्योरी गढना, उनका परीक्षण करना
६. किन्हीं निष्कर्षों के गलत सिद्ध हो जाने पर उन्हें छोड देना, संशोधित करना, नये सिद्धान्त गढना।
७. प्रयोगों की निष्पक्षता के नियमों का पालन करना । जैसे कि दो समूहों की तुलनात्मक समानता, अवलोकन व मापने की पूर्व निर्धारित विधियाँ, सांख्यिकिया गणना, अवलोकनकर्ता का अंधाकरण, दूसरे वैज्ञानिकों द्वारा प्रयोग पुष्टि या खण्डन।
ये सारे गुण और आदतें बहुत धीरे-धीरे, इन्सान के अंदर से विकसित हुई हैं, वैज्ञानिकों ने बाहर से नहीं थोपी हैं। लेकिन यह विकास आसानी से नहीं हुआ है। इसके विपरीत गुणों वाली आदतें भी इन्सान के स्वभाव व सोच का हिस्सा रही है जैसे कि चमत्कार, भूत, प्रेत, चुडैल, उपरी हवा, नजर लगना, पूर्व जन्मों के फल, रहस्यमई ऊर्जाएं, टेलीपेथी, जन्मकुण्डली, हस्तरेखाएं, जादू टोना।
मिथ्या विज्ञान वाले उत्तर व व्याख्याएं आसान प्रतीत होते हैं। आसानी से गले उतर जाते हैं। बहुत लोकप्रिय हैं। उन्हें सामाजिक मान्यता प्राप्त है।
वैज्ञानिक सोच व समझ कुछ कठिन है। ज्ञान व शिक्षा का आधार चाहिये। संदेह करने की आदत होना चाहिये। किसी भी बात को बिना प्रयोग या तथ्य की वैज्ञानिक विधियों के स्वीकार करने के खिलाफ प्रतिरोध होना चाहिये। साहस और ईमानदारी चाहिये। भेड चाल से अलग होना पडता है।
उक्त दो विपरीत किस्म की सोच व व्यवहार में धीरे-धीरे विज्ञान का पलडा भारी होता जा रहा है क्योंकि एक के बाद एक, प्रकृति के अनेक रहस्यों पर से परदा हटता जा रहा है। फिर भी यह लडाई या संघर्ष या प्रक्रिया लम्बी, कष्टसाह्य और श्रमसाध्य है। इसमें लाखों वैज्ञानिकों ने अपनी मेधा, बुद्धि, मेहनत व समय का बलिदान साहस के साथ निःस्वार्थ भावना से किया है।
गेलीलियो अकेला नहीं था जिसने कहा था कि धरती दुनिया का केंद्र नहीं है, वह सूर्य का चर लगाती है।
मिथ्या विज्ञान की पहचान करने हेतु निम्न कसौटियों पर कसें।
१. क्या कोई दावा किसी सिद्धान्त या थ्योरी की अर्हताओं को पूरा करता है।
- मिथ्या वैज्ञानिक दावे कभी भी ज्ञात व स्वीकृत वैज्ञानिक थ्योरी पर आधारित नहीं होते।
- सिद्धान्त के पीछे प्रायोगिक सबूत होना चाहिये । सुनीसुनाई अपुष्ट बातों को आधार नहीं माना जा सकता।
- प्रायोगिक परीक्षणों द्वारा थ्योरी के गलत सिद्ध हो सकने की पात्रता होना चाहिये।
- उक्त सिद्धान्त द्वारा अभी तक न देखे गये परिणामों का अनुमान लगाना सम्भव हो, जिनकी पुष्टि या खण्डन किया जा सके।
- नये अवलोकनों, सबूतों और सिद्धान्तों के कारण जरूरत पडने पर थ्योरी में संशोधन करने का लचीलापन होना चाहिये।
२. क्या कोई दावा प्राचीन ज्ञान पर आधारित है ?
विज्ञान आधुनिक होता है। सतत परिवर्तनशीलता उसकी सबसे बडी ताकत है। पुराने सिद्धान्तां का स्थान नये लेते रहते हैं।
३. क्या कोई दावा वैज्ञानिक शोध पत्रिकाओं के बजाय पहली बार आम जन संचार या मास-मीडिया में प्रसारित किया गया है।
असली वैज्ञानिक प्रगति की घोषणा की एक लम्बी प्रक्रिया होती है। समकालीन वैज्ञानिकों की टिप्पणी तथा सम्मति पर आधारित शोध प्रपत्रों को छापने वाले प्रतिष्ठित जर्नल्स होते हैं।
एचआईवी- एड्स की दवा निकलने की सूचना प्रेस कान्फ्रेन्स द्वारा नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय, पीयर रीव्यूव्ड शोध पत्रिकाओं के माध्यम से दी गई थी।
४. क्या काई दावा किसी अज्ञान रहस्यमई ऊर्जा या इनर्जी या अन्य परा-प्राकृतिक शक्ति पर आधारित है।
भौतिक शास्त्र में वर्णित ऊर्जा या एनर्जी का अर्थ है। किसी पदार्थ को एक स्थान से दूसरे स्थान तक हिलाना।
पदार्थ गति
ऊर्जा के विभिन्न रूप आपस में परिवर्तनशील हैं । (ऊष्मा, प्रकाश, विुत, चुम्बक, ध्वनि) इनके अलावा कोई अन्य रूप नहीं हैं। पदार्थ और ऊर्जा भी आपस में परिवर्तनशील हैं। श = चउ २
५. क्या उक्त दावा करने वाले कहते हैं कि उनकी बात को सरकार या अन्य ताकतों द्वारा दबाया जा रहा है।
वैज्ञानिक कभी ऐसे आरोप नहीं लगाते। सधाई छुप नहीं सकती। वैज्ञानिक प्रगति को रोकने के लिये कभी षडयंत्र नहीं रचे जाते।
६. क्या उक्त दावा जरूरत से अधिक अच्छा प्रतीत होता है।
वैज्ञानिक प्रगति में अचानक चमत्कार या क्रान्ति नहीं होती। धीरे-धीरे, इंच दर दंच प्रगति होती है। अनेक दशकों के बाद पीछे मुडकर देखने पर जरूर वे परिवर्तन युगान्तरकारी प्रतीत हो सकते हैं परन्तु साल-दर-साल की प्रगति ऐसी है मानों बाल या नाखुन बढ रहे हों।
७. क्या उक्त दावे का श्रेय कोई एक महान वैज्ञानिक या विद्वान या संत या मसीहा को दिया जा रहा है।
वैज्ञानिक प्रगति किसी इन्सान के बूते पर नहीं होती। पूर्ववर्ती और समकालीन वैज्ञानिकों के योगदान से होती है। आइजक न्यूटन ने कहा था - यदि मैं क्षितिज में कुछ दूर तक देख पाया हूँ तो मेरे पहले के वैज्ञानिकों के कन्धों पर चढकर ही।
८. क्या दावे के साथ विज्ञापन, विपणन (मार्केटिंग) जुडा हुआ है।
वैज्ञानिक खोज के साथ कभी विज्ञापन या मार्केटिंग नहीं की जाती कि हमारी दवा या यंत्र को खरीदने से फलां फलां लाभ होंगे। वैज्ञानिक व्यापारी नहीं होते केवल पेटेन्ट अधिकार छोडकर उन्हें अन्य आर्थिक लाभ नहीं प्राप्त होते।
९. क्या उक्त दावा ओम की कसौटी पर खरा उतरता है।
वैज्ञानिक खोजों की व्याख्या करने के लिये किसी जटिल रहस्यमई सुपरनेचरल शक्ति के बजाय पहले से ज्ञात आसान सिद्धान्त पर्याप्त होते हैं । ओम की कसौटी के अनुसार सरल व सहज उत्तर बेहतर है।
१०. क्या उक्त दावा सांख्यिकीय गणनाओं पर आधारित है।
विज्ञान में गणित व सांख्यिकी में वर्णित अनेक कसौटियों पर खरा उतरना जरूरी है। संभावनाओं, गलतियों और संयोगों का अपना एक गणित होता है।
बडी संख्याओं के नियम के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के साथ, महीने में एक बार कोई ऐसी घटना घट सकती है, जिसके होने की सम्भावना दस लाख में से एक हो।
११. क्या उक्त दावा एक ऐसे व्यक्ति या संस्था द्वारा किया जा रहा है जो पहले से घोषित रूप से, उक्त विचारधारा या उद्देश्य के प्रति समर्पित है।
विज्ञान हमेशा नल-हायपोथिसिस (नेति-नेति) से शूरू होता है और फिर सबूत ढूंढता है । मिथ्या विज्ञान पहले से घोषित पोषित सिद्धान्त के समर्थन में सबूत देने का दावा करता है। वे ला विपरीत सबूतों को उल्लेख क्यों करेंगे।
१२. क्या दावा करने वाले अपने प्रयोग का पुनः परीक्षण दूसरे निष्पक्ष वैज्ञानिकों से करवाने को तैयार हैं ?
कोई भी अच्दा शोधकार्य अपनी कार्य विधि या प्रयोगविधि का खूब विस्तर से वर्णन करता है कि दूसरे लोग उसे दुहरा सकें। यदि प्रयोग के अवलोकन आपकी थ्योरी या सिद्धान्त का समर्थन नहीं करते हैं तो भी उन्हें छिपाया नहीं जावेगा।
१३. दावे का समर्थन करने वाले अवलोकनों और तथ्यों की गुणवत्ता कैसी है।
क्या सभी अवलोकनों/डाटा को शामिल किया गया है क्या तरह-तरह के पूर्वाग्रह से बचने की सावधानियाँ रखी गई हैं ? सेम्पल साइज (नमूने का आकार) कहीं बहुत छोटा तो नहीं है ? महज संयोग को कार्य-कारण सम्बन्ध का प्रमाण नहीं माना जा सकता है।
१४. दावा करने वालों की उक्त वैज्ञानिक विषय में क्या हैसियत है ?
अनेक व्यक्ति और संस्थाएं झूठ मूठ की साख पर दिखावा करते हैं। अनेक तथा कथित विश्वविालय पैसे लेकर फर्जी डाक्टरेट या पी.एच.डी. की डिग्री बांटते हैं। सफेद कोट एप्रन पहन कर फोटो खिंचवाते हैं। किसी नामी गिरामी हस्ती के हाथों इनाम या प्रशंसापत्र पाते हैं
असली वैज्ञानिकों या संस्थाओं को इस प्रकार के नाटक की जरूरत नहीं पडती।
१५. क्या दावा करने वाले यह कहते हैं कि अब तक जो चल रहा है, वह सब गलत है ? या कि यह कि चूंकि फलां विचार धारा सही है। उसके समर्थन में हमें उनके दावे स्वीकार कर लेना चाहिये।
वैज्ञानिक खोजों किसी तथाकथित गलती को सुधारने की मुहिम का हिस्सा नहंी होती। वे इस बात की भूमिका नहीं बांधते कि आजकल जो भोजन हम खा रहे हैं वह कितना जहरीला है। हम अपने धरती ग्रह को नष्ट करने पर तुले हुए हैं। बडी कम्पनियों का षडयंत्र है कि सौर ऊर्जा पर शोध न होने पायें आदि आदि।
वैज्ञानिकों को किसी विचारधारा या इडियोलाजी या फिलोसॉफी से मतलब नहीं होता। उनका लक्ष्य केवल सत्य है। रंगभेद या नस्लभेद या स्त्री पुरूष भेद पर आपके राजनैतिक, सामाजिक, विचारों में वैज्ञानिक खोज की विश्वसनीयता का सम्बन्ध नहीं होना चाहिये।
१६. क्या वह दावा - सब कुछ प्राकृतिक - पर आधारित है ?
यह जरूरी नहीं कि तथाकथित प्राकृतिक उत्पाद सदैव अच्छे हों और मानव निर्मित कृत्रिम उत्पाद खराब हों।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)