शनिवार, 19 सितंबर 2009

दुर्घटना के बहाने चिंतन - डॉ. अपूर्व पौराणिक

प्रिय मित्रों,
दिनांक ३ सितम्बर २००९ को दोपहर २ बजे मैं एक सडक दुर्घटना का शिकार हुआ । एम.वाय. अस्पताल के न्यूरालाजी विभाग में काम करते समय मुझे सुयश अस्पताल से फोन आया कि एक मरीज को सिर्फ दो घण्टे पूर्व लकवे (पक्षाघात) का दौरा शुरू हुआ है । उसे तुरन्त आ कर देखें । तीन घण्टे की समयावधि में एक विशेष, महंगा, इन्जेक्शन देने से उक्त अटैक को रोका जा सकता है तथा ठीक किया जा सकता है । ऐसे अवसर बिरले ही प्राप्त होते हैं। अधिकांश मरीज प्रायः देर से आते हैं । मैं तुरंत रवाना हुआ। मेडिकल कालेज के सामने आगरा-बाम्बे हाई-वे पार करके सुयश अस्पताल है। कार से पहुंचने में घूम कर तथा लाल बत्ती पार कर आना होता है । तथा ५-१० मिनिट अतिरिक्त लगते । अतः मैं कार से उतरा और पैदल सडक पार करने लगा। फिर मुझे कुछ याद नहीं । बाद में पता लगा कि सडक का दूसरा आधा हिस्सा पार करते समय एक मोटर साईकल सवार से मेरी टक्कर हुई थी। दोनों जमीन पर गिरे थे । लोगों ने घेर रखा था परन्तु कोई कुछ न कर रहा था । वाहन चालक शीघ्र ही उठकर आगे चला गया । मैं बेहोश था, आंखें खुली थीतथा शरीर निस्पन्द। एक मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव (मंगेश) ने मुझे पहचाना। सामने स्थित अस्पताल के चौकीदार व चपरासी द्वारा ट्राली लाने में देर करने पर लताड लगाई । एक अन्य नागरिक की मदद से मुझे टांगा-टोली कर उठाया । अस्पताल के स्टाफ ने जब मुझे पहचाना तो त्वरित उपचार आरम्भ हुआ। शायद आधे घण्टे बाद मुझे आंशिक होश आया होगा ।
मैं भ्रमित था। पूरी तरह पहचान नहीं रहा था। धीरे-धीरे सुधार हुआ । आगामी एक घण्टे में जो देखा व बातचीत करी वह अभी याद नहीं है और न आयेगी । दायें कान से खून बह रहा था। दोनों घुटनों पर चोट थी । पत्नी नीरजा का चेहरा पहली स्मृति है। कह रही थी कुछ नहीं हुआ, बच गये आप सडक पार कर रहे थे। तब मुझे अहसास होना शुरू हुआ कि मैं अस्पताल की आई.सी.यू. में हूँ । अनेक चेहरे पहचाने, नर्स, श्रीकान्त रेगे न्यूरोसर्जन, राजेश मुल्ये न्यूरालाजिस्ट, गोविंद मालपानी, जी.एल. जाखेटिया प्लास्टिक सर्जन आदि । मैंने नीरू से कहा - मेरी गलती थी । मुझे सडक पार नहीं करना चाहिये थी। मस्तिष्क का सी.टी. स्केन तथा घुटनों के एक्स-रे सामान्य थे। अगले दिन सुबह हम घर आ गये।
ये पंक्तियाँ लिखते समय करीब १४ दिन बीत चुके हैं। स्वास्थ्य सुधार पर है। अस्पताल की नौेकरी से मैं छुट्टी पर हूँ । बाहर मरीज देखने नहीं जा रहा हूँ। खूब आराम कर रहा हूँ। केवल घर पर शाम को चार घण्टे मरीज देखता हूँ। इस अवधि में सोचने विचारने की जमीन और अवसर मिले । उन्हीं में से कुछ का साझा करना चाहता हूँ ।
दुर्घटना के पल की कल्पना कर के मन दहल जाता है। कैसे गिरा होऊंगा, कितनी जोर से लगी होगी। कितनी गुलाटियाँ खाई होंगी। हम भारतीय लोग अपने नागरिक कर्त्तव्य में पीछे क्यों हैं ? सारी भीड ताक रही थी परन्तु मदद क्यों नहीं की ? पुलिस केस में बाद में परेशान होने का बहाना और भय कितना वास्तविक है और कितना अतिरंजित ? क्या यह हमारी पुलिस के लिये शर्म की बात नहीं कि उसके भय से देश के नागरिक एक घायल इन्सान को मदद पहुंचाने से डरते हैं? या फिर शायद पुलिस अधिकारी यह सफाई देंगे कि पुलिस केस का बहाना झूठा है, लोग खुद अपनी जिम्मेदारी से भागने के लिये पिटी-पिटाई बात को दोहरा देते हैं। शायद दोनों बातों में सधाई का अंश हो। हमारे देश में कितने लोगों को सार्वजनिक स्थल पर घायल या बेहोश पडे व्यक्ति की प्राथमिक चिकित्सा करने और उसे सही विधि से अस्पताल में स्थानान्तरित करने का ज्ञान है ? बहुत कम को । सैद्धान्तिक की तुलना में प्रायोगिक तो और भी कम। इसकी शिक्षा और प्रशिक्षण को हमारे पाठ्यक्रम और नागरिक ड्रिल का हिस्सा कैसे बनाया जा सकता है ? इसके लिये कौन जिम्मेदार है ? अस्पताल के स्टाफ की जिम्मेदारी और भी अधिक हो जाती है। चौकीदार, चपरासी, रिसेप्शनिस्ट, टेलीफोन आपरेटर, सफाई कर्मी, प्रत्येक को इस बात का अहसास और ज्ञान और अभ्यास होना चाहिये कि इमर्जेन्सी व प्राथमिक चिकित्सा में क्या करें। यदि निजि/प्रायवेट अस्पताल के कर्मचारियों के रिफ्लेक्स ढीले हैं तो सरकारी अस्पताल की कल्पना की जा सकती है ।
यदि मरीज वी.आई.पी. न हो, उसे कोई पहचानता न हो तो उसकी दुर्गति की आशंका क्यों अधिक होना चाहिये ? क्या प्रत्येक मरीज को त्वरित व श्रेष्ठ उपचार मिलना उसका मूलभूत अधिकार नहीं है ? क्या मोटरबाईक चालक या फिर किसी भी वाहन चालक का कर्त्तव्य नहीं बनता है कि वह घटना स्थल से न भागे, दूसरे घायल व्यक्ति की मदद करे । मैं स्वयं यदि वाहन चालक या दर्शक या अस्पताल का चौकीदार होता तो इस बात की क्या ग्यारन्टी कि मेरा व्यवहार बेहतर होता? किसी समाज की परिपक्वता, शालीनता, मानवीयता, नैतिकता और आदर्श परकता का आकलन इन्हीं प्रश्नों के उत्तरों द्वारा सम्भव है न कि इस बात से कि वहां की सभ्यता संस्कृति कितनी पुरानी है, कितनी महान है या कि वहां के लोग शाकाहारी हैं व अहिंसा को धर्म मानते हैं।
इस प्रकार की घटना/दुर्घटना आप को सोचने के लिये मजबूर करती है - जीवन कितना क्षण भंगुर है, कितना अस्थायी, अनिश्चित, नश्वर है। भाग्य के महत्व को पुनः स्वीकारना पडता है। ये अनुभव आपको विनम्र बनाते हैं। अहंकार को कम करते हैं। जीवन के महत्व और उसकी सार्थकता तथा उपादेयता की ओर विचार करने को प्रेरित करते हैं। जब तक अच्छे हो, खैर मना लो, मौज कर लो, भक्ति कर लो, सत्कर्म कर लो - जैसी मानसिकता हो वैसा कर लो। कल क्या होगा किसने जाना ? जो भी है बस यही इक पल है। आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू।
विचारों की श्रंखला में उथल पुथल है। विरोधाभासी मनःस्थिति बनती मिटती रहती है। कभी लगता है जो कुछ है आनन्द है - केवल इस क्षण या वर्तमान का आनन्द। कभी लगता है कि जीवन में कुछ सार्थक, मूल्यवान कर के जाना चाहिये । सार्थकता की परिभाषा व्यक्ति, देश और काल के अनुरूप बदलती है। और सार्थकता किस हद तक तथा किस कीमत पर? क्या परिवार की कीमत पर ? स्वयं के आनन्द की कीमत पर ? पर उस इन्सान का क्या करें जिस के लिये स्वयं परिभाषित सार्थक - लक्ष्यों को पाना ही आनन्द है? दूसरे सांसारिक आनन्द अच्छे तो लगते हैं परन्तु उनकी तुलनात्मक अधिकता होने से जब लक्ष्यों को पाने के आनन्द की हानि होती है तो सहा नहीं जाता ।
दुर्घटना के बाद भावनाओं के अनेक दौर से गुजरना होता है। 'यह नहीं हो सकता', 'यह सच नहीं है', 'यह मेरे साथ नहीं हो सकता' और 'फिर मेरे साथ ही क्यों हुआ?' 'नियति ने इस घटना के लिये मुझे क्यों चुना ?' 'मैंने ऐसा क्या किया जो मेरे साथ ऐसा हुआ ?'
लोग तरह-तरह से सांत्वना देते हैं। 'अच्छा हुआ जो ज्यादा चोट नहीं लगी।' 'वरना और भी बुरा हो सकता था।' 'यह सोचो कि सस्ते में निपट गये।' 'बुरी बला आई थी जो टल गई', 'जरूर इसमें कोई अच्छाई छिपी होगी लोगों की/मरीजों की दुआएं होंगी जो आप बच गये', 'ईश्वर महान है' आदि-आदि ।
मैं नहीं जानता कि इसमें ईश्वर की महानता की क्या बात है। मुझे चोट लगी इसमें ईश्वर की क्या कृपा ? किसी अन्य मित्र या मेरे लिये अपरिचित इन्सान (पर दूसरों के लिये प्रियजन) को अधिक गम्भीर चोट लगती तो उसमें ईश्वर की क्या कृपा ? यह सब महज संयोग है । हम सब के साथ सांख्यिकीय संभावनाएं जुडी हैं । पहले से कुछ नियत नहीं है। किसी के भी साथ कहीं भी कुछ भी हो सकता है। होनहार को कौन टाल सकता है?ङ्ख यह व्यर्थ की टेक है। जो हो गया वह होनी में लिखा थाङ्ख यह जताने या जानने में कौन सी बुद्धिमानी है। अच्छे बुरे कर्मों के फल जरूर होते हैं परन्तु उसे इतनी आसानी से नहीं समझा जा सकता । यदि मेरा स्वभाव अच्छा है, मैं दूसरों की मदद करता हूँ, किसी को नुकसान नही ंपहुंचाता तो दूसरे लोग भी मेरे साथ प्रायः (लेकिन हमेशा नहीं) ऐसा ही करेंगे। यहाँ तक तो ठीक है। इसके आगे कर्मफल को खींचना गलत है। एक जनम से दूसरे जनम तक उसके प्रभावों की धारणा से मैं पूर्णतया असहमत हूँ। ईश्वर के पास कोई सुपर कम्प्यूटर नहीं है जिसमें वह हजारों वर्षों तक, अरबों लोगों द्वारा किये गये खरबों अच्छे बुरे कर्मों का लेखा जोखा रखे और फिर कोई अबूझ, अजीब, सनक भरी न्याय प्रक्रिया द्वारा किसी को कुछ सजा देवें तो किसी को कुछ इनाम। जो हुआ उसके पीछे कुछ अच्छा छिपा थाङ्ख यह तो मैं नहीं मानता परन्तु कोशिश रहनी चाहिये कि जैसी भी परिस्थिति बन पडी हो उसका श्रेष्ठतम उपयोग किया जावे।
जब मैं ईश्वर के महान होने या महज होने के बारे में संदेह व्यक्त करता हूँ तो उसका मतलब मेरी विनम्रता में कमी या अहंकार में अधिकता कतई नहीं है। मैं अपने आपको अत्यंत, विनम्र, दीन-हीन, लघु, छुद्र, गौण और नश्वर मानता हूँ। मुझे कोई मुगालते नहीं हैं। ब्रह्माण्ड की निस्सीमता, सृष्टि की अर्वाचीनता, धरती ग्रह की विलक्षणता, प्राणीमात्र का आविर्भाव, डार्विनियन विकास गाथा की जटिल सरलता और मानव मस्तिष्क की चमत्कारी प्रज्ञा, आदि सभी के प्रति मेरे मन में अनन्त, श्रद्धा, आदर, आश्चर्य, कौतुहल व जिज्ञासा का भाव है।
लोगों की शुभेच्छाओं, आशीर्वादों, दुआओं, प्रार्थनाओं आदि के प्रति मेरे मन में आदर और कृतज्ञता का भाव है। इसलिये नहीं कि उनकी वजह से मेरी नियति या प्रारब्ध में कोई बडा फर्क पडता है, परन्तु केवल इसलिये कि ये भावनाएं, मानव मात्र के मन में एक दूसरे के प्रति सहानुभूति और मदद करने की इच्छा की ोतक होती हैं। इनसे मन को अच्छा लगता है। अच्छे के प्रति और स्वयं के प्रति मन में आत्मविश्वास को संबल मिलता है। रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में प्रशंसा मुझे लज्जित करती है, परन्तु मैं चुपके-चुपके उसकी भीख मांगता हूँ।
पिछले दिनों सैकडों, मित्रों, मरीजों और छात्रों से ऐसे ही सुखद संदेश मिले। जिनसे मिले, उन्हें मन लम्बे समय तक याद रखेगा, उनके प्रति उपकृत रहेगा । जिनसे न मिले, उनमें से कुछ के बारे में यदा-कदा कुछ विचार कौंधा और तिरोहित हो गया। कोई शिकायत नहीं। मन में तो और भी हजारों लोगों ने मेरे बारे में अच्छा ही सोचा होगा - ऐसी कल्पना करके मैं आश्वस्त और पुलकित रहता हूँ।

सोमवार, 7 सितंबर 2009

अफेसिया या वाचाघात भाग ३

दायाँ हो या बायाँ; सीधा हो या उल्टा : वाचाघात से उसका क्या सम्बन्ध ?
अधिकांश लोग (लगभग ९०%) दैनिक जीवन के कामकाज में दाहिने हाथ का उपयोग अधिक करते हैं बजाय कि बायें हाथ के । खासकर के भोजन करना, लिखना आदि काम लगभग सभी लोग सीधे या राइट हेण्ड से करते हैं। लेफ्ट हेन्डर (खब्बू) की संख्या कम है। बहुत थोडे से ऐसे भी होते हैं जो दोनों हाथों से समान रूप से निपुण होते हैं। अर्जुन अपना गाण्डीव धनुष चलाते समय किसी भी हाथ का समान दक्षता से प्रयोग करता था। उन्हें सव्य साची कहते हैं।
दाहिने हाथ से अधिक काम करने वालों के मस्तिष्क का बायाँ गोलार्ध भाषा व वाणी का नियंत्रण करता है। केवल दो प्रतिशत अपवाद छोड कर । बायें हाथ से काम करने वालों में मस्तिष्क के दायें गोलार्ध द्वारा वाणी पर नियंत्रण करने की सम्भावना अधिक रहती है - लगभग पचास प्रतिशत।
जब दिमाग के बायें आधे गोले में पक्षाघात का अटैक या अन्य रोग आता है तो शरीर के दायें आधे भाग में लकवे के साथ-साथ बोली भी चली जाती है, अफेजिया/वाचाघात होता है।
जब दिमाग के दायें आधे गोले में पक्षाघात का अटैक या अन्य रोग आता है तो शरीर के बायें आधे भाग में लकवे के साथ-साथ बोली या भाषा पर कोई असर नहीं पडता, वाचाघात/अफेजिया नहीं होता।
जब मानव मस्तिष्क का विकास अन्य प्राणियों की तुलना बहुत ऊंचे स्तर पर पहूँचने लगा तो श्रम-विभाजन का सिद्धान्त लागू होने लगा। काम जटिल हैं। काम बहुत सारे हैं। यह काम तुम करो। यह काम वह करेगा। विशेषज्ञकरण। स्पेशलाईजेशन। जानवरों के दिमाग में इसकी जरूरत नहीं है। केवल इन्सान के दिमाग में जरूरी है। भाषा व बोली की जिम्मेदारी बायें गोलार्ध के कुछ हिस्सों पर आन पडी। उन हिस्सों को छोड कर दिमाग के शेष भागों में रोग होवे तो बोली का लकवा नहीं होगा।

अफेसिया भाग २

कुछ मरीज एक शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द का उपयोग कर बैठते हैं। (परा-शब्द/पेराफेजिया)। कहना चाहते थे - मुझे चाय चाहिये - मुंह से निकलता है मेरे... मेरे .... को ... वह ... वह ... दूध... नहीं ... दूध..... ।
प्रायः यह पराशब्द, इच्छित शब्द की श्रेणी का होता है। कभी-कभी असम्बद्ध शब्द या अनशब्द (नानवर्ड) भी हो सकता है।
सुनकर समझने में कमी - ऐसा लगता है मानों मरीज ऊंचा सुनने लगा हो। बहरा हो गया हो, लेकिन ऐसा होता नहीं। कान अच्छे हैं, पर दिमाग समझ नहीं पाता। आप बोलते रहे, समझाते रहे, मरीज आपकी तरफ भाव शून्य सा टुकुर-टुकुर ताकता रहता है। या फिर क्या-क्या, या हाँ-हाँ कहता है पर समझता कुछ नहीं । बीमारी की तीव्रता कम हो तो कुछ सीधी-सादी सरल सी बातें, जो एक दो शब्द या छोटे वाक्यों के रूप में, धीमी गति से स्पष्ट स्वर में, हावभाव के साथ बोली गई हों, समझ में आ सकती हैं। लम्बे लम्बे, कठिन, वाक्य जो जल्दी-जल्दी, शोरगुल के मध्य बोले गये हों समझ में नहीं आते।
पढकर समझने में कमी - भाषा के चिन्ह चाहे ध्वनियों के रूप में कान से दिमाग में प्रवेश करें या आंखों के रास्ते अक्षरों के रूप में, अन्दर पहुंचने के बाद उनकी व्याख्या करने का स्पीच-सेन्टर एक ही होता है। अतः वाचाघात के कुछ मरीजों में आंखों की ज्योति अच्छी होने के बावजूद पढने की क्षमता में कमी आ जाती है।
लिखकर अभिव्यक्त करने में दित
उद्‌गारों की अभिव्यक्ति चाहे मुंह से ध्वनियों के रूप में फूटे या हाथ से चितर कर, उसका स्रोत मस्तिष्क में एक ही होता है। उक्त स्रोत में खराबी आने से वाचाघात/अफेजिया होता है। इसके मरीज ठीक से लिखना भूल जाते हैं। लिखावट बिगड जाती है। मात्राओं की तथा व्याकरण की गलतियाँ होती हैं। लिखने की चाल धीमी हो जाती है। पूरे-पूरे वाक्य नहीं बन पाते।