कलर ब्लाइण्ड या रंगांधता का नाम अनेक पाठकों ने सुना होगा । कई व्यक्ति जन्म से, रंगों की पहचान व भेद नहीं कर पाते । कुछ नौकरियों में, विशेषकर सैनिक, ड्रायवर आदि के लिये, मेडिकल परीक्षण में रंग क्षमता की जांच पर खास जोर दिया जाता है । आमतौर पर रंगांधता का कारण होता है आँख के पर्दे, रेटिना में रंग की पहचान करने वाली शंकु कोशिकाओं (कोन्स) की कमी । इसके विपरीत फिर भी मस्तिष्क की बीमारियों के कारण रंग बोध का ह्रास कम ही देखा गया है । यह सही है कि आँख के परदे पर पड़ने वाले तमाम बिम्बों की पूरी पहचान अन्ततः मस्तिष्क के पिछले भाग में स्थित दो आस्सिपिटल खण्डों में सम्पन्न होती है ।
न्यूरालॉजी शोध पत्रिकाओं में बहुत खोजने पर ऐसे कुछ मरीजों का हवाला मिला। इन वर्णनों को पढ़ना मजेदार है तथा इस बात को इंगित करता है कि चित्रकला में रंगों के सुरूचिपूर्ण उपयोग पर मस्तिष्क का नियंत्रण (या अनियंत्रण) अपने आप में एक काबिले-गौर विषय बन सकता है। कुछ उदाहरण देखिये - सब कुछ भूरा-भूरा लग रहा है, रंग कहीं खो गये हैं, रंग अलग-अलग तो लगते हैं पर पहचाने नहीं जाते । ड्राईंग में भरते समय गलतियाँ होती हैं । कोई खास रंग चुनते समय अधिक मुश्किल आती है। रंग पहचान लिये जाते हैं परन्तु उनका गाढ़ापन य चटखपन या मद्दापन समझ में नहीं आता सारी दुनिया भद्दी, सुस्त और बदरंग प्रतीत होती है।
मस्तिष्क का आस्पिपिटल खण्ड, जिसमें रंग सम्बन्धी कार्यविधि-निहित रहती है, यदि किसी कारण से, ज्यादा ही उत्तेजित हो जावे तो अजीबो-गरीब, रंग-संसार रच जाता है मरीज की आँखों के सामने । ऐसा माईग्रेन और एपिलेप्सी के मरीजों में कभी-कभी देखने-सुनने को मिलता है। संवेदना का यह दौर कुछ मिनिट मात्र चलता है। मरीज इसे याद रख कर बाद में चित्ररूप में प्रस्तुत कर सकता है। क्या यह सोचना रोमांचक नहीं है कि चित्रकला के समस्त रूप, बिम्ब, रंग आदि हमारे मस्तिष्क के किसी चीन्हे गये अंश में विद्यमान है । उन्हें हम विद्युतीय तरंगों के रूप में माप सकते हैं । उस खण्ड को विद्युतीय रूप से उद्दीप्त कर वही चित्र रूप पुनरावृत्त किया जा सकता है। कलाकारों की चित्र शैली व रंग शैली में इन मस्तिष्कीय खण्डों की व्याधियों से परिवर्तन आ सकते हैं । जर्मन वैज्ञानिक हॉफ ने जागृत मरीजों की खोपड़ी के पिछले हिस्से को सुई लगाकर सुन्न किया, खोपड़ी में एक बड़ा छेद किया, मस्तिष्क पर बिजली के महीन तारों से हल्की विद्युत प्रवाहित की और मरीज की अनुभूतियों को डायरियों में लिखता गया । कुछ उदाहरण देखिये - रंगों का विस्फोट हो रहा है, अजीब-अजीब डिजाईनें जन्म ले रही हैं और गायब हो रही हैं, केलिडोस्कोप की भांति । वस्तु और रंग अलग होते जा रहे हैं । लाल गेंद से लाल रंग अलग हो गया है या तो दूर जा रहा है या पास आ रहा है। पदार्थों की सतह मखमली या स्पंजनुमा दिख पड़ रही है । रंग बिरंगी वस्तुओं के अलग-अलग रंग भिन्न दिशाओं व आयामों में छिटक गये हैं।
यदि मरीज चित्रकार, परिधान डि.जाईनर या अन्तरिक सज्जाकार हो तो इस प्रकार की कमियाँ अधिक विविधता जटिलता और प्रगाढ़ता से प्रकट होती हैं। ब्रिटिश न्यूरालाजिस्ट इंग्रेथ ने १९३४ में एक ६२ वर्षीय चित्रकार का वर्णन प्रकाशित किया था- अपने चित्रों में वह गहराई या तीसरा आयाम ठीक से चित्रित नहीं कर पाता था । इस कमी से उबरने के लिये वह न.जदीकी वस्तुएं चित्र के बाँये निचले कोने में व दूरस्थ वस्तुएं दायें-ऊपरी कोने में चित्रित करने लगा । वह नीले व काले रंग का प्रयोग बिना सूझ-बूझ के करता था। वह प्रायः नीले रंग को टालता था, चाहे उसकी कितनी ही आवश्यकता क्यों न हो । कभी-कभी एक ही लेण्डस्कैप को दो अलग-अलग रंगों में दोहरा देता था । इंग्रेथ के अनुसार, चित्रकला में नीला रंग का उपयोग गहराई दर्शाने में होता है क्योंकि नीला रंग ही जल, समुद्र, आकाश या शून्य का रंग है । यही कारण है कि सात वर्ष से कम उम्र के बच्चें की कला में नीला रंग कम दिख पड़ता है। उन्हें गहराई का बोध होता ही नहीं । लन्दन और फ्लोरंस में बच्चें के अस्पताल में विकलांग बच्चें की बनाई पेंटिंग्स के अध्ययन से ऐसा ही निष्कर्ष निकाला गया था।
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