शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

टेंशन टाईप हेडेक

टेंशन टाईप हेडेक, सिर दर्द के प्रमुख कारणों मे ंसे एक है। माईग्रेन के बाद उसी का नम्बर आता है। दोनों व्याधियाँ बहुतायात से होती हैं, कुछ लक्षण मिलते हैं तथा अनेक मरीजों में दोनों प्रकार के सिरदर्द एक ही समय पर या अलग-अलग समय पर साथ-साथ हो सकते हैं।
तनाव सदृश सिरदर्द (टेंशन टाईप हेडेक) युवावस्था, अधेड उम्र व प्रौढावस्था में होता है। स्त्री-पुरूष अनुपात २ः१ है। बधों व बूढों में कम होता है। इसमें प्रायः सिर के दोनों ओर दर्द होता है जो आगे ललाट पर या बगल में कनपटी पर या ऊपर तानकी पर या पीछे गर्दन के पास हो सकता है। बहुत से मरीजों में पूरी खोपडी दुखती है। दर्द की तीव्रता कम या मध्यम दर्जे की होती है। दैनिक कामकाज जैसे-तैसे जारी रखा जा सकता है। दर्द की अवधि १५ मिनिट से लेकर ७२ घंटे तक हो सकती है। दर्द का प्रकार भारीपन, वजन, दबाव या खिंचाव जैसा होता है। दर्द के साथ कभी-कभी जी मितलाना हो सकता हैपरन्तु उल्टीयाँ नहीं होती। तेज शोरगुल व तेज रोशनी के प्रति असहनशीलता देखने को नहीं मिलती। इस प्रकार के सिरदर्द के दौरे बार-बार आते हैं। अपने आप आते हैं। कभी जल्दी और कभी देर से आते हैं। कभी कम अवधि के कभी अधिक अवधि का, कभी कम तीव्रता के तो कभी अधिक तीव्रता के। अनेक सप्ताह या महीने अच्छे निकल जाते हैं। फिर जल्दी-जल्दी आ सकते हैं। लगातार अनेक दिनों तक जारी रह सकते हैं। कुछ समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों होता है। कुछ मरीज अपने अनुभव से कभी-कभी सही अनुमान लगा लेते हैं कि फलां फलां कारण जिम्मेदार है जैसे - थकान, उदासी, मानसिक, तनाव, पढाई का बोझ, काम का बोझ, व्यस्तता, नींद पूरी न होना, पेट साफ न होना, पेट में तथाकथित गैस की अधिकता होना, माहवारी (मासिक धर्म) के दो-तीन दिन पूर्व या उसके दौरान टी.वी. या फिल्म देखना, यात्रा करना। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता और सभी मरीजों में नहीं होता।
टेंशन टाईप हेडेक नाम क्यों रखा गया? शायद शुरू में सोचते थे कि खोपडी, सिर, गर्दन व चेहरे के आसपास की मांसपेशियों में तनाव अधिक होने से यह सिरदर्द होता है। एक आरम्भिक नाम था मसल कान्ट्रेक्शन हेडेक अर्थात्‌ मांसपेशियों का संकुचन या सिकुडना। कुछ मरीजों में इन मांसपेशियों को ऊंगली से दबाकर देखने पर मरीज को दर्द होता है। इलेक्ट्रोमायोग्राफी (ई.एम.जी.) नामक जांच से मांसपेशियों की विुत सक्रियता को मशीन पर मापा जा सकता है। टेंशन टाईप हेडेक वाले कुछ मरीजों में यह सक्रियता अधिक पाई गई। कुछ मरीजों में खोपडी की बाहरी मांसपेशियों में बोटॉक्स नामक औषधि के एकाधिक बिन्दुओं पर लघु इंजेक्शन देने से लाभ हुआ। बोटॉक्स मांसपेशियों (मसल्स) की सक्रियता कम कर उन्हें थोडा शिथिल बनाता है। ये कुछ सबूत थे, परन्तु पर्याप्त नहीं माने गये। बहुत से दूसरे मरीजों में भिन्न परिणाम मिले। दूसरे शोधकर्ताओं द्वारा इन परिणामों की पुष्टि नहीं हुई। तब अन्तर्राष्ट्रीय सिरदर्द संघ के दल ने मिलकर निर्णय लिया कि मसल कान्ट्रेक्शन या मसल टेंशन के बजाय सिर्फ टेंशन टाईप शब्दावली का उपयोग हो। इन सारे मरीजों के लक्षण मिलते जुलते हैं और ये मसल कान्ट्रेक्शन या टेंशन (संकुचन या तनाव) के समान प्रतीत होते हैं, हालांकि हम नहीं जानते कि वास्तव में मांसपेशियाँ सिकुडती है या नहीं इसलिये हम इन्हें टेंशन टाईप हेडेक कहेंगे। हिन्दी में आसान पर्यायवाची होगा- तनाव सदृश सिरदर्द- पाठकों से अन्य विकल्प आमंत्रित हैं।
टेंशन टाईप हेडेक का नाम सुनते ही मरीज व घरवाले विरोध करते हैं - हमें कोई टेंशन नहीं है..., इसे भला क्या तनाव हो सकता है..., हमारे घर/परिवार में ऐसी कोई बात नहीं है..., मैं तो कोई टेंशन नहीं पालता, सदा मस्त व बिंदास रहता हूॅं... मैं कोई सायकोलाजिकल मरीज थोडे ही हूँ। डाक्टर साहब को समझ में कुछ आता नहीं, जबरदस्ती मुझे मानसिक रोगी घोषित कर रहे हैं, मुझे सच में बहुत दर्द होता है, मैं कल्पना नहीं करता, मैं सोचता नहीं हूँ।
मरीज व घरवाले अपनी जगह सही हैं। टेंशन टाईप हेडेक का मतलब मानसिक तनाव नहीं है। हम उन्हें समझाते हैं। टेंशन टाईप का इशारा खोपडी के बाहर स्थित मांसपेशियों व अन्य नाडियों या नसों के तनाव से हैं। यह तनाव अपने आप आता है। मरीज के सोचने से नहीं आता। हम नहीं जानते क्यों आता है? शायद मस्तिष्क के अन्दर से कुछ खराबी या संकेत आते हैं? वह आन्तरिक खराबी आती है, चली जाती है तथा फिर बार-बार आती है। इसके कारण भी नहीं मालूम । मानसिक तनाव यदा-कदा बढावा दे सकता है, परन्तु उसके साथ सिरदर्द का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता। अच्छी भली स्थिति में, खुश मिजाजी में, शान्त मनोवस्था में भी सिरदर्द हो सकता है। खूब तनाव, परेशानी, चिंता, टेंशन हो, उन परिस्थितियों में भी कई बार ऐसा होता है कि सिरदर्द था ही नहीं ।
टेंशन टाईप हेडेक के कारण के रूप में आनुवंशिकता या जिनेटिक्स की भूमिका सीमित है। माईग्रेन में अधिक है कुछ स्त्रियों में माहवारी या मासिक धर्म के दिनों में सिरदर्द की आशंका अधिक होती है। पेट में होने वाली तथाकथित गैस से टेंशन टाईप हेडेक का कोई सम्बन्ध नहीं होता, हालांकि आम लोगों में गैस को लेकर नाना प्रकार की अवैज्ञानिक धारणाएं व्याप्त है।
बीमारी का निदान -
चिकित्सक अन्ततः फैसला कैसे करते हैं कि किसी मरीज को होने वाला सिरदर्द टेंशन टाईप है ? हिस्ट्री सुनकर। मरीज व घरवालों से बात करके। वे मरीज से कहते हैं - अपने सिरदर्द के बारे में बताओ। कुछ मरीज अच्छे से बताते हैं, विस्तार से बताते हैं, खुद होकर, बिना पूछे कहते जाते हैं, काम की बातें करते हैं। कुछ अन्य मरीज अटकते हैं, चुप रह जाते हैं, ठीक से कह नहीं पाते, विस्तार में नहीं जा पाते, कम महत्व की बेकार की जानकारी देने की दिशा में भटक जाते हैं। ऐसे मरीजों/परिजनों को पटरी पर लाना पडता है । उपरोक्त तालिका में दिये गये सिरदर्द के विभिन्न पहलुओं की ओर मरीज का ध्यान आकर्षित करने के लिये प्रत्यक्ष सवाल पूछने पडते हैं । जैसे कि सिर दर्द कब से है ? कब होता है ? कितनी देर होता है ? कितनी बार होता है ? कितनी जोर से होता है ? कौन से प्रकार का होता है ? क्या करने से होता है ? या बढ जाता है ? क्या करने से कम होता है ? तेज दर्द के साथ और क्या तकलीफें होती है ? जैसे कि क्या उल्टियाँ होती है ? जी मचलताता है ? शोरगुल व तेज रोशनी सहन नहीं होती है ? काम करने , चलने फिरने से बढता है क्या ?
टेंशन टाईप हेडेक है या नहीं इसका फैसला लगभग पूरी तरह हिस्ट्री सुनकर हो जाता है। मरीज के शरीर की जांच करने से इसमें विशेष मदद नहीं मिलती। फिर भी एक न्यूनतम संक्षिप्त जांच करी जाती है। मरीज के सिर, आंखों, नाक, मुंह, दांत, गर्दन तथा बाकि शरीर का मुआयना करते हैं, छूते हैं टटोलते हैं, ठोकते बजाते हैं, आला (स्टेथोस्कोप) लगाते हैं। दो-चार मिनिट में हो जाता है। टेंशन टाईप हेडेक से ग्रस्त मरीजों के शरीर की उपरोक्त जांच में कभी कोई खराबी नहीं पाई जाती। शरीर की जांच में ऐसा कोई चिन्ह नहीं होता जिसे देखकर, पाकर, डाक्टर कहे - चूंकि यह खराबी या चिन्ह दिख रहा है, अतः मरीज को टेंशन टाईप हेडेक है या हो सकता है।
इस रोग के निदान में प्रयोगशाला जांचों की भूमिका भी, शारीरिक परीक्षण की उपयोगिता के समान सीमित है। दोनों का मुख्य उपयोग केवल इतना ही है कि टेंशन टाईप हेडेक के अलावा कहीं कोई अन्य रोग तो नहीं है। क्योंकि वैसी स्थिति में कोई खराबी मिलने की संभावना बढ जाती है। खून, पेशाब की जांचें, एक्स-रे, सी.टी. स्कैन,एम.आर.आई आदि सभी की रिपोर्ट में लिखा मिलता है - सामान्य, नार्मल, काई खराबी नहीं पाई गई।
मरीज या घरवाले पूछते हैं जब शारीरिक या प्रयोगशाला जांच में कोई खराबी नहीं है तो सिर क्यों दुखता है या फिर इस तरह इतना ज्यादा सिर दुखता है फिर भी जांचों में बीमारी (या उसका कारण) पकड में क्यों नहीं आता ? हम कहते हैं - इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं । अनेक बीमारियों का कारण या खराबी अत्यन्त सूक्ष्म होती है, केवल रासायनिक या आण्विक स्तर पर होती है कि जांच की वर्तमान विधियों में नजर नहीं आती। इसक अर्थ यह नहीं कि रोग नहीं है। बीमारी तो है। मरीज होने वाली तकलीफ झूठमूठ की या काल्पनिक नहीं है, वास्तविक है।
उपचार - दर्द को बढावा देते कारणों से बचने की कोशिश करें। नींद नियमित समय पर व पूरे अवधि की लें। भोजन नियमित समय पर करें। जागरण व उपवास से बचें। कब्जियत से दूर रहने के लिये पानी अधिक पीयें, हरी सब्जियाँ व फल दोनों समय लें, पैदल घूमें। दर्द मिटाने वाली गोलियाँ खाने की आदत न डालें। एक बार आदत पड जावे तो छूटना मुश्किल होता है। तात्कालिक लाभ अच्छा लगता है परन्तु अगला सिरदर्द जल्दी-जल्दी तथा ज्यादा जोर से होने की आशंका बढ जाती है। बार-बार अधिक तीव्रता वाले दर्द से पीडित मरीजों में रोकथाम हेतु एमिट्रिप्टेलिन नामक गोली १० मि.ग्रा. या २५ मि.ग्रा. प्रति शाम, लगभग सात बजे, भोजन के पूर्व, लगातार दो -चार माह लेने से लाभ होता है।

शनिवार, 19 सितंबर 2009

दुर्घटना के बहाने चिंतन - डॉ. अपूर्व पौराणिक

प्रिय मित्रों,
दिनांक ३ सितम्बर २००९ को दोपहर २ बजे मैं एक सडक दुर्घटना का शिकार हुआ । एम.वाय. अस्पताल के न्यूरालाजी विभाग में काम करते समय मुझे सुयश अस्पताल से फोन आया कि एक मरीज को सिर्फ दो घण्टे पूर्व लकवे (पक्षाघात) का दौरा शुरू हुआ है । उसे तुरन्त आ कर देखें । तीन घण्टे की समयावधि में एक विशेष, महंगा, इन्जेक्शन देने से उक्त अटैक को रोका जा सकता है तथा ठीक किया जा सकता है । ऐसे अवसर बिरले ही प्राप्त होते हैं। अधिकांश मरीज प्रायः देर से आते हैं । मैं तुरंत रवाना हुआ। मेडिकल कालेज के सामने आगरा-बाम्बे हाई-वे पार करके सुयश अस्पताल है। कार से पहुंचने में घूम कर तथा लाल बत्ती पार कर आना होता है । तथा ५-१० मिनिट अतिरिक्त लगते । अतः मैं कार से उतरा और पैदल सडक पार करने लगा। फिर मुझे कुछ याद नहीं । बाद में पता लगा कि सडक का दूसरा आधा हिस्सा पार करते समय एक मोटर साईकल सवार से मेरी टक्कर हुई थी। दोनों जमीन पर गिरे थे । लोगों ने घेर रखा था परन्तु कोई कुछ न कर रहा था । वाहन चालक शीघ्र ही उठकर आगे चला गया । मैं बेहोश था, आंखें खुली थीतथा शरीर निस्पन्द। एक मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव (मंगेश) ने मुझे पहचाना। सामने स्थित अस्पताल के चौकीदार व चपरासी द्वारा ट्राली लाने में देर करने पर लताड लगाई । एक अन्य नागरिक की मदद से मुझे टांगा-टोली कर उठाया । अस्पताल के स्टाफ ने जब मुझे पहचाना तो त्वरित उपचार आरम्भ हुआ। शायद आधे घण्टे बाद मुझे आंशिक होश आया होगा ।
मैं भ्रमित था। पूरी तरह पहचान नहीं रहा था। धीरे-धीरे सुधार हुआ । आगामी एक घण्टे में जो देखा व बातचीत करी वह अभी याद नहीं है और न आयेगी । दायें कान से खून बह रहा था। दोनों घुटनों पर चोट थी । पत्नी नीरजा का चेहरा पहली स्मृति है। कह रही थी कुछ नहीं हुआ, बच गये आप सडक पार कर रहे थे। तब मुझे अहसास होना शुरू हुआ कि मैं अस्पताल की आई.सी.यू. में हूँ । अनेक चेहरे पहचाने, नर्स, श्रीकान्त रेगे न्यूरोसर्जन, राजेश मुल्ये न्यूरालाजिस्ट, गोविंद मालपानी, जी.एल. जाखेटिया प्लास्टिक सर्जन आदि । मैंने नीरू से कहा - मेरी गलती थी । मुझे सडक पार नहीं करना चाहिये थी। मस्तिष्क का सी.टी. स्केन तथा घुटनों के एक्स-रे सामान्य थे। अगले दिन सुबह हम घर आ गये।
ये पंक्तियाँ लिखते समय करीब १४ दिन बीत चुके हैं। स्वास्थ्य सुधार पर है। अस्पताल की नौेकरी से मैं छुट्टी पर हूँ । बाहर मरीज देखने नहीं जा रहा हूँ। खूब आराम कर रहा हूँ। केवल घर पर शाम को चार घण्टे मरीज देखता हूँ। इस अवधि में सोचने विचारने की जमीन और अवसर मिले । उन्हीं में से कुछ का साझा करना चाहता हूँ ।
दुर्घटना के पल की कल्पना कर के मन दहल जाता है। कैसे गिरा होऊंगा, कितनी जोर से लगी होगी। कितनी गुलाटियाँ खाई होंगी। हम भारतीय लोग अपने नागरिक कर्त्तव्य में पीछे क्यों हैं ? सारी भीड ताक रही थी परन्तु मदद क्यों नहीं की ? पुलिस केस में बाद में परेशान होने का बहाना और भय कितना वास्तविक है और कितना अतिरंजित ? क्या यह हमारी पुलिस के लिये शर्म की बात नहीं कि उसके भय से देश के नागरिक एक घायल इन्सान को मदद पहुंचाने से डरते हैं? या फिर शायद पुलिस अधिकारी यह सफाई देंगे कि पुलिस केस का बहाना झूठा है, लोग खुद अपनी जिम्मेदारी से भागने के लिये पिटी-पिटाई बात को दोहरा देते हैं। शायद दोनों बातों में सधाई का अंश हो। हमारे देश में कितने लोगों को सार्वजनिक स्थल पर घायल या बेहोश पडे व्यक्ति की प्राथमिक चिकित्सा करने और उसे सही विधि से अस्पताल में स्थानान्तरित करने का ज्ञान है ? बहुत कम को । सैद्धान्तिक की तुलना में प्रायोगिक तो और भी कम। इसकी शिक्षा और प्रशिक्षण को हमारे पाठ्यक्रम और नागरिक ड्रिल का हिस्सा कैसे बनाया जा सकता है ? इसके लिये कौन जिम्मेदार है ? अस्पताल के स्टाफ की जिम्मेदारी और भी अधिक हो जाती है। चौकीदार, चपरासी, रिसेप्शनिस्ट, टेलीफोन आपरेटर, सफाई कर्मी, प्रत्येक को इस बात का अहसास और ज्ञान और अभ्यास होना चाहिये कि इमर्जेन्सी व प्राथमिक चिकित्सा में क्या करें। यदि निजि/प्रायवेट अस्पताल के कर्मचारियों के रिफ्लेक्स ढीले हैं तो सरकारी अस्पताल की कल्पना की जा सकती है ।
यदि मरीज वी.आई.पी. न हो, उसे कोई पहचानता न हो तो उसकी दुर्गति की आशंका क्यों अधिक होना चाहिये ? क्या प्रत्येक मरीज को त्वरित व श्रेष्ठ उपचार मिलना उसका मूलभूत अधिकार नहीं है ? क्या मोटरबाईक चालक या फिर किसी भी वाहन चालक का कर्त्तव्य नहीं बनता है कि वह घटना स्थल से न भागे, दूसरे घायल व्यक्ति की मदद करे । मैं स्वयं यदि वाहन चालक या दर्शक या अस्पताल का चौकीदार होता तो इस बात की क्या ग्यारन्टी कि मेरा व्यवहार बेहतर होता? किसी समाज की परिपक्वता, शालीनता, मानवीयता, नैतिकता और आदर्श परकता का आकलन इन्हीं प्रश्नों के उत्तरों द्वारा सम्भव है न कि इस बात से कि वहां की सभ्यता संस्कृति कितनी पुरानी है, कितनी महान है या कि वहां के लोग शाकाहारी हैं व अहिंसा को धर्म मानते हैं।
इस प्रकार की घटना/दुर्घटना आप को सोचने के लिये मजबूर करती है - जीवन कितना क्षण भंगुर है, कितना अस्थायी, अनिश्चित, नश्वर है। भाग्य के महत्व को पुनः स्वीकारना पडता है। ये अनुभव आपको विनम्र बनाते हैं। अहंकार को कम करते हैं। जीवन के महत्व और उसकी सार्थकता तथा उपादेयता की ओर विचार करने को प्रेरित करते हैं। जब तक अच्छे हो, खैर मना लो, मौज कर लो, भक्ति कर लो, सत्कर्म कर लो - जैसी मानसिकता हो वैसा कर लो। कल क्या होगा किसने जाना ? जो भी है बस यही इक पल है। आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू।
विचारों की श्रंखला में उथल पुथल है। विरोधाभासी मनःस्थिति बनती मिटती रहती है। कभी लगता है जो कुछ है आनन्द है - केवल इस क्षण या वर्तमान का आनन्द। कभी लगता है कि जीवन में कुछ सार्थक, मूल्यवान कर के जाना चाहिये । सार्थकता की परिभाषा व्यक्ति, देश और काल के अनुरूप बदलती है। और सार्थकता किस हद तक तथा किस कीमत पर? क्या परिवार की कीमत पर ? स्वयं के आनन्द की कीमत पर ? पर उस इन्सान का क्या करें जिस के लिये स्वयं परिभाषित सार्थक - लक्ष्यों को पाना ही आनन्द है? दूसरे सांसारिक आनन्द अच्छे तो लगते हैं परन्तु उनकी तुलनात्मक अधिकता होने से जब लक्ष्यों को पाने के आनन्द की हानि होती है तो सहा नहीं जाता ।
दुर्घटना के बाद भावनाओं के अनेक दौर से गुजरना होता है। 'यह नहीं हो सकता', 'यह सच नहीं है', 'यह मेरे साथ नहीं हो सकता' और 'फिर मेरे साथ ही क्यों हुआ?' 'नियति ने इस घटना के लिये मुझे क्यों चुना ?' 'मैंने ऐसा क्या किया जो मेरे साथ ऐसा हुआ ?'
लोग तरह-तरह से सांत्वना देते हैं। 'अच्छा हुआ जो ज्यादा चोट नहीं लगी।' 'वरना और भी बुरा हो सकता था।' 'यह सोचो कि सस्ते में निपट गये।' 'बुरी बला आई थी जो टल गई', 'जरूर इसमें कोई अच्छाई छिपी होगी लोगों की/मरीजों की दुआएं होंगी जो आप बच गये', 'ईश्वर महान है' आदि-आदि ।
मैं नहीं जानता कि इसमें ईश्वर की महानता की क्या बात है। मुझे चोट लगी इसमें ईश्वर की क्या कृपा ? किसी अन्य मित्र या मेरे लिये अपरिचित इन्सान (पर दूसरों के लिये प्रियजन) को अधिक गम्भीर चोट लगती तो उसमें ईश्वर की क्या कृपा ? यह सब महज संयोग है । हम सब के साथ सांख्यिकीय संभावनाएं जुडी हैं । पहले से कुछ नियत नहीं है। किसी के भी साथ कहीं भी कुछ भी हो सकता है। होनहार को कौन टाल सकता है?ङ्ख यह व्यर्थ की टेक है। जो हो गया वह होनी में लिखा थाङ्ख यह जताने या जानने में कौन सी बुद्धिमानी है। अच्छे बुरे कर्मों के फल जरूर होते हैं परन्तु उसे इतनी आसानी से नहीं समझा जा सकता । यदि मेरा स्वभाव अच्छा है, मैं दूसरों की मदद करता हूँ, किसी को नुकसान नही ंपहुंचाता तो दूसरे लोग भी मेरे साथ प्रायः (लेकिन हमेशा नहीं) ऐसा ही करेंगे। यहाँ तक तो ठीक है। इसके आगे कर्मफल को खींचना गलत है। एक जनम से दूसरे जनम तक उसके प्रभावों की धारणा से मैं पूर्णतया असहमत हूँ। ईश्वर के पास कोई सुपर कम्प्यूटर नहीं है जिसमें वह हजारों वर्षों तक, अरबों लोगों द्वारा किये गये खरबों अच्छे बुरे कर्मों का लेखा जोखा रखे और फिर कोई अबूझ, अजीब, सनक भरी न्याय प्रक्रिया द्वारा किसी को कुछ सजा देवें तो किसी को कुछ इनाम। जो हुआ उसके पीछे कुछ अच्छा छिपा थाङ्ख यह तो मैं नहीं मानता परन्तु कोशिश रहनी चाहिये कि जैसी भी परिस्थिति बन पडी हो उसका श्रेष्ठतम उपयोग किया जावे।
जब मैं ईश्वर के महान होने या महज होने के बारे में संदेह व्यक्त करता हूँ तो उसका मतलब मेरी विनम्रता में कमी या अहंकार में अधिकता कतई नहीं है। मैं अपने आपको अत्यंत, विनम्र, दीन-हीन, लघु, छुद्र, गौण और नश्वर मानता हूँ। मुझे कोई मुगालते नहीं हैं। ब्रह्माण्ड की निस्सीमता, सृष्टि की अर्वाचीनता, धरती ग्रह की विलक्षणता, प्राणीमात्र का आविर्भाव, डार्विनियन विकास गाथा की जटिल सरलता और मानव मस्तिष्क की चमत्कारी प्रज्ञा, आदि सभी के प्रति मेरे मन में अनन्त, श्रद्धा, आदर, आश्चर्य, कौतुहल व जिज्ञासा का भाव है।
लोगों की शुभेच्छाओं, आशीर्वादों, दुआओं, प्रार्थनाओं आदि के प्रति मेरे मन में आदर और कृतज्ञता का भाव है। इसलिये नहीं कि उनकी वजह से मेरी नियति या प्रारब्ध में कोई बडा फर्क पडता है, परन्तु केवल इसलिये कि ये भावनाएं, मानव मात्र के मन में एक दूसरे के प्रति सहानुभूति और मदद करने की इच्छा की ोतक होती हैं। इनसे मन को अच्छा लगता है। अच्छे के प्रति और स्वयं के प्रति मन में आत्मविश्वास को संबल मिलता है। रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में प्रशंसा मुझे लज्जित करती है, परन्तु मैं चुपके-चुपके उसकी भीख मांगता हूँ।
पिछले दिनों सैकडों, मित्रों, मरीजों और छात्रों से ऐसे ही सुखद संदेश मिले। जिनसे मिले, उन्हें मन लम्बे समय तक याद रखेगा, उनके प्रति उपकृत रहेगा । जिनसे न मिले, उनमें से कुछ के बारे में यदा-कदा कुछ विचार कौंधा और तिरोहित हो गया। कोई शिकायत नहीं। मन में तो और भी हजारों लोगों ने मेरे बारे में अच्छा ही सोचा होगा - ऐसी कल्पना करके मैं आश्वस्त और पुलकित रहता हूँ।

सोमवार, 7 सितंबर 2009

अफेसिया या वाचाघात भाग ३

दायाँ हो या बायाँ; सीधा हो या उल्टा : वाचाघात से उसका क्या सम्बन्ध ?
अधिकांश लोग (लगभग ९०%) दैनिक जीवन के कामकाज में दाहिने हाथ का उपयोग अधिक करते हैं बजाय कि बायें हाथ के । खासकर के भोजन करना, लिखना आदि काम लगभग सभी लोग सीधे या राइट हेण्ड से करते हैं। लेफ्ट हेन्डर (खब्बू) की संख्या कम है। बहुत थोडे से ऐसे भी होते हैं जो दोनों हाथों से समान रूप से निपुण होते हैं। अर्जुन अपना गाण्डीव धनुष चलाते समय किसी भी हाथ का समान दक्षता से प्रयोग करता था। उन्हें सव्य साची कहते हैं।
दाहिने हाथ से अधिक काम करने वालों के मस्तिष्क का बायाँ गोलार्ध भाषा व वाणी का नियंत्रण करता है। केवल दो प्रतिशत अपवाद छोड कर । बायें हाथ से काम करने वालों में मस्तिष्क के दायें गोलार्ध द्वारा वाणी पर नियंत्रण करने की सम्भावना अधिक रहती है - लगभग पचास प्रतिशत।
जब दिमाग के बायें आधे गोले में पक्षाघात का अटैक या अन्य रोग आता है तो शरीर के दायें आधे भाग में लकवे के साथ-साथ बोली भी चली जाती है, अफेजिया/वाचाघात होता है।
जब दिमाग के दायें आधे गोले में पक्षाघात का अटैक या अन्य रोग आता है तो शरीर के बायें आधे भाग में लकवे के साथ-साथ बोली या भाषा पर कोई असर नहीं पडता, वाचाघात/अफेजिया नहीं होता।
जब मानव मस्तिष्क का विकास अन्य प्राणियों की तुलना बहुत ऊंचे स्तर पर पहूँचने लगा तो श्रम-विभाजन का सिद्धान्त लागू होने लगा। काम जटिल हैं। काम बहुत सारे हैं। यह काम तुम करो। यह काम वह करेगा। विशेषज्ञकरण। स्पेशलाईजेशन। जानवरों के दिमाग में इसकी जरूरत नहीं है। केवल इन्सान के दिमाग में जरूरी है। भाषा व बोली की जिम्मेदारी बायें गोलार्ध के कुछ हिस्सों पर आन पडी। उन हिस्सों को छोड कर दिमाग के शेष भागों में रोग होवे तो बोली का लकवा नहीं होगा।

अफेसिया भाग २

कुछ मरीज एक शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द का उपयोग कर बैठते हैं। (परा-शब्द/पेराफेजिया)। कहना चाहते थे - मुझे चाय चाहिये - मुंह से निकलता है मेरे... मेरे .... को ... वह ... वह ... दूध... नहीं ... दूध..... ।
प्रायः यह पराशब्द, इच्छित शब्द की श्रेणी का होता है। कभी-कभी असम्बद्ध शब्द या अनशब्द (नानवर्ड) भी हो सकता है।
सुनकर समझने में कमी - ऐसा लगता है मानों मरीज ऊंचा सुनने लगा हो। बहरा हो गया हो, लेकिन ऐसा होता नहीं। कान अच्छे हैं, पर दिमाग समझ नहीं पाता। आप बोलते रहे, समझाते रहे, मरीज आपकी तरफ भाव शून्य सा टुकुर-टुकुर ताकता रहता है। या फिर क्या-क्या, या हाँ-हाँ कहता है पर समझता कुछ नहीं । बीमारी की तीव्रता कम हो तो कुछ सीधी-सादी सरल सी बातें, जो एक दो शब्द या छोटे वाक्यों के रूप में, धीमी गति से स्पष्ट स्वर में, हावभाव के साथ बोली गई हों, समझ में आ सकती हैं। लम्बे लम्बे, कठिन, वाक्य जो जल्दी-जल्दी, शोरगुल के मध्य बोले गये हों समझ में नहीं आते।
पढकर समझने में कमी - भाषा के चिन्ह चाहे ध्वनियों के रूप में कान से दिमाग में प्रवेश करें या आंखों के रास्ते अक्षरों के रूप में, अन्दर पहुंचने के बाद उनकी व्याख्या करने का स्पीच-सेन्टर एक ही होता है। अतः वाचाघात के कुछ मरीजों में आंखों की ज्योति अच्छी होने के बावजूद पढने की क्षमता में कमी आ जाती है।
लिखकर अभिव्यक्त करने में दित
उद्‌गारों की अभिव्यक्ति चाहे मुंह से ध्वनियों के रूप में फूटे या हाथ से चितर कर, उसका स्रोत मस्तिष्क में एक ही होता है। उक्त स्रोत में खराबी आने से वाचाघात/अफेजिया होता है। इसके मरीज ठीक से लिखना भूल जाते हैं। लिखावट बिगड जाती है। मात्राओं की तथा व्याकरण की गलतियाँ होती हैं। लिखने की चाल धीमी हो जाती है। पूरे-पूरे वाक्य नहीं बन पाते।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

राईटर्स क्रैम्प/ लेखन ऐंठन/ धन्धा- ऐंठन/ आक्यूपेशनल कैम्प

सतीशचंद्र शुक्ला, ४५ वर्षीय पुरुष एक ट्रान्सपोर्ट कम्पनी में प्रमुख क्लर्क के रूपम ें १० वर्ष से कार्यरत थे । र्दिंन लम्बा होता। घन्टों काम चलता। खूब र्लिंखना पड़ता। ढेर सारे आयटम। ढेर सारी कम्पर्निंयाँ। माल आने वाला, माल जाने वाला। सामान की बुकिंग, र्बिंल्टी बनाना, रसीद भरना। काम में कुशल थे। मार्लिंक खुश थे।
र्फिंर कुछ होने लगा। धीरे-धीरे । शुरु में मालूम न पड़ा। समझ में नहीं आया। दायें हाथ से र्लिंखते थे। उस कन्धे व बाँह में दर्द व भारीपन लगने लगा। कभी कम-कभी ज्यादा। र्लिंखने के बाद अर्धिंक। र्लिंखावट र्बिंगड़ने लगी। र्लिंखने की चाल धीमी होने लगी। कलम पर ऊंगर्लिंयों की पकड़ अनावश्यक रूप से सख्त और बलशाली होने लगी। जोर से पेन पकड़ना पड़ता। अग्रभुजा की माँसपेर्शिंयों में तनाव महसूस होता। तर्जनी व मध्यमा ऊंगली र्लिंखते-र्लिंखते टेढ़ी होने लगती, ऊपर उठने लगती। अक्षर टेढ़े-मेढ़े होने लगे। थकान महसूस होती। काम से डर लगने लगा। समय से पूरा न हो पाता। सहकर्मिर्ंयों ने पूछा - शर्माजी आपकी मोर्तिंयों जैसी हेन्डराईटिंग को क्या हो गया है ? यह सारा पर्रिवर्तन दो तीन माह में बढ़ता गया। छुट्टी के र्दिंन कोई तकलीफ नहीं । र्लिंखने के अलावा उस हाथ या भुजा से अन्य काम करने में कोई तकलीफ नहीं थी- भोजन करना, नहाना, दाढ़ी बनाना, बागवानी करना- सब सामान्य था।
पार्रिवार्रिक र्चिंर्किंत्सक ने सोचा र्किं सर्वाइकल स्पान्डिलोर्सिंस होगी। गर्दन की रीढ़ की हर्ड्डिंयों के मध्य स्थित जोड़ों का गर्ठिंया और वहाँ से गुजरने वाली नार्ड़िंयों (नर्वस) पर दबाव। गर्दन के एक्स-रे में कुछ खराबी पायी भी गई । तर्किंया लगाना बन्द र्किंया। गर्दन की कालर (पट्टा) पहना। दर्द र्निंवारक औषर्धिंयों का सेवन र्किंया। कोई लाभ न हुआ। काम र्बिंगड़ने से मार्लिंक नाराज रहने लगे।
पार्रिवार्रिक र्चिंर्किंत्सक की सलाह पर न्यूरालार्जिंस्ट को र्दिंखाया। नर्वस र्सिंस्टम (तंर्त्रिंका तंत्र) की शारीर्रिक जाँच में कोई खराबी नहीं थी। दायें हाथ व भुजा की मांसपेर्शिंयों की संरचना, आकार, तन्यता, प्रत्यास्थता, शर्क्तिं व सुघड़ता सामान्य थे। उक्त अंग की संवेदना (स्पर्श, दर्द आर्दिं की अनुभूर्तिं) तथा र्रिफ्लेक्सेस (प्रर्तिंवर्ती र्क्रिंयाऐं) भी अच्छे थे।
तब न्यूरोर्फिंर्जिंर्शिंयन ने सतीशचन्द्र को एक कोरे कागज पर कुछ र्लिंखने को कहा- अनुभवी कानों से सुन कर जो सोचा था, पारखी आँखों ने देख कर र्निंदान पक्का र्किंया। अच्छी भली स्वस्थ मांसपेर्शिंयाँ न जाने क्यों र्सिंर्फ इस एक कार्य - र्लिंखनेङ्ख - को अंजाम देने में असमर्थ थीं। हाथ टेढ़ा हुआ, मुड़ गया, मांसपेर्शिंयाँ तन गयीं, ऊंगर्लिंयाँ उठने लगी और काँपने लगी। घोर प्रयत्न के बाद कछुआ चाल से थोड़े से टेड़े मेड़े अक्षर र्लिंखे गये।
डाक्टर ने बीमारी का नाम बताया राईटर्स क्रैम्पङ्ख।
सतीश- क्या यह सर्वाइकल स्पार्न्डिंलोर्सिंस के कारण है ?
डाक्टर - नहीं
सतीश - लेर्किंन एक्स-रे में तो आया है?
डाक्टर - एक्स-रे में बहुत लोगों को आता है। खासकर चालीस वर्ष की उम्र के बाद। अर्धिंकांश में उसकी वजह से कोई तकलीफ नहीं होती।
सतीश - क्या यह टेंशन से है ?
डाक्टर - टेंशन के कारण यह रोग पैदा नहीं हुआ। यह अपने आप होता है। र्जिंन्हें तनाव नहीं होता उन्हें भी हो सकता है। अनेक व्यर्क्तिंयों को आप से अर्धिंक तनाव होगा पर उन्हें नहीं हुआ।
सतीश - क्या यह लकवा है ?
डाक्टर - यह लकवा नहीं है। तुम्हाने हाथ व भुजा की शर्क्तिं समान्य है।
सतीश - यह कैसी बीमारी है ? क्यों हुई ?
डाक्टर - हम नहीं जानते । इसका कारण अज्ञात है। यह एक प्रकार का मूवमेंट र्डिंसआर्डरङ्ख है। गर्तिंज व्यार्धिंङ्ख। गर्तिं या चलन में गड़बड़ी। इसका सम्बन्ध मस्तिष्क से है। र्दिंमाग की गहराई में स्थित कुछ र्हिंस्से होते हैं जो शरीर के अंगों की गर्तिं को संचार्लिंत करते हैं। उनमें अपने आप कुछ खराबी आती है र्जिंससे अच्छी भली मांसपेर्शिंयाँ सामान्य शर्क्तिं और संवेदना के बावजूद अनेक प्रकार के या र्किंसी एक प्रकार के काम को अंजाम नहीं दे पाती।
आपके मामले में मस्तिष्क का वह र्हिंस्सा बेसल गेंगर्लिंया या एक्स्ट्रार्पिंरार्मिंडल र्सिंस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा- लेर्किंन केवल एक गर्तिंर्विंर्धिं के सन्दर्भ में -र्लिंखने के र्लिंये
हार्डवेयर ठीक-ठाक है। साफ्टवेयर करप्ट हो गया है। प्रत्येक काम को संचार्लिंत करने के र्लिंये हमारे र्दिंमाग के उक्त र्हिंस्सों में बहुत प्रकार के मोटर प्रोग्राम बने रहते हैं। उनमें से एक फाईल, लेखन वाली - खराब हो गई है।
सतीश - ऐसा क्यों हुआ ?
डाक्टर - हमें नहीं मालूम।
सतीश - तो जांच कराके पता क्यों नहीं कर लेते। र्दिंमाग का एम.आर.आई. करवा दीर्जिंये।
डाक्टर - वह हम करवा देंगे परन्तु प्रायः उसमें कोई खराबी न.जर नहीं आती। र्रिपोर्ट में र्लिंखा आयेगा - सामान्य, अच्छा एम.आर.आई.
सतीश - बीमारी है पर खराबी क्यों नहीं ?
डाक्टर - खराबी सूक्ष्म है, महीन है, बारीक है। न.जर नहीं आती। पर है जरूर। कोर्शिंकाओं के स्तर पर, न्यूरान के अन्दरूनी पर्रिपथ (सर्किर्ंट) के स्तर पर, उनमें अन्तर्निर्ंर्हिंत रसायनों (ट्रान्सर्मिंटर्स) के स्तर पर
सतीश - राईटर्स क्रैम्प का इलाज क्या है?
डाक्टर - इसका इलाज संतोषजनक नहीं है। कुछ उपाय हैं र्जिंनसे कुछ मरीजों में आंर्शिंक सफलता र्मिंलती है। यह एक दीर्घकार्लिंक बीमारी है। क्रोर्निंक र्डिंसी.ज है । बरसों चलती है। कभी-कभी अपने आप कुछ कम हो जाती है। र्लिंखने में थोड़े र्दिंनों र्किं छुट्टी र्मिंल जाये, या काम का दबाव कम हो तो रोग की तीव्रता कम महसूस होती है। मानर्सिंक अवस्था या मूड जैसे र्किं तनाव, व्यग्रता, र्चिंड़र्चिंड़ापन, उदासी र्निंराशा आर्दिं का भी रोग के लक्षणों पर असर पड़ता है। इन वजहों से कई बार यह आकलन करना मुश्किल होता है र्किं यदा-कदा नजर आने वाला अस्थायी-आंर्शिंक फायदा स्वतः हुआ है या उसका श्रेय र्किंसी डाक्टर या औषर्धिं को देवें।
मरी.ज - दवाईयों के र्बिंना क्या इलाज सम्भव है ? र्फिंर्जिंयोथेरापी, व्यायाम, योग, एक्यूपंचर, खान-पान आर्दिं का क्या असर हो सकता है ?
डाक्टर - दूसरे हाथ से (जैसे र्किं बायाँ) र्लिंखने का अभ्यास करना चर्हिये। तकलीफ होगी, बोर्रियत होगी। धीमी-गर्तिं से खराब अक्षर र्लिंखे जावेंगे, प्रगर्तिं धीमी होगी, र्फिंर भी लगातार करना चार्हिंये । आर्हिंस्ता-आर्हिंस्ता सुधार होगा। हो सकता है र्किं उतना अच्छा कभी न हो पाये र्जिंतना मूल हाथ से था। र्फिंर भी फायदा है। मूल हाथ को आराम र्मिंलता है। अन्दर ही अन्दर उसका मोटर प्रोग्राम (साफ्टवेयर) सुधरता है। कुछ लोग सव्यसाची या उभय हस्थ होते हैं । महाभारत में अर्जुन दोनों हाथ से बखूबी गांडीव चलाता था। उन्हें अपनी खूबी का अहसास नहीं होता। जब बायें (या दूसरे) हाथ से काम शुरू करते हैं तो जल्दी सीख जाते हैं।
मोटा पेन कुछ मरीजों को रास आता है । बरू या दवात, र्निंप बोल्डर या वाटर कलर ब्रश से र्लिंखने के अभ्यास की सलाह कुछ र्विंशेषज्ञों द्वारा दी जाती है।
हाथ को सहारा देने के र्लिंये कुछ सरल यांर्त्रिंक साधनों का र्विंकास भी र्किंया गया है।

र्डिंमेन्शिया में व्यवहारगत समस्याएं

एल्जीमर्स रोग के अनेक वृद्ध मरीज, र्जिंनकी स्मृर्तिं धीरे-धीरे कम होती चली जाती है, मेरे पास कई बार ऐसी समस्याओं के र्लिंये लाये जाते हैं र्जिंसका सीधा सम्बन्ध बुर्द्धिं या स्मृर्तिं से नहीं वरन्‌ स्वभाव या चर्रित्र या व्यर्क्तिंत्व से प्रतीत होता है। ७० वर्षीय बालमुकुन्द हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक पद से सेवार्निंवृत्त होकर सर्क्रिंय जीवन व्यतीत कर रहे थे। बागवानी और भजन मण्डली में गाने का शौक था। र्पिंछले दो वर्ष से भूलना बढ़ गया था। एल्जीमर्स रोग को आगे बढ़ने से रोकने की एक औषर्धिं चल रही थी। अब अकेले बाजार जाकर सब्जियाँ नहीं ला सकते थे। अखबार पढ़ने का पुराना शौक कम हो गया था। बड़े-बड़े शीर्षक उचरती र्निंगाह से देखकर पेपर पटक देते थे।
उनका बेटा तीन माह से परेशान था र्किं प्रर्तिंर्दिंन शाम वे ५ बजे के आसपास उन्हें भ्रम होने लगता था र्किं उनके आस पास लोग खड़े हैं, देख रहे हैं, आते-जाते हैं शायद कुछ नुकसान करने वाले हैं। बालमुकुन्द बड़बड़ाने लगते, उत्तेर्जिंत हो जाते, र्चिंल्लाते - जाओ, भागो, घरवालों ने बहुत समझाया, कोई नहीं है, आप खामख्वाह कल्पना करते हैं। कुछ देर के र्लिंये शान्त होते, र्फिंर वही बैचेनी और भ्रम। रोज शाम २-३ घण्टे सब लोग समझ न पाते र्किं क्या करें? एक डाक्टर ने कुछ नींद की दवा दी तो नशा सा रहने लगा, सो बन्द कर दी गई। मनोरोग र्विंशेषज्ञ ने सायकोर्सिंस (र्विंर्क्षिंप्तता) की औषर्धिं दी । उससे समस्याएं बढ़ गईं। स्मृर्तिं और कम हो गई। आसपास के, समय के और लोगों के ध्यान में गलती करने लगे।
मैंने और र्विंस्तार से र्हिंस्ट्री पूछने की कोर्शिंश करी मालमू पड़ा र्किं उन्हें अपने बारे में फ्रेम र्किंये हुए र्चिंत्र लगाने की आदत रही है। पर्रिजनों, र्रिश्तेदारों, र्मिंत्रों, सहकर्मिर्ंयों के ढेर सोर फोटोग्राफ या रेखार्चिंत्रों से उनका कमरा पटा पड़ा था। शाम के समय, शायद थकान या भूख या अर्धर्निंद्रा की अवस्था में उनकी स्मृर्तिं और चेतना कुछ और कम हो जाती होगी। उस अवस्था में उनके ये तमाम र्चिंत्र सजीव हो उठते, जीवन्त हो उठते, मानों सशरीर आ खड़े हुए हों। बालमुकुन्द पुराने सहपार्ठिंयों का नाम पुकारने लगते । मानो अपनी पाठशाला के र्दिंनों में पहुंच गये हों।
मैंने सलाह दी र्किं उनके कमरे से र्चिंत्रों को हटा र्दिंय जावे। एक र्खिंड़की जो सदैव बन्द रखी जाती थी, र्किं उससे ठण्डी हवा आती है, उसे खुलवाया गया और ताजी हवा तथा प्रकाश की आवक हुई। कुछ ही र्दिंनों में यह समस्या लगभग समाप्त हो गई। मूल रोग अपनी जगह है परन्तु घरवालों के जीवन की दूभरता थोड़ी कम हो गई।
संवेदनाओं की अर्धिंकता से ऐसा हुआ। दृश्य संवेदनाएं। आंखों देखे र्चिंत्र। र्डिंमेन्शिया रोग के कारण बालमुकुन्द इस सैलाब को प्रर्तिं सन्ध्या झेल न पाते थे। इस बात की स्मृर्तिं और बोध र्किं ये मेरे जाने पहचाने लोगों के र्चिंत्र हैं कुन्द हो जाता था। उनका र्दिंमाग कल्पना के घोड़ों पर सवार होकर न जाने क्या-क्या सोचने लगता।
इसकी र्विंपरीत र्दिंशा में संवेदनाओं की कमी भी नुकसान करती है। कुछ दूसरे मरीजों के साथ देखा गया है र्किं र्विंर्भिंन्न इर्न्द्रियों से प्राप्त जानकारी की मात्रा यर्दिं उनके जीवन में कम हो तो वे सुस्त, पस्त, उदास, चुप, गुमसुम, भूले भटके रहते हैं।

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

रंगों की दुनिया का मस्तिष्क से सम्बन्ध

कलर ब्लाइण्ड या रंगांधता का नाम अनेक पाठकों ने सुना होगा । कई व्यक्ति जन्म से, रंगों की पहचान व भेद नहीं कर पाते । कुछ नौकरियों में, विशेषकर सैनिक, ड्रायवर आदि के लिये, मेडिकल परीक्षण में रंग क्षमता की जांच पर खास जोर दिया जाता है । आमतौर पर रंगांधता का कारण होता है आँख के पर्दे, रेटिना में रंग की पहचान करने वाली शंकु कोशिकाओं (कोन्स) की कमी । इसके विपरीत फिर भी मस्तिष्क की बीमारियों के कारण रंग बोध का ह्रास कम ही देखा गया है । यह सही है कि आँख के परदे पर पड़ने वाले तमाम बिम्बों की पूरी पहचान अन्ततः मस्तिष्क के पिछले भाग में स्थित दो आस्सिपिटल खण्डों में सम्पन्न होती है ।
न्यूरालॉजी शोध पत्रिकाओं में बहुत खोजने पर ऐसे कुछ मरीजों का हवाला मिला। इन वर्णनों को पढ़ना मजेदार है तथा इस बात को इंगित करता है कि चित्रकला में रंगों के सुरूचिपूर्ण उपयोग पर मस्तिष्क का नियंत्रण (या अनियंत्रण) अपने आप में एक काबिले-गौर विषय बन सकता है। कुछ उदाहरण देखिये - सब कुछ भूरा-भूरा लग रहा है, रंग कहीं खो गये हैं, रंग अलग-अलग तो लगते हैं पर पहचाने नहीं जाते । ड्राईंग में भरते समय गलतियाँ होती हैं । कोई खास रंग चुनते समय अधिक मुश्किल आती है। रंग पहचान लिये जाते हैं परन्तु उनका गाढ़ापन य चटखपन या मद्दापन समझ में नहीं आता सारी दुनिया भद्दी, सुस्त और बदरंग प्रतीत होती है।
मस्तिष्क का आस्पिपिटल खण्ड, जिसमें रंग सम्बन्धी कार्यविधि-निहित रहती है, यदि किसी कारण से, ज्यादा ही उत्तेजित हो जावे तो अजीबो-गरीब, रंग-संसार रच जाता है मरीज की आँखों के सामने । ऐसा माईग्रेन और एपिलेप्सी के मरीजों में कभी-कभी देखने-सुनने को मिलता है। संवेदना का यह दौर कुछ मिनिट मात्र चलता है। मरीज इसे याद रख कर बाद में चित्ररूप में प्रस्तुत कर सकता है। क्या यह सोचना रोमांचक नहीं है कि चित्रकला के समस्त रूप, बिम्ब, रंग आदि हमारे मस्तिष्क के किसी चीन्हे गये अंश में विद्यमान है । उन्हें हम विद्युतीय तरंगों के रूप में माप सकते हैं । उस खण्ड को विद्युतीय रूप से उद्दीप्त कर वही चित्र रूप पुनरावृत्त किया जा सकता है। कलाकारों की चित्र शैली व रंग शैली में इन मस्तिष्कीय खण्डों की व्याधियों से परिवर्तन आ सकते हैं । जर्मन वैज्ञानिक हॉफ ने जागृत मरीजों की खोपड़ी के पिछले हिस्से को सुई लगाकर सुन्न किया, खोपड़ी में एक बड़ा छेद किया, मस्तिष्क पर बिजली के महीन तारों से हल्की विद्युत प्रवाहित की और मरीज की अनुभूतियों को डायरियों में लिखता गया । कुछ उदाहरण देखिये - रंगों का विस्फोट हो रहा है, अजीब-अजीब डिजाईनें जन्म ले रही हैं और गायब हो रही हैं, केलिडोस्कोप की भांति । वस्तु और रंग अलग होते जा रहे हैं । लाल गेंद से लाल रंग अलग हो गया है या तो दूर जा रहा है या पास आ रहा है। पदार्थों की सतह मखमली या स्पंजनुमा दिख पड़ रही है । रंग बिरंगी वस्तुओं के अलग-अलग रंग भिन्न दिशाओं व आयामों में छिटक गये हैं।
यदि मरीज चित्रकार, परिधान डि.जाईनर या अन्तरिक सज्जाकार हो तो इस प्रकार की कमियाँ अधिक विविधता जटिलता और प्रगाढ़ता से प्रकट होती हैं। ब्रिटिश न्यूरालाजिस्ट इंग्रेथ ने १९३४ में एक ६२ वर्षीय चित्रकार का वर्णन प्रकाशित किया था- अपने चित्रों में वह गहराई या तीसरा आयाम ठीक से चित्रित नहीं कर पाता था । इस कमी से उबरने के लिये वह न.जदीकी वस्तुएं चित्र के बाँये निचले कोने में व दूरस्थ वस्तुएं दायें-ऊपरी कोने में चित्रित करने लगा । वह नीले व काले रंग का प्रयोग बिना सूझ-बूझ के करता था। वह प्रायः नीले रंग को टालता था, चाहे उसकी कितनी ही आवश्यकता क्यों न हो । कभी-कभी एक ही लेण्डस्कैप को दो अलग-अलग रंगों में दोहरा देता था । इंग्रेथ के अनुसार, चित्रकला में नीला रंग का उपयोग गहराई दर्शाने में होता है क्योंकि नीला रंग ही जल, समुद्र, आकाश या शून्य का रंग है । यही कारण है कि सात वर्ष से कम उम्र के बच्चें की कला में नीला रंग कम दिख पड़ता है। उन्हें गहराई का बोध होता ही नहीं । लन्दन और फ्लोरंस में बच्चें के अस्पताल में विकलांग बच्चें की बनाई पेंटिंग्स के अध्ययन से ऐसा ही निष्कर्ष निकाला गया था।

टिप्पणी - ग.जनी फिल्म

यह संतोष और खुशी की बात है कि अनेक न्यूरोलाजिकल व मानसिक अवस्थाओं पर आधारित फिल्में अब हमारे यहाँ पहले की तुलना में अधिकता से तथा बेहतर शोध के साथ बनने लगी है । या उनका उल्लेख होने लगा है । मन्दबुद्धिता (रोजा), एल्.जीमर्स रोग (ब्लेक, यू.वी.हम.), साइजोफ्रेनिया (१५ पार्क एवेन्यू), डिस्लेक्सिया (तारे .जमीं पर), मल्टीपल स्क्लेरोसिस (गुरू) आदि इसके उदाहरण हैं । इसी कड़ी में आमिर खान अभिनीत ग.जनी एक और अछूते न्यूरालाजिकल विषय लघुअवधि स्मृति दोष (शार्ट टर्म मेमोरी लास) या अग्रगामी विस्मृति (एन्टीरोग्रेड एम्नीसिया) से दर्शकों का परिचय कराती है । सिर पर सांघातिक चोट के कारण संजीव सिंघानिया (आमिर खान) का मस्तिष्क १५ मिनिट से अधिक समय तक कुछ याद नहीं रख पाता । वह अपना पुराना इतिहास, जीवन वृत्त लगभग पूरी तरह भूल चुका है । दुनियादारी की समझ है। भाषाओं का ज्ञान व क्षमता सामान्य है । लिखना पढ़ना आता है । जो याद रखना है वह उसे जगह-जगह लिख कर रखता है - डायरी में, चित्रों के एलबम में, दीवारों पर और स्वयं के शरीर पर गोद कर । सिर्फ एक ची.ज नहीं भूला है । ग.जनी नाम के व्यक्ति से बदला लेना है। ग.जनी कौन है, कहाँ रहता है, कैसा दिखता है, कुछ याद नहीं । इसलिये लिख कर रखा है । ये सब बाते उसे किसने बताई ? कैसे याद रह गई ? इनका उत्तर नहीं है । प्रत्येक सुबह उठने पर उसे समझ नहीं आता वह कहाँ है, वह कौन है, क्या करने वाला है । कमरे की दीवारों पर, कपड़ों पर और शरीर पर लिखी इबारतें, संख्याएं और चित्र उसे प्रतिपल पुनर्बोध कराते रहते हैं ।
फिल्म के अन्य समग्र पहलुओं की चर्चा व समीक्षा करना मेरा उद्देश्य नहीं है । एक न्यूरालाजिस्ट के रूप में उसके मेडिकल पहलुओं पर कुछ कहना चाहूँगा। किसी खास विषय से सम्बन्ध रखने वाली फिल्मों को हम दो श्रेणियों में बॉट सकते हैं । एक तो वे जिनका मूल उद्देश्य उस विषय या बीमारी के बारे में बताना होता है । उससे पीड़ित व्यक्तियों की जीवन दशा, घटनाओं, व्यथाओं, संघर्षों का वर्णन करना होता है - उस अवस्था से जुड़े भावनात्मक, दार्शनिक मुद्दों पर बहस या चर्चा छेड़नी होती है । तारे .जमीं पर, ब्लेक तथा १५ पार्क एवेन्यू काफी हद तक इसी कोटि में आती हैं । पात्र परिस्थितियाँ व कथानक फिल्म को रोचक बनाए रखने के लिये गढ़ी जाती हैं । हालीवुड में तथा अन्य देशों में ऐसी और भी श्रेष्ठ उदाहरण मौजूद है जिनमें पूरी ईमानदारी और शोधपरक मेहनत व समझ के साथ बिना विषय से भटके मनोरंजक, ज्ञानपरक भावनात्मक, विचारोत्तेजक फिल्में सफल हुई हैं । दुर्भाग्य से हमारे बालीवुड के निर्देशक व निर्माता, अपनी देश की जनता को मन्दबुद्धि समझते हैं और सोचते हैं कि बिना बम्बईया मसाले (नाच, गाना, मेलोड्रामा, नाटकीय संवाद) के उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगेगा। इसी वजह से भारत में दूसरी श्रेणी की फिल्में ज्यादा बननी हैं जो पिटे पिटाई ढर्रे की होती है । थोड़े बहुत नये पन के लिये कभी कभी कोई बीमारी या अवस्था को पटकथा में घुसा देते हैं ।
फिल्म ग.जनी की मूल सदाबहार थीम है बदला और याद्दाश्त खो बैठना। शार्ट टर्म मेमोरी लास या एन्टीरोग्रेड एम्नीसिया नामक बीमारी के बारे में बताना तथा उक्त पत्र की यथार्थवादी कहानी को कलात्मक व संवेदनात्मक रूप से प्रस्तुत करना इस फिल्म के निर्माता निर्देशक का उद्देश्य नहीं था। ऐसा होना सदैव जरूरी हो नहीं है फिर भी कुछ तो उम्मीद की जाती है। ग.जनी फिल्म इस दृष्टि से निराश करती है । लघुअवधि स्मृति दोष (शार्ट टर्म मेमोरी लॉस) के मरीजों की व्यथा कथा कुछ अलग ही किस्म की होती है। वे केवल भूतकाल में जीते हैं। उनका वर्तमान क्षण भंगुर होता है। वे भविष्य की कल्पना नहीं कर सकते । लक्ष्य आधारित व्यवहार उनके लिये सम्भव नहीं होता। वे अपनी व्यक्तिगत पहचान नहीं खाते जो याद रह पाये भूतकाल पर आधारित रहती है। अपनी पहचान पूरी तरह खो बैठना नाटकीय है पर वैज्ञानिक चिकित्सकीय अनुभव की दृष्टि अत्यन्त दुर्लभ।

वाचाघात/ अफे.जिया/ अवाग्मिता/ बोली का लकवा

मनुष्य एक वाचाल प्राणी है। संवाद व सन्देश हेतु भाषा या बोली का उपयोग कर पाना उसकी खास पहचान हैजो उसे अन्य उच्च् प्राणियों (प्राईमेट्स, एप्स) से अलग करती है। इस गुण को सीखने हेतु ऊर्वर जमीन या हार्डवेयर हमारे मस्तिष्क में जन्म से विद्यमान रहता है। घर और बाहर की दुनिया में व्याप्त बातचीत की ध्वनियों के बीज इस जमीन पर बरसते हैं। बच्चा उन्हें सुनता है, दोहराता है। सुने गये ध्वनि समूहों का देखे गये दृश्यों से मिलान करता है। बहुत तेजी से एक जटिल साफ्टवेयर का कोड तैयार होने लगता है। भाषा रूप इस प्रोग्राम में ध्वनियाँ (फोनोलॉजी) हैं, शब्द हैं (लेक्सिकान) उनके अर्थ तथा दूसरे शब्दों से उनके अन्तर सम्बन्ध या रिश्ते हैं (सिमेन्टिक्स) शब्दों की लड़ी को वाक्यों की माला में सही क्रम से पिरोने के लिये व्याकरण के नियम हैं (सिन्टेक्स) शब्दों के रूप को परिवर्तित करने की प्रणालियाँ हैं (मॉर्फोलॉजी), अनेक वाक्यों को गूँथ कर लम्बे कथोपथन को गढ़ने का कौशल (डिस्कोर्स) है, कब, कहाँ, क्यों, क्या और कैसे कहना इसकी समझ (प्रेग्मेटिक्स) है। मस्तिष्क रूपी सुपर कम्प्यूटर में इस महान साफ्टवेयर का मूलभूत कामकाजी ढांचा जीवन के प्रथम तीन वर्षों में तैयार हो जाता है। किसी प्रशिक्षण की जरूरत नहीं पड़ती। अपने आप होता है। बस पानी में फेंक दो, स्वतः तैरना आ जाता है। परन्तु यदि पानी में न फेंका जावे तो तैरना सीख पाने की उर्वर क्षमता पांच छः सालों में मुरझा जाती है। भेड़िया - बालक रामू का किस्सा सुना होगा। वह कभी बोलना न सीख पाया। बचपन से सालों में उसने इन्सानी बोली सुनी ही नहीं । अवाग्मिता (अफेजिया) में व्यक्ति, जो अच्छा भला बोलता सुनता-लिखता-पढ़ता था, अपनी भाषागत क्षमता पूरी तरह या आंशिक रूप से खो बैठता है।
यह एक न्यूरालॉजिकल अवस्था है जिसमें मस्तिष्क के गोलार्ध में रोग विकृति के कारण भाषा और वाणी के द्वारा संवाद करने की योग्यता में कमी आती है। मस्तिष्क में आने वाली विकृति कुछ खास हिस्सों में अधिक पाई जाती है, हर कहीं या सब जगह नहीं होती। इसके लिये बायें गोलार्ध के फ्रान्टल खण्ड में ब्रोका-क्षेत्र और टेम्पोरल खण्ड में वर्निकि क्षेत्र अधिक जिम्मेदार होते हैं। इन्हें वाणी केन्द्र (स्पीच सेन्टर) कहा जाता है। इन इलाकों में किसी भी किस्म की व्याधि अफे.जिया (वाचाघात) पैदा कर सकती है। अधिकांश मरीजों में यह व्याधि लकवा (पक्षाघात, स्ट्रोक) के रूप में आती है। मस्तिष्क में खून पहुंचाने वाली नलिकाओं (प्रायः धमनियों) में खून जमजाने और रक्तप्रवाह अवरुद्ध होने से, उसका एक हिस्सा काम करना बन्द कर देता है और मर जाता है। कभी-कभी धमनी (आर्टरी) के फट पड़ने से रक्तस्त्राव होता है तथा मिलते-जुलते लक्षण पैदा होते हैं। (
स्ट्रोक के अलावा अवाग्मिता के अन्य कारण हैं - सिर की गम्भीर चोट, मस्तिष्क में टूमर या गांठ, मस्तिष्क में संक्रमण या इन्फेक्शन जैसे कि मेनिन्जाईटिस या एन्सेफेलाइटिस, मस्तिष्क की क्षयकारी बीमारियाँ।
अफेजिया (वाचाघात) के लक्षण
इसकी शुरुआत प्रायः अचानक होती है और शरीर के आधे भाग (दायें हाथ तथा दायें पैर) के लकवे के साथ होती है।
वाकपटुता में कमी - बोली अटकती है। शब्द याद नहीं आते। धाराप्रवाह वाणी नहीं रह जाती है। तीव्र अवस्था में मरीज लगभग गूंगा या मूक हो जाता है। आ-आ, ओ-ओ, जैसे स्वर-मात्र निकल पाते हैं। मुंडी हिला कर या हाथ के इशारे से समझाने की, कहने की कोशिश करता है। अर्थवान या निरर्थक इक्का दुक्का शब्द या ध्वनि संकुल के सहारे अपनी बात बताने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिये एक मरीज पैसा... पैसा... तथा दूसरा एओ... एओ... शब्द या ध्वनि में उतार-चढ़ाव के द्वारा समझाने की कोशिश करते थे। सामान्य व्यक्ति भी कभी-कभी कहता है - शब्द मेरी जुबान पर आकर अटक गया - टिप ऑफ टंग प्रसंग। अफेजिया में ऐसा हमेशा होता है। सही लफज न मिल पाने पर कुछ मरीज घुमा फिरा कर अपनी बात कहते हैं। उदाहरण के लिये तौलिया मांगते समय कहना कि अरे वो... वो... क्या कहते हैं ... उसे वह.. कपड़ा.. बदन... पोंछना...