शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

आदरणीय श्री विलास गुप्तेजी की स्मृतियों के प्रति सादर नमन

आदरणीय विलास गुप्ते जी की सेवा का कुछ अवसर मुझे मिला। पिछले सात वर्षों से वे मायस्थीनिया रोग का उपचार ले रहे थेतथा संतोषजनक लाभ था। पता नहीं क्यों और कैसे पिछले एक माह में उनके रोग ने देखते ही देखते बडी जल्दी से तीव्र स्वरूप धारण कर लिया। इस तरह की क्रायसिस मायस्थीनिया के कुछ मरीजों में देखने में आती है। प्रायः कोई संक्रमण (इन्फेक्शन) इसकी वजह बनता है। श्री गुप्ते सर की फेफडों में इन्फेक्शन था। तीन सप्ताह तक उतार-चढाव होते रहे। उम्मीद और निराशा का धूप छांव का खेल चलता रहा। धीरे-धीरे लगने लगा कि अब यह लडाई बेमानी होती जा रही है।
आरम्भिक दिनों में उनकी मुस्कान हौसला बढाती थी। बाद में वे जोर-जोर से गर्दन हिलाकर जताने लगे कि तुम जो सांत्वना और दिलासा दे रहे हो वह झूठे हैं। मुख मार्ग से श्वास नली में ट्यूब लगी होने से वे बोल नहीं पाते थे। मनुष्य को शायद अपनी सही स्थिति और नियति का अहसास अन्तप्रज्ञा से होने लगता है। परिजनों ने अनथक परिश्रम किया व सहयोग दिया। गहन चिकित्सा इकाई से सुरसा के मुंह के समान बढते खर्चों को, सामर्थ्य से बाहर होने के बावजूद, बिना शिकन या झिझक के वहन करते रहे। नया ज्ञानोदय (जुलाई २००१) में गोपाल काबरा लिखित - एक डाक्टर की डायरी - "घर ले चलो" में वर्णित दुःखद परिदृश्य मेरी अन्तर्चेतना का सदैव कचोटता रहता है। मैं उसी व्यवस्था का एक अंग हूँ या उसी मशीन का एक पुर्जा हूँ। जब आई.सी.यू. नहीं थे, नई तक्नालाजी नहीं थी, महंगा इलाज नहीं था, क्या वे दिन बेहतर थे ? शायद नहीं। जो मरीज बच जाते हैं, वे तथा उनके परिजन जब अनेक वर्षों के अंतराल के बाद इन संकट के दिनों को दुस्वप्न के रूप में याद करते हैं तब वे कुल मिला कर आधुनिक चिकित्सा प्रणाली के प्रति कृतज्ञता व सराहना का भाव रखते हैं।
आदरणीय मामाज श्री विलास गुप्ते सर (मेरे अभिन्न मित्र और सहपाठी डॉ. राजेन्द्र आर्य के मामाजी होने के नाते) का सरल सहृदय व्यक्तित्व व स्नेह भरी मुस्कानें मुझे सदैव याद रहेंगे।

1 टिप्पणी:

Yukti ने कहा…

I don't personally know Shri Vilash Gupte, however the tribute written by you is out pour of heart felt feelings in a lucid manner. I have always appreciated your writings but this piece of literature really steals the show.

Yukti