शुक्रवार, 27 मार्च 2009

रंगों की दुनिया का मस्तिष्क से सम्बन्ध

कलर ब्लाइण्ड या रंगांधता का नाम अनेक पाठकों ने सुना होगा । कई व्यक्ति जन्म से, रंगों की पहचान व भेद नहीं कर पाते । कुछ नौकरियों में, विशेषकर सैनिक, ड्रायवर आदि के लिये, मेडिकल परीक्षण में रंग क्षमता की जांच पर खास जोर दिया जाता है । आमतौर पर रंगांधता का कारण होता है आँख के पर्दे, रेटिना में रंग की पहचान करने वाली शंकु कोशिकाओं (कोन्स) की कमी । इसके विपरीत फिर भी मस्तिष्क की बीमारियों के कारण रंग बोध का ह्रास कम ही देखा गया है । यह सही है कि आँख के परदे पर पड़ने वाले तमाम बिम्बों की पूरी पहचान अन्ततः मस्तिष्क के पिछले भाग में स्थित दो आस्सिपिटल खण्डों में सम्पन्न होती है ।
न्यूरालॉजी शोध पत्रिकाओं में बहुत खोजने पर ऐसे कुछ मरीजों का हवाला मिला। इन वर्णनों को पढ़ना मजेदार है तथा इस बात को इंगित करता है कि चित्रकला में रंगों के सुरूचिपूर्ण उपयोग पर मस्तिष्क का नियंत्रण (या अनियंत्रण) अपने आप में एक काबिले-गौर विषय बन सकता है। कुछ उदाहरण देखिये - सब कुछ भूरा-भूरा लग रहा है, रंग कहीं खो गये हैं, रंग अलग-अलग तो लगते हैं पर पहचाने नहीं जाते । ड्राईंग में भरते समय गलतियाँ होती हैं । कोई खास रंग चुनते समय अधिक मुश्किल आती है। रंग पहचान लिये जाते हैं परन्तु उनका गाढ़ापन य चटखपन या मद्दापन समझ में नहीं आता सारी दुनिया भद्दी, सुस्त और बदरंग प्रतीत होती है।
मस्तिष्क का आस्पिपिटल खण्ड, जिसमें रंग सम्बन्धी कार्यविधि-निहित रहती है, यदि किसी कारण से, ज्यादा ही उत्तेजित हो जावे तो अजीबो-गरीब, रंग-संसार रच जाता है मरीज की आँखों के सामने । ऐसा माईग्रेन और एपिलेप्सी के मरीजों में कभी-कभी देखने-सुनने को मिलता है। संवेदना का यह दौर कुछ मिनिट मात्र चलता है। मरीज इसे याद रख कर बाद में चित्ररूप में प्रस्तुत कर सकता है। क्या यह सोचना रोमांचक नहीं है कि चित्रकला के समस्त रूप, बिम्ब, रंग आदि हमारे मस्तिष्क के किसी चीन्हे गये अंश में विद्यमान है । उन्हें हम विद्युतीय तरंगों के रूप में माप सकते हैं । उस खण्ड को विद्युतीय रूप से उद्दीप्त कर वही चित्र रूप पुनरावृत्त किया जा सकता है। कलाकारों की चित्र शैली व रंग शैली में इन मस्तिष्कीय खण्डों की व्याधियों से परिवर्तन आ सकते हैं । जर्मन वैज्ञानिक हॉफ ने जागृत मरीजों की खोपड़ी के पिछले हिस्से को सुई लगाकर सुन्न किया, खोपड़ी में एक बड़ा छेद किया, मस्तिष्क पर बिजली के महीन तारों से हल्की विद्युत प्रवाहित की और मरीज की अनुभूतियों को डायरियों में लिखता गया । कुछ उदाहरण देखिये - रंगों का विस्फोट हो रहा है, अजीब-अजीब डिजाईनें जन्म ले रही हैं और गायब हो रही हैं, केलिडोस्कोप की भांति । वस्तु और रंग अलग होते जा रहे हैं । लाल गेंद से लाल रंग अलग हो गया है या तो दूर जा रहा है या पास आ रहा है। पदार्थों की सतह मखमली या स्पंजनुमा दिख पड़ रही है । रंग बिरंगी वस्तुओं के अलग-अलग रंग भिन्न दिशाओं व आयामों में छिटक गये हैं।
यदि मरीज चित्रकार, परिधान डि.जाईनर या अन्तरिक सज्जाकार हो तो इस प्रकार की कमियाँ अधिक विविधता जटिलता और प्रगाढ़ता से प्रकट होती हैं। ब्रिटिश न्यूरालाजिस्ट इंग्रेथ ने १९३४ में एक ६२ वर्षीय चित्रकार का वर्णन प्रकाशित किया था- अपने चित्रों में वह गहराई या तीसरा आयाम ठीक से चित्रित नहीं कर पाता था । इस कमी से उबरने के लिये वह न.जदीकी वस्तुएं चित्र के बाँये निचले कोने में व दूरस्थ वस्तुएं दायें-ऊपरी कोने में चित्रित करने लगा । वह नीले व काले रंग का प्रयोग बिना सूझ-बूझ के करता था। वह प्रायः नीले रंग को टालता था, चाहे उसकी कितनी ही आवश्यकता क्यों न हो । कभी-कभी एक ही लेण्डस्कैप को दो अलग-अलग रंगों में दोहरा देता था । इंग्रेथ के अनुसार, चित्रकला में नीला रंग का उपयोग गहराई दर्शाने में होता है क्योंकि नीला रंग ही जल, समुद्र, आकाश या शून्य का रंग है । यही कारण है कि सात वर्ष से कम उम्र के बच्चें की कला में नीला रंग कम दिख पड़ता है। उन्हें गहराई का बोध होता ही नहीं । लन्दन और फ्लोरंस में बच्चें के अस्पताल में विकलांग बच्चें की बनाई पेंटिंग्स के अध्ययन से ऐसा ही निष्कर्ष निकाला गया था।

टिप्पणी - ग.जनी फिल्म

यह संतोष और खुशी की बात है कि अनेक न्यूरोलाजिकल व मानसिक अवस्थाओं पर आधारित फिल्में अब हमारे यहाँ पहले की तुलना में अधिकता से तथा बेहतर शोध के साथ बनने लगी है । या उनका उल्लेख होने लगा है । मन्दबुद्धिता (रोजा), एल्.जीमर्स रोग (ब्लेक, यू.वी.हम.), साइजोफ्रेनिया (१५ पार्क एवेन्यू), डिस्लेक्सिया (तारे .जमीं पर), मल्टीपल स्क्लेरोसिस (गुरू) आदि इसके उदाहरण हैं । इसी कड़ी में आमिर खान अभिनीत ग.जनी एक और अछूते न्यूरालाजिकल विषय लघुअवधि स्मृति दोष (शार्ट टर्म मेमोरी लास) या अग्रगामी विस्मृति (एन्टीरोग्रेड एम्नीसिया) से दर्शकों का परिचय कराती है । सिर पर सांघातिक चोट के कारण संजीव सिंघानिया (आमिर खान) का मस्तिष्क १५ मिनिट से अधिक समय तक कुछ याद नहीं रख पाता । वह अपना पुराना इतिहास, जीवन वृत्त लगभग पूरी तरह भूल चुका है । दुनियादारी की समझ है। भाषाओं का ज्ञान व क्षमता सामान्य है । लिखना पढ़ना आता है । जो याद रखना है वह उसे जगह-जगह लिख कर रखता है - डायरी में, चित्रों के एलबम में, दीवारों पर और स्वयं के शरीर पर गोद कर । सिर्फ एक ची.ज नहीं भूला है । ग.जनी नाम के व्यक्ति से बदला लेना है। ग.जनी कौन है, कहाँ रहता है, कैसा दिखता है, कुछ याद नहीं । इसलिये लिख कर रखा है । ये सब बाते उसे किसने बताई ? कैसे याद रह गई ? इनका उत्तर नहीं है । प्रत्येक सुबह उठने पर उसे समझ नहीं आता वह कहाँ है, वह कौन है, क्या करने वाला है । कमरे की दीवारों पर, कपड़ों पर और शरीर पर लिखी इबारतें, संख्याएं और चित्र उसे प्रतिपल पुनर्बोध कराते रहते हैं ।
फिल्म के अन्य समग्र पहलुओं की चर्चा व समीक्षा करना मेरा उद्देश्य नहीं है । एक न्यूरालाजिस्ट के रूप में उसके मेडिकल पहलुओं पर कुछ कहना चाहूँगा। किसी खास विषय से सम्बन्ध रखने वाली फिल्मों को हम दो श्रेणियों में बॉट सकते हैं । एक तो वे जिनका मूल उद्देश्य उस विषय या बीमारी के बारे में बताना होता है । उससे पीड़ित व्यक्तियों की जीवन दशा, घटनाओं, व्यथाओं, संघर्षों का वर्णन करना होता है - उस अवस्था से जुड़े भावनात्मक, दार्शनिक मुद्दों पर बहस या चर्चा छेड़नी होती है । तारे .जमीं पर, ब्लेक तथा १५ पार्क एवेन्यू काफी हद तक इसी कोटि में आती हैं । पात्र परिस्थितियाँ व कथानक फिल्म को रोचक बनाए रखने के लिये गढ़ी जाती हैं । हालीवुड में तथा अन्य देशों में ऐसी और भी श्रेष्ठ उदाहरण मौजूद है जिनमें पूरी ईमानदारी और शोधपरक मेहनत व समझ के साथ बिना विषय से भटके मनोरंजक, ज्ञानपरक भावनात्मक, विचारोत्तेजक फिल्में सफल हुई हैं । दुर्भाग्य से हमारे बालीवुड के निर्देशक व निर्माता, अपनी देश की जनता को मन्दबुद्धि समझते हैं और सोचते हैं कि बिना बम्बईया मसाले (नाच, गाना, मेलोड्रामा, नाटकीय संवाद) के उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगेगा। इसी वजह से भारत में दूसरी श्रेणी की फिल्में ज्यादा बननी हैं जो पिटे पिटाई ढर्रे की होती है । थोड़े बहुत नये पन के लिये कभी कभी कोई बीमारी या अवस्था को पटकथा में घुसा देते हैं ।
फिल्म ग.जनी की मूल सदाबहार थीम है बदला और याद्दाश्त खो बैठना। शार्ट टर्म मेमोरी लास या एन्टीरोग्रेड एम्नीसिया नामक बीमारी के बारे में बताना तथा उक्त पत्र की यथार्थवादी कहानी को कलात्मक व संवेदनात्मक रूप से प्रस्तुत करना इस फिल्म के निर्माता निर्देशक का उद्देश्य नहीं था। ऐसा होना सदैव जरूरी हो नहीं है फिर भी कुछ तो उम्मीद की जाती है। ग.जनी फिल्म इस दृष्टि से निराश करती है । लघुअवधि स्मृति दोष (शार्ट टर्म मेमोरी लॉस) के मरीजों की व्यथा कथा कुछ अलग ही किस्म की होती है। वे केवल भूतकाल में जीते हैं। उनका वर्तमान क्षण भंगुर होता है। वे भविष्य की कल्पना नहीं कर सकते । लक्ष्य आधारित व्यवहार उनके लिये सम्भव नहीं होता। वे अपनी व्यक्तिगत पहचान नहीं खाते जो याद रह पाये भूतकाल पर आधारित रहती है। अपनी पहचान पूरी तरह खो बैठना नाटकीय है पर वैज्ञानिक चिकित्सकीय अनुभव की दृष्टि अत्यन्त दुर्लभ।

वाचाघात/ अफे.जिया/ अवाग्मिता/ बोली का लकवा

मनुष्य एक वाचाल प्राणी है। संवाद व सन्देश हेतु भाषा या बोली का उपयोग कर पाना उसकी खास पहचान हैजो उसे अन्य उच्च् प्राणियों (प्राईमेट्स, एप्स) से अलग करती है। इस गुण को सीखने हेतु ऊर्वर जमीन या हार्डवेयर हमारे मस्तिष्क में जन्म से विद्यमान रहता है। घर और बाहर की दुनिया में व्याप्त बातचीत की ध्वनियों के बीज इस जमीन पर बरसते हैं। बच्चा उन्हें सुनता है, दोहराता है। सुने गये ध्वनि समूहों का देखे गये दृश्यों से मिलान करता है। बहुत तेजी से एक जटिल साफ्टवेयर का कोड तैयार होने लगता है। भाषा रूप इस प्रोग्राम में ध्वनियाँ (फोनोलॉजी) हैं, शब्द हैं (लेक्सिकान) उनके अर्थ तथा दूसरे शब्दों से उनके अन्तर सम्बन्ध या रिश्ते हैं (सिमेन्टिक्स) शब्दों की लड़ी को वाक्यों की माला में सही क्रम से पिरोने के लिये व्याकरण के नियम हैं (सिन्टेक्स) शब्दों के रूप को परिवर्तित करने की प्रणालियाँ हैं (मॉर्फोलॉजी), अनेक वाक्यों को गूँथ कर लम्बे कथोपथन को गढ़ने का कौशल (डिस्कोर्स) है, कब, कहाँ, क्यों, क्या और कैसे कहना इसकी समझ (प्रेग्मेटिक्स) है। मस्तिष्क रूपी सुपर कम्प्यूटर में इस महान साफ्टवेयर का मूलभूत कामकाजी ढांचा जीवन के प्रथम तीन वर्षों में तैयार हो जाता है। किसी प्रशिक्षण की जरूरत नहीं पड़ती। अपने आप होता है। बस पानी में फेंक दो, स्वतः तैरना आ जाता है। परन्तु यदि पानी में न फेंका जावे तो तैरना सीख पाने की उर्वर क्षमता पांच छः सालों में मुरझा जाती है। भेड़िया - बालक रामू का किस्सा सुना होगा। वह कभी बोलना न सीख पाया। बचपन से सालों में उसने इन्सानी बोली सुनी ही नहीं । अवाग्मिता (अफेजिया) में व्यक्ति, जो अच्छा भला बोलता सुनता-लिखता-पढ़ता था, अपनी भाषागत क्षमता पूरी तरह या आंशिक रूप से खो बैठता है।
यह एक न्यूरालॉजिकल अवस्था है जिसमें मस्तिष्क के गोलार्ध में रोग विकृति के कारण भाषा और वाणी के द्वारा संवाद करने की योग्यता में कमी आती है। मस्तिष्क में आने वाली विकृति कुछ खास हिस्सों में अधिक पाई जाती है, हर कहीं या सब जगह नहीं होती। इसके लिये बायें गोलार्ध के फ्रान्टल खण्ड में ब्रोका-क्षेत्र और टेम्पोरल खण्ड में वर्निकि क्षेत्र अधिक जिम्मेदार होते हैं। इन्हें वाणी केन्द्र (स्पीच सेन्टर) कहा जाता है। इन इलाकों में किसी भी किस्म की व्याधि अफे.जिया (वाचाघात) पैदा कर सकती है। अधिकांश मरीजों में यह व्याधि लकवा (पक्षाघात, स्ट्रोक) के रूप में आती है। मस्तिष्क में खून पहुंचाने वाली नलिकाओं (प्रायः धमनियों) में खून जमजाने और रक्तप्रवाह अवरुद्ध होने से, उसका एक हिस्सा काम करना बन्द कर देता है और मर जाता है। कभी-कभी धमनी (आर्टरी) के फट पड़ने से रक्तस्त्राव होता है तथा मिलते-जुलते लक्षण पैदा होते हैं। (
स्ट्रोक के अलावा अवाग्मिता के अन्य कारण हैं - सिर की गम्भीर चोट, मस्तिष्क में टूमर या गांठ, मस्तिष्क में संक्रमण या इन्फेक्शन जैसे कि मेनिन्जाईटिस या एन्सेफेलाइटिस, मस्तिष्क की क्षयकारी बीमारियाँ।
अफेजिया (वाचाघात) के लक्षण
इसकी शुरुआत प्रायः अचानक होती है और शरीर के आधे भाग (दायें हाथ तथा दायें पैर) के लकवे के साथ होती है।
वाकपटुता में कमी - बोली अटकती है। शब्द याद नहीं आते। धाराप्रवाह वाणी नहीं रह जाती है। तीव्र अवस्था में मरीज लगभग गूंगा या मूक हो जाता है। आ-आ, ओ-ओ, जैसे स्वर-मात्र निकल पाते हैं। मुंडी हिला कर या हाथ के इशारे से समझाने की, कहने की कोशिश करता है। अर्थवान या निरर्थक इक्का दुक्का शब्द या ध्वनि संकुल के सहारे अपनी बात बताने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिये एक मरीज पैसा... पैसा... तथा दूसरा एओ... एओ... शब्द या ध्वनि में उतार-चढ़ाव के द्वारा समझाने की कोशिश करते थे। सामान्य व्यक्ति भी कभी-कभी कहता है - शब्द मेरी जुबान पर आकर अटक गया - टिप ऑफ टंग प्रसंग। अफेजिया में ऐसा हमेशा होता है। सही लफज न मिल पाने पर कुछ मरीज घुमा फिरा कर अपनी बात कहते हैं। उदाहरण के लिये तौलिया मांगते समय कहना कि अरे वो... वो... क्या कहते हैं ... उसे वह.. कपड़ा.. बदन... पोंछना...