डॉ. आलिवर सॉक्स के बारे में मैंने सबसे पहले मई १९८७ में जाना था । फिलाडेल्फिया, पेन्सिल्वानिया में मेरे एक न्यूरोसर्जन मित्र के घर प्रसिद्ध पुस्तक वह आदमी जो गलती से पत्नी को टोप समझ बैठाङ्ख पढना शुरु की थी । उसमें डूब गया था । अपनी पसन्द की चीज मिल गई थी। उसके बाद से ऑलिवर सॉक्स के व्यक्तित्व और लेखन में रुचि लगातार बढती गई । शुरु में धीरे-धीरे और बाद में जल्दी-जल्दी मैंने उनकी सभी किताबें पढ डाली । मैं आभारी हूँ हैदराबाद से डॉ. रेड्डीज लेबोरेटरी द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका हाउसकाल्सङ्ख की संपादक सुश्री रत्ना राव शेखर का जिन्होंने सुझाव दिया कि क्यों न मैं डॉ. आलिवर से भेंट का समय लूं, साक्षात्कार करूं और उन पर आलेख लिखूं । समय मांगने हेतु पत्र में मैंने लिखा - मैं आपका अनन्य प्रशंसक हूँ । आपके लेखन से प्रेरित होकर उम्मीद करता हूँ कि मैं भी हिन्दी में अपने मरीजों के बारे में लिखूं । एक गुरु के रूप में आपकी छवि और विचारवान अर्न्तदृष्टि का भारतीय सांस्कृतिक मानकों और दार्शनिक परम्पराओं का साथ मुझे मधुर सामंजस्य प्रतीत होता है ।ङ्ख
मिलने का समय तय हुआ २७ अप्रैल २००७, न्यूयार्क दोपहर २ः३० बजे । मैं और पत्नी नीरजा उनके द्वार पर पांच मिनिट पहले पहुंच गये थे । गलियारे में एक सज्जन बाहर आये और पूछा कि क्या आप डॉ. ओलिवर सॉक्स का कमरा ढूंढ रहे हैं । हमारे हाँ, कहने पर उन्होंने एक ओर इशारा करा और बोले - जाओ, अन्दर जाओ, खूब आनन्द आयेगा । नीरजा ने पूछा - आपको कैसे मालूम कि हम किसे ढूंढ रहे हैं । जवाब मिला - अभी मैं उनके साथ था और उन्होंने अगले मुलाकाती से भेंट के बारे में बताया था । जाओ, मजे लो ।
और निःसन्देह आगामी दो घण्टे हमें भरपूर आनन्द से सराबोर कर देने वाले थे । एक शुद्ध आल्हाद जो महान मेघा के सान्निध्य मं प्राप्त होता है । ऐसे विनम्र विद्वान जो दूसरों को उनकी तुच्छता का अहसास नहीं कराते । ऐसी प्रतिभा जिससे ज्ञान, समझ व बुद्धि झरते हैं । डॉ. ऑलिवर में सतत् बोलने, कहने, बताने, साझा करने टिप्पणी करने, दर्शाने और समझाने की चाहत है । वाणी का ऊर्जावान आवेग है । कोमल, मुलायम, धीमी, मधुर वाणी । अपने श्रवण यंत्र के साथ वे अच्छे श्रोता भी हैं । आप उन्हें रोक सकते हैं । वे आपके लम्बे, घुमावदार प्रश्न या कथन को ध्यान से सुनेंगे और आप क्या कहना चाहते हैं इसे शीघ्र बूझ कर, आपको बीच में रोक देंगे तथा दोनों पक्षों का समय बचा लेंगे ।
उनके दफ्तर और आवासीय कक्ष दोनों, ढेर सारी दुर्लभ, सुन्दर, महत्वपूर्ण, ऐतिहासिक और अर्थवान वस्तुओं द्वारा घनीभूत और समृद्ध तरीके से भरे हुए हैं । ऐसी तमाम चीजों को दिखाने और समझाने के लिये एक अच्छे गाईड की जरूरत होती है । डॉ ओलिवर सॉक्स इस हेतु स्वतत्पर हैं । उन्हें आनन्द आता है । स्वयं चुनते हैं या हमारे इशारा करने या पूछने पर बताते हैं । ढेर सारी किताबें, कागजात, दस्तावेज और पत्र-व्यवहार से टेबल, अलमारी आदि पटे पडे हैं । कमरा ठसाठस है पर बेतरतीब नहीं । चीजें व्यवस्थित हैं । उनके पुरस्कारों और सम्मानों की पट्टिकाएं हैं । दीवार पर लगे प्रदर्शन-तख्तों पर बहुत से फोटोग्राफ चिपके हैं दृश्य इन्द्रियों के लिये देख पाने का सैलाब हैं ।
सुश्री केट एडगर लम्बे समय से डॉ. ओलिवर की सहयोगी, मित्र व उनकी पुस्तकों की संपादिका रही हैं । वे आपका स्वागत करती हैं । डॉ. सॉक्स के लिये समस्त पत्र व्यवहार, ई-मेल व एपाईन्टमेंट आदि वे ही सम्हालती हैं । मुलाकात के पहले जब मैं अपने विभिन्न केमरा और डायरी आदि के साथ घबराया हुआ जूझ रहा था तो उन्हीं ने मुझे शान्तिपूर्वक धैर्य धारण करवाया । शीघ्र ही डॉ. ओलिवर का ऊंचा पूरा, सुदर्शन, सुन्दर व्यक्तित्व हमारे सामने उपस्थित होता है । आरम्भिक अभिवादन और हाथ मिलाने के बाद हम दोनों उनके पैर छूते हैं और बताते हैं कि भारत में बडों और सम्माननीय व्यक्तियों से मिलते और जुदा होते समय इसी प्रकार आदर व्यक्त किया जाता है । वे शायद पूरा समझे नहीं । खुद झुक कर हमारे शिष्ट आचरण की नकल करने की कोशिश करते हैं । बीच में रुक जाते हैं । मुझे कमर दर्द है मैं झुक नहीं सकताङ्ख । हम शर्मसार हो जाते हैं । नहीं नहीं... आपको ऐसा कुछ नहीं करना है । आप बस हमारे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद देवें ।ङ्ख और अपने हाथों से हम उनसे यह करवा लेते हैं ।
उन्होंने हल्के नीले रंग की कमीज पहनी है, गहरे नीले रंग की टाई व जैकेट है । उनकी प्रसिद्ध ढाढी व निश्छल मुस्कान सदैव विमान है । पास से देखने पर ललाट पर हल्के रंग का लांछन है ।
अध्ययन कक्ष की ओर जाते समय, एक टेबल पर डॉ. ओलिवर हमें तरह-तरह की धातुओं के अयस्क बताना शुरु करते हैं । मुझे मालूम था कि बचपन से डॉ.ओलिवर को रसायन शास्त्र, धातुएं और पीरियाडिक टेबल द्वारा उनके वर्गीकरण में गहरी रूचि थी । मुलाकात का अन्त होते होते हम अनेक कमीजों, टोपी, पोस्टर, चादर, तकिया, लिहाफ, काफी-मग आदि पर रासायनिक तत्वों के चिन्हों या फार्मूलों का कलात्मक, कल्पनामय और बौद्धिक चित्रण देख चुके थे । धातुओं और तत्वों के रसायन विज्ञान में ओलिवर का मन जब बचपन से डूबा तो अभी भी वैसा ही निमग्र है । एक खास प्रकार का जुनून है । लेकिन डॉ. ओलिवर अपने असली रूप में स्थितप्रज्ञ, मध्यमार्गी और उदार हैं ।
उनकी लिखने की मेज पर दो प्रकार के लेम्प हैं । एक पुराना पारम्परिक जिसमें टंगस्टन का तार विुत द्वारा गरम होने से दमकता है । और दूसरा आधुनिक, प्रयोगधर्मी, दैदीप्यमान गैस से भरा हुआ, जिन्हें हम ट्यूब लाइट, वेपर लेम्प या सी.एफ.एल. के रूप में जानते हैं । दूसरे लेम्प में इलेक्ट्रानिक रूप से उसके प्रकाश की तीव्रता, रंग और आभा को नियंत्रित करने की व्यवस्था है । हमारे मेजबान को पुराने प्रकार का बल्ब अधिक सुन्दर लगता है । मैं कहता हूँ कि ऊर्जा के उपभोग में कमी लाने के लिये नये प्रकार के प्रकाश स्रोत जरूरी हैं । वे भी मानते हैं और उल्लेख करते हैं कि आस्ट्रेलिया में गरम तन्तु वाले पुराने लेम्प बन्द किये जा रहे हैं । जब मैं कहता हूँ कि मुझे भी फिलामेंट बल्ब में ज्यादा सौन्दर्य अनुभूति मिलती है तो वे खुश हो जाते हैं । उनके अध्ययन कक्ष के बाहर लगे एक पुराने बल्ब के बारे में फख्र से बताते हैं कि वह उनके मामा की फेक्टरी के जमाने का है ।
मेज के ऊपर एक बोर्ड पर लगे चित्रों की ओर इशारा करके कहते हैं - ये मेरे नायक हैं । मैं शर्मिंदा हूँ कि मैं उनमें से किसी को भी पहचान नहीं पाता । चेहरों के बारे में मेरी स्मृति (ओलिवर की भी, जैसा कि उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है) कमजोर है । अधिकांश चित्र १८वीं और १९वीं शताब्दी के रसायन और भौतिकी के वैज्ञानिकों के हैं । नाम मेरे सुने हुए थे । बीसवीं सदी में से , डी.एन.ए. की रचना के खोजकार नोबल विजेता डॉ. फ्रांसिस क्रिक का चेहरा मैं जानता हूँ । एक भरे बदन की स्वस्थ खुशनुमा स्त्री का चित्र है जो खोजी है और तैराक है, एन्टार्कटिका के ठण्डे समुद्र में भी बिना गर्म सुरक्षा के चली जाती है ।
टेबल की दराज से डॉ. ऑलिवर दो चमकीले चिकने, रुपहले, धातुओं के गोले निकालते हैं और हमें अपने हाथ में उठाने को देते हैं । देखो - कितने सुन्दर एलिमेन्ट्स हैं - यह टंग्स्टन है - कितना भारी है । दूसरा थोडा हल्का है - टेन्टालम । वर्गीकरण में टेन्टालम का क्रम ७२ और टंग्स्टन का ७४ है। और मैं बीच में हुआ ७३ ।
डॉ. ओलिवर का जन्म १९३३ में हुआ था । वर्ष २००७ में साक्षात्कार के समय वे ७३ वर्ष के थे । हल्के मुदित हास्य की बालसुलभ लेकिन वैज्ञानिक अदा पर हम निहाल हो गये ।
मैं अपना छोटा सा वीडियो कैमरा शुरु करता हूँ और एक लघु तिपाये स्टेण्ड पर उसे कस कर बीच की टेबल पर रखता हूँ ।
तुम्हारा कैमरा और तिपाया कितने सुन्दर हैं । किसी दूसरे ग्रह से आये प्राणी की तरह हमें आंख गडा कर घूरते प्रतीत हो रहे हैं । है न जिज्ञासा की और सोचने की बात कि जीवन के बायोलाजिकल विकास में चौपाये और दो पाये बने पर तीन या पांच पांव वाले प्राणी नहीं । हालांकि लेखन साहित्य के कल्पनालोक में इक्का दुक्का उदाहरण हैं । साइन्स फिक्शन (विज्ञान-गल्प) के उपन्यास द डे आफ टेरेफिकङ्ख (भयानक का दिन) में एक डरावना पौधा है जिसमें जानवरों के गुण हैं और तीन पांव हैं । महान लेखक एच.जी. वेल्स के उपन्यास दुनियाओं का युद्धङ्ख में तीन पांव वाली मार्शल-मशीन है ।"
मैं साक्षात्कार व मुलाकात का अवसर प्रदान करने के लिये आभार व्यक्त करता हूँ । डॉ. सॉक्स मेरे पत्र, हाउसकाल्स पत्रिका, उसके कलेवर तथा उसमें प्रकाशित मेरी मातृ संस्था महात्मागांधी मेडिकल कॉलेज इन्दौर के बारे में मेरे लेख की सराहना करते हैं । इसी बीच पास के फ्लेट से ठक-ठक की आवाज बार-बार परेशान करने लगती है । कोई मिस्त्री काम कर रहा था । डॉ. सेक्स निर्णय लेते हैं कि हम उनके आवास कक्ष चले चलें । ईमारत से बाहर निकल कर पचास कदमों की दूरी थी । लगी हुई बिल्डिंग थी । न्यूयार्क शहर की पूर्वी नदी के किनारे वसन्त की उस दोपहर सूरज की धूप चटख परन्तु सौम्य थी । हवा ठण्डी और ताजी थी । नौकाएं और छोटे जहाज लंगर डाले पडे थे । ये क्षण मानों मेरे लिये जिन्दगी में किसी मुकाम पर पहुंच पाने के क्षण थे । नीरजा ने हम दोनों का पीछे से एक चित्र लिया ।
डॉ. ऑलिवर का सजग, अवलोकनशील, विश्लेषणात्मक और मुखर मन आपको बारम्बार आश्चर्य चकित और मनोरंजित करता है । आवासीय इमारत में लिफ्ट में ऊपर जाते समय नीरजा ने डॉ. ओलिवर का एक फोटोग्राफ लिया तो वे टिप्पणी करने से न चूके । किसी लिफ्ट में फोटो लिये जाने का यह मेरे लिये प्रथम अवसर है ।ङ्ख भाग्यशाली हम थे कि हमें अनेक प्रथम अनुभवों का मौका मिला । जैसे कि स्वयं डॉ. ओलिवर के अनुसार उनके शयन कक्ष में आगंतुकों को ले जाया जाना । केवल इसलिये कि मुलाकात की शुरुआत में मैंने रासायनिक तत्वों के वर्गीकरण हेतु मेन्डलीफ की पीरियाडिक तालिका के बारे में पूछ लिया थाऔर वे हमें अपने बेडरूम में चादर, तकिया और लिहाफ पर उक्त तालिका की सुन्दर कढाई दिखाना चाहते थे । प्रथम अवसर का एक और उदाहरण था - डॉ. ओलिवर के किचन में गपशप जब कि वे हमारे लिये खास ब्रिटिश चाय बना रहे थे । चौके में उनका एक मात्र और सर्वाधिक हुनर, जो भी था, हमारी सेवा में हाजिर था । चाय-पत्ती, पानी, दूध, चीनी सभी चीजों को सावधानीपूर्वक मापा गया । हम गद्गद् थे कि दूध अलग से गर्म किया गया । वरना उत्तरी अमेरिका व यूरोप में चाय-काफी में या तो दूध डालते नहीं या फिर फ्रिज का ठण्डा दूध रख देते हैं । गरमागरम पेय का मजा जाता रहता है । चाय बनाने के बाद उसे भिन्न आकार के तीन मग में समान रूप से वितरित किया गया । पूरे समय डाक्टर साहब की कमेन्टरी और नीरजा का कैमरा चलते रहे । मैं तो सातवे आसमान पर था । प्यालियों के बाहर अलग-अलग डिजाइनें थीं । एक पर फर्न्स,दूसरे पर शक्कर का फार्मूला (C6H12O6)तीसरे पर भेडिया (डॉक्टर साहब का पूरा नाम ओलिवर वोल्फ सॉक्स है) । बशियों या प्लेटों पर भी इसी प्रकार की कलाकारियां थीं । एक दौर में ओलिवर सामुद्रिक जीव वैज्ञानिक (मरीन बायोलाजिस्ट) बनना चाहते थे । कटलफिशङ्ख नामक प्राणी उन्हें प्रिय है । उसकी एम्ब्रायडरी से युक्त एक केप पहन कर उन्होंने हंसते हुए फोटोग्राफ का पोज दिया । डॉ. ओलिवर के अन्दर एक शो-मेन छिपा हुआ है - जिसका दिखावा आपको चुभता या चिढाता नहीं, बल्कि आपके हृदय को हल्का और खुशनुमा बनाता है । कैमरे के सम्मुख उनका चेहरा और भी अधिक भावप्रवण हो उठता है तथा मुस्कान अधिक संक्रामक ।
हर वस्तु के बारे में कुछ न कुछ कहना अनवरत जारी था। यह मग इस्टोनिया से है । इस बोन चाइना जार में मैं नमक रखता हूँ अतः इस पर फार्मूला छरउश्र छपा है । यह फॉसिल डॉ. जेम्स पार्किन्सन ने ढूंढा था । हाँ, वही डाक्टर जिसके द्वारा वर्णित बीमारी बाद में पार्किन्सन रोग के रूप में जानी गई । वह एक महान बायोलाजिस्ट भी था ।ङ्ख
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