सोमवार, 20 जनवरी 2014

धर्मनिरपेक्षता

देश की स्वतंत्रता की शुरुआत में ही धर्मनिरपेक्षता पर करारा प्रहार हुआ। अनेक सदियों में विभिन्न धर्मावलम्बी एक साझी धरोहर के साथ रहते आ रहे थे। पर धर्म के आधार पर दो टुकड़े हुए। कहने को हमारे नेताओ ने इस विभाजन का झूठमूठ विरोध भी किया परन्तु सत्ता के लालच में उसे जल्दी ही स्वीकार कर के धर्म आधारित राजनीति के बीज बो दिये। आजादी के पचास सालों में हमें सच्ची धर्मनिरपेक्षता नहीं मिली। हम धर्म निरपेक्षता का सही अर्थ समझ नहीं पाए। जो व्यवहार में आया उसमें झूठ, धोखेबाजी, दिखावा व झांसा अधिक था। सच्चे धर्मनिरपेक्ष आचरण की कसौटी पर सब असफल निकले हमारी शासन व्यवस्था, हमारे राजनेता और हम में से अनेक नागरिक। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ होता है सर्वधर्म समभाव अर्थात सभी धर्मों का उसके मानने वालों के प्रति समान भाव, समान कानून। कहने को हमारे संविधान में ऐसी व्यवथा है। परन्तु व्यवहार में अनेक अपवाद नहीं हैं। कुछ कम्यूनिस्ट देशों में धर्म को जनता की अफीम कह कर उस पर भारी पाबंदियां लगार्इ गर्इ। हमारे यहां इतनी अति तो न हुर्इ परन्तु कभी-कभी अति उत्साह में देश की प्राचीन सांस्कृतिक परम्पराओं को नकारने की कोशिश की गर्इ। हिन्दी वर्णमाला में कभी ग गणेश का पढ़ाते थे। कुछ गलत न था। गणेश देवता न सही इस राष्ट्र के सांस्कृतिक प्रतीकों में से एक थे। उन्हें हटा कर ग गधे का पढ़ाने लगे। वन्दे मातरम जैसे गीतों को दबाने की कोशिश करी गर्इ। मां को सलाम करने से मूर्ति पूजा तो हो नही जाती, परन्तु कुछ कठमुल्ला लोगों के तुष्टीकरण के लिये ऐसा किया गया। ए.आर. रहमान जैसे सच्चे राष्ट्रवादी धर्मनिरपेक्ष कम निकले, देर से निकले। परिवार नियोजन के पोस्टर्स में महिला के चेहरे से बिन्दी हटा दी गर्इ, जबकि वह भारतीयता की पहचान है। हम समान नागरिक संहिता कामन सिविल कोड नहीं लागू कर पाए। महिलाओं के अधिकारों का धार्मिक आधार पर हनन होता रहा। एक शाहबानों सुप्रीम कोर्ट में जीती तो, संसद से संविधान संशोधन द्वारा कानून बदलवा दिया। यह सब क्यों हुआ ? वोटों की राजनीति के खातिर। एक धर्म विशेष के लोग चूंकि भेड़चाल जैसे थोक बन्द वोट देते थे, उन्हें हांकने के लिये राजनेताओं में होड़ लगी रही। फिर हम कैसे मान लें कि हमें सच्ची धर्मनिरपेक्षता मिली। जम्मू कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है। परन्तु उसे विशेष दर्जा देकर धर्म निरपेक्षता पर कुठाराघात किया गया । क्यों ? सिर्फ इसलिये कि वहां एक धर्म विशेष के लोगों का बहुमत है। देश के दूसरे भागों से वहां लोगों को बसने पर पाबन्दी लगार्इ गर्इ। खुल्लम खुल्ला धर्म के आधार पर राजनैतिक पार्टियां बनाने की छूट दी गर्इ। केरल, पंजाब, कुछ उत्तरपूर्वी राज्यों में इन दलों का पर्याप्त प्रभाव रहा। राष्ट्रीय स्तर की धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाली पार्टियों ने इन दलों के साथ समय-समय पर समझौते किये, सत्ता में भागीदारी करी। क्या यह धर्मनिरपेक्षता का हनन न था ? एक धर्मविशेष के लोगों के तुष्टीकरण की राजनीति कर के फूले न समाने वाले नेता, जाति के आधार पर राजनीति गलत नहीं मानते। यदि धर्म के आधार पर कानून, वोट, नौकरी आदि गलत हैं तो जाति के आधार पर सही कैसे हो सकते हैं। हमारे देश में सच्ची धर्मनिरपेक्षता तब तक नहीं मानी जा सकती जब तक नेता, धर्म, जाति पंथ, सम्प्रदाय के नाम पर वोट मांगते रहेंगेे और भोलीभाली अशिक्षित या अर्धशिक्षित जनता उनके बरगलाने में आती रहेगी। कोई बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता को कोसता है तो कोई अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता को जबकि दोनों ही खराब हैं।