शुक्रवार, 6 जून 2008

कार्लोवी वेरी (चेक गणराज्य) -

कार्लोवी वेरी (चेक गणराज्य) - चौदहवीं शताब्दी में चेक राष्‍ट्र का प्रतापी और लोकप्रिय राजा चार्ल्स चतुर्थ एक बार शिकार पर निकला । पूरे दल-बल के साथ । मध्य यूरोप के बोहेमिया राज्य के पश्चिमी भाग के पहाडों और जंगलों में जा पहुंचा । उसका घोडा तेज दौडते हुए आगे निकल गया । दूसरे सरदार व सैन्य अधिकारी पीछे भटक गये । राजा की नजर एक बडे हिरण पर थी जो बार-बार ओझल होता फिर दिख पडता । यकायक एक कगार पर से वह गायब हो गया । राजा के शिकारी कुत्ते भी वहीं से गायब हो गये । कुछ क्षणों बाद कुत्तों के चिल्लाने की आवाजें आयीं, मानों दर्द में कराह रहे हों । एन कगार पर लगाम खींच कर चार्ल्स ने घोडे को रोका । नीचे गहराई में गरम उबलते हुए पानी के एक कुण्ड में कुत्ते तडप रहे थे । इस तरह खोज हुई गरम पानी के सोतों की । यह किवदन्ती है । यह स्थान कार्लोवीवेरी के नाम से प्रख्यात है ।

किसी क्षेत्र के पर्यटन आकर्षणों की सूची में अनेक प्रकार के तत्वों की गिनती की जाती है जैसे - मौसम, प्राकृतिक सौन्दर्य, संस्कृति, भोजन आदि । इसी श्रेणी में एक और लोकप्रिय उदाहरण है - स्पा । इसका हिन्दी अनुवाद कठिन है । प्राकृतिक या कृत्रिम दोनों प्रकार के स्पा होते हैं । गरम पानी के सोते, झरने या कुण्ड । स्वास्थ्य लाभ के लिये उत्तम । साथ में व्यायाम शाला, स्टीम बाथ, सॉना, शुद्ध भोजन, मालिश आदि । अपने केरल में आयुर्वेदिक उपचार व मालिश को आधुनिक महंगे स्पा केन्द्रों के साथ जोड कर टूरिज्म व्यवसाय खूब पनप रहा है ।

चेक गणतंत्र भी अपने महंगे, आभिजात्य स्पा केन्द्रों के लिये प्रसिद्ध है । पिछली दो शताब्दियों में यूरोप के राजा, सामन्त, सरदार, लार्डस, ड्यूक्स, रईसजादे अपने बिगडैल शरीर (और ? मन) को सुधारने और शुद्ध करने (या शायद और बिगाडने ?) के लिये यहां आते रहे हैं ।

चेक गणराज्य व जर्मनी के बवेरिया प्रान्त के सीमान्त इलाकों में ऐसे बहुत सारे स्पा या गरम पानी के स्रोत हैं ।
प्राहा से सुबह नौ बजे कार्लोवी वेरी के लिये जब हम रवाना हुए तो सूरज न निकल पाया था । खबर मिली कि गन्तव्य पर तापमान शून्य से ८-९ डिग्री सेल्सियस नीचे है । कार्लोवीवेरी जनपद की सीमा में पहुंचने पर वहां की स्थानीय शटल बस में बैठे । बाहरी वाहनों के आने पर अंकुश लगाया गया है । एक अलग तरह की दुनिया है । ग्रीष्म ऋतु में जब पर्यटन का मौसम होता है तब यहां भारी भीड, चहल पहल और रौनक होती होगी । मगर इस घन-घोर ठण्ड में भी यहां की रंगीनियत समृद्धि और अभिजात्य सुन्दरता में कोई कसर न थी ।

दो छोटी नदियां । खून जमा देने वाले साफ पानी में तैरती बतखें । वैभव विलास से परिपूर्ण भवन अनेक होटल्स या निजी हवेलियां और प्रासाद । दुनिया भर के रईस, विशेषकर यूरोप और रूस से यहां आते । अनेक सप्ताह ठहरते । अपनी पराकाष्ठा के समय (अठ्ठारहवीं और १९ वीं शताब्दी में) अचल सम्पत्ति के दाम के मान से यह दुनिया की दूसरी सबसे महंगी जगह थी । प्रत्येक भवन अप्रतिम स्थापत्य और कलात्मक, बेरोक शैली की सजावट के नायाब नमूने । नदी किनारे फुटपाथ और उस पर छोटे-छोटे पुल । उस काल में तथा बीसवीं शताब्दी में भी दुनिया के वी.आई.पी. लोगों में कौन होगा जो यहां न आता होगा ।

चारों ओर छोटी पहाडयां, घने जंगल । बीच घाटी में दो नदियाँ । और नदियों के बीच -बीच, जगह-जगह, धरती के अन्दर की भूगर्भीय ताप ऊर्जा के कारण ताकत के साथ फूटते गरम पानी के फव्वारे । भाप उडती हुई । पानी का रंग मटमैला । सल्फर और मैग्नेशियम तथा अन्य धातुओं और लवणों से भरपूर हल्की रासायनिक गन्ध । अनेक स्रोतों को नये पुराने किस्म के भवनों से ढंक दिया गया है । एक सुन्दर इमारत (कोलोनेड) अपने लाल किले के दीवाने-आम जैसी लग रही थी । गरम पानी पीने के नलके लगे थे और उन सबसे प्राप्त जल का तापमान अंकित था - ३५ डिग्री, ४५ डिग्री, ५० डिग्री या ६० डिग्री सेल्सियस । भ्रमण के अन्त में हम एक पहाडी पर स्थित ऊंचे वाच टावर पर पहुंचे । घाटियां हरी व सुन्दर भी । शाम का आकाश सुनहरा पीला ।

इस प्रसिद्धि के पीछे विश्वास यह रहा कि इस पानी में स्नान करने तथा उसे पीने से बहुत सी बीमारियां दूर होती हैं, स्वास्थ्य लाभ होता है । सबूत पर आधारित वैज्ञानिक चिकित्सा के इस युग में उक्त दावों और विश्वासों पर सन्देह किया जाता है । इस वजह से अब कार्लोवी वेरी का महत्व व लोकप्रियता कुछ कम हो गये हैं ।

गरम पानी के सोतों व कुण्ड दुनिया भर में मिलते हैं । मैंने स्वयं शान्ति निकेतन के समीप पश्चिमी बंगाल में और मनाली, हिमाचल प्रदेश के वशिष्ठ कुण्ड में स्नान किया है । सल्फर की प्रचुरता के कारण सम्भव है कि इस पानी में कीटाणुओं व फंगस को नष्ट करने की क्षमता हो और इस वजह से शायद कुछ चर्म रोगों में लाभ होता हो ।अन्य फायदे केवल मनोवैज्ञानिक प्रतीत होते हैं । मध्यप्रदेश के मन्दसौर जिले में भादवा माता के कुण्ड में नहाने से लकवा या पेरेलिसिस में फायदा होने की मान्यता इसी प्रकार की अवैज्ञानिक जनश्रुति पर आधारित है ।

गर्म झरनों में से सबकी किस्मत में प्रसिद्धी नहीं लिखी होती । जैसे कि किसी स्थान पर मन्दिर या तीर्थ संयोगवश हिट हो जाते हैं वैसे ही ये स्पा भी हैं । कार्लोवी वेरी का नाम मैंने पहले सुना था - उच्च श्रेणी के अन्तरराष्‍ट्रीय फिल्म महोत्सव के केन्द्र के रूप में भी ।

ठंड में यूरोप का प्रथम अनुभव

ठंड के दिनों में किसी यूरोपीय देश की यह हमारी पहली यात्रा थी । तापमान अक्सर -२ से -५ डिग्री सेल्सियस के मध्य । प्रायः कोहरा या बादल । सूरज निकलता तो भला लगता । लोगों के चेहरे पर अपने आप मुस्कान आ जाती । चिडचिडापन कम हो जाता । पर धूप में उष्मा कहां ? तापमान जस का तस - शून्य डिग्री या नीचे । कभी-कभी -७ या -८ तक गया । हवा तीखी बेंधती हुई, घर, इमारतें, दुकानें, बस, ट्राम आदि सब जगहें अन्दर से गर्म रहते । भीतर अन्दाज भी न लगता । सादे सूती कपडों में काम चलता । बाहर आते ही चीख सी निकलती । पूरी तैयारी करना पडती । एक के ऊपर एक परतें । दो जोडी मौजे । स्वेटर के ऊपर मोटे लबादे वाला कोट । हाथों में दस्ताने । गरदन और सिर पर बन्दर टोपी या मफलर । गाल, होंठ, नाक, ठुड्डी को ढंकना मुश्किल। ये सब सुन्न हो जाते और रंग उनका सुर्ख । बार-बार रगडते रहो या हाथ से ढंके रखो । आंखों में जलन होती । जूतों और दस्तानों के अन्दर अंगुलियों के पोरों पर जलन, सुन्नपना और झुनझुनी होते । आवाज धीमी और कांपती हुई । जेब में से, पर्स में से, बटुए में से, कुछ निकालना हो, लिखना हो, कैमरा चलाना हो तो लगता मानों ऊंगलियां जकड गई हों, ठस हो गई हों ।

गर्म इमारत से बाहर आने पर शुरु के कुछ मिनिट अपने आप को हिम्मत बन्धाए रखते कि सहन कर लेंगे । धीरे-धीरे ठंड आफ शरीर को गहराई तक बेधती जाती । आधे-एक घण्टे बाद लगने लगता कि सब कुछ शून्य होता जा रहा है । यदि बैठ गये या केवल खडे रहो तो ठिठुरन बढेगी । यदि चलते रहो, दौडो, हाथ-पांव चलाते रहो तो ठीक रहेगा ।

इमारतों के अन्दर प्रवेश करते ही सूकून की आह निकलती । कुछ देर बाद कपडे उतारने पडते । इसीलिये सभी जगहों पर प्रवेश के बाद, बाहरी ऊनी कपडे टांगने की व्यवस्था होती । पत्तागोभी के समान लपेटे-लिपटाये रहना अजीब लगता । बाहर निकलते समय फिर वही सारी कसरत । दिन में अनेक बार हो जाता ।

सूरज नौ बजे बाद उगता । शाम चार के पहले डूब जाता । स्थानीय निवासी कहते हम काम पर जाते हैं तब अन्धेरा और घर लौटते हैं तब भी अंधेरा ।

दूसरे दिन के बाद थोडी-थोडी आदत होने लगी । यहां के लोग पूरी तरह आदी हैं । कपडे उन्हें भी पूरे पहनना पडते हैं । शीत किसी के साथ रहम नहीं करती । लेकिन जन जीवन सामान्य । लोग घूमते फिरते, काम करते, हंसते बोलते । पर्यटकों को कोई कमी नहीं । देर रात तक बाजारों व दुकानों में खूब चहल-पहल । भीड की अपनी गर्मी भी सुकून देती है ।

अनेक स्थलों पर, विशेषकर देहाती खुले क्षेत्रों में जमीन पर सफेद महीन चादर बिछी हुई या मानों चूने का पाउडर छिडक दिया गया हो, या सफेद पुताई हो । हमने पूछा बर्फ गिरी क्या ? घास पर तथा अनेक वृक्षों पर शुभ्र पतली परत । मिट्टी और वनस्पति में मौजूद पानी, जम कर बर्फ बन जाता है । आसमान से नहीं टपका था । पाला पडा था । पहले यह शब्द सुना था, पर इतने व्यापक रूप से देखा न था । इसे अंग्रेजी में फ्रास्ट कहते हैं । आश्चर्य है कि पौधे फिर भी जिन्दा रहते हैं । बसन्त और ग्रीष्म ऋतु में फिर बहार आयेगी ।

अधिकांश वृक्षों की पत्तियाँ झड चुकी । तमाम टहनियाँ और शाखाएं नंगी । कुछ गिने चुने किस्म के झाडों और झाडयों की पत्तियाँ सदैव हरी रहती । सदाबहार, एवर ग्रीन। पत्तियों के रहते शाखाओं और टहनियों का विन्यास हमें दिखाई नहीं पडता । शीतकाल में पूरा कंकाल, अपनी बारीकी के साथ नजर आता । हर वृक्ष का अपना अलग विन्यास । भिन्न-भिन्न रूपाकार । एक से दो, दो से चार किस क्रम से , किस डिजाइन में शाखाओं का जाल फैलता जायेगा, इस सौंदर्य को देखने का अवसर पहले न मिला था । गर्म सूप, चाय, काफी, भुने हुए चेस्टनट, भुट्टे, मफेट, ब्रेड आदि फुटपाथ के किनारे खूब बिकते । बीयर और वाइन का चलन भी खूब है । लेकिन हमेशा सीमा में रहकर, सभ्य तरीके से । लिमिट से ज्यादा पी लेना, बेकाबू होकर चिल्लाना, भटकना जैसे दृश्य देखने को नहीं मिलते ।

नदियों और तालाबों के ऊपर बर्फ की पतली परत जम जाती है जो बीच-बीच में टूटी रहती और नीचे पानी बहता दिखाई पडता । सुबह और शाम के धुंधलके में, कोहरे की अनेक अस्तरों में शहर की रंगत बदलती रहती । कभी भूरी, कभी रंगीन । कभी स्याह, कभी चटख । वो महल अभी छिपा हुआ है, अब प्रकट हो जाएगा । मायावी लोक । सुरमुई संसार । मोहक सुन्दरता ।
सडक फिसलनी हो जाती । डामर या सीमेंट या ऐरन वाले बडे पत्थर (काबल स्टोन) पर पांव जमाकर धीमे से रखना पडते । घास पर चलते समय जूतों के नीचे, चर-चर, कुर-मुर की आवाज का अहसास होता । बर्फ के कारण सख्त हुई घास जब पैरों के नीचे टूटती तो ऐसा होता । सडकों, हवाई अड्डों और एरोप्लेन्स पर बर्फ न जमने देने के लिये विशेष प्रकार के रसायन का छिडकाव करते हैं । सडक पर से जमी हुई बर्फ हटाने के लिये अलग महकमा - अलग स्टाफ उनकी बडी-बडी मशीनें ।

प्राग जाने से पहले (दिसम्बर २००७)

चेकोस्लोवाकिया की यात्रा पर जाने से पहले मैंने यादों के कोनों को खंगालकर पुरानी बातों को बाहर निकाला । ऐसा मैं प्रायः करता हूँ । उस स्थान के बारे में जो कुछ पहले सुना था, पढा था, जाना था, उसे पुनः जगाता हूँ, झाडता-पोछता हूं, अद्यतन करता हूँ, नया ढूंढता हूँ । मुझे लगता है ऐसा करने से, शायद मैं उस नगर, प्रान्त या देश की यात्रा का अधिक आनन्द उठा पाता हूँ, ज्यादा सघनता से उस सभ्यता-संस्कृति को देख पाता हूँ, या थोडी अधिक गहराई में डूब पाता हूँ ।

स्मरण करता हूँ वर्ष १९६८ का अगस्त । तब मैं १५ वर्ष का था, दसवीं कक्षा में । बी.बी.सी. की हिन्दी रेडियो सेवा सुनने का शौक लगा था । मैं और पापा शाम ८.३० बजने की प्रतिक्षा करते थे । सहसा समाचारों की सुर्खियों में चेकोस्लोवाकिया का नाम छाने लगा । मध्य यूरोप का छोटा सा देश । चारों ओर अन्य देशों से घिराहुआ । लेण्ड लाक्ड । धरती से बन्धा हुआ । अर्थात् कोई समुद्री किनारा नहीं । रूस की सेनाओं ने हमला बोल दिया । वारसा सन्धि की सेना के टैंक प्राग शहर की सडकों को रौंद रहे थे । कारण ? चेकोस्लोवाकिया की सरकार ने कम्युनिस्ट होने के बावजूद, रूस व पूर्वी युरोप की अन्य कम्युनिस्ट व्यवस्थाओं के ढांचे से बाहर निकलने की कोशिश की थी । आर्थिक और प्रजातांत्रिक स्वतंत्रताओं और सुधारों की नयी बयार १९६८ के बसन्त में शुरु हुई थी । लोग खुश थे कम्युनिस्टों के सर्वसत्तात्मक, तानाशाही, दमघोटू प्रोपेगण्डा से इतर, खुली हवा का झोंका आया था ।

इस सब का नायक था स्लोवाक प्रान्त से आया एक प्रथम नागरिक एलेक्सान्डर डूबचेक । चेकोस्लोवाकिया की शासन रूड कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव, अर्थात् शासन का भी सर्वेसर्वा । उसी ने हिमाकत की थी ये सब परिवर्तन लाने की । सोवियत रूस के नेताओं को यह गवारा न था । उनके प्रभाव क्षेत्र के पूर्वी यूरोप के देशों में से एक था चेकोस्लोवाकिया । जब चेतावनियों का असर न हुआ तो सेना भेजकर उस सौम्य, अहिसक, स्वतःस्फूर्त, नवजात बसन्त को कुचल दिया गया ।

भारत के समाचारा माध्यमों में अधिक कुछ न आता था । रेडियो सरकारी था । टी.वी था नहीं । भाषाई अखबारों की पहुंच सीमित थी । ऐसे में बी.बी.सी सुनना रोमांचक लगता था । निरीह निहत्थे लोगों पर बल प्रयग की लोमहर्षक बातें सुनकर मन व्यथित होता था । अलेक्सान्दर डूबचेक व अन्य चेक नागरिकों के साहस के प्रति मन में आदर जागता था । उन्हीं दिनों उस देश के भूगोल, इतिहास व संस्कृति के बारे में भी कुछ-कुछ जाना होगा । तब से मन में इच्छा थी, कौतुहल था, रागात्मक लगाव था कि यदि मौका मिलेगा तो चेकोस्लोवाकिया जरूर जाउंगा। पिछले ३९ वर्ष में ब्लातावा नदी में, जिसके किनारे प्राग बसा है, बहुत पानी गुजर चुका है। कम्युनिस्ट शासन का अन्त १९९१ में हो चुका है । प्रजातंत्र स्थापित है ।
चेक रिपब्लिक के सन्दर्भ में बोहेमिया और बोहेमियन इन शब्दों का उल्लेख प्रायः होता है । बोहेमिया चेक गणतंत्र का पश्चिमी भू-भाग है । कितना आसान अर्थ ? वहां के रहवासी कहलाएंगे बोहेमियन । नहीं, इतना सीधा अर्थ नहीं ।

पहले बोहेमियन अक्सर जिप्सी जाति के लोगों को भी कहा जाता था । जिप्सी लोग १५-१६ वीं शताब्दी में पश्चिमोत्तर भारत (राजस्थान, पंजाब, सिध) से निकलकर पूर्वी और मध्य यूरोप जा पहुंचे थे । घुमक्कड या खानाबदोश प्रकृति के थे । हमारे यहां आज भी पाये जाने वाले गाडोलिया लोहारों या रेबारियों के समान । यूरोपवासियों ने सोचा था कि ये शायद मिस्र (इजिप्ट) से आये हैं । इस इजिप्शियन से बना जिप्सी । फिर ये जिप्सी जब वर्तमान चेक रिपब्लिक के बोहेमिया भू-भाग से होकर फ्रांस पहुंचे तो कहलाये बोहेमियन । इस तरह जिप्सी लोग बोहेमियन के नाम से जाने गये ।

लेकिन कहीं अधिक बहुप्रचलित अर्थ है इस शब्द बोहेमियन का-साहित्यिक और कलात्मक अभिरूचि वाले बुद्धिजीवी जो प्रायः विद्रोही स्वभाव के होते हैं, अभिजात्यता से दूर, सरल विपन्नता का जीवन व्यतीत करते हैं, रूढ मान्यताओं और व्यवस्थाओं के बन्धन से स्वयं को मुक्त रखते हैं । १९ सदी के उत्तरार्ध और बीसवी सदी के पूर्वार्ध में ऐसे अनेक प्रसिद्ध कलाकार और लेखक हुए थे जिन्होंने प्राग शहर व चेक रिपब्लिक के बोहेमिया भूखण्ड को अपनी निवास व कर्मस्थली बनाया था । यूं इसके अनेक शताब्दियों पूर्व, से, (१३००-१४००) प्रसिद्ध राजा चार्ल्स के समय से, विद्वानों, दर्शनशास्त्रियों आदि को राज्याश्रय मिलने की परम्परा यहां रही थी । कला के नायाब नमूने, शैलियाँ और विद्यालय प्रस्फुटित हुए थे । बोहेमियन मतलब विद्रोही, लीक से हट कर अपरम्परागत, बुद्धिमान, सौन्दर्यपारखी होता चला गया । दूसरे दो पुराने रूढ अर्थ - बोहेमिया के रहने वाले या जिप्सी - गौण होते चले गये ।

इस आधुनिक सांस्कृतिक अर्थ में बोहेमियन होने के प्रति मेरे मन में सदैव से एक रोमान्टिक आकर्षण, जुगुप्सा और लगाव सुलगता रहा है । उस प्रकार के लोगों के सम्फ में आने का, उन्हें उन्हीं के भौगोलिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में समीप से जानने का या कुछ-कुछ खुद बोहेमियन हो जाने का मौका मिलने की इच्छा बनी रही पर उम्मीद कम है । भारत में, आपने प्रान्त या नगर में, जान पहचान के छोटे से दायरों म कुछ मित्रों व अन्य व्‍यक्तित्‍वों में बोहेमिया प्रवृत्तियों की कल्पना कभी-कभी कर लेता हूँ । उनके जूतों में पांव रखकर, उन जैसा कभी-कभी सोचने की व महसूस करने की कोशिश भी करता हूँ ।

बोहेमिया भू-भाग का देहाती परिदृश्य शान्त व रमणीय है । छोटी पहाडयां, घने जंगल । पतझड में निःसन्देह और सुन्दर हो जाता होगा जब गिरने वाले पत्ते अपने सुर्ख चटख लाल-पीले रंगों की छटा बिखेरते होंगे - या फिर मई में, ग्रीष्म ऋतु में जब हरी पत्तियों व फूलों से वृक्ष लद जाते हैं । हम पहुंचे मध्य दिसम्बर में, घोर शीत ऋतु । तापमान शुन्य से नीचे । सारे झाड नंगे । एक पत्ती नहीं । केवल टहनियाँ और महीन शाखाएं । यूं, इसकी सुन्दरता अलग है । सुन्दरता किसमें नहीं है ? देखने वाले की आंखों को छोडकर या फिर केवल देखने वालों की आंखों में ।

दक्षिणी बोहेमिया में , जर्मन सीमा के समीप सुपावा की घनी वनाच्छादित पहाडयां अनेक लोक कथाओं का स्रोत है, वहां से चेक गणतंत्र की प्रमुख नदी ब्लातावा का उद्गम होता है । ढेर सारे किले, महल, गढ और गढयां, बुर्ज आदि यहां के चप्पे-चप्पे पर मिलते हैं । मध्य युग और बींसवीं सदी के आगमन तक सामन्ती राज व्यवस्था का यूरोप में घनघोर बोलबाला था । आश्चर्य नहीं कि उसी अति के प्रति विद्रोह में सोशलिज्म की विचारधारा पनपी जिसकी दुर्भाग्यपूर्ण परिणित अति के दूसरे छोर पर कम्यूनिज्म - स्टालिनिज्म - माओइज्म के रूप में हुई । सामन्तवाद ने शोषण बहुत किया । केवल एक छोटा सा भला होता रहा - कला पनपती रही स्थापत्य के रूप में, चित्रकला, संगीत, मूर्तिकला, पाकशास्त्र, वस्त्राभूषण ना ना रूपों में । चेक रिपब्लिक का समृद्ध व बहुत परतों वाला, लम्बा पुराना इतिहास इसी परम्परा का नायाब उदाहरण है ।
यहां के छोटे-छोटे कस्बे और नगर आज भी मेडिवियल (मध्ययुगीन) वातावरण व सौन्दर्य को सहेजे रखे हुए हैं । क्षरण हुआ है। पुनरोद्धार भी जारी है । इतिहास के प्रति समझ है, आदर है, श्रद्धा है, अभिरुचि है और जेब में पैसा आने लगा है । इसलिये हालात सुधरे हैं । अपने देश में इन सब चीजों का अभाव है । पैसों की तुलना में दूसरे पक्षों का कहीं अधिक ।
प्रथम विश्वयुद्ध (१९१४-१९१९) की समाप्ति पर जब आस्‍ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य (राजधानी विएना) का अन्त हुआ तो चेक व स्लोवाक लोगों ने मिलकर एक सफल प्रजातंत्र की स्थापना की १९३० में हिटलर की जर्मन सेनाओं ने चेकोस्लोवाकिया पर कब्जा कर लिया । द्वितीय विश्वयुद्ध (१९३९-१९४५) में हिटलर की हार के बाद चेकोस्लोवाकिया, अन्य पूर्वी यूरोपियन देशों (पोलेण्ड, हंगरी, रोमानिया, बल्गारिया आदि) के साथ विजेता रूस के प्रभाव क्षेत्र में घिर कर, आजाद हो कर भी पुनः कैद जैसा हो गया । चेक व स्लोवाक क्षेत्रों व नागरिकों में बहुत से अन्तर रहे हैं । बोहेमिया और मोराविया क्षेत्रों से मिलकर बने चेक रिपब्लिक का इतिहास पुराना है । यूरोप में मचलने वाले अनेक राजनैतिक और धार्मिक परिवर्तनों में इस देश की महती भूमिका रही । स्लोवाकिया तुलनात्मक रूप से, अलग थलग कृषि प्रधान और पिछडा हुआ रहा ।

१९९० की प्रजातांत्रिक क्रान्ति में कम्युनिज्म को उखाड फेंका गया । जर्मनी के बर्लिन में दीवार को जनता ने तोड डाला था । प्राग और ब्रातिस्लावा में हजारों-लाखों नागरिकों ने सडकों पर आकर, शांति पूर्ण तरके से व्यवस्था परिवर्तन को अंजाम दिया । शासकों ने समझदारी का परिचय दिया । बल प्रयोग न किया । टूट चुकी दीवार पर लिखी इबारत उन्होंने अच्छे से पढ ली थी । आसान व मुलायम से प्रतीत होने वाले इस चेकोस्लाव राज्य परिवर्तन को आधुनिक राजनैतिक इतिहास में मखमली क्रान्ति (वेल्वेट रेवोल्यूशन) के नाम से जाना जाता है । यहां के लोगों की बोहेमियन जडों और आदतों के कारण ही शायद यह क्रान्ति व दो वर्ष बाद चेक व स्लोवाक लोगों का सौहार्द्रपूर्ण प्रथक्करण इतने सुभीते के साथ सम्पन्न हो पाया होगा ।

एक चेक नागरिक से मैंने पूछा कि एलेक्सान्दर डूबचेक को आजकल लोग किस रूप में याद करते हैं, कितना सम्मान देते हैं ? उत्तर में मुझे आश्चर्य हुआ । मामूली सम्मान । अधिक नहीं । इसलिये कि वह मूल रूप से कम्युनिस्ट ही था । केवल थोडा सा बेहतर । उसने चेक संविधान की उस प्रथम धारा को हटाने से इन्कार कर दिया था जिसके तहत कम्युनिस्ट पार्टी को ही राष्‍ट्र की शासन व्यवस्था में अग्रणी भूमिका देने की बात कही गई थी ।

मोत्सार्ट (मोजार्ट) संगीत की दुनिया का नाम अमर है । यूं तो मोत्सार्ट को प्रायः विएना या साल्जबर्ग के साथ जोडते हैं पर प्राग से भी उसका घना आत्मीय सम्बन्ध था । मोत्सार्ट ने कहा था कि प्राग के लोगों ने जितना मुझे समझा और सराहा उतना किसी ओर ने नहीं । वे जिस घर में रहे वहां आज संग्रहालय और स्मारक हैं । प्रसिद्ध हिन्दी लेखक श्री निर्मल वर्मा ने अपनी पुस्तक चीडों पर चांदनी में उस संग्रहालय को देखने जाने का सजीव वर्णन किया है । हम न जा पाये ।