चिकित्सा शास्त्र में बहुत कम बीमारियों के नाम किसी डाक्टर या वैज्ञानिक के नाम पर रखे गये हैं । आम तौर पर ऐसा करने से बचा जाता है । परन्तु लन्दन के फिजिशियन डॉ. जेम्स पार्किन्सन ने सन् १८१७ में इस रोग का प्रथम वर्णिन किया था वह इतना सटीक व विस्तृत था कि आज भी उससे बेहतर कर पाना, कुछ अंशों में सम्भव नहीं माना जाता है । हालांकि नया ज्ञान बहुत सा जुडा है । फिर भी परम्परा से जो नाम चल पडा उसे बदला नहीं गया ।
पार्किन्सन रोग समूची दुनिया में, समस्त नस्लों व जातियों में, स्त्री पुरूषों दोनों को होता है । यह मुख्यतया अधेड उम्र व वृद्धावस्था का रोग है । ६० वर्ष से अधिक उम्र वाले हर सौ व्यक्तियोंमें से एक को यह होता है । विकसित देशो में वृद्धों का प्रतिशत अधिक होने से वहां इसके मामले अधिक देखने को मिलते हैं । इस रोग को मिटाया नहीं जा सकता है । वह अनेक वर्षों तक बना रहता है, बढता रहता है । इसलिये जैसे जैसे समाज में वृद्ध लोगों की संख्या बढती है वैसे-वैसे इसके रोगियों की संख्या भी अधिक मिलती है । अमेरिका की कुल आबादी (तीस करोड) में लगभग ५ लाख लोगों का यह रोग है । भारत के आंकडे उपलब्ध नहीं हैं, पर उसी अनुपात से १५ लाख रोगी होना चाहिये ।
पार्किन्सोनिज्मका कारण आज भी रहस्य बना हुआ है , बावजूद इस तथ्य के कि उस दिशा में बहुत शोध कार्य हुआ है, बहुत से चिकित्सा वैज्ञानिकों ने वर्षों तक चिन्तन किया है और बहुत सी उपयोगी जानकारी एकत्र की है । वैज्ञानिक प्रगति प्रायः ऐसे ही होती है। चमत्कार बिरले ही होते हैं । १९१७ से १९२० के वर्षों में दुनिया के अनेक देशों में फ्लू (या इन्फ्लूएन्जा) का एक खास गम्भीर रूप महामारी के रूप में देखा गया । वह एक प्रकार का मस्तिष्क ज्वर था । जिसे एन्सेफेलाइटिस लेथार्जिका कहते थे क्योंकि उसमें रोगी अनेक सप्ताहों तक या महीनों तक सोता रहता था । उस अवस्था से धीरे-धीरे मुक्त होने वाले अनेक रोगियों को बाद में पार्किन्सोनिज्महुआ । १९२० से १९४० तक के दशकों में माना जाता था कि पार्किन्सोनिज्मका यही मुख्य कारण है । सोचते थे, और सही भी था कि इन्फ्लूएंजा वायरस के कीटाणू मस्तिष्क की उन्हीं कोशिकाओं को नष्ट करते हैं जो मूल पार्किन्सन रोग में प्रभावित होती हैं ।
न्यूयार्क के प्रसिद्ध न्यूरालाजिस्ट लेखक डॉ. ऑलिवर सेक्स ने इन मरीजों पर किताब लिखी, उस पर अवेकनिग (जागना) नाम से फिल्म बनी - इस आधार पर कि लम्बे समय से सुषुप्त रहने के बाद कैसे ये मरीज, नये युग में, नयी दुनिया में जागे । रिपवान विकल की कहानी की तरह ।
सौभाग्य से १९२० के बाद एन्सेफेलाइटिस लेथार्जिका के और मामले देखने में नहीं आए । लेकिन पार्किन्सोनिज्मरोग उसी प्रकार होता रहा है । अवश्य ही कोई और कारण होने चाहिये ।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 टिप्पणियां:
मेरे बाबा को य रोग 7साल हे ऊनमे कोए बदलाव नहीआहे कोही दवा बताव सर
Meri maa ko yaa bimari h..bolne me dikkt hoti.sbdo ka uchcharan thik se nhi kr paati h..kaalpnik baate krti h jinka schhaayi se koi mtlb nhi h.. right side body kampn krti h.puraani baate bhool chuki h kya meri maa thik ho skti h
एक टिप्पणी भेजें