गुरुवार, 29 मई 2008

यूथ होस्टल के बहाने हांगकांग और हांगकांग के बहाने यूथ होस्टल

यथू होस्टल की मेरी सदस्यता सक्रिय तो नहीं कही जा सकती । सच तो यह है कि प्रस्तावित विदेश यात्रा में सुविधा की दृष्टि से मैंने आजीवन सदस्यता लेने का निर्णय लिया था। यूथ होस्टल आन्दोलन के उद्देश्यों और कार्यकलापों से थोडा परिचय था, इन्दौर शाखा पदाधिकारियों को एक बैठक में सुना था । कुल मिलाकर मन में संस्था की अच्छी छवि थी ।

१९९६ सितम्बर माह में चीन जाते समय दो दिन हांगकांग रूकने की योजना बनाई । जैसे तैसे पहचान या सम्फ ढूंढ कर किन्हीं भारतीय परिवार में मान न मान मैं तेरा मेहमान के प्रयत्न सफल न हो पाये । सोचा यूथ होस्टल में किस्मत आजमाएंगे । होटल का खर्चा करने की मानसिकता न थी । दक्षिण चीन सागर में ऊपर से गुजरते समय जब मुख्य भूमि आने वाली होती है तब अनेक उबड-खाबड द्वीप उभरने लगते हैं, छोटे-बडे चट्टानी पहाडी, हरे भरे, पानी में छितरे हुए और फिर चीन की दक्षिणी मुख्य भूमि, गझोले पहाड, कटा फटा किनारा, अनेक खाडयां व नदियां के गुहाने, उन्हीं में से एक कोने मं जगमगाता हुए नगीना है, हांगकांग ।

हवाई अड्डे पर आगन्तुक यात्रियों के लिये नगर में कहीं भी स्थानीय फोन मुफ्त करने की सुविधा थी । मुस्कान युक्‍त विनम्र व दक्ष कर्मचारी उपस्थित थे । पर्यटन सूचना केन्द्र व आवास व्यवस्था मदद केन्द्र, ढेर सारी मुद्रित पुस्तिकाएं, नक्शे, ब्रोशर्स या तो मुफ्त या अत्यंत अल्प दामों पर उपलब्ध थे । धैर्यपूवक मेरे बचकाने या झुंझला देने वाले प्रश्नों का उत्तर देते रहे, कितने होस्टल हैं ? कौन सा अच्छा है ? कितनी दूर है ? आवगमन के क्या साधन हैं ? घूमने फिरने वालों के लिये कौन सा अच्छा है ? शापिग के लिये कौन सा अच्छा है ? टेक्सी का कितना किराया होगा ?

कुछ तो भी सोच समझ का तय किया कि माउण्ट डेबिस यूथ होस्टल में ठहरूंगा । फोन लगाया तो उस छोर से एक स्त्री ने बताया कि स्थान खाली है और मैं टेक्सी में आ सकता हूं । सार्वजनिक परिवाहन लम्बा व दूभर पडता क्योंकि मेरे पास सामान था । टेक्सी वाले ने काफी भटकाया । मीटर में किराया बढता गया । यूथ होस्टल कभी प्रसिद्ध नहीं होते । प्रायः लीक से हटकर दूरस्थ स्थानों पर बसे होते हैं । चीनी टेक्सी चालक अंग्रेजी नहीं जानता था या शायद ऐसा दर्शाता था । लोगों से रास्ता पूछने का रिवाज नहीं, भाषा भी मुश्किल, जिनसे पूछ वे अनभिज्ञ, जैसे तैसे मार्ग मिला, पहाडी मार्ग पर छोटा सा बोर्ड लगा था यूथ होस्टल के चिन्ह का, बाद में समझ आया कि यूथ होस्टल सुविधा सम्पन्न सैलानियों या व्यापारियों के लिये नहीं होते । जिन्हें जाना होता है वे अपनी पीठ पर बैग बांधे पैदल चल कर खुद नक्शा देख कर अपनी राह स्वयं ढूंढना जानते हैं ।
यूं तो पांच सितारा होटल की लोकेशन प्रायः सोच समझ कर तय की जाती है जहां से अच्छा दृश्य व्यू देखने को मिले । लेकिन यूथ होस्टल की लोकेशन की बात ही निराली है जिसमें घूमने का व ट्रेकिंग का माद्दा हो वे ही वहां पहुंचने की तोहमत खुशी-खुशी उठाते हैं, और बदले में मिलता है सस्ता, साफ, सुन्दर, मित्रवत परिसर जो धुमन्तु की भूख जगाता भी है और उसे शांत करने के उपाय भी जुटाता है ।

माउण्ट डेबिस हांगकांग का सबसे ऊंचा स्थल है - शिखर से थोडा ही नीचे हांगकांग हार्बर व भूमि की दिशा में ढलान पर यूथ होस्टल की छोटी शुभ इमारतें हैं स्वागत कक्ष में फेदिना ने अभिवादन किया, वही युवती जिससे फोन पर बात की थी । गौर वर्ण, छरहरी, ब्रिटिश मूल की फेदीना ने झटपट फार्म भरवाया नियम कायदे बताए । गुनगुनी धूप थी, ठण्डी नम हवा बह रही थी । पुरुषों व स्त्रियों की डार्मिटरी या शयनकक्ष अलग-अलग आमने सामने थे । बीच में खुला पक्का बैठने का स्थान व आगे लान। अनेक कुर्सियां व टेबलें लगी हुई थी । १० वर्ष से ७० वर्ष की उम्र तक के यात्रियों की चहल पहल से कैम्पस भरा हुआ था । आगन्तुक कक्ष में फोन था, अखबार थे, नक्शे लगे थे, जानकारियों का सबसे बडा खजाना था । यूथा होस्टल के कर्ताधर्ता स्वयंसेवक किस्म के कर्मचारी । फेदिना के अलावा दो और थे । तीनों मिलकर पूरा लावजमा भली-भांति सम्हाल लेते थे । खूब बातें करते, अच्छे आईडिया बताते, आम यात्रियों की लीक से हटकर पूछने वालें भी अलग किस्म के, उनकी जरूरतें पांच सितारा होटल के टुरिस्ट गाईड पूरी न कर पाते ।

हांगकांग के उत्तरी क्षेत्रों में समुद्री बीच कहां है ? क्या किन्हीं द्वीपों पर फलां-फलां चिडयाएं इस मौसम में देखी जा सकती हैं ? किसी विशिष्ट जाति के पौधे के फूलने का मौसम आ गया है, उसे कहां ढूंढा जा सकता है ? तीन दिन की पैदल ट्रकिंग में कौन सा दुर्गम भाग घूमा जा सकता है ? यूथ होस्टल के केयर टेकर के अलावा सहयोगियों से जब दोस्ती विकसित होने लगती है तो जानकारियों का पिटारा खुलता जाता है - मालूम पडा कि कनाडा के एक महाशय दस दिन से पडाव डाले हुए हैं और चप्पा-चप्पा घूम चुके हैं ।

आरम्भ में माहौल देखकर थोडा ठिठका था, अनेक पुरुषों के बाल बढे हुए थे या चोटी गुंथी थी कान में एक या दोनों तरफ बालियां पहनी हुई थी । शरीर पर जगह-जगह रंग बिरंगे गोदने गुदे हुए थे, कुछ लोग बाहर खुले में धुम्रपान कर रहे थे । हालांकि अंदर आना मना है, मदिरा पान पर पूर्ण पाबंदी है । धीरे-धीरे समझ आया कि लोग भले हैं, हम अपने मन में पूर्व धारणाएं लोगो के बारे में एक जैसा सोचने लगते हैं । चेहरा झूठा, दिल सच्चा वाली बात अधिक मौजूद है ।

यूथ होस्टल के सदस्यों की पर्यटन के प्रति दीवानगी की बानगियां देखने को मिलीं । कहां कहां से न आये थे । एक अधेड स्पेनिश महिला टूटी-फूटी अंग्रेजी में उत्तेजित होकर कहने लगी मैं आज तक किसी भारतीय से नहीं मिली । सदस्यों के पास मोटी-मोटी टुरिस्ट गाईड बुक थी, एटलस थे, कुछ लोग रोज रात नियम से डायरी लिखते थे । अनेक सदस्य फोटोग्राफी में निपुण थे, उच्च कोटी के जटिल कैमरे साथ लिये घूमते थे । गपशप के अनेक मौके मिलते थे बहुत से सैलानी साधन सम्पन्न थे पर यूथ होस्टल के माहौल की खातिर यहां ठहरना पसन्द करते थे । परिवार कक्ष दो-तीन ही थे जो पहले से आरक्षित रहते । प्रायः पति-पत्नी या स्त्री-पुरुष मित्रों को रात्री में अलग-अलग शयनकक्ष में सोना पडता । अन्दर आना मना था । अनुशासन का स्वैच्छिक पालन कडाई से होता ।

डार्मिटरी में एक के ऊपर एक दो बिस्तर होते, कम्बल तकिया चादर किराये पर मिलते । किचन सबके लिये सांझा था । चार-पांच गैस के चूल्हे थे, बर्तन थे, क्राकरी थी । पूर्व यात्रियों द्वारा छोडा गया सामान सार्वजनिक सम्पत्ति होता । फ्रिज में उसका स्थान अलग, होस्टल के स्वागत कक्ष में कुछ खाद्यपदार्थ खरीदे जा सकते थे । अधिक विविधता चाहिये तो पहाडी से उतर कर बाजार से लाना पडता । दूध, मक्खन, नूडल्स, सूप, ब्रेड, चांवल आदि पकाकर पेट भरा जाता, बरतन स्वयं साफ करके रखना होते । लोगों की भिन्न-भिन्न खाद्य आदतें देखने में मजा आता, परन्तु सबसे नायाब या अजूबे तो हम शाकाहारी हिन्दुस्तानी लगते हैं । बाकी दुनिया में हमारे जैसी आदतें आश्चर्यजनक प्रतीत होती हैं ।

पूरी परिसर की सफाई का जिम्मा रहवासियों में बांट दिया जाता । मेरी पहली सुबह वहां के प्रभारी ने अनुरोध किया ‘क्या आप पुरुषों के टायलेट तक जाने वाली सीढयों व बालकनी की सफाई कर देंगे’ यह अनुरोध एक आदेश ही था, मुझे अच्छा लगा। लम्बी झाडू पेकर लगभग आधे घण्टे तक सफाई करता रहा, सब लोग यही कर रहे थे । होस्टल को आर्थिक दृष्टि से स्वासलम्बी बनाने में मदद मिलती है । सदस्यों के मन में संस्था के प्रति कुछ करने का भाव जागता है, अपनत्व महसूस होता है, विनम्रता व वर्गविहीनता को बढावा मिलता है ।

एक सुबह उठ कर माउण्ट डेबिस का शिखर व शेष भाग को घूमने गया था, सुनसान था, जंगली घांस व झाडयां थी, कुछ पुराने खण्डर थे । ब्रिटिश सेना की पुरानी बैराक्स यहां थी, द्वितीय विश्वयुद्ध में यह एक महत्वपूर्ण सैनिक ठिकाना था । एक टावर था शायद दूर संचार से सम्बद्ध, एक निषिद्ध क्षेत्र था जहां नाभिकीय ऊर्जा विभाग के बोर्ड लगे थे । दो-तीन बूढे या अधेड चीनी मूल के लोग अकेले खडे या व्यायाम करते दिखे । घूरते रहे थोडा डर सा लगा, शिखर के दूसरी ओर हांगकांग के अन्य भाग अन्य द्वीप या खाडयां दिखे ।

होस्टल की एक शटल बस सर्विस थी जो ठीक समय से नीचे शहर मे मुख्य यातायात केन्द्र तक आती जाती थी । एक दिन देर शाम की अन्तिम वापसी शटल बस की प्रतिक्षा में शहर वाले स्टाप पर बैठा था । एक-एक करके अन्य होस्टल वासी जुडते गये , गपशप चल पडी, फेदिना बताने लगी कि हांगकांग के मुख्य चीन में मिलने के बाद भविष्य को लेकर वहां के नागरिक चिंतित जरूर हैं, परन्तु बहुत अधिक नहीं, खुद उसने चीनी भाषा सीखनी आरंभ कर दी थी । मैंने पूछा कि ‘क्या चीन में यूथ होस्टल की शाखाएं हैं ?’ जैसी की आशंका थी यूथ होस्टल जैसी पश्चिमी उद्गम वाली संस्था चीन के बांस पर्दा (बेस्बू कर्टन) के पार नही पहुंची थी । शायद बीजिग में पहला यूथ होस्टल खुलने वाला था ।

रात के खाने के बाद खुले में पहाडी लान के किनारे कुर्सियों पर बैठ कर हांगकांग हार्बर को देर तक निहारता रहा । दूर तक जगमगाता हुआ हांगकांग तुलनात्मक रूप से शान्त था । प्रकाश था पर ध्वनि दूर थी अतः अप्राप्य शहर के शोर की जगह थी बहती गुनगुनी हवा । सरसराते पत्ते, झींगुरों का कलरव, कोई जहाज का मद्दिम इंजिन, कोई विमान का हल्का गुंजन । इस मनोहारी दृश्य में अनेक चीजें थी जिनके विस्तार में जाया जा सकता था । ढेर सारे बिन्दु, ढेर सारे लैण्डमार्क, समय गुजारना अत्यंत आसान। पानी पर स्थित ठहरे लंगर डाले जगमगाते जहाज और उनके प्रतिबिम्ब एक अनूठे सौन्दर्यलोक की सृष्टि कर रहे थे । यदाकदा कोई भोंपू बज उठता, बडी देर में कोई जहाज या नौका पता नहीं क्यों इतनी देर रात एकाकी पर में कहीं से कहीं की दिशा में आती या जाती दिख पड जाती । मन सोचने लगता - कौन है जो इस बेला में गहरे काले रंग के इस संसार में किस प्रयोजन से गतिमान है और ठहराव के उस सौन्दर्य को नहीं चखना चाह रहा जिसे मैं देर से पिये जा रहा हूँ । प्रायः रुक-रुक कर होने वाली बारिश से भीग चुकी घांस, वनस्पति और मिट्टी की सोंधी गन्ध हवा में व्याप्त थी । लम्बे अन्तराल से कभी कोई अकेला पक्षी चीख उठता था या कोई जोडा आपस में जुगल बन्दी नुमा संवाद करने लगता।
यूथ होस्टल के बाहर दो बडी वेन से ध्यान विचलित हुआ । जापानी पर्यटकों का एक समूह घूम कर लौटा था । युवक और युवतियों का चहलभरा विनोद मन को गुदगुदाता रहा, भाषा जानना जरूरी नहीं । हावभाव, गतियां मुद्राएं, स्वरों के उतार चढाव कितना कुछ कह जाते हैं । तमाम सांस्कृतिक, भाषाई, धार्मिक, राजनैतिक और नस्लीय भिन्नताओं के बावजूद मनुष्य की समानताएं मुझे अधिक आकर्षक, रोमांचक और मनोहारी लगती हैं । इस युवा समूह के पास जाकर मैंने परिचय बनाने की कोशिश की, वे लोग बाहर खुले में पहले से निर्मित बार्बे क्यू अंगीठीयों को सुलगा कर कबाब सेकना शुरु कर चुके थे, मुझे उनकी राष्ट*ीयता का ज्ञान न था, अपने लिये चीनी जापानी सब एक जैसे । मैंने पूछ ‘क्या आप चीनी हैं ?’ वे अजीब सी हंसी हंसे, फिर सफाई दी, बाद में कहीं पढते हुए जाना कि दोनों के मध्य गहन प्रतिद्वन्तिता और घृणा की भावना है । शायद अपने और पाकिस्तान के बीच पाई जाने वाली भावना से अधिक । उनके ग्रुप का फोटो खींचते समय एक स्टूल से मैं गिर गया । हल्की खरोंच लगी । कैमरे की फ्लेशगन को नुकसान पहुंचा, सब दौडे-दौडे आये । देर तक मुझे सहलाते रहे, कुशल क्षेम पूछते रहे ।

खाने पीने के बाद दो सदस्यों ने गिटार और वायलिन बजाना शुरु किया । बहुत देर हो चुकी थी, लगभग सभी लोग सोने चले गये थे, एक के बाद एक धुने बदलती रहीं, संगीत मीटा था, गीतों के स्वर मधुर थे । हवा और संगीत और स्वर बहते रहे, मुझे लगा कि मैं अन्तिम श्रोता हूँ । दोनों वादक और गायक स्वान्तः सुखाय गाते रहे, एक बहुत ही सुरीली और झुमा देने वाली कम्पोजीशन की समाप्ति पर ऊपर की खिडकी से किसी ने झांका व तालियां बजाकर सराहा तथा दाद दी । वह फेदीना थी , वे ध्वनियां, वे दृश्य, वे खुशबुएं मेरे जेहन में सदा के लिये बस गये हैं ।

मंगलवार, 27 मई 2008

पार्किन्‍सोनिज्‍म - कारण

दुर्घटना चोट या मानसिक सदमें सo पार्किन्‍सन रोग नहीं होता । मेडिकोलीगल कोर्ट केसेस में यह मुद्दा कभी-कभी उठता है । उदाहरणार्थ एक व्‍यक्ति के सिर पर भारी वस्तु गिरने के बाद यह रोग विकसित होने लगा । दोनों के आपसी सम्बन्ध को लेकर कोई वैज्ञानिक सबूत मौजूद नहीं है । कुछ मरीज इसका सम्बन्ध अनावश्यक ही सडक दुर्घटनाओं से , ऑपरेशन से या मानसिक शॉक व तनाव से जोडते हैं । सच्चाई यह है कि हजारों लाखों लोग इस प्रकार की दुर्घटनाओं व हादसों का शिकार होते हैं परन्तु उन्हें पार्किन्‍सन रोग नहीं होता और जिन्हें होता है उनमें से बहुतों को ऐसी कोई घटना नहीं घटी होती ।

बहुत थोडे से मामलों में पार्किन्‍सन रोग से मिलते जुलते लक्षण किन्हीं अन्य कारणों या रोगों से हो सकते हैं जैसे कि (१) कुछ प्रकार की औषधियाँ जो मानसिक रोगों में प्रयुक्‍त होती हैं (२) मस्तिष्क तक खून पहुंचाने वाले नलियों का अवरुद्ध होना (३) मस्तिष्क में वायरस के इन्फेक्शन (एन्सेफेलाइटिस) (४) मेंगनीज की विषाक्तता । परन्तु मूल, मुख्य पार्किन्‍सोनिज्‍म रोग का कारण ठीक से ज्ञात नहीं है ।

इतना जरूर जाना जाता है कि मस्तिष्क के गहरे केन्द्रीय भाग में स्थित एक विशिष्ट रचना स्‍ट्राएटम की कोशिकाओं में गडबडी शुरु होती है । सब्सटेंशिया निग्रा (शाब्दिक अर्थ काला पदार्थ) की न्यूरान कोशिकाओं की संख्या कम होने लगती है । वे क्षय होती है । उनकी जल्दी मृत्यु होने लगती है । आकार छोटा हो जाता है । उनके द्वारा रिसने वाला महत्वपूर्ण रसायन न्‍यूरोट्रांसमिटर "डोपामीन" कम बनता है ।

ये कोशिकाएं क्यों अकालमृत्यु को प्राप्त होती है ? अनेक व्याख्याएं व परिकल्पनाएं हैं । कुछ भूमिका शायद जीन्स या आनुवांशिक गुणों की हो, पर अधिक नहीं । वातावरणीय कारक वक्‍त के साथ प्रभाव डालते हैं - तरह-तरह के इन्फेक्शन, प्रदूषण, खानपान आदि । खास तत्व की पहचान नहीं हो पाई है । इस प्रश्न का भी उत्तर नहीं मिल पाया है कि उक्‍त अज्ञात वातावरणीय कारक सिर्फ गिने चुने लोगों पर ही असर क्यों डालता है । तथा शेष जनता पर क्यों नहीं ? यह रोग एक मनुष्य से दूसरे मो नहीं लगता । यह छूत की बीमारी नहीं है । साथ में खाने पीने, बैठने उठने बात करने आदि से यह रोग नहीं फैलता ।

सन् ८० के दशक में संयोगवश देखा गया है कि ब्राउन शुगर से मिलती जुलती नशे की एक अन्य वस्तु में एम.पी.टी.पी. नामक पदार्थ की मिलावट वाला इंजेक्शन लगवाने वाले कुछ युवकों म| पार्किन्‍सोनिज्‍म रोग तेजी से विकसित होता है । तब अनुमान लगाया गया कि एम.पी.टी.पी. जैसा पदार्थ वातावरण से या शरीर से स्वतः किसी तरह पैदा होकर मस्तिष्क की विशिष्ट कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाता होगा ।

स्‍ट्राएटम तथा सब्सटेंशिया निग्रा (काला पदार्थ) नामक हिस्सों में स्थित इन न्यूरान कोशिओं द्वारा रिसने वाले रासायनिक पदार्थों (न्‍यूरोट्रांसमिटर) का आपसी सन्तुलन बिगड जाता है । विशेष रूप से डोपामीन नामक रसायन की कमी हो जाती है, तथा एसीटिल कोलीन की मात्रा तुलनात्मक रूप से बढ जाती है ।

शुक्रवार, 23 मई 2008

पार्किन्‍सन रोग के लक्षण

पार्किन्‍सोनिज्‍म का आरम्भ आहिस्ता आहिस्ता होता है । पता भी नहीं पडता कि कब लक्षण शुरु हुए । अनेक सप्ताहों व महीनों के बाद जब लक्षणों की तीव्रता बढ जाती है तब अहसास होता है कि कुछ गडबड है ।
डॉक्टर जब हिस्‍ट्री (इतिवृत्त) कुरेदते हैं तब मरीज व घरवाले पीछे मुड कर देखते हैं याद करते हैं और स्वीकारते हैं कि हां सचमुय ये कुछ लक्षण, कम तीव्रता के साथ पहले से मौजूद थे । लेकिन तारीख बताना सम्भव नहीं होता ।
कभी-कभी किसी विशिष्ट घटना से इन लक्षणों का आरम्भ जोड दिया जाता है - उदाहरण के लिये कोई दुर्घटना, चोट, बुखार आदि । यह संयोगवश होता है । उक्त तात्कालिक घटना के कारण मरीज का ध्यान पार्किन्‍सोनिज्‍म के लक्षणों की ओर चला जाता है जो कि धीरे-धीरे पहले से ही अपनी मौजूदगी बना रहे थे ।
बहुत सारे मरीजों में पार्किन्‍सोनिज्‍म रोग की शुरुआत कम्पन से होती है । कम्पन अर्थात् धूजनी या धूजन या ट्रेमर या कांपना ।
कम्पन किस अंग का ?
हाथ की एक कलाई या अधिक अंगुलियों का, हाथ की कलाई का, बांह का । पहले कम रहता है । यदाकदा होता है । रुक रुक कर होता है । बाद में अधिक देर तक रहने लगता है व अन्य अंगों को भी प्रभावित करता है । प्रायः एक ही ओर (दायें या बायें) रहता है, परन्तु अनेक मरीजों में, बाद में दोनों ओर होने लगता है।
आराम की अवस्था में जब हाथ टेबल पर या घुटने पर, जमीन या कुर्सी पर टिका हुआ हो तब यह कम्पन दिखाई पडता है । बारिक सधे हुए काम करने में दिक्कत आने लगती है, जैसे कि लिखना, बटन लगाना, दाढी बनाना, मूंछ के बाल काटना, सुई में धागा पिरोना । कुछ समय बाद में, उसी ओर का पांव प्रभावित होता है । कम्पन या उससे अधिक महत्वपूर्ण, भारीपन या धीमापन के कारण चलते समय वह पैर घिसटता है, धीरे उठता है, देर से उठता है, कम उठता है । धीमापन, समस्त गतिविधियों में व्याप्त हो जाता है । चाल धीमी/काम धीमा । शरी की मांसपेशियों की ताकत कम नहीं होती है, लकवा नहीं होता । परन्तु सुघडता व फूर्ति से काम करने की क्षमता कम होती जाती है ।
हाथ पैरों में जकडन होती है । मरीज को भारीपन का अहसास हो सकता है । परन्तु जकडन की पहचान चिकित्सक बेहतर कर पाते हैं - जब से मरीज के हाथ पैरों को मोड कर व सीधा कर के देखते हैं बहुत प्रतिरोध मिलता है । मरीज जानबूझ कर नहीं कर रहा होता । जकडन वाला प्रतिरोध अपने आप बना रहता है ।
खडे होते समय व चलते समय मरीज सीधा तन कर नहीं रहता । थोडा सा आगे की ओर झुक जाता है । घुटने व कुहनी भी थोडे मुडे रहते हैं । कदम छोटे होते हैं । पांव जमीन में घिसटते हुए आवाज करते हैं । कदम कम उठते हैं गिरने की प्रवृत्ति बन जाती है । ढलान वाली जगह पर छोटे कदम जल्दी-जल्दी उठते हैं व कभी-कभी रोकते नहीं बनता ।
चलते समय भुजाएं स्थिर रहती हैं, आगे पीछे झूलती नहीं । बैठे से उठने में देर लगती है, दिक्कत होती है । चलते -चलते रुकने व मुडने में परेशानी होती है । चेहरे का दृश्य बदल जाता है । आंखों का झपकना कम हो जाता है । आंखें चौडी खुली रहती हैं । व्‍यक्ति मानों सतत घूर रहा हो या टकटकी लगाए हो । चेहरा भावशून्य प्रतीत होता है बातचीत करते समय चेहरे पर खिलने वाले तरह-तरह के भाव व मुद्राएं (जैसे कि मुस्कुराना, हंसना, क्रोध, दुःख, भय आदि ) प्रकट नहीं होते या कम नजर आते हैं । उपरोक्‍त वर्णित अनेक लक्षणों में से कुछ, प्रायः वृद्धावस्था में बिना पार्किन्‍सोनिज्‍म के भी देखे जा सकते हैं । कभी-कभी यह भेद करना मुश्किल हो जाता है कि बूढे व्यक्तियों में होने वाले कम्पन, धीमापन, चलने की दिक्कत डगमगापन आदि पार्किन्‍सोनिज्‍म के कारण हैं या सिर्फ उम्र के कारण।
खाना खाने में तकलीफें होती है । भोजन निगलना धीमा हो जाता है । गले में अटकता है । कम्पन के कारण गिलास या कप छलकते हैं । हाथों से कौर टपकता है । मुंह में लार अधिक आती है । चबाना धीमा हो जाता है । ठसका लगता है, खांसी आती है ।
बाद के वर्षों में जब औषधियों का आरम्भिक अच्छा प्रभाव क्षीणतर होता चला जाता है । मरीज की गतिविधियां सिमटती जाती हैं, घूमना-फिरना बन्द हो जाता है । दैनिक नित्य कर्मों में मदद लगती है । संवादहीनता पैदा होती है क्योंकि उच्चारण इतना धीमा, स्फुट अस्पष्ट कि घर वालों को भी ठीक से समझ नहीं आता ।
स्वाभाविक ही मानसिक स्वास्थ्य पर भी इसका असर पडता है । सुस्ती, उदासी व चिडचिडापन पैदा होते हैं। स्मृति में मामूली कमी देखी जा सकती है ।
कुछ अन्य लक्षण व समस्याएं हो पार्किन्‍सन रोगियों में देखी जाती हैं -
नींद में कमी, वजन में कमी, कब्जियत, जल्दी सांस भर आना, पेशाब करने में रुकावट, चक्कर आना, खडे होने पर अंधेरा आना, सेक्स में कमजोरी ।

गुरुवार, 22 मई 2008

पार्किन्सोनिज्म का इतिहास

चिकित्सा शास्त्र में बहुत कम बीमारियों के नाम किसी डाक्टर या वैज्ञानिक के नाम पर रखे गये हैं । आम तौर पर ऐसा करने से बचा जाता है । परन्तु लन्दन के फिजिशियन डॉ. जेम्स पार्किन्सन ने सन् १८१७ में इस रोग का प्रथम वर्णिन किया था वह इतना सटीक व विस्तृत था कि आज भी उससे बेहतर कर पाना, कुछ अंशों में सम्भव नहीं माना जाता है । हालांकि नया ज्ञान बहुत सा जुडा है । फिर भी परम्परा से जो नाम चल पडा उसे बदला नहीं गया ।

पार्किन्सन रोग समूची दुनिया में, समस्त नस्लों व जातियों में, स्त्री पुरूषों दोनों को होता है । यह मुख्यतया अधेड उम्र व वृद्धावस्था का रोग है । ६० वर्ष से अधिक उम्र वाले हर सौ व्यक्तियोंमें से एक को यह होता है । विकसित देशो में वृद्धों का प्रतिशत अधिक होने से वहां इसके मामले अधिक देखने को मिलते हैं । इस रोग को मिटाया नहीं जा सकता है । वह अनेक वर्षों तक बना रहता है, बढता रहता है । इसलिये जैसे जैसे समाज में वृद्ध लोगों की संख्या बढती है वैसे-वैसे इसके रोगियों की संख्या भी अधिक मिलती है । अमेरिका की कुल आबादी (तीस करोड) में लगभग ५ लाख लोगों का यह रोग है । भारत के आंकडे उपलब्ध नहीं हैं, पर उसी अनुपात से १५ लाख रोगी होना चाहिये ।

पार्किन्सोनिज्मका कारण आज भी रहस्य बना हुआ है , बावजूद इस तथ्य के कि उस दिशा में बहुत शोध कार्य हुआ है, बहुत से चिकित्सा वैज्ञानिकों ने वर्षों तक चिन्तन किया है और बहुत सी उपयोगी जानकारी एकत्र की है । वैज्ञानिक प्रगति प्रायः ऐसे ही होती है। चमत्कार बिरले ही होते हैं । १९१७ से १९२० के वर्षों में दुनिया के अनेक देशों में फ्लू (या इन्फ्लूएन्जा) का एक खास गम्भीर रूप महामारी के रूप में देखा गया । वह एक प्रकार का मस्तिष्क ज्वर था । जिसे एन्सेफेलाइटिस लेथार्जिका कहते थे क्योंकि उसमें रोगी अनेक सप्ताहों तक या महीनों तक सोता रहता था । उस अवस्था से धीरे-धीरे मुक्त होने वाले अनेक रोगियों को बाद में पार्किन्सोनिज्महुआ । १९२० से १९४० तक के दशकों में माना जाता था कि पार्किन्सोनिज्मका यही मुख्य कारण है । सोचते थे, और सही भी था कि इन्फ्लूएंजा वायरस के कीटाणू मस्तिष्क की उन्हीं कोशिकाओं को नष्ट करते हैं जो मूल पार्किन्सन रोग में प्रभावित होती हैं ।

न्यूयार्क के प्रसिद्ध न्यूरालाजिस्ट लेखक डॉ. ऑलिवर सेक्स ने इन मरीजों पर किताब लिखी, उस पर अवेकनिग (जागना) नाम से फिल्म बनी - इस आधार पर कि लम्बे समय से सुषुप्त रहने के बाद कैसे ये मरीज, नये युग में, नयी दुनिया में जागे । रिपवान विकल की कहानी की तरह ।

सौभाग्य से १९२० के बाद एन्सेफेलाइटिस लेथार्जिका के और मामले देखने में नहीं आए । लेकिन पार्किन्सोनिज्मरोग उसी प्रकार होता रहा है । अवश्य ही कोई और कारण होने चाहिये ।

बुधवार, 21 मई 2008

सेरीब्रल पाल्सी

सेरीब्रल पाल्सी के कितने नाम ?
इसे अनेक नाम से पुकारते हैं -
अंग्रेजी नाम का संक्षिप्त रूप है । सी.पी. (सेरीब्रल = मस्तिष्क गोलार्ध; पाल्सी = लकवा, फालिज, पक्षाघात, पेरेलिसिस)
हिन्दी में शाब्दिक अर्थ हुआ मस्तिष्क गोलार्ध पक्षाघात
यह बहुत कठिन नाम है । सरल भाषा में कहें तो दिमागी लकवा ।
चूंकि यह रोग प्रायः जन्म के समय से मौजूद रहता है अतः इसे जन्मजात लकवा या शिशु लकवा या बाल लकवा भी कह सकते हैं ।
सेरीब्रल पाल्सी से पीडत बच्चों के शरीर की मांसपेशीयाँ प्रायः अकडी हुई, कडक होती है । हाथ पैर को हिलाने डुलाने में जकडन या प्रतिरोध का अनुभव होता है । ऐसी अवस्था को स्पास्टिक नामक विशेषण से व्यक्त करते हैं । अतः सेरीब्रल पाल्सी से ग्रस्त बच्चे कई बार स्पास्टिक बच्चे भी कहलाते हैं ।

सेरीब्रल पाल्सी क्या है ?
एक दुर्घटना, मस्तिष्क के साथ घटनेवाली एक दुर्घटना ! सेरीब्रल पाल्सी की तुलना, आप एक्सीडेन्ट से कर सकते हैं ।
मस्तिष्क को नुकसान पहुंचाने के उपरांत शेष बची विकृति का नाम सेरीब्रल पाल्सी है ।
कैंसर या अन्य जीवाणुजनित रोग समय के साथ बढते जाते हैं । किन्तु सेरीब्रल पाल्सी इस प्रकार स्वतः ही बढने वाली समस्या नहीं है ।

सेरीब्रल पाल्सी की परीभाषा -
यह रोग विकसित हो रहे मस्तिष्क में अनेक प्रकार की खराबियों या नुकसान की वजह से होता है । मस्तिष्क कब विकसित हो रहा होता है ? मां के गर्भ में जन्म के समय और जन्म के बाद के आरम्भिक एक दो वर्षों में ।
मस्तिष्क में आने वाली खराबी किस प्रकार की हो सकती है ? इन्फेक्शन, रक्तप्रवाह में रोक, चोट, रक्तस्त्राव, आनुवांशिक, अनेक मामलों में खराबी अज्ञात या अप्रकट रहती है ।
इस रोग में बच्चे का शारीरिक - मोटर (प्रेरक) विकास धीमा या अवरुद्ध या असामान्य हो जाता है । मोटर (प्रेरक) विकास का सम्बन्ध मांसपेशियों की शक्ति, अंग संचालन, सटीकता व संयोजन से है । मोटर (प्रेरक) तंत्र के बूते पर ही शरीर की तमाम गतियां संचालित होती हैं ।

सेरीब्रल पाल्सी रोग के लक्षण व दुष्प्रभाव या तो स्थायी रहते हैं या उम्र के साथ कुछ हद तक ठीक हो सकते हैं । सेरीब्रल पाल्सी बढने वाला या बिगडने वाला रोग नहीं है, जो नुकसान मस्तिष्क में एक बार होना था वह हो चुका अब और ज्यादा नहीं होगा ।
मोटर (प्रेरक तंत्र) के कारण मांसपेशियों व अंगों के संचालन के अलावा अनेक मामलों में मस्तिष्क सम्बन्धी कुछ और खराबियां व दुष्प्रभाव मौजूद रह सकते हैं । जैसे - मन्दबुद्धि, मिर्गी, देखने व सुनने की क्षमता में कमी आदि । इन अतिरिक्त दुष्प्रभावों के मौजूद रहने या न रहने से सेरीब्रल पाल्सी की परिभाषा में कोई असर नहीं पडता ।

प्रमुख कारण -
बहुत से मामलों में कारण अज्ञात होता है । यह रोग अपने आप ही प्रकट होता है । कुछ कारण तो है, परन्तु जांच के बाद भी प्रकट नहीं होता । यदि कारण ज्ञात हो जावे तो मुख्य उदाहरण है ।
अ. समय से पूर्व प्रसव (प्रीमेच्युरिटी) कम वजन या छोटा शिशु ७ वें या ८ वें महिने में पैदा होने वाला बच्चा । (ऐसे बच्चों में मस्तिष्क में रक्तस्त्राव व रक्त अल्पता की समस्या अधिक होती है ।
ब. गर्भावस्था के दौरान शिशु के मस्तिष्क विकास में विकृति या अवरोध, जिनेटिक खराबियाँ, माता के रोग जैसे इन्फेक्शन, बुखार, रक्तचाप, मधुमेह, नशा करना, कुपोषण, चोट ।
स. प्रसव के दौरान गडबडी यह उतना प्रमुख या महत्वपूर्ण कारण नहीं है जितना कि अभी तक आम तौर पर समझा जाता है । लोग अक्सर आरोप लगाते हैं या शंका करते हैं कि जन्म की प्रक्रिया के दौरान स्त्री रोग विशेषज्ञ या दाई द्वारा ठीक से देखभाल न किये जाने से शिशु को नुकसान पहुंचा । परन्तु बाद के वैज्ञानिक आकलनों से यह ज्ञात हुआ कि सेरीब्रल पाल्सी होने का अंदेशा (९०प्रतिशत में) प्रसव के पहले से मौजूद रहता है । प्रसुति की खराबियाँ बहुत कम मामलों में (केवल १० प्रतिशत) सी.पी. का कारण बनती हैं । जन्म के समय ऑक्सीजन की तथा कथित थोडी बहुत कमी अनेक शिशुओं को हो सकती है, सबके सब सेरीब्रल पाल्सी के शिकार नहीं होते । जिन बच्चों का ए.पी.जी.ए.आर. स्कोर कम होता है, उनमें सी.पी. होने की आशंका निश्चय ही अनेक गुना बढ जाती है । अनेक अच्छे भले बच्चे सामान्य प्रसुति के बावजूद सी.पी. से ग्रस्त हो सकते हैं । विकसित देशों में बेहतर प्रसुति सेवाओं के फलस्वरूप शिशु मृत्युदर में कमी आयी है । परन्तु सेरीब्रल पाल्सी की व्यापकता कम नहीं हुई है ।

प्रसव के बाद नवजात शिशु की समस्याओं के कारण सी.पी.
बच्चे का दम घुटना, ऑक्सीजन की कमी, श्वास नली में कोई खाद्य या अखाद्य वस्तु का अटकना ।
दुर्घटनावश जहर का सेवन ।
पानी मे डूबना ।
सिर की गम्भीर चोटें ।
अनेक प्रकार के इन्फेक्शन या संक्रमण रोग जो मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं । जैसे कि मेनिन्जाइटिस, एन्सेफेलाईटिस, (दिमागी बुखार), मस्तिष्क मलेरिया आदि ।


सेरीब्रल पाल्सी से मिलती जुलती अवस्थाएं जो वास्तव में भिन्न हैं -
पोलियो
- पोलियो का असर मस्तिष्क पर नहीं वरन् रीढ की हड्डी के अन्दर स्थित स्पाइनल कार्ड पर पडता है, पोलियो जन्मजात नहीं होता, काफी बाद में होता है । ६ माह की उम्र से ५ वर्ष की उम्र तक हो सकता है । पोलियो में हाथ पैर की मांसपेशियों में जकडन, अकडन नहीं होती बल्कि ढीलापन, नरमपन व शिथिलता होती है । न्यूरोलाजिस्ट की हथोडी से जांच करने पर सी.पी. में हाथ-पांव उचकते हैं, झटका आता है जबकि पोलयो में मांसपेशियां निढाल पडी रहती हैं । सेरीब्रल पाल्सी में यदि मस्तिष्क नुकसान ज्यादा हो तो पक्षाघात के साथ -साथ बुद्धि, स्मृति, सोच-समझ वाणी, दृष्टि आदि पर भी असर रह सकता है जबकि पोलियो में ऐसी कोई बात नहीं होती ।

न्यूरो-क्षयकारी बीमारियाँ
तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग किस्म की क्षयकारी बीमारियाँ हो सकती है । मस्तिष्क स्पाईनल कार्ड, नर्वस, मांसपेशियां प्रभावित हो सकते हैं । अनुवांशिक या किन्हीं अज्ञात कारणों से नर्वस सिस्टम के ये अंग स्वतः गलने लगते हैं, क्षय होने लगते हैं, नष्ट होने लगते हैं । समय के साथ रोग बढता जाता है, बच्चे ने जो कुछ सीखा था, हासिल किया था, उसे खोने लगता है । विकास के पायदानों पर उपर चढने के बजाय नीचे उतरने लगता है । इसके विपरीत सेरीब्रल पाल्सी में विकास धीमा परन्तु विपरीत दिशा में नहीं होता । न्यूरो-क्षयकारी या डीजनरेटिव बिमारियाँ तुलनात्मक रूप से कम व्यापक है । इसके प्रमुख उदाहरण हैं ।
मस्तिष्क = न्यूरान संचयकारी रोग
ल्युकोडिस्ट्राफी ः विल्सन रोग ः सेरीब्रल क्षय रोग, (अटेक्सिया, असंतुलन) डिस्टोनिया गतिज रोग, (मूवमेन्ट डिसआर्डर) ः केवल मन्दबुद्धिता, (मेंटल रिटार्डेशन)
स्पाईनल कार्ड (मेरुदण्ड तंत्रिका) अनुवांशिक स्पास्टिक पेराप्लीजिया, स्पाईनल मस्क्युलर एट्रोफी
तंत्रिका/नाडयां/नर्वस ः न्यूरोपेथीः शारको मेरी टुथ रोग
मांस पेशियां ः मायोपेथी ः डूशेन रोग

अन्य परवर्ती रोग - जन्म या शैशव के बाद अनेक प्रकार के रोग नर्वस सिस्टम पर असर डाल कगर सेरीब्रल पाल्सी से मिलती जुलती अवस्थाएं पैदा कर सकती हैं, उदाहरण
ब्रेन ट्यूमर (मस्तिष्क में गांठ), हाईड्रोसिफेलस (मस्तिष्क में पानी भर जाना), दुर्घटनाओं में सिर की चोट (हेड इन्ज्यूरी, दुर्घटनाओं में स्पाईनल कार्ड या नर्वस (तंत्रिकाओं) की चोट

सेरीब्रल पाल्सी का निदान -
डॉक्टर कैसे फैसला करते हैं कि किसी बच्चे को सेरीब्रल पाल्सी है या नहीं ?
बच्चे के माता-पिता से हिस्‍ट्री (इतिवृत्त या इतिहास) सुनकर निष्कर्ष निकाला जाता है । विकास की जानीमानी पायदानों पर बच्चे का सफर कितना पीछे है, या पता लगाना महत्वपूर्ण है । यह जानना भी जरूरी है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि एक उम्र तक बच्चे की बढत अच्छी थी और बाद में पिछडने लगा है, यदि ऐसा है तो सेरीब्रल पाल्सी की संभावना कम होगी क्योंकि सी.पी. का दुष्प्रभाव जन्म से या शुरु के महिनों से रहता है ।

अनेक माता-पिता ठीक से इतिवृत्त या हिस्‍ट्री नहीं बता पाते, शायद कम पढे लिखे होते हैं या सरल और भोले होते हैं, या लापरवाह होते हैं । उन्हें नहीं पता होता है कि आमतौर पर स्वस्थ बच्चा ६ माह में बैठने या १२ माह में चलने और १८ माह में बोलने लगता है। यदि उनसे पूछो कि क्या आफ बच्चे का विकास सारे समय ठीक रहा तो वह बता नहीं पाते, ऐसी स्थिति में डॉक्टर का काम कठिन हो जाता है । क्योंकि सेरीब्रल पाल्सी के निदान का सारा दारोमदार इस हिस्‍ट्री पर ही टिका रहता है ।

बहुत छोटे शिशुओं में बीमारी का सटीक निदान सम्भव नहीं, केवल आशंका व्यक्त कर सकते हैं । प्रतीक्षा करना पडती है, बच्चे की १८ माह की उम्र के पहले बताना सम्भव नहीं होता । अनेक माता-पिताओं के लिये यह अनिश्चितता और प्रतीक्षा, चिन्ता और व्यग्रता से भरी होती है ।

हिस्‍ट्री के बाद चिकित्सक बच्चे के शरीर की जांच करते हैं । बदन को, हाथ पैर को हिला डुला कर देखते हैं, ठोंक बजा कर देखते हैं, मांसपेशियों में टोन (तन्यता) का आकलन करते हैं, गतियों की सुघडता और संयोजन पर गौर करते हैं, असामान्य मुद्रा (पोश्चर) और प्रतिवर्ती क्रियाओं (रिफ्लेक्स एक्शन) पर ध्यान देते हैं । औपचारिक परीक्षण के साथ-साथ अनौपचारिक अवलोकन भी उपयोगी रहता है । बच्चे को सामान्य सहज अवस्था में खेलते, खाते घूमते देखना चाहिये ।
एक बार का परीक्षण पर्याप्त नहीं होता, समय के अन्तराल पर परीक्षण दोहराना पडता है । स्थिति सुधर रही है बिगड रही है या स्थिर है इसका फैसला जरूरी है । सी.पी. में हालत प्रायः स्थिर रहती है, मामूली धीमा सुधार होता है, यदि तेजी से सुधार व बिगडाव हो रहा है तो सी.पी. के बजाय अन्य रोग होगा ।

सेरीब्रल पाल्सी के निदान में प्रयोगशाला परीक्षण की क्या भूमिका ?
ऐसी कोई प्रयोगशाला परीक्षण (एक्स-रे, सी.टी.स्केन, खून पेशाब की जांच) नहीं है जिसके आधार पर निश्चय से कहा जा सके कि किसी बच्चे को सेरीब्रल पाल्सी है या नहीं । यह फैसला तो शुद्ध क्लीनिकल आधार पर, इतिवृत्त (हिस्‍ट्री) के आधार पर और शारीरिक जांच द्वारा लिया जाता है । फिर भी परीक्षणों की कुछ सीमित उपयोगिता है । सी.पी. से मिलती जुलती अन्य अवस्थाओं से भेद करने में मदद मिलती है ।

सी.टी. स्कैन तथा चुम्बकीय एम.आर.आई. स्कैन की मदद की रचना के विस्तृत चित्र प्राप्त होते हैं । सेरीब्रल पाल्सी में ये चित्र सामान्य हो सकते हैं, यदि रोग की तीव्रता कम हो । अनेक प्रकार की खराबियाँ भी दिखायी पड सकती हैं, जो बीमारी के कारण, प्रकार व तीव्रता के बारे में जानकारी बढा सकती हैं, फिर भी ऐसा विरले ही होता है कि उक्त जानकारी के आधार पर बच्चे के उपचार में कोई खास फर्क पडे ।

बहुत से माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे की पूरी, सम्पूर्ण, विस्तृत जांच हो जावे, चाहे पैसे कितने भी लगें । उन्हें हम समझाते हैं कि बीमारी का निदान तो बगैर जांच के ही हो जाता है और इलाज भी प्रायः एक जैसा ही रहता है ।
खून की कुछ विशेष जांचों द्वारा रासायनिक व अनुवांशिक बीमारी का निदान करने में मदद मिलती है ।

सेरीब्रल पाल्सी के कितने प्रकार - कितने रूप
अ. शरीर का कौन सा और कितना भाग प्रभावित हुआ है ? इस आधार पर निम्न प्रकार पहचाने जाते हैं -
हेमीप्लीजिया (अर्धांग लकवा)
डायप्लीजिया - दोनों पैरों का लकवा (अधिरंग लकवा)
क्वाड्रीप्लीजिया - चारों हाथ पैरों का लकवा (चतुरंग लकवा)
मोनोप्लीजिया - एक हाथ या एक पैर का लकवा
शरीर के अंग की मांस पेशियों में टो (तन्यता) के आधार पर सी.पी. के निम्न रूपों में वर्गीकृत किया जाता है -
स्पास्टिक ः अकडन/जकडन/कडक । यही रूप सबसे अधिक व्यापक है ।
हायपोटानिक ः शिथिल, ढीला, कम उम्र के छोटे शिशुओं में सी.पी. की आरम्भिक अवस्थाओं में ऐसा कभी-कभी हो सकता है ।
डिस्टोनिक - रिजिड ः असामान्य विकृत मुद्राएं (पोश्चर) व असामान्य प्रेरक गतियाँ ।
अटेक्सिक - असंयोजन, असंतुलन, अनगढता, बारीक काम सफाई से न कर पाना, नशे जैसी झूमती चाल होना ।
स. बीमारी की तीव्रता के आधार पर सेरीब्रल पाल्सी - मद्दिम या मंझली या तीव्र हो सकती है ।
सेरीब्रल पल्सी में मोटर सिस्टम (प्रेरक शक्ति व गति) की खराबी के अलावा और कौन सी अतिरिक्‍त कमियाँ हो सकती है ?
ये अतिरिक्‍त समस्याएं उस मूल मस्तिष्क रोग के कारण हो सकती हैं जो खुद सेरीब्रल पाल्सी का भी कारण है । इसके अलावा अन्य कारणों से अन्य समस्याएं भी हो सकती है । इनका होना सदैव जरूरी नहीं है और इनके होने या न होने से सेरीब्रल पाल्सी की परिभाषा व निदान पर कोई असर नहीं पडता है ।

मन्दबुद्धिता (मेन्टल रिटार्डेशन) - इसकी व्यापकता अधिक है । लेकिन सेरीब्रल पाल्सी ग्रस्त कुछ बच्चे मेधावी हो सकते हैं । कमजोर बच्चे के स्कूल में दाखिला दिलाने से इन मेधावी बच्चों को मुश्किल होती है ।
मिर्गी (एपिलेप्सी)
सीखने, समझने की विशिष्ट सीमित दिक्कतें (स्पेशल लर्निंग डिफेक्ट्स) ः पूरी तरह से मंदबुद्धिता नहीं परन्तु बुद्धि क्षमता का कोई एक खास पहलू प्रभावित हो सकता है । जैसे = पढना, लिखना, गणित, संगीत, चित्र बनाना, हाथों का हुनर आदि ।
चित्त चंचलता - अति सक्रियता (अटेंशन डेफिसिट डिसओर्डर) ः एकाग्र चित्त न हो पाना, सदा कुछ न कुछ करते रहना, कभी यहां कभी वहां, अनेक मामलों में तोड फोड, मारपीट, काटना आदि ।
भोजन निगलने में दिक्कत ः चबाने और निगलने में देरी, पेट का भोजन उलट कर भोजन नली या मुंह में आ जाना ।
लार टपकते रहना ः इसका नियंत्रण कठिन है । मुंह में स्थित लार ग्रंथि की नलिका का विस्थापन आपरेशन का सकते हैं । चमडी पर स्कोपोलामीन नामक औषधी का पट्टा चिपकाने से कुछ फायदा होता है ।
दृष्टि दोष
श्रवण दोष
कुल्हे का जोड व अन्य जोडों तथा हड्डियों का खिसकना या विस्थापित होना ।
मूत्र मार्ग में रुकवाट, इन्फेक्शन
नींद की समस्याएं
गति न होने से हड्डियों में केल्शियम की कमी ।

सेरीब्रल पाल्सी के उपचार में औषधियों की क्या भूमिका है ?
सेरीब्रल पाल्सी के उपचार में औषधियों की भूमिका सीमित है, ऐसी कोई दवाई, टॉनिक या इन्जेक्शन नहीं है जो इस रोग को ठीक कर दे । मस्तिष्क में जो नुकसान हुआ है उसे मिटाना सम्भव नहीं ।
दुर्भाग्य से अनेक माता-पिता किसी ताकत की दवाई की तलाश में भटकते रहते हैं । वे सपना देखते हैं किसी रामबाण औषधी का । चमत्कार की कल्पना इन्सान की मनोवैज्ञानिक कमजोरी है । दुःख की बात है कि कुछ डाक्टर भी उपरोत्त* कटु सत्य बताने में संकोच करते हैं । मरीज के दबाव में उनके संतोष के लिये कोई दवाई या कोई नुस्खा लिख देते हैं । इससे मरीज को लाभ नहीं होता । अनावश्यक पैसा खर्च होता है । कभी दुष्प्रभाव हो सकते हैं ।
फिर भी औषधियों का थोडा बहुत उपयोग है, सब बच्चों में नहीं, केवल थोडी सी चुनी हुई परिस्थितियों में, पूरे मूल रोग के लिये नहीं वरन् रोग के किन्हीं विशिष्ट पहलूओं के लिये ।

यदि सी.पी. ग्रस्त बालक को मिर्गी के दौरे आते हों तो औषधियाँ लम्बे तक देना होती हैं । दौरे रुक जाते हैं । कम हो जाते हैं और कुछ बच्चों में बौद्धिक विकास थोडा सुधर जाता है । कभी ऐसा भी देखा गया है कि मिर्गी के दौरे तो नहीं आये परन्तु ई.ई.जी. नामक जांच में मिर्गी नुमा खराबी पाई गई, इन बच्चों मे मिर्गी विरोधी औषधी से बुद्धि एकाग्रता में शायद लाभ हो परन्तु यह विवास्पद है ।

सेरीब्रल पाल्सी में मांसपेशियों की अकडन/जकडन/कडकपन को कम करने के लिये एन्टी स्पास्टिसिटी औषधियाँ दी जा सकती हैं । इसका असर सीमित है, औषधियाँ महंगी है, दुष्प्रभाव होते हैं, सुस्ती व उनींदपन आ जाता है, फायदा तभी तक रहता है जब तक दवाईयाँ देते रहें।

विटामिन, आयरन, केल्शियम, प्रोटीन आदि पूरक व कुछ बच्चों को दिये जाते हैं, यदि क्लीनिकल आधार पर शक हो कि उन्हें कुपोषण व कमी हो सकती है । कुछ बच्चों में सेरीब्रल पाल्सी की वजह से असामान्य हरकतें, गतियाँ व टेढी-मेढी मुद्राएं (पोश्चर) होती रहती हैं । इसे गतिज दोष (मूवमेंट डिसआर्डर) कहते हैं जो बच्चे को कार्यकलाप में बेहद खलल डाल सकता है । एन्टीकोलिनर्जिक प्रजाति की दवाईयों से कुछ बच्चों में अच्छा लाभ होता है ।
अनेक औषधी निर्माता तथा वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के प्रेक्टिशनर्स सफल उपचार का दावा और प्रचार करते हैं । वैज्ञानिक आधार पर उनके दावों की पुष्टि नहीं हुई है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान (एलोपेथी) में किसी भी उपचार को उस समय तक तर्कसंगत व अनुशंसनीय नहीं माना जाता जब तक कि उसे मरीजों के बडे समूह में व्यवस्थित और तुलनात्मक रूप से परखा न गया हो । इक्का दुक्का व्यक्तिगत अनुभवों और सुनी बातों के आधार पर निष्कर्ष नहीं निकालते ।

सेरीब्रल पाल्सी में क्या न करें
डब्ल्यू के आकर में नहीं बैठें ।
मेंढक/खरगोश की तरह नहीं कूदें ।
आगे झुककर नहीं बैठें ।
ऐसे जोडों पर भार न डालें, जिन पर काम करने वाली पेशियों में ताकत कम है ।
कसरत के समय बच्चे को डाँटें या डराएं नहीं ।
कसरत के समय पेशियों को दर्दमय ढंग से न खींचे ।
असामान्य प्रतिरूप से कोई भी क्रिया न करें ।

सेरीब्रल पाल्सी में क्या करें ।
सक्रिय व निष्क्रीय दोनों व्यायाम करें ।
पालथी लगाकर सीधा बैठें ।
पांवों को सीधा फैलाकर उन्हें एक दूसरे से जितना दूर रख सकें, रखें ।
बच्चे के शरीर के कुद हिस्से गुदगुदाने पर वहां कि मांसपेशियों के सिकुडने से उनमें ताकत लाना संभव है ।
काम और आराम के समय जांघों और घुटनों को तकिये आदि की मदद से दूर रखें ।
टीवी, रेडियो, वीडियो गेम्स की मदद से व्यायाम को मनोरंजक कार्य बनाएं ।
बच्चे का व्यायाम २४ घंटे चलता है । इसलिये सभी परिजन उसके हर काम को निर्देशित करें ।

सेरीब्रल पाल्सी में सुधार की संभावनाओं का पूर्वानुमान (प्रोग्नोसिस) कैसे करें ?
मेरा बच्चा कब ठीक होगा ? कितना ठीक होगा ? होगा कि भी नहीं ? क्या वह चल पायेगा ? बोल पायेगा ? पढ लिख पायेगा ? अपनी स्वयं की देखभाल कर पायेगा ? माता-पिता के मन में बहुत से प्रश्न उठते रहते हैं । काश कि डाक्टर्स के पास भविष्य जानने की विद्या होती । ६ माह से १२ माह की उम्र के पहले किसी भी प्रकार का पूर्वानुमान लगाने का प्रयत्न करना व्यर्थ है । यदि जन्म के समय या आरम्भिक महीनों में यह ज्ञात हो जाये कि मस्तिष्क में नुकसान पहुंचा है तो माता-पिता को किसी बुरे परिणाम की आशंका से आगाह करना या नहीं ? यह कठिन फैसला है । पूर्वानुमान गलत हो सकते हैं । अर्धान्ग लकवा (हेमीप्लीजिया) में सुधार की सम्भावना अधिक होती है । केवल एक आधा भाग (दायां या बायां) प्रभावित रहता है । दूसरा अच्छा होता है । अधिरंग लकवा (दोनों पैर) ग्रस्त बच्चे देर से चलते हैं या मुश्किल से चल पाते हैं परन्तु दोनों हाथ तथा वाणी बुद्धि कम प्रभावित रहने से आगे चल कर कुछ हद तक आत्मनिर्भर हो पाते है । चतुरंग घात (क्वाडीप्लीजिया, चारों हाथ पैर) निश्चय ही सबसे खराब अवस्था है । ये बच्चे शायद सदैव पराश्रित रहेंगे । सी.पी. के साथ-साथ कभी-कभी मौजूद रहनेवाली अन्य समस्याओं (एपिलेप्सी आदि) पर भी पूर्वानुमान निर्भर करता है ।
यदि बच्चे ने सिर उठाना व गर्दन संभापना नहीं सीखा है तो उसके बैठ पाने की सम्भावना दूर है । जो उसने अर्जित कर लिया है उतना तो बना रहेगा, उसे खोना नहीं चाहिये, यदि खोता है तो बीमारी सेरीब्रल पाल्सी नहीं वरन् कुछ और हो सकती है ।

यदि बच्चे ने चार वर्ष की उम्र तक अपने आप बिना सहारे बैठना नहीं सीखा और आठ वर्ष की उम्र तक चलना नहीं सीखा तो आगे सुधार की उम्मीद कम है ।
बोलने की क्षमता और बौद्धिक क्षमता का आकलन और पूर्वानुमान लगाना भी कठिन है । दो वर्ष की उम्र के बाद ही थोडा बहुत अंदाजा लगाया जा सकता है । हाथ, पैरों व चेहरे की मांसपेशियों की प्रेरक क्रियाओं (मोटर एक्शन) में बाधा रहने से बुद्धि, स्मृति, भाषा, ज्ञान, समझ आदि गुणों की माप करना कठिन होता है । अनुभवी और निष्णात क्लीनिकल सायकोपाजिस्ट (मनोवैज्ञानिक) की सेवाओं की जरूरत पडती है । वे विशिष्ट परीक्षण व जांच द्वारा विकास सूचकांक (डेवलपमेंटल क्वोशन्ट डी.क्यू.) तथा बुद्धि सूचकांक (इन्टेलिजेन्स कोशन्ट, आई.क्यू.) निकालते हैं ।
आगे चलकर बौद्धिक विकास पर ही निर्भर होगा कि बच्चा किस हद तक बेहतर जीवन जी पायेगा । शारीरिक विकास की तुलना में बौद्धिक विकास का पूर्वानुमान से अधिक गहरा संबंध है । पहियेवाली कुर्सी (व्हील चेयर) में बैठा किशोर यदि बुद्धि से सामान्य हो तो जिन्दगी में बहुत कुछ कर सकता है ।

जिन बच्चों में मस्तिष्क रोग की भीषण तीव्रता के बारे में शुरु से ज्ञात रहता है। उनमें यदि आगे चलकर कोई भला परिणाम न मिले (जिसकी आशंका पहले से थी) तो यह सोचने में आता है कि क्यों व्यर्थ ही इतना उपचार किया। इतना समय,धन, ऊर्जा खर्च करी, क्यों पहले से इलाज का मना न कर दिया । चिकित्सक के लिये और परिजनों के लिये भी यह पशोपेश और असमंजस की स्थिति होती है । चूंकि पूर्वानुमान लगने का विज्ञान सटीक नहीं है इसलिये चिकित्सक और जनक प्रायः आशावादिता की क्षीण सी किरण के सहारे प्रयत्न करते जाते हैं । शारीरिक परीक्षण, प्रयोगशाला जांच तथा अनेक महीनों के अवलोकन और अनुगमन (फॉलोअप) से यदि यह पक्का समझ में आ जावे कि अब और कुछ लाभ नहीं है तो निश्चय ही वह स्थिति आ जाती है जब अनावश्यक सक्रिय इलाज बन्द कर दिया जाना चाहिये ।
इन तमाम परिस्थितियों में आशावाद और यथार्थवाद का एक सही सन्तुलन सदैव बनाए रखना चाहिये । बच्चे के मातापिता के साथ तफसीस से बातचीत के दौरान वर्तमान व भविष्य की सामर्थ्य के बारे में चर्चा करना चाहिये ।

सेरीब्रल पाल्सी के उपचार में फिजियोथेरापी की भूमिका क्या है ?
फिजियोथेरापी का व्यायाम चिकित्सा में अनेक गतिविधियाँ शामिल हैं । जहां मरीज में शत्ति* न हो वहां परिजनों व थेरापिस्ट द्वारा गति कराना । जहां अंगों में कुछ शत्ति* हो वहां मरीज को प्रोत्साहित करना, सिखाना कि वह उन मांसपेशियों को अभ्यास द्वारा सशक्त बनाएं । गति या मुवमेंट के गलत ढंग को सुधारना, मांस पेशियों में अकडन आने से रोकना और यदि आ गई हो तो उसे कम करने के उपाय करना, जोडों की अकडन के प्रति भी इसी उद्देश्य से काम करना । बाद की उम्र में जितनी भी दक्षता, शक्ति, सुगढता विकसित हो पाई हो, उसी के बूते पर दैनिक कार्यों को निष्पादित करने की कला, तरकीबें, उपाय और तरीके सिखाना, इन कामों में आर्थोटिक उपकरणों की मदद का विज्ञान सम्मत निर्णय लेना और उनके बेहतर उपयोग का प्रशिक्षण देना ।

इन तमाम उपायों से लाभ होता होगा, हालांकि वैज्ञानिक शोध की कसौटियों पर सबूत जुटाना, मुश्किल रहा है । फिर भी सकारात्मक सोच बना रहता है । कुछ करते रहने के अहसास से सार्थकता का बोध रहता है फिजियोथेरापी जल्दी से जल्दी आरम्भ कर देना चाहिये । बच्चे के बडे होने की प्रतीक्षा न करें । उम्र के साथ और सुधार के आधार पर व्यायाम चिकित्सा का स्वरूप बदलता है । फिजियोथेरापिस्ट ही वह विशेषज्ञ है जो बच्चे व माता-पिता के साथ सबसे अधिक समय बिताता है । उसकी कही बातों का बहुत महत्व रहता है । दैनिक जीवन हेतु छोटी-छोटी सामान्य सहज बुद्धि वाली सलाहें कभी कभी परिजनों के लिये बहुत काम की सिद्ध होती हैं । उदाहरण के लिये बच्चे को जमीन या बिस्तर पर लुढके पडे रहने देने के बजाय विशेष कुर्सी पर सहारा देकर बैठाये रहने की सलाह ताकि सिर व गर्दन सम्हले रहे तथा हाथों की मुद्रा (पोश्चर) सही रहे या फिर माता-पिता को यह सिखाना कि बच्चे को कैसे उठायें, नहलायें, धुलायें, भोजन करायें, कपडे पहनायें । व्यायाम चिकित्सा का हुनर इस बात में है कि वह परिजनों में आशा जाग्रत रखे । उन्हें प्रोत्साहित करे और साथ ही उपचार के यथार्थवादी लक्ष्यों से न भटके ।

वे बच्चे जिनमें सी.पी. की तीव्रता भीषणतम है और जिनमें बुद्धि का विकास अवरुद्ध है, उनमें शायद फिजियोथेरापी से कोई लाभ नहीं । दूसरी ओर वे बच्चे जिनमें सी.पी. की तीव्रता न्यूनतम है शायद अपने आप बढती उम्र के साथ ठीक होते जायेंगे और व्यायाम चिकित्सा की आवश्यकता न पडे ।

फिजियोथेरापी में बोरीयत नहीं आने देना चाहिये । बच्चा थक न जाए, बीच में आराम देवें, बहुत ज्यादा दर्द न होने दें, मनोरंजक तरीके से रूचि बनाए रखें, डर का वातावरण न निर्मित करें, बच्चे के मन में चाह और प्रतीक्षा होनी चाहिये कि वह कब अगली बार व्यायाम कराने वाले अंकल के पास जायेगा, न कि भय, चिढ या वितृष्णा । खेल-खेल में और शौक के माध्यम से फिजियोथेरापी जारी रखी जानी चाहिये ।

शल्य चिकित्सा की भूमिका
- बहुत थोडे से सी.पी. मरीजों में (लगभग १५ प्रतिशत) आपरेशन से कुछ फायदा हो सकता है । किसमें होगा और किसमें नहीं इसकी सटीक कसौटियां है । यदि उसके आधार पर सही चयन किया जावे तो ही परिणाम अच्छे मिलते हैं । हड्डी रोग विशेषज्ञ द्वारा किये जाने वाले कुछ उपयोगी आपरेशन हैं -
एडी के समीप एकिलस टेण्डन को लम्बा करना ।
जांघों का आपस में चिपकना ठीक करने के लिये - कुल्हे पर एडक्टर्स मांसपेशियों की सक्रियता को काट कर कम करना ।
घुटनों के पीछे मुड कर जकडने (फ्लेक्शन) की प्रवृत्ति व विकृत्ति को ठीक करना ।
कलाई के जोड को जाम कर देना ।
मांसपेशियों के टेन्डन (कण्डरा) को विस्थापित करना ताकि कमजोर मांसपेशियों की जगह सशक्‍त मांसपेशियों की क्रिया का लाभ लिया जा सके ।
शल्य उपचार प्रायः पांच वर्ष की उम्र के आसपास उचित होता है । आपरेशन की भूमिका सीमित है उपचार से बाकी पहलू खास कर फिजियोथेरापी अधिक महत्वपूर्ण है ।

न्यूरोसर्जन द्वारा किये जाने वाले राईजोटामी ऑपरेशन कुछ बच्चों में बहुत लाभकारी हैं । वे मरीज जिनके हाथ, मुंह, वाणी, बुद्धि अच्छे हैं, पैरों में थोडी शक्ति मौजूद है, परन्तु जकडन स्पास्टिसिटी की वजह से चल नहीं पाते उनमें राईजोटामी उपयोगी है ।
कुछ नये उपचार भी निकले हैं जो फिलहाल महंगे हैं । जकडन या स्पास्टिसिटी कम करने के लिये रीढ की हड्डी के अंदर स्पाईनल कार्ड (मेरुतंत्रिका) के समीप बेक्लोफेन नामक औषधी की सतत बूंद दर बूंद प्रदाय बनाये रखने के लिये एक थैली व पम्प स्थापित कर दिया जाता है ।
बॉट्यूलिनियम नामक दवा के इन्जेक्शन मांसपेशियों में अनेक बिन्दुओं पर लगाने से जकडन ३-४ माह के लिये ठीक हो जाती है, बाद में पुनः इन्जेक्शन लगाये जा सकते हैं ।

सेरीब्रल पाल्सी किसका दोष ? वास्तव में किसी का नहीं
यह मत कहिये -

सेरीब्रल पाल्सी से ग्रस्त बच्चा अभिशाप है
हम अभागे माता-पिता हैं
ईश्वर ने हमारे साथ अन्याय किया
अगर लोगों को मालूम पडा तो क्या होगा ?

याद रखिये
ऐसे बच्चे का जन्म, महज एक दुर्घटना है
इसके लिये कोई भी जिम्मेदार नहीं है
विकसित देखों में भी ऐसे विशेष बच्चे जन्म लेते हैं ।
दरअसल - यह बच्चा ईश्वर का ही उपहार है और आप ही वे विशिष्ट माता-पिता हैं, जिन्हें ईश्वर ने इस खास बच्चे की देखरेश के लिये चुना है

समस्या का आकार
भारत में करीब पच्चीस लाख सेरीब्रल पाल्सी बच्चे हैं
अमेरिका में यह संख्या केवल सात लाख के करीब हैं
भारत में प्रति हजार बच्चों में से तीन बच्चे सेरीब्रल पाल्सी से ग्रस्त हैं ।
बहुत से काम करने को हैं ।

कठिनाईयाँ
आवश्यकता है १० हजार पुनर्वास केंद्रों की, लेकिन फिलहाल बहुत थोडे से केंद्र हैं ।
फिजियोथेरापी, आक्यूपेशन थेरेपी और स्पीच थेरेपी के प्रशिक्षित विशेषज्ञ कम है ।
इस समस्या के बारे में लोगों की जानकारी कम हैं ।
जरुरत है कि सेरीब्रल पाल्सी के मुकाबले के लिये सभी मजबूती से संगठित हों

क्या सेरीब्रल पाल्सी खानदानी बीमारी है ?
नहीं । ९० प्रतिशत से अधिक मामलों में परिवार के किसी भी अन्य सदस्य में सी.पी. का मामला देखने में नहीं आता । यदि एक बच्चे को सी.पी. है तो अगले को होने की आशंका न के बराबर है, फिर भी इस सम्बन्ध में आपने चिकित्सक से सलाह लेना चाहिये ।

शिक्षा, रोजगार और पुनर्वास के क्षेत्र में किया जा सकता है ?
बहुत कुछ किया जा सकता है । जरूरत है लगन, सकारात्मक सोच, जिजीविषा, मेहनत, आत्मविश्वास, मार्गदर्शन की, विशेष अध्यापकों की, जो इन बच्चों की जरूरतों को समझते हों और पाठ्यक्रम व अध्यापन को तद्नुरूप ढाल सकें । आश्रित कर्मशाला (शेल्टर्ड वर्कशाप) में रोजगार मूलक प्रशिक्षण व बाद में रोजगार दिया जाता है ।

सामाजिक संगठनों की क्या भूमिका है ?
इण्डियन फेमिली ऑफ सेरीब्रल पाल्सी एक सार्थक पहल है । इस अभियान को प्रत्येक जिले तक ले जाने की जरूरत है । लोगों को अपनी बीमारी के आधार पर संगठन बनाना चाहिये । नेतृत्व भी उन्हीं में से उभर कर आना चाहिये । संगठन में शक्ति है, सहारा है, संघर्ष है । बांटने से दर्द घटता है । सम्भावनाओं के नये क्षितिज खुलते हैं ।

गुरुवार, 15 मई 2008

इतिहास, धर्म व कला के आईने में मिर्गी

इतिहास, धर्म व कला के आईने में मिर्गी
अपने नाटकीय स्वरूप के कारण मिर्गी, मानव सभ्यता की ज्ञात सबसे पुरानी बीमारियों में से एक रही है । अनिश्चितता के कारण इसके चारों ओर सदैव रहस्य का आवरण चढा रहता है । स्वयं पर नियंत्रण खो देना एक भयावह तथा न समझ आने वाली कल्पना है । अनेक अवसरों पर आत्मनियंत्रण का ह्रास आंशिक होता है, थोडी चेतनता व अहसास बना रहता है । ऐसे में घटित होने वाली हरकतें व अनुभूतियाँ किसी अलौकिक सत्ता के होने का इशारा करती हैं । मिर्गी की वैज्ञानिक समझ विकसित हुए मुश्किल से एक शताब्दी हुई है । उसके पहले इन्सान की भोली बुद्धि न जाने क्या-क्या व्याख्याएं गढ ली थीं ।

लिखित भाषा में मिर्गी शब्द का उल्लेख शायद सबसे पहले प्राचीन मिस्त्र देश के भोज पत्रों में मिलता है । इन्हें पेपीरस कहते हैं । चित्रलिपि के इस रूप का रोमन लिपि में रूपान्तरण है दाहिनी ओर की मानवकृत्ति सम्भवतः इंगित करती है कि एक प्रेतात्मा मिर्गी से पीडत व्यकित के शरीर में प्रवेश कर जाती है ।

ऊपरी शक्तियों के अनेक नाम होते हैं -
ऊपरी शक्तियों के अनेक नाम होते हैं - हवा, दैवीय प्रकोप, प्रेतात्मा, चुडैल, शैतान । ये शकित भली भी हो सकती हैं, बुरी भी । उसी आधार पर मिर्गी के मरीज को पूजा जा सकता है । उसे देवता का प्रतिनिधि माना जा सकता है । या उससे घृणा की जा सकती है, दुत्कारा जा सकता है । भारत में आज भी अनेक स्त्रियों या पुरुषों में देवी आती है । उस दौरान व्यक्ति की कुछ हरकतें मिर्गी से मेल खाती हैं । परन्तु वास्तव में उसका मिर्गी से कोई सम्बन्ध नहीं । गहन धार्मिक आस्थाओं के कारण संवेदनशील मन विशिष्ट व्यवहार करने लगता है । शायद यह जानबूझकर नहीं किया जाता।

अवचेतन मन (सबकान्शियस) में अनजाने म होता है । लोग श्रद्धा से सिर झुकाते हैं, पूजा करते हैं । व्यक्ति के मन की अतृप्त भावनाएंपोषित होती हैं । समाज में प्रतिष्ठा व मान्यता मिलती है । तनाव से पलायन का अस्थायी मार्ग सूझता है । अनेक व्यक्तियों को सामूहिक होता है । झुण्ड का झुण्ड झूमता है, डोलता है, झटके लेता है । इन सबका मिर्गी से केवल ऊपरी साम्य है । परन्तु उसी साम्य की पृष्ठभूमि में हम समझ सकते हैं कि क्यों दकियानूसी दिमागों में यह धारणा इतने गहरी बैठ गई कि मिर्गी भी दैवीय शक्ति का प्रभाव है ।

ऐसा सिर्फ एशिया या अफ्रीका में नहीं देखा जाता। यूरोप, अमेरिका सभी महाद्वीपों में, समस्त कालों में यही सोच हावी रहा है कि मिर्गी जैसी अवस्था शरीर के भीतर से अपने आप पैदा नहीं हो सकती । कोई है जो बाहर से कठपुतली के धागों को संचालित करता है।

तर्कसंगत बुद्धि का इतिहास भी पुराना है ।
ईसा से अनेक शताब्दियों पूर्व महान भारतीय चिकित्सक चरक ने अपनी संहिता में अपस्मार (मिर्गी) का वस्तुपरक ढंग से वर्णन किया । उसे शारीरिक बीमारियों के समान माना । अनेक कारणों की सूची बताई । औषधियों द्वारा उपचार सुझाया ।

हालांकि साथ-साथ ही दैवीयशक्तिवाली धारणा का भी उल्लेख कर दिया ।
ईसा से कुछ शताब्दी पूर्व, यूनान के महान चिकित्सक हिप्पोक्रेटीज ने कहा कि मिर्गी दैवीय बीमारी नहीं है ।

अन्य रोगों के समान उसके भी शारीरिक करण हैं।
चूंकि तर्कसंगत बुद्धि या विज्ञान किसी घटना की ठीक-ठीक व्याख्या नहीं कर पा रहे हैं, महज इसलिये यह स्वीकार कर लेना कि जरूर कोई शक्ति है जो सब करवाती है एक प्रकार का बौद्धिक पलायन है ।
हम चरक और हिप्पोक्रेटीज को नमन करते हैं कि उन्होंने उस युग में वह साहस व वैचारिक दृढता दिखाई जिस पर आज भी अनेक तथाकथित बुद्धिजीवी डिग जाते हैं ।

देवता, मसीहा और पैगम्‍बर
अलौकिक रहस्यवाद से विज्ञानपरक तर्कवाद की संघर्ष स्थली मानव का मस्तिष्क है।

विचारों की इस विकास यात्रा ने अनेक रोचक मोड व उतार-चढाव देखे हैं । मिर्गी के बहाने इस इतिहास का अध्ययन मजेदार व उपयोगी है । यूनानी पुराण कथाओं में डेल्फी का मंदिर प्रसिद्ध था। वहां पुजारिने आसन पर बैठकर तंद्रा में चली जाती थीं फिर कुछ-कुछ बकती थीं । जिसके आधार पर भविष्यवाणी कल्पित करते थे । राजा दक्ष के यक्ष को नष्ट अनेक बीमारियों ने मनुष्यों को प्रभावित किया था । अपस्मार (मिर्गी) उनमें से एक थी । मध्य एशिया तीन प्रमुख धर्मों की जन्म स्थली रहा । ओल्ड व न्यू टेस्टामेण्ट में अनेक अवसरों पर मिर्गी का उल्लेख आता है । उसे पवित्र बीमारी कहा गया क्योंकि वह ईश्वर प्रदत्त है । बाईबिल में उद्धरण आते हैं कि ईसामसीह ने मिर्गी-रोगियों का उद्धार किया ।प्रभु मेरे बालक पर कृपा करो। उसे मिर्गी है। वह बहुत पीडा भोगता है । कभी वह आग में गिर जाता है तो कभी पानी में (मेथ्यू १७ः१५) विज्ञान व धर्मशास्त्र के अनेक इतिहासकारों ने स्वीकार किया है कि पैगम्बरों को प्राप्त होने वाला ज्ञान, दिव्य दृष्टि, अलौकिक अनुभूति आदि मिर्गी के कारण होना सम्भावित है । ऐसे मरीज हर काल में यदा कदा देखे सुने जाते हैं जिन्हें मिलती-जुलती अनुभूति होती है । प्रसिद्धि मिलना सबकी किस्मत में नहीं होता मगर जिनकी किस्मत में होता है वे इतिहास की धारा बदल डालते हैं ।

एक मसीहा ने लिखा मैंने ईश्वर के रहने की तमाम जगहों को इतनी सी देर में देख लिया । जितनी देर में एक घडा पानी भी खाली नहीं किया जा सकता । धर्मान्तरण के अनेक उदाहरणों के मूल में मिर्गी जनित अनुभूतियाँ रही हैं । सेन्टपाल का नाम प्रमुख है । उनका जन्म ईसा बाद की पहली शताब्दी में हुआ था । वे यहूदी थे व ईसाईयों के कट्टर विरोधी । बाईबिल में प्राप्त अनेक उद्धरणों के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि उन्हें यदा-कदा मिर्गी के दौरे आते थे ।


एक पत्र में उन्होंने लिखा कि उन्हें एक अजीब असामान्य से दौरे में आध्यात्मिक अनुभूतियाँ हुई थीं - मैं नहीं जानता कि मैं शरीर के अन्दर था या बाहर । मुझे ईश्वर ने कुछ पवित्र रहस्य बताये कि जिन्हें होंठ दुहरा नहीं सकते। सेन्टपाल के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी उनका धर्मान्तरण । लगभग ३० वर्ष की उम्र में वे येरूशलम से दमिश्क पैदल जा रहे थे । उद्देश्य था दमिश्क के ईसाईयों को सजा देना । मार्ग में अजीब घटा । एक तीव्र प्रकाश हुआ । वे जमीन पर गिर पडे ।


उन्हें कुछ आवाजें सुनाई दीं जो ईसा मसीह के समान थी । वे उठे परन्तु अन्धे हो चुके थे । दमिश्क पहुंचने के तीन दिन बाद उनकी रोशनी फिर लौटी । उनका मन बदल चुका था ।ईसाई धर्म अंगीकार कर लिया । अनेक न्यूरालाजिस्ट ने सेन्टपाल के जीवन पर उपलब्ध ईसाई धर्म साहित्य का गहराई से अध्ययन किया है तथा वे मत के हैं कि सेन्टपाल को एपिलेप्सी का दौरा आया होगा । उनके धर्मान्तरण में मिर्गी का कुछ प्रभाव जरूर था ।


मध्ययुगीन इतिहास
मध्ययुगीन फ्रान्स के इतिहास मे ंजोन आफ आर्क को महान नायिका का दर्जा प्राप्त है । उसे बार-बार कुछ आवाजें सुनाई पडती थीं व दृश्य दिखाई पडते थे । वैज्ञानिक भाषा में इन्हें हैल्यूसीनेशन (विभ्रम) कहते हैं । ये मस्तिष्क की बीमारियों के कारण पैदा होते हैं । जोन आफ आर्क में एक बार लिखा मुझे दायीं होर से, गिरजाघर की तरफ से आवाज आयी । ईश्वर का आदेश था । आवाज के साथ सदैव प्रकाश भी आता है । प्रकाश की दिशा भी वहीं होती है जो ध्वनि की । अनुमान लगा सकते हैं कि उसके मस्तिष्क के बायें गोलार्ध व टेम्पोरल व आस्सीपिटल खण्ड में विकृति रही होगी ।

साहित्य में मिर्गी
प्राचीन संस्कृत साहित्य में महाकवि माघ ने मिर्गी का वर्णन करते हुए उसकी तुलना समुद्र से की है - दोनों भूमि पर पडे हैं, गरजते हैं, भुजाएं हिलाते हैं व फेन पैदा करते हैं । (शिशुपाल वध - ७वीं सदी ईसा पश्चात्) ।


शेक्सपीयर साहित्य में अनेक स्थलों पर मिर्गी का उल्लेख आता है । आथेलो नामक रचना में नायक को मिर्गी का दौरा पडता है तथा दो अन्य पात्र कैसियो व इयागो उसकी हंसी उडाते हैं ।

जूलियस सीजर का एक अंश उद्धृत है -
कैसियस ः धीरे बोलो, फिर से कहो, क्या सच ही सीजर मूच्र्छित हो गये थे ?
कास्का ः हां ! रोम के सम्राट ऐन ताजपोशी के समय चक्करघिन्नी के समान घूमे और गिर पडे । मुंह से झाग निकल रहा था । बोल बन्द था ।
व्रूटस ः यह ठीक उसी बीमारी के समान लगता है जिसे मिर्गी कहते हैं । होश में आने के बाद जूलियस ने क्या कहा ?
कास्का ः बोले यदि मैंने कोई ऐसी वैसी बात कही हो तो ... उसे मेरी कमजोरी व बीमारी माना जाए । और इसी बेहोशी के दौरे के कारण वह बाद में बडी देर तक उदास बना रहा ।


फेदोर मिखाईलोविच दास्तोएवस्की उन्नीसवीं शताब्दी के महानतम् लेखकों में से एक थे । २७ वर्ष की उम्र में साईबेरिया में कारावास की सजा भुगतते समय उनके दौरे बढ गये । डायरी में उन्हें अजीब, भयावह, रोचक पूर्वाभास होता है, हर्षातिरेक का । देखो हवा में कैसा शोर भर गया है । स्वर्ग मानों धरती पर गिरा आ रहा है और उसने मुझे समाहित कर लिया है । मैंने ईश्वर को छू लिया है । पैगम्बर साहब को होने वाले रुहानी इलहाम की भी ऐसी ही अवस्था थी ।


महान कलाकारों या लेखकों की कमियाँ व बीमारियाँ भी महत्वपूर्ण हो उठती हैं । दास्तोएवस्ककी ने उपन्यास द ईडियट में अपनी बीमारी को नायक प्रिस मिखिन पर आरोपित कर दिया है । वह मास्को की सडकों पर बेमतलब घूमता रहता है और बताता है कभी-कभी सिर्फ पांच-छः सेकण्ड के लिये मुझे शाश्वत संगीत की अनुभूति होती है । सब कुछ निरपेक्ष और निर्विवाद लगता है भयावह रूप से पारदर्शी लगता है । कभी दिमाग में अचानक आग लग उठती है । बादलों की सी तेजी से जीवन की चैतन्यता का प्रभाव दस गुना बढ जाता है । फिर पता नहीं क्या होता है ।


मिर्गी की इस बीमारी ने दास्तोएवस्की के जीवन दर्शन, सोच, चितन आदि पर गहरा असर डाला । अपने तीनों महान उपन्यास दि ईडियट, द डेमान्स और करामाजोव बन्धु में लेखक का यह मत बार-बार प्रकट हुआ कि जानने के लिये आस्था व अनुभूति जरूरी है ।


मिर्गी रोग के कारण प्राप्त अनुभवों ने लेखक को एक विशिष्ट दृष्टि प्रदान की जो तर्क संगत$ भी थी तथा रहस्यवादी भी ।


मिर्गी के दौरों में तथा अनेक स्वस्थ व्यत्ति*यों को भी कभी-कभी एक खास प्रकार की क्षणिक अनुभूति होती है कि वत्त*, इस जगह जो जिया जा रहा है वैसा ही शायद पहले भी जिया जा चुका है । वैसे ही हालात, वे ही लोग, वही संवाद । लगता है कि अब जो होगा या कहा जाएगा वह भी पहले से ज्ञात था । कुछ सेकंड्स के बाद यह अहसास गुजर जाता है । फिर पहले जैसा सामान्य । ऐसा बार-बार हो सकता है । टेम्पोरल खण्ड से उठने वाले आंशिक जटिल (सायकोमोटर) दौरों में यह अधिकता से होता है । इसे फ्रेंच भाषा में देजा-वू कहते हैं । प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि लार्ड टेनीसन व गद्यकार चार्ल्स लिखित निम्न अंश देजा वू की भावना को अभिव्यक्‍त करते हैं -


कुछ-कुछ है या कि लगता है,
रहस्यमयी रोशनी सा मुझे छूता है ।
जैसे कि भूले हूए सपनों की झलकें हों,
कुछ यहाँ की हों, कुछ वहां की हों,
कुछ किया था, न जाने कहाँ की हों,
सीमा उनकी भाषा से परे की हो ।

- लार्ड टेनीसन


हम सब लोगों के दिल दिमाग पर कभी-कभी एक अजीब सी अनुभूति हावी होती है कि जो कुछ कहा जा रहा है या किया जा रहा है वह सब किसी अनजाने सुदूर अतीत में पहले भी कहा जा चुका है या किया जा चुका है तथा यह भी कि चारों ओर जो वस्तुएें परिस्थितियाँ चेहरे विद्यमान हैं वे किसी धुंधले भूतकाल में पहले भी घटित हो चुकी हैं तथा यह भी यकायक याद हो आता है कि अब आगे क्या कहा जाएगा ।


- चार्ल्स डिकन्स


हालैण्ड के विश्वविख्यात चित्रकार विन्सेन्ट वान गाग को भी मिर्गी रोग था उसके बावजूद वे श्रेष्ठ कोटि के कलाकार थे । जरूरी नहीं कि रोग से सदैव प्रतिभा का क्षय हो । प्रतिभा की दिशा बदल सकती है, उसमें वैशिष्ट्य आ सकता है । मिर्गी की आटोमेटिज्म (स्वचलन) अवस्था में वान गाग बार-बार एक जैसे चित्र, अनजाने में बनाते चले जाते थे ।


आधुनिक साहित्य तथा फिल्मों में मिर्गी
अनेक उदाहरण हैं पात्रों को मिर्गी रोग होने के तथा उस कारण कथानक में खास मोड आने के । कुछ नाम हैं हेनरी जेम्स रचित टर्म ऑफ द स्क्रू, भारतीय लेखिका रूथ प्रावर झाबवाला की हीट एण्ड डस्ट, विलियम पीटर प्लाटी लिखित द एक्जार्सिस्ट, जिस पर प्रसिद्ध डारवनी फिल्म बनी थी ।कुछ पाठकों को द एक्जार्सिस्ट फिल्म का दृश्य याद होगा जिसमें बालिका डिनर पार्टी में कालीन पर पेशाब कर देती है व कांपने लगती है न्यूरालाजी विशेषज्ञ द्वारा टेम्पोरल खण्ड मिर्गी का निदान बनाया जाता है ।

यह अलग बात है कि रहस्यवाद के प्रति लोगों की मानसिक कमजोरी का लाभ उठाते हुए बाक्स आफिस पर सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से लेखक व निर्देशक दोनों ने जानबूझ कर पहेली का निश्चित हल प्रस्तुत नहीं किया । महान भारतीय डॉ. कोटनीस ने चीन में अनेक वर्षों तक सेवा कार्यों द्वारा नाम कमाया था । उन्हें भी मिर्गी रोग था ।

उनके जीवन पर आधारित व्ही.शान्ताराम की फिल्म डॉ. कोटनिस की अमर कहानी के कुछ दृश्यों में पैरों में झटके आते हुए दिखाये गये हैं । कुछ वर्षों पूर्व दूरदर्शन पर एक हास्य धारावाहिक (सीरियल) लोकप्रिय हुआ था - मुंगेरीलाल के हसीन सपने । रघुवीर यादव ने सटीक अभिनय द्वारा चेहरे के एक ओर फडकन या झटके दर्शाये थे जो आंशिक जटिल मिर्गी में आते हैं तथा जिसमें दिवास्वप्न की स्थिति बनती है । चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से उक्‍त दिवास्वप्न या कल्पना कुछ ही सेकण्ड रहता है । हर बार विषय बदलता नहीं तथा उसमें कोई निश्चित विषय या तारतम्य नहीं रहता परन्तु फिल्म वालों को थोडी बहुत छूट दी जा सकती है ।


बीमारी का दार्शिनक महत्‍व
कला, इतिहास और धर्म के आईने में मिर्गी के अनेक उदाहरण प्रस्तुत करने का उद्देश्य इस रोग को गौरवान्वित या महिमामण्डित करना नहीं है । रोग बुरा है । परन्तु कितना बुरा ? उतना नहीं जितना कि लोग सोचते हैं । इस बुराई में भी कुछ अंश ऐसे होते हैं जो तुलनात्मक रूप से अच्छे होते हैं । दुःख जीवन का अनिवार्य अंग है । हजारों तरह के दुःख हैं । अधिकांश लोग दुःख से उबरना सीखते हैं । दुःख का सामना करना उनकी आत्मिक शक्ति को पूर्णता प्रदान करता है ।

मिर्गी के दुःख का सामना लोग बेहतर तरीके से कर पायें, इसलिये सोचा गया कि उसके बारे म ें कुछ रोचक तथ्यों की चर्चा छेडी जाए । मिर्गी रोग आनन्द की अवस्था नहीं है । परन्तु स्वयं के दुःख पर हंस पाना उसकी पीडा को निश्चय ही कम करता है ।

ब्लेज पास्कल ने कभी कहा था बीमारी के भले उपयोग की प्रार्थना के बारे में । हम सोच सकते हैं कि कितनी ही हस्तियों ने अपनी मिर्गी का कुछ भला ही उपयोग पा लिया था । बीमारी का एक और भला उपयोग है । मिर्गी रोग का अध्ययन करते-करते अनेक न्यूरो-वैज्ञानिकों को यह बूझने का अवसर मिलता है कि मस्तिष्क के विभिन्न हिस्से क्या-क्या काम करते हैं, विद्युतीय व रासायनिक गतिविधियाँ कैसे संचालित होती हैं । जीव विज्ञान के अध्ययन में प्राणियों पर प्रयोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । मनुष्यों पर प्रयोग करना अनैतिक है । हिटलर के नाजी राज में अपवाद हुआ था । परन्तु विभिन्न बीमारियों के अध्ययन से शरीर के कार्यकलाप के बारे में जानकारी मिलती है उसे क्या कहा जाए ? ये प्रकृति के क्रू र प्रयोग हैं । उस पीडा को भोगने से बच नहीं सकते । तो क्यों न उसका भला उपयोग ढूंढा जाए ।

बुधवार, 7 मई 2008

मिर्गी

सब लोगों को मिर्गी के बारे में खास-खास और सच्ची बातें जानना चाहिये । क्योंकि यब बीमारी बहुत से लोगों को होती है किसी को भी हो सकती हैतथा इसका इलाज हो सकता है । मिर्गी के बारे में सही जानकारी हासिल करके हम मरीजों का भला कर सकते हैं । सुनी सुनाई अधकचरी, पुराने जमाने की बातों पर भरोसा मत करिये ।मिर्गी उस अवस्था का नाम है जिसमें व्यक्ति को कभी-कभी दौरे आ सकते हैं । बाकी समय वह ठीक रहता है । इन दौरों में तरह-तरह के लक्षण होते हैं, जैसे कि बेहोशी आना, गिर पडना, हाथ-पांव में झटके आना । मिर्गी किसी एक बीमारी का नाम नहीं है । अनेक बीमारियों में मिर्गी जैसे दौरे आ सकते हैं । मिर्गी के सभी मरीज एक जैसे नहीं होते । किसी की बीमारी मद्धिम होते है, किसी की तेज । मिर्गी एक आम बीमारी है । लगभग सौ लोगों में से एक को होती है । इनमें से आधों के दौरे रूके होते हैं । बाकी आधों में दौरे आते हैं, इलाज जारी रहता है । मिर्गी किसी को भी हो सकती है । बच्चा, बडा, बूढा, औरत, आदमी, सब को । दिमाग पर जोर पडने से मिर्गी नहीं होती । कई लोग खूब दिमागी काम करते हैं परन्तु स्वस्थ रहते हैं । मानसिक तनाव या टेंशन से मिर्गी नहीं होती है । अच्छे भले, हंसते-गाते, खुश मिजाज इंसान को भी मिर्ग हो सकती है । मेहनत करने और थकने से मिर्गी नहीं होती । आराम करने वाले को भी हो सकती है । कमजोरी या दुबलेपन से मिर्गी नहीं होती । खाते पीते पहलवान को भी हो सकती है । मांस-मछली-अण्डा खाने से मिर्गी नहीं होती । शाकाहारी लोगों को भी उतनी ही मिर्गी होती है ।मिर्गी एक शारीरिक रोग है । यह ऊपरी हवा का असर नहीं है । मिर्गी का कारण है दिमाग में कोई खराबी आ जाना । दिमाग में खराबी आने से बहुत से कारण होते हैं । इनमें से कोई भी कारण मिर्गी पैदा कर सकता है । दिमाग में आने वाली गडबडी को इलाज द्वारा ठीक किया जा सकता है । यदि वह गडबडी पूरी तरह न मिटे तो भी इलाज द्वारा दौरे रोके जा सकते हैं । दिमाग में खराबी आने का मतलब पागलपन नहीं है । मिर्गी और पागलपन का आपस में कोई रिश्ता नहीं है । दौरे का हाल सुनकर या देखकर मिर्गी होने का पता लगाया जा सकता है । देखने वाले को चाहिये कि वह घटना का हूबहू बयान करे । ठीक-ठीक बताए कि मरीज की क्या हालत थी । क्या वह गिर पडा था ? बेहोश हो गया था ? हाथ-पैर, मुंह, जीभ, दांत, आंख आदि की क्या अवस्था थी ? दौरा कितनी देर चला था ? बाद में मरीज को कैसा लग रहा था ? सही-सही वर्णन सुनकर डॉक्टर फैसला कर सकता है कि मिर्गी है या नहीं। और कोई तरीका नहीं है। मशीनों की जांच से कभी-कभी मदद मिलती है। पर अंतिम फैसला मशीन का नहीं होता । यदि दौरे का वर्णन ठीक से न मिले तो सही डायग्नोसिस (निदान) नहीं हो पाता । यदि दौरे का जोर कम हो तो सारे लक्षण मौजूद नहीं रहते । पहचान में भूल हो सकती है । मिर्गी के कुछ खास प्रकार के दौरे के लक्षण अजीब होते हैं । बहुत से डाक्टर नहीं जानते कि ऐसी भी मिर्गी हो सकती है । दूसरी अनेक अवस्थाएं हैं जो ऊपरी तौर पर मिर्गी से मिलती हैं । पर वे मिर्गी से अलग हैं । जैसे गश, मूर्च्छा, चक्कर, लकवा, मानसिक तनाव के दौरे । मिर्गी सिफ एक प्रकार की नहीं होती, उसके बहुत सारे रूप होते हैं । अधिकतर लोग जिस रूप को जानते हैं उसे बडा दौरा कहते हैं । बडे दौरे में मरीज गिर सकता है, चीख निकलती है, बेहोशी आती है, आंखे ऊपर की ओर मुड जाती है, दांत चिपक जाते हैं, मुंह से फेस या झाग आता है । जीभ कट सकती है, हाथ पैर अकड जाते हैं व झटके आते हैं, पेशाब छूट सकती है । होश आने के बाद थोडी देर थकान, दर्द व सुस्ती रहती है । मिर्गी के छोटे दौरे के बारे में लोग कम जानते हैं । इनके अनेक प्रकार होते हैं । बेहोशी आती है । हाथ पैर में जकडन व झटके नहीं आते । जैसे ही मिर्गी का शक हो, तुरन्त डाक्टर के पास जाएं । यदि डाक्टर को लगे की मिर्गी हो सकती है तो बेहतर होगा कि जल्दी इलाज शुरू कर दें । बाद में मालूम पडे कि मिर्गी नहीं थी तो डाक्टर की सलाह से इलाज बंद कर सकते हैं । मिर्गी रोकने की गोलियाँ खाने में शर्म की क्या बात ? मिर्गी रोकने की गोलियाँ खाने में दुःख की क्या बात ? दौरे जितनी जल्दी रुक जाएं, उतना अच्छा । ज्यादा दौरे आने से आगे चलकर और ज्यादा दौरे आते हैं । ज्यादा दौरे आने के बाद गोलियों का असर कम पड जाता है । मिर्गी की इलाज में चार या पांच खास दवाईयाँ हैं । सभी अच्छी हैं । कोई एक दवा चुनते समय डाक्टर इस बात पर ध्यान देते हैं कि कौन से प्रकार का दौरा आता है । एक समय में एक ही किस्म की औषधि का उपयोग करना चाहिये । दवाई का पूरा असर आने में कई दिन लग सकते हैं । इस बीच यदि दौरे आ जायें तो धीरज रखें । दवाई लेते-लेते भी दौरे आ सकते हैं । हो सकता है कि रोज की खुराक कम पड रही हो । दैनिक खुराक रोज-रोज लेने पर दौरे रुकेंगे, यह पहले से नहीं जान सकते । इस बीच यदि दौरे आ जाएं तो भी डाक्टर पर भरोसा बनाए रखें । दवाईयों द्वारा ज्यादातर मरीजों के दौरे रुक जाते हैं । परन्तु रोज लेना जरूरी है । एक भी दिन की चूक नहीं होना चाहिये । जैसे रोज रोटी खाते हैं, वैसे रोज गोली लें । इलाज लम्बा चलता है । दो साल, चार साल, पांच साल या और भी अधिक । पहले से नहीं बता सकते कि कितने साल चलेगा । कम से कम तीन, चार साल तक दौरे रूक जाना चाहिये । उसके बाद दवाई छूट सकती है । यदि बीच-बीच में दौरे आते रहें तो गोली नहीं छूट सकती । दौरे रुकना जरूरी हैं । जो मरीज नियम से बिना नागा गोली लेते हैं उनमें से ज्यादातर के दौरे रूक जाते हैं और बाद में गोली छूट जाती हैं । मिर्गी के इलाज में शार्ट-कट नहीं है । इलाज लम्बा है । धीरज रखना पडता है । ऐसी दवा नहीं बनी जो थोडे से दिन में बीमारी को जड से मिटा दे । सारी दवाईयाँ बिमारी को दबा कर रखती हैं । मिटा नहीं पाती । थोडे से मरीजों में भरपूर इलाज के बाद भी दौरे नहीं रूकते । इन मरीजों में बीमारी का जोर शायद अधिक होता है । इनकी दवाईयाँ नहीं छूट पाती । अनेक साल खाना पडती हैं । कोई सीमा नहीं है । कोई लिमिट नहीं है । शायद जिन्दगी भर खाना पडती हैं । इसी बात में संतोष करो कि इलाज के कारण दौरे कम हो गये, वरना और ज्यादा हो जाते ।सभी दवाईयों के थोडे बहुत बुरे असर हो सकते हैं । किसी मरीज में ये बुरे असर कम होते हैं तो किसी में ज्यादा । पहले से नही बता सकते कि किस मरीज में क्या बुरे असर होंगे । ज्यादातर मरीजों में कोई बुरा असर नहीं होता । थोडे से मरीजों में मामूली किस्म के बुरे असर होते हैं । अधिकांश मरीज इन्हें सह लेते हैं। दवाईयों से फायदा अधिक है और नुकसान कम ।मरीज को दौरा आने की दशा में क्या करें ?मरीज दौरे में बेहोश पडा हो, झटके आ रहे हों तो उसे साफ, नरम जगह पर करवट से लेटाएं सिर के नीचे कपडा या तकिया लगा दें तंग कपडे ढीले कर दें मुंह में जमा लार या थूक को साफ रुमाल से पोंछ दें । इस बात पर गौर करें कि मरीज को चोट तो नहीं लगी । अपनी घडी से समय नोट करें कि दौरा ठीक-ठीक कितनी देर तक चला । हिम्मत बनाए रखें । ये दौरे दिखने में भयानक, पर वास्तव में खतरनाक नहीं होते । दौरे के समय अधिक कुछ करने को नहीं होता । वह अपने आप कुछ मिनटों में समाप्त हो जाता है । उसे जितना समय लगना है, लगेगा । हमें कुछ नहीं करना चाहिये ।जूते नहीं सुंघाना, प्याज नहीं सुंघाना । ये गन्दे अंधविश्वास हैं । बदबू व किटाणू फैलाते हैं । हाथ पांव नहीं दबाना । हथेली व पंजे की मालिश नहीं करना । दबाने से दौरा नहीं रुकता । चोट व रगड लगने का डर रहता है । मुंह में कुछ नहीं फंसाना । न कपडा, न चम्मच जीभ यदि दांतों के बीच फंसी हो तो उसे अंगुली से अंदर कर दें । मुंह पर पानी के छींटे न डालें । चिल्लाएं नहीं । घबराएं नहीं ।सामान्य खाना खा सकते हैं । भोजन का परहेज नहीं रखना चाहिये । व्रत, उपवास, रोजे रखने से कुछ मरीजों में दौरे बढ जाते हैं । इनसे बचना चाहिये । अन्न न लेना हो तो दूध या फलाहार द्वारा पेट भरा रखना चाहिये । मिर्गी से पीडत व्यत्ति* की शादी हो सकती है । वे बच्चे पैदा कर सकते हैं । बच्चे स्वस्थ होंगे या उन्हें मिर्गी होने का ज्यादा डर नहीं । गर्भवती महिला को दौरे रोकने की गोलियाँ खाते रहना चाहिये । इन गोलियों से ज्यादातर मामलों में बुरा असर नहीं पडता । गोलियाँ खाने वाली महिला बच्चे को दूध पिला सकती है । शादी करने से मिर्गी की बीमारी ठीक नहीं होती । उसके लिये गोलियाँ खाना जरूरी है । मिर्गी खानदानी बीमारी नहीं है बहुत थोडे से मामलों में इसका खानदानी असर देखा जाता है । यह असर १०० प्रतिशत नहीं होता, अधूरा होता है । डाक्टरी ज्ञान के द्वारा पहचान सकते हैं कि किस मरीज में थोडा बहुत खानदानी असर हो सकता है । ९० प्रतिशत मामलों में खानदानी असर नहीं होता ।इस बारे में नहीं सोचना चाहिये, चिन्ता नहीं करना चाहिये ।मिर्गी के अधिकांश मरीजों का दिमाग अच्छा होता है । अनेक मरीज बुद्धिमान व चतुर होते हैं । लगभग सभी मरीज सयाने व समझदार होते हैं । पागलपन व दिमागी गडबडयां बहुत थोडे मरीजों में देखी जाती हैं ।मिर्गी वाले ज्यादातर बच्चे आम स्कूलों में भलीभांति पढते हैं । बहुत थोडे से मरीजों में दिमाग कमजोर हो सकता है । स्वभाव गडबड हो सकता है खासतौर से उनमें - जिनके दौरे न रूके हों । जिनके बीमारी का जोर ज्यादा हो । जिनहें ज्यादा गोलियाँ रोज खाना पडती हों । जिनके मस्तिष्क की जांच में खराबियाँ पाई गई हों । जिन्हें लम्बे समय से , कम उम्र से दौरे आते हों ।कमजोर दिमाग वाले बच्चों के लिये चाहिये स्पेश्यल टीचर व स्कूल । अपने देश में कम मिलते हैं । मिर्गी की बीमारी के कारण दिमाग कमजोर नहीं होता । दौरे रोकने की गोलियों के कारण दिमाग कमजोर नहीं होता । दिमाग कमजोर हो सकता है उसमें पहले से मौजूद बीमारी के कारण । वह बीमारी जिसने मिर्गी रोग को जन्म दिया, वही बीमारी दिमाग को भी कमजोर बना सकती है ।मिर्गी के मरीजों का दिल दुःखाने वाली बातें कौन सी होती है ? लोगों की बेरूखी, बदली हुई नजरें लांछन अकेलापन, दोस्ती की कमी बेमतलब की रोकटोक, जरूरत से ज्यादा सम्हालना, शादी में अडचन व नौकरी छूट जाना । बच्चों में पढाई छूट जाना । छुआ छूत का बरताव । ये सारा माहौल गलत है । बदलना चाहिये । इसी माहौल के कारण मरीज के मन में उदासी, सुस्ती, हीन भावना, डर, चिड-चिडापन आदि पैदा हो जाते हैं ।