सोमवार, 18 अगस्त 2014
हिन्दी में विज्ञान लेखन में चुनौतियां।
हिन्दी में विज्ञान विषयों पर लिखने वाले को सदैव इस समस्या का सामना करना पड़ा है कि या तो वे भाषा व ज्ञान को अति सरलीकृत रखें और विषयवस्तु की गुणवत्ता व मात्रा दोनों की बलि चढ़ा दें या फिर सचमुच में कुछ गम्भीर व विस्तृत व आधुनिक लिखें, फिर चाहे ये आरोप क्यों न लग जाए कि भाषा दुरूह है। बीच का रास्ता निकालना मुश्किल है। हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में उच्च स्तर की भाषा पढ़ने समझने वालों का प्रतिशत घटता जा रहा है। हिन्दी शब्दावली इसलिये दुरूह महसूस होती है कि हमने उस स्तर की संस्कृतनिष्ठ भाषा सीखी ही नहीं और न उसका आम चलन में उपयोग किया। अंग्रेजी शब्द आसान प्रतीत होते हैं क्योंकि वे पहले ही जुबान पर चढ़ चुके होते हैं। समाज का वह बुद्धिमान व सामथ्र्यवान तबका जो उच्च स्तर की हिन्दी समझ सकता है, अपना अधिकांश पठन-मनन अंग्रेजी में करता है। हिन्दी पर उसकी पकड़ छूटती जाती है। वह निहायत ही भद्दी मिश्रित भाषा का उपयोग करने लगता है। बचे रह जाते हैं अल्पशिक्षित विपन्न वर्ग के लोग। हिन्दी जब तक श्रेष्ठिवर्ग या उच्च स्तर के बुद्धिजीवी वर्ग में प्रतिष्ठित नहीं होती तब तक इस लेखक को अपनी भाषा को सरलीकृत करने को मजबूर होना पड़ेगा और वैज्ञानिक तथ्यों को कुछ हद तक छोड़ना पड़ेगा। अं्रगे्रजी जानने वाले पाठक इस पुस्तक के अंग्रेजी रूपान्तरण का 80 प्रतिशत समझ पायेंगे। हिन्दी भाषी पाठक वर्तमान सरलीकृत रूप का 50 प्रतिशत से कम समझ जायेंगे क्योंकि या तो उन्होंने उतना विज्ञान पढा ही नहीं या अंग्रेजी पढा। हिन्दी माध्यम के विद्यालय व महाविद्यालय यदि निरन्तर निम्न वर्ग की संस्थाऐं बनती रहें तो हिन्दी में विज्ञान लेखन का स्तर एक सीमा से उपर नहीं उठ पायेगा। इस लेखक ने स्वयं हिन्दी माध्यम की शालाओं में शिक्षा प्राप्त की। आज से तीन दशक पूर्व उच्च मध्यवर्ग तक के बालक-बालिकाऐं शासकीय संस्थाओं में अध्ययन करते थे। आज निम्न मध्य वर्ग के पालक भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम की शालाओं में भेजते हैं। फिर भी उम्मीद की जाती है कि इस प्रयोग से उपयोगी प्रतिपुष्टि ‘फीडबेक’ प्राप्त होगी तथा भविष्य में हिन्दी में बेहतर मूल लेखन की प्रेरणा प्राप्त होगी।
विश्व के अन्य देशों में बीमारियों पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। उसका रूपान्तरण किया गया है। अंग्रेजी भाषा की शैली इंडियन व मुहावरे का प्रभाव कहीं-कहीं दृष्टिगोचर हो सकता है। वैज्ञानिक शब्दावली के चयन में अनेक प्रयोग हैं। केंद्रीय हिन्दी निदेशालय व शिक्षा मंत्रालय द्वारा प्रकाशित वृह्त पारिभाषिक शब्द संग्रह का उपयोग किया गया, परन्तु ये शब्द प्रायः दुरूह, अति तत्सम या संस्कृत आधारित प्रतीत हुए। अन्य हिन्दी-अंग्रेजी कोशों की मदद ली गई। आम बोलचाल की हिन्दुस्तानी से उर्दू आधारित व तद्भव शब्दों को भी चुना गया है । लेखक ने स्वयं अनेक नये शब्द गढ़े हैं। प्रामाणिक एक-रूपी शब्दावली का उपयोग न करना, अकादमिक दृष्टि से श्रेयस्कर नहीं है। फिर भी सोचा यह गया कि इस साहित्य से प्रमुख लाभन्वित रहने वाले लोग हैं मरीज, रिश्तेदार व प्राथमिक स्वास्थ्य कर्मी। यह पाठ्यपुस्तक नहीं है इसलिये शब्द चयन में छूट ली गई है।
भारतीय भाषाओं पर अधिकार रखने वाले चिकित्सकों व वैज्ञानिकों का कर्तव्य बनता है क् िवे जन स्वास्थ्य शिक्षा के क्षेत्र में आगे आऐं। साक्षरता, शिक्षा व आर्थिक स्तर में सुधार के साथ उम्मीद की जाती है कि विकासशील देशों में भी इस प्रकार स्वास्थ्य साहित्य की मांग व चलन बढ़ेगा। अंतिम लक्ष्य है मरीज की आत्मनिर्भरता। स्वयं की बीमारी व उपचार के सन्दर्भ में सारे निर्णय चिकित्सक के हाथों में छोड़ने के बजाय वह भी उक्त प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी निभाऐं, ऐसी अभिलाषा है।
यह एक चुनौति है ं। एक टीम की दरकार है। अकेले करना मुश्किल है। एक अर्धकालिक सम्पादक तो कम से कम चाहिये। चिकित्सा विज्ञान पत्रकारिता में ग्लेमर, रसूख, सम्पर्क और पैसा नहीं मिलता। इसलिये कोई इस तरफ रूख ही नहीं करता। कलेवर में गहराई और विविधता के लिये बहुत सारे लेखक चाहिये जो समय-समय पर रचनाऐं देते रहें। पाठकों से अभी तक प्रतिसाद अच्छा मिला है परन्तु कुछ प्रतिक्रियाओं और सुझावों से मैं सहमत नहीं हो पाया। आप इसे अ्रग्रेजी में क्यों नहीं निकालते ? मेरे भाई, अंग्रेजी में चिकित्सा शिक्षा साहित्य की कोई कमी नहीं है, जरूरत तो हिन्दी व भारतीय भाषाओं में काम करने की है, इसमें न्यूरोलाॅजी के अलावा अन्य विषयों पर भी छापिये पत्रिका का नाम न्यूरोज्ञान इस बात का पक्का द्योतक है कि प्रकाशक की मंशा क्या है। एक बार में एक ही बीमारी के बारे में क्यों ? जिसे जो रोग होता है,उसे उसी के बारे में जानने की लालसा होती है और उस अंक को हम उसी रोग से पीडि़त व्यक्तियों को पोस्ट करते हैं। न्यूरोज्ञान के प्रत्येक अंक में किसी एक रोग पर तैयार सामग्री को निम्न शीर्षकों में संग्रहित किया जाता है - 1. रोग से सम्बन्धित वैज्ञानिक पहलू -सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक दोनों । 2. उक्त रोग से पीडि़त व्यक्तियों और परिवारों के हितों के लिये काम करते संगठन तथा उनकी गतिविधियों के समाचार। 3. कुछ मरीजों व देखभालकर्ताओं की आप बीती। 4. शोध के समाचार तथा भविष्य की सम्भावनाऐं 5. वैज्ञानिक पारिभाषिक शब्दावली । 5. ज्ञान की परख - आत्मपरीक्षण हेतु प्रश्नावली और उत्तर। 6. शिक्षाप्रद पोस्टर्स या कलाकृति।
जीवन का पहला सुख निरोगी काया है। परन्तु बीमार पड़ना भी मनुष्य की नियति है। देह घरे का दण्ड है। मृत्यु, वृद्धावस्था व रोग के क्रूर सत्य के अहसास ने युवक सिद्धार्थ को गौतम बुद्ध बना दिया।
बहुत से रोग अल्प अवधि के होते हैं। ठीक हो जाते हैं। एक लघु दुःस्वप्न के समान, हम उन्हें प्रायः भूल जाते हैं। कुछ दूसरे रोग दीर्घ अवधि के होते हैं। ठीक नहीं होते। बने रहते हैं। बार-बार लौट कर वार करते हैं। या बिगड़ते चले जाते हैं, जीवन का स्थाई अंग बन जाते हैं। ऐसी बीमारी से सामना पड़ने पर, उसकी निरंतरता से रूबरू होने पर, लोग हतप्रभ रह जाते हैं, विश्वास नहीं करते, स्वीकार नहीं करते, विद्रोह करते हैं, उदास हो निराशा के गर्त में गहरे डूब जाते हैं, हार जाते हैं।
परन्तु जीवन फिर भी चलता है। दौड़ता है। हासिल करता है। मंजिलों तक पहुंचता है। ऐसे में रोग से लड़ने का सहारा कहां से मिलता है? अपने अंतर्मन की जीवनी-शक्ति से, जिजीविषा से। यह शक्ति या तो जन्मजात होती है या बाद में गढ़ी जाती है। सहारा मिलता है-परिजनों से मित्रों से, चिकित्सा व्यवसाय में रत कर्मियों से।
आस्था भी एक सहारा है। आस्था अपने आप में । आस्था ईश्वर में या नियति में - आस्था अपने सत्कर्मों व सद्बुद्धि में।
दो और स्रोत हैं सहारे के - ज्ञान व हमसफर। ज्ञान एक बड़ी शक्ति है। अज्ञान भय है। ज्ञान हमंे निर्भय बनाता है। ज्ञान किस बात का ? रोग का, उसके कारणों , लक्षणों, निदान, प्रयोगशाला जांचों, उपचार, पूर्वानुमान आदि अनेक पहलुओं का । बीमारी के बारे में हमारी समझ हमारा विश्वास बढ़ाती है। स्थिति हमें नियंत्रण में प्रतीत होती है। सत्य चाहे बुरा हो, अनिष्ठदर्शक हो, फिर भी उसे जानना बेहतर है, बजाय कि अज्ञान व अनिश्चय के अंधकार में डूबे रहने के । रेत में सिर छुपाने से तुफान नहीं टलता। मुंह छिपाने से यथार्थ छुप नहीं जाता। सत्य शायद उतना बुरा न हो जितना अन्यथा सोचने में आता है या सत्य शायद उतना बुरा है फिर भी वह मदद करता है - हमें मन से तैयार करता है।
बीमारी का उपचार एक मार्गी उपक्रम नहीं है। डाॅक्टर ने दवा लिखी, आपने ले ली। हमें क्या करना बीमारी के बारे में जानकर! हमें मतलब है ठीक होने से। ऐसी मानसिकता ठीक नहीं। उपचार उभयमार्गी व बहुमार्गी उद्यम है। एक टीम-वर्क है। मरीज व उसके परिजनों को सक्रिय भूमिका निभानी है। चिकित्सकों के पास अधिक जानकारी है, इसका मतलब यह नहीं कि व आपके शरीर के एक मात्र नियंता हो गये। निर्णय प्रक्रिया में मरीज व घरवालों को भी भागीदारी होना चाहिये। चिकित्सकगण विकल्प बतायेंगे, सम्भावनाओं की चर्चा करेंगे। अपने हित में, अपनी सोच, अपनी रूचि, अपनी पारिवारिक स्थिति के आधार पर कौन सा विकल्प उचित होगा यह फैसला सिर्फ डाक्टर्स द्वारा थोपा नहीं जा सकता। अतः रोग का ज्ञान जरूरी है।
ज्ञान के साथ दूसरा सहारा है - हमसफर, हमदर्द। उसी रोग से ग्रस्त अन्य मरीज। यह जानना सुकून देता है कि हम अकेले नहीं है हमारे जैसे और भी हैं। बीमारी से लड़ रहे हैं। कोई छोटी विजय। कोई बड़ी विजय। हार कर भी नहीं हार रहे हैं। वास्तविकता को स्वीकार कर रहे हैं। जीवन को ढाल रहे हैं। अपने आपको हालातों के अनुकूल बना रहे हैं। समझौता करना सीख रहे हैं। जीवन के लक्ष्यों को पुनः परिभाषित व संशोधित करना सीख रहे हैं। परिवर्तित जीवन शैली व मंजिल में संतोष ढूंढ रहे हैं। नई उर्जा संग्रह कर रहे हैं। अपने जैसे दूसरे रोगियों के अनुभव को जानना एक बहुत बड़ा सहारा है। न्यूरोज्ञान पत्रिका मरीजों के लिये ज्ञान और हमसफर का मिला जुला स्रोत है। इसमें निहित जानकारियां व अनुभव एक प्रतिध्वनि के समान चिकित्सकों व मरीजों के वृहत्तर होते जाते समूह में गुंजायमान होती चली जाएंगी। लघु पत्रिकाओं की यह श्रंखला, स्वास्थ्य संबंधी अन्य पत्रिकाओं से भिन्न होंगी। न्यूरोलाॅजी और फिर बाद में अन्य बीमारियों पर केंद्रित इसके अंक निकलेंगे। मिर्गी-मुकाबला और पार्किन्सोनिज्म-प्रहार नाम से प्रथम अंक निकले हैं। किसी एक बीमारी पर केंद्रित न्यूज लेटर उन्हीं को भेजा जाएगा जो उससे पीडि़त हैं। या उनके परिजनों व मित्रों को, तथा तत्सम्बन्धी ज्ञान का प्रचार प्रसार करने में योगदान हेतु तत्पर हो। विभिन्न न्यूरोलाॅजिकल बीमारियों से ग्रस्त मरीजों के नाम पतों की एक बड़ी सूची हमारे पास है। हमारी पहली मेलिंग लिस्ट इसी से बनी। पत्रिका पाने वालों से अनुरोध है कि अपने जैसे अन्य मरीजों को इसकी सूचना देवें, उनके नाम-पते हमारे पास भेजें ताकि हमारी सूची का विस्तार होता रहे। अन्य रोग जिन पर ऐसे ही न्यूजलेटर निकल रहे हैं-पक्षाघात ‘लकवा‘, वाचाघात ‘अफेजिया’, सेरीब्रल पाल्सी ‘ बाल लकवा’, बे्रन ट्यूमर, मन्द बुद्धि व सीखने में अवरोध, एल्जीमर्स-डिमेन्शिया ‘बुद्धिक्षया’, मायोपेथी, मोटरन्यूराॅन डिसीज, अधोअंग लकवा ‘स्पाइनलकार्ड रोग’ व अन्य और।
कुछ बीमारियों से ग्रस्त मरीजों की संख्या लाखों में है ‘मिर्गी, पक्षाघात’, कुछ की हजारों में ‘पार्किन्सोज्मि’ कुछ सैंकड़ों में या उससे भी कम। अल्पसंख्या में होने वाले दुर्लभ रोगों तक भी प्रतिध्वनि पहुंचेगी। हमारा लक्ष्य है अधिकाधिक प्रकार के रोगियों तक ज्ञान का प्रसार करना, उन्हें हमसफर का साथ मुहैया कराना और टोली में शामिल करना। विभिन्न नगरों और बस्तियों में विभिन्न रोगों से ग्रस्त मरीजों के स्वयंसेवक समूहों का निर्माण करना इस प्रक्रिया का अगला आनुषंगित परिणाम होगा।
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1 टिप्पणी:
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