शुक्रवार, 27 मार्च 2009

टिप्पणी - ग.जनी फिल्म

यह संतोष और खुशी की बात है कि अनेक न्यूरोलाजिकल व मानसिक अवस्थाओं पर आधारित फिल्में अब हमारे यहाँ पहले की तुलना में अधिकता से तथा बेहतर शोध के साथ बनने लगी है । या उनका उल्लेख होने लगा है । मन्दबुद्धिता (रोजा), एल्.जीमर्स रोग (ब्लेक, यू.वी.हम.), साइजोफ्रेनिया (१५ पार्क एवेन्यू), डिस्लेक्सिया (तारे .जमीं पर), मल्टीपल स्क्लेरोसिस (गुरू) आदि इसके उदाहरण हैं । इसी कड़ी में आमिर खान अभिनीत ग.जनी एक और अछूते न्यूरालाजिकल विषय लघुअवधि स्मृति दोष (शार्ट टर्म मेमोरी लास) या अग्रगामी विस्मृति (एन्टीरोग्रेड एम्नीसिया) से दर्शकों का परिचय कराती है । सिर पर सांघातिक चोट के कारण संजीव सिंघानिया (आमिर खान) का मस्तिष्क १५ मिनिट से अधिक समय तक कुछ याद नहीं रख पाता । वह अपना पुराना इतिहास, जीवन वृत्त लगभग पूरी तरह भूल चुका है । दुनियादारी की समझ है। भाषाओं का ज्ञान व क्षमता सामान्य है । लिखना पढ़ना आता है । जो याद रखना है वह उसे जगह-जगह लिख कर रखता है - डायरी में, चित्रों के एलबम में, दीवारों पर और स्वयं के शरीर पर गोद कर । सिर्फ एक ची.ज नहीं भूला है । ग.जनी नाम के व्यक्ति से बदला लेना है। ग.जनी कौन है, कहाँ रहता है, कैसा दिखता है, कुछ याद नहीं । इसलिये लिख कर रखा है । ये सब बाते उसे किसने बताई ? कैसे याद रह गई ? इनका उत्तर नहीं है । प्रत्येक सुबह उठने पर उसे समझ नहीं आता वह कहाँ है, वह कौन है, क्या करने वाला है । कमरे की दीवारों पर, कपड़ों पर और शरीर पर लिखी इबारतें, संख्याएं और चित्र उसे प्रतिपल पुनर्बोध कराते रहते हैं ।
फिल्म के अन्य समग्र पहलुओं की चर्चा व समीक्षा करना मेरा उद्देश्य नहीं है । एक न्यूरालाजिस्ट के रूप में उसके मेडिकल पहलुओं पर कुछ कहना चाहूँगा। किसी खास विषय से सम्बन्ध रखने वाली फिल्मों को हम दो श्रेणियों में बॉट सकते हैं । एक तो वे जिनका मूल उद्देश्य उस विषय या बीमारी के बारे में बताना होता है । उससे पीड़ित व्यक्तियों की जीवन दशा, घटनाओं, व्यथाओं, संघर्षों का वर्णन करना होता है - उस अवस्था से जुड़े भावनात्मक, दार्शनिक मुद्दों पर बहस या चर्चा छेड़नी होती है । तारे .जमीं पर, ब्लेक तथा १५ पार्क एवेन्यू काफी हद तक इसी कोटि में आती हैं । पात्र परिस्थितियाँ व कथानक फिल्म को रोचक बनाए रखने के लिये गढ़ी जाती हैं । हालीवुड में तथा अन्य देशों में ऐसी और भी श्रेष्ठ उदाहरण मौजूद है जिनमें पूरी ईमानदारी और शोधपरक मेहनत व समझ के साथ बिना विषय से भटके मनोरंजक, ज्ञानपरक भावनात्मक, विचारोत्तेजक फिल्में सफल हुई हैं । दुर्भाग्य से हमारे बालीवुड के निर्देशक व निर्माता, अपनी देश की जनता को मन्दबुद्धि समझते हैं और सोचते हैं कि बिना बम्बईया मसाले (नाच, गाना, मेलोड्रामा, नाटकीय संवाद) के उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगेगा। इसी वजह से भारत में दूसरी श्रेणी की फिल्में ज्यादा बननी हैं जो पिटे पिटाई ढर्रे की होती है । थोड़े बहुत नये पन के लिये कभी कभी कोई बीमारी या अवस्था को पटकथा में घुसा देते हैं ।
फिल्म ग.जनी की मूल सदाबहार थीम है बदला और याद्दाश्त खो बैठना। शार्ट टर्म मेमोरी लास या एन्टीरोग्रेड एम्नीसिया नामक बीमारी के बारे में बताना तथा उक्त पत्र की यथार्थवादी कहानी को कलात्मक व संवेदनात्मक रूप से प्रस्तुत करना इस फिल्म के निर्माता निर्देशक का उद्देश्य नहीं था। ऐसा होना सदैव जरूरी हो नहीं है फिर भी कुछ तो उम्मीद की जाती है। ग.जनी फिल्म इस दृष्टि से निराश करती है । लघुअवधि स्मृति दोष (शार्ट टर्म मेमोरी लॉस) के मरीजों की व्यथा कथा कुछ अलग ही किस्म की होती है। वे केवल भूतकाल में जीते हैं। उनका वर्तमान क्षण भंगुर होता है। वे भविष्य की कल्पना नहीं कर सकते । लक्ष्य आधारित व्यवहार उनके लिये सम्भव नहीं होता। वे अपनी व्यक्तिगत पहचान नहीं खाते जो याद रह पाये भूतकाल पर आधारित रहती है। अपनी पहचान पूरी तरह खो बैठना नाटकीय है पर वैज्ञानिक चिकित्सकीय अनुभव की दृष्टि अत्यन्त दुर्लभ।

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