शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

डॉ. आलिवर - साक्षात्कार

अपूर्व - आप कभी भारत गये या नहीं ?
ऑलिवर - लगभग तीन चार वर्ष पूर्व एक बार गया था । जान क्ले फाउण्डेशन की संस्कृत लाइब्रेरी के प्रकाशन के सन्दर्भ में । पहले या दूसरे ही दिन बीमार पड गया था । दस्त और उल्टी लगे थे । मैं पुनः जाना चाहता हूँ । इस बार मेरी अपनी इच्छा और योजना से जो देखना चाहता हूँ वह देखूंगा - खास तौर से पहाडों में ।
अपूर्व - हिमालय में फर्न्‌स की बहुत सी प्रजातियां हैं, जिनमें शायद आपकी रूचि हो ।
आलिवर - अरे हाँ, फर्न्‌स । मुझे याद आया कि र्‌होडेन्ड्रान्स की बाटनी और हिमालय की वनस्पतियों पर एक किताब१९ वीं शताब्दी में प्रसिद्ध हुई थी और उसे एक श्रेष्ठ यात्रा-वर्णन की कोटि में भी रखा जाता है । संयोगवश यह भी बताना चाहूंगा कि मेरी माँ ने एक छोटी किताब लिखी थी, जिसका किसी भारतीय भाषा में अनुवाद हुआ था । मेरी सदैव से इच्छा रही है कि मेरी किसी किताब का भारतीय भाषा में अनुवाद हो, पर यहां तो बहुत सारी भाषाएं हैं ।
अपूर्व - प्रमुख भाषा हिन्दी है जो औपचारिक रूप से भारत शासन द्वारा मान्य है और लगभग ४०-५०% लोगों द्वारा बोली जाती है ।
नीरजा - आपकी माता प्रसूति व स्त्री रोग विशेषज्ञ थीं । मैं भी वहीं हूँ । (उनके समान) मैं भी शिशुओं में स्तन-पान की सक्रिय समर्थक हूँ ।
आलिवर - क्या ... स्तनपान ... इसका मतलब कि आपको (मेरी आत्मकथा में से) वह किस्सा पसन्द आया । मेरी माँ की लिखी किताब का विषय रजोनिवृत्ति (मीनोपॉज) था और शीर्षक था स्त्रियां - चालीस के बादङ्ख । उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह किताब बेहद लोकप्रिय हुई, बेस्ट सेलर बनीं । अरबी और शायद हिन्दी में उसका अनुवाद हुआ । मेरी किताबें चीनी, कोरियन, हिबू्र और रूसी भाषा में निकली हैं परन्तु भारतीय भाषाओं में किसी में नहीं ।
अपूर्व - मेरी दिली ख्वाहिश है कि मैं आपके कुछ कार्यों का हिन्दी में अनुवाद करूं । मैं कर सकता हूँ । मैं उसके साथ न्याय करूंगा । यह करके मुझे खुशी होगी ।
ओलिवर - परन्तु तुम्हारे अपने दूसरे काम हैं ।
अपूर्व - यह सच है । न्यूरोफिजिशियन के रूप में मेरा अपना व्यावसायिक काम है और मुझे अध्यापन भी करना होता है ।ᅠ
ओलिवर - शायद किसी दिन, मेरी रचना का हिन्दी संस्करण होगा ।
नीरजा - (अपूर्व के प्रति) न्यूरालाजिस्ट होने के नाते आप इसे बेहतर कर पायेंगे ।
ओलिवर - मुझे याद आता है कि भारत से मेरा पहला सम्बन्ध वहां की चाय से रहा । तुम्हें मैं एक मजेदार किस्सा बताता हूँ । बहुत वर्ष पहले, शायद ६० से भी अधिक, एक भारतीय व्यक्ति था, उसके चाय के बागान थे । वह केट की माँ के प्यार में पड गया । परन्तु नियति को अपनी अलग राह चलना था । फिर भी वे अच्छे मित्र बने रहे । अपने चाय के बागानों से वह श्रेष्ठ चाय के पेकेट्‌स केट की माँ को भेजा करता था । माँ उन्हें अपनी बेटी को और केट मुझे दिया करती थी । मैं सोचता हूॅं कि लगभग छः माह पहले उस व्यक्ति का देहान्त हो गया । चाय का मेरा अन्तिम पेकेट मैंने हाल ही में खोला, पर भूल से उसका पैकिंग - डब्बा और बाहर से लेबिल सम्हाल कर नहीं रखा । अब थोडी सी चाय बची है और उसकी छाप (ब्राण्ड) मैं नहीं बता सकता । शायद तुम पहचान पाओ । या फिर थोडा सेम्पल अपने साथ ले जाओ। मेरे पास अब इतनी ही बची है । जरा देखो इसे ।
मैंने अपनी असमर्थता व्यक्त करी । मैं अच्छी नाक वाला नहीं हूँ । एक मूर्खता भरी बात कही कि शायद दार्जलिंग की है । डॉ. आलिवर ने बहुत हौले से बताया कि दार्जलिंग क्षेत्र से सैकडों विशिष्ट फ्लेवर्स (गंध) की चाय पैदा होती है ।
ओलिवर - मैं तुम्हें मेरे एक मित्र के बारे में बताना चाहता हूँ । जान क्ले, स्कूल के जमाने में बहुत मेधावी व अध्ययनशील था और उसे भारतीय सभ्यता, संस्कृति,साहित्य और इतिहास में गहरी रुचि थी । सब सोचते थे कि आगे चलकर वह विद्वान भारतविद्‌ (इन्डालाजिस्ट) बनेगा । परन्तु वह व्यापार की दुनिया में चला गया और जैसा कहते हैं न, बडी किस्मत बटोरी । जीवन के उत्तरार्ध में रिटायरमेंट जैसी स्थिति में उसने एक बेजोड और सार्थक काम करने की ठानी । अपने मित्रों की आशाओं को पुनर्जागृत करते हुए उन्हें पूरा करके दिखाया । साथ ही लम्बे समय से खुद की संजोयी इच्छा और सपनों को साकार किया । उसने जान क्ले फाउण्डेशन की स्थापना की और एक महती काम को पूरा करने का बीडा उठाया - संस्कृत के प्राचीन शास्त्रीय (क्लासिकल) साहित्य का लब्धप्रतिष्ठित विद्वानों द्वारा अंग्रेजी में प्रामाणिक अनुवाद करवाना और उसे सुरूचिपूर्ण कला से सुसज्जित ग्रन्थमाला के रूप में प्रकाशित करवाना । डॉ ओलिवर ने जान क्ले संस्कृत ग्रन्थमाला की जानकारी देने वाली दो लघुपुस्तिकाएं हमें दी जिन्हें पढकर विश्वास होता है कि यह प्रकाशन कितना पठनीय और नयनाभिराम होगा ।
डॉ. ओलिवर की कुर्सी के पीछे की खिडकी से दोपहर का तीव्र प्रकाश आ रहा था और उनका चेहरा तुलनात्मक रूप से अंधेरे में था । फोटोग्राफी की दृष्टि से यह स्थिति उत्तम नहीं होती । मैंने सुझाया कि खिडकी को ढंकने वाले वेनेशियन ब्लाइन्ड्‌स को पलट दिया जावे । डॅा. सॉक्स फुर्ती से उठ खडे हुए और मैं उस काम को करने का उपक्रम करता उसके पहले वे स्वयं करने लगे । इस चक्कर में ब्लाइन्ड्‌स का एक सिरा पेल्मेट से उखड गया । वे बोल पडे बग-अपङ्ख और पुनः कुर्सी पर आ बैठे । फिर बताया कि जब कोई काम गडबडा जाता है तो इंग्लेण्ड में बग-अप कहते हैं । अमेरिकन्स ऐसा नहीं कहते ।
अपूर्व - सांज्ञानिक न्यूरोमनोविज्ञान (काग्रिटिव न्यूरोसायकोलाजी) परीक्षण में हम मरीजों को कोई एक शब्द देते हैं और कहते हैं - इस शब्द को सुन कौन से दूसरे शब्द आपको याद आते हैं - एक मिनिट तक बोलते जाईये । उसी प्रकार कृपया आप बताएं कि इन्डियाङ्ख शब्द सुनकर आप क्या-क्या कहेंगे ।
ओलिवर - चाय, और आप लोगों का रूपया, माउण्टबेटन, भारतीय विद्रोह, राज, संस्कृत... हूँ अब कुछ दिक्कत आ रही है, प्राचीन सभ्यता, मेरे प्रिय मित्र रामचन्द्रन (न्यूरोसाईंटिस्ट), प्रसिद्ध गणितज्ञ रामानुजम, गांधी, टैगोर ...
अपूर्व - आपकी वेबसाईट (जालस्थल) के प्रथम पृष्ठ पर आपके परिचय में लिखा गया है - डॉ. ऑलिवर सॉक्स : लेखक और न्यूरालाजिस्ट । इसी क्रम से । आपको यह अहसास कब हुआ कि आप एक लेखक पहले हैं ।
ओलिवर - सबसे पहले स्पष्ट कर दूं कि मैं वेबसाईट के लिये जिम्मेदार नहीं हूँ । यदि मुझे पता होता कि ऐसा है तो मैं उसे दूसरे क्रम से उलट कर रखता । मैं पहले एक फिजिशियन (चिकित्सक) हूँ । आज सुबह मैंने एक मरीज को देखा । यह सही है कि मैंने उसके बारे में कहानी लिखी है । पर जब मैं उसे देखता हूँ तो वह मेरे लिये पात्र नहीं बल्कि सदैव एक मरीज ही होता है । शुरु से मेरे अन्दर शोध पत्रिकाओं के लिये वैज्ञानिक लेख और केस हिस्ट्री (मरीज कथाएं) लिखने का जज्बा रहा था । शुरु शुरु में मेरे दिमाग की दो विशिष्ट अन्तप्रज्ञाओं के बीच विरोध या तनाव था, मानों कि वे मस्तिष्क के दो भिन्न भागों में अवस्थित हों । फिर धीरे-धीरे वे पास आयीं और मिल गई ं। उस अवधि में मैंने क्लीनिकल रेकार्ड लिखना शुरु किये । मेरी पहली पुस्तक १९६० के उत्तरार्ध में आई । मैंने सैंकडों लम्बी मरीज कथाऐं लिखी हैं और ८००० से अधिक मरीज देखे हैं । शुरु में मैंने उन्हें प्रकाशित नहीं करवाया । मेरी माता और पिता दोनों क्लीनिशियन्स (चिकित्सक) थे और एक माने में कहें तो वे भी निपुण कथाकार थे । कथा-कथन, चिकित्सा विज्ञान का अनिवार्य अंग है । उस के द्वारा आपको किसी व्यक्ति की फिजियालाजी (कार्यप्रणाली) समझने में मदद मिलती है ।
अपूर्व - रासायनिक तत्वों के वर्गीकरण की मेन्डलीफ तालिका से आप बचपन से अब तक अभिभूत रहे हैं । आपने लिखा कि उस तालिका ने आपको पहली बार महसूस कराया कि मानव मन में ट्रान्सिन्डेन्टल (अतीन्द्रिय, पराभौतिक) शक्ति होती है और इसीलिये यह विश्वास जागा कि शायद इन्सान के दिमाग में वे क्षमताएं हैं कि वह प्रकृति के गूढतम रहस्यों को जान सकें । क्या आप यह कहना चाहते थे कि ईश्वर के अस्तित्व का सवाल मनुष्य के दिमाग की पहुंच में हैं ?
ओलिवर - क्या मैंने ऐसा कहा ?
अपूर्व - हॉं. आपने कहा । क्या आप मानते हैं कि ईश्वर का प्रश्न मानव मन की ट्रान्सिडेन्टल शक्ति के दायरे में हैं ?
ओलिवर - मेरे शब्दों को कुछ-कुछ गलत समझा गया है । धार्मिक और वैज्ञानिक के बीच एक अजीब सी भ्रम की स्थिति है । पीरियाडिक टेबल मानव निर्मित है - एक ब्रह्माण्डीय कोटि का दर्शन है । जब कभी मैं ईश्वर का मनङ्ख ऐसे वाक्यांश का उपयोग करता हूँ तो वह महज दीइस्टिक रूप से होता है । एक ऐसी ईश्वर जिसने शुरु में दुनिया और नियम बनाए और फिर उसे उसके हाल पर छोड दिया ।
दर असल मैं किसी ऐसी सत्ता, शक्ति या चेतना को नहीं मानता जो प्रकृति से ऊपर या परे हो । दूसरी तरफ, स्वयं प्रकृति (नेचर) के प्रति मेरे मन में अथाह/असीम कौतूहल और आश्चर्य (वण्डर) है । यदि मुझे कभी ईश्वर शब्द का उपयोग करना पडे, जो बिरले मैं ही करता हूँ तो मैं उसकी पहचान प्रकृति से करूंगा ।
अपूर्व - एक अर्थ में क्या आप आइन्स टीनियन ईश्वर में विश्वास करते हैं ।
ओलिवर - बिलकुल सही ...
अपूर्व - और जीवोहा जैसे ईश्वर में नहीं जो ईर्ष्यालु है और सजा देता है।
ओलिवर - हाँ... लेकिन मैं ईश्वर को गढने और उसमें विश्वास करने की आम लोगों की भावनात्मक जरूरत को देख पाता हूँ .. हालांकि स्वयं मेरे मन के अन्दर वैसी कोई जरूरत महसूस नहीं होती ।
अपूर्व - क्या ईश्वर का प्रश्न वैज्ञानिक है या पारभौतिक ? (जैसा कि रिचर्ड डाकिन्स ने सुझाया है)
ओलिवर - (हंसते हुए) मैं नहीं सोचता कि यह किसी भी प्रकार की खोज या पूछ-परख का प्रश्न है । इस मुद्दे पर किसी प(कार का सबूत मिलना सम्भव नहीं है । ईश्वर का सवाल आस्था से जुडा है जो सबूत से परे है । इस दृष्टि से, व्यक्तिगत रूप से मैं आस्था को नहीं मानता । लेकिन रिचर्ड डॉकिन्स की तरह मैं धर्म के खिलाफ सार्वजनिक मोर्चा नहीं खोलूंगा । गौर करने की बात है कि मैंने वर्षों तक धार्मिक संस्थानों में काम किया - यहूदी और ईसाई । यदि वे संस्थाएं हिन्दू या मुस्लिम होती तो मैं वहां भी काम कर लेता । धार्मिक आस्थाओं से भरे वातावरण मुझे प्रिय हैं फिर चाहे मैं उन विश्वासों से स्वयं साझा न करूं । धर्म के अच्छे पहलुओं को मैं देखना चाहता हूँ, यपि उसके नुकसानदायक, कठमुल्ला पहलू मुझे आतंकित करते हैं ।
फ्रीमेन डायसन ने, जो मेरे अच्छे मित्र हैं, एक बार कहा - मैं व्यवहार में ईसाई हूँ पर आस्था में नहीं,ङ्ख मैं सोचता हूँ कि यह एक बहुत चतुराई भरा बयान है । मेरे मातापिता यहूदी धर्म का व्यवहार करते थे - पुरातनपन्थी यहूदी । मुझे कोई अन्दाज नहीं कि वे किसमें विश्वास करते थे । मैंने उन्हें कभी अपनी आस्थाओं के बारे में बात करते नहीं सुना । मैं सोचता हूँ कि खास बात सिर्फ इतनी है कि यहां और अभी की दुनिया को सलीके से जीने की कोशिश करी जावे । इसके परे और कुछ भी नहीं है । मेरे मन में एक धार्मिक संवेदना सदैव रही परन्तु उससे कहीं अधिक मेरे मन में ब्रह्माण्ड के प्रति आश्चर्य, कृतज्ञता और आदर का भाव है । मेरे धर्म का किसी ऐसी सत्ता से वास्ता नहीं जो सुपरनेचरल (प्रकृति से ऊपर, प्रकृति से पहले), परा भौतिक या अतीन्द्रिय हो । मेरा धर्म ईश्वरविहीन धर्म है । जब आइन्टीन ने परमाणु के रहस्यों की चर्चा में कहा कि ईश्वर पासा नही फेंकता है तो मैं सोचता हूँ कि वह महज कथन की एक शैली (मेनर ऑफ स्पीच) थी । वह विनम्र होना चाह रहे थे । अन्ततः मैं ट्रान्सीन्डेन्टल (पराभौतिक) से माफी मांगना चाहूँगा ।
अपूर्व - एक गर्भस्थ प्राणी के प्रजनक विकास (आंटोजेनी) में वे समस्त अवस्थाएं दोहराई जाती हैं जो निम्न प्राणियों से लेकर उक्त प्राणी के जीव वैज्ञानिक विकास (फायलोजेनी) में देखी जाती है । इस कथन के सन्दर्भ में आपने कैनिजारो को उद्दत किया है कि किसी नये विज्ञान को सीखने वाले व्यक्ति को स्वयं उन अवस्थाओं से गुजरना होता है जो उस विज्ञान के ऐतिहासिक विकास में देखी गई थी ।
ओलिवर - (केनिजारो का) यह कथन पढकर मुझे खुशी हुई थी क्योंकि वह मुझ पर लागू होता था । सौभाग्य से रसायन शास्त्र की मेरी शिक्षा २० वीं सदी की पाठ्य पुस्तक द्वारा शुरु नहीं हुई, बल्कि १८ वीं शताब्दी की पृष्ठभूमि के मेरे मामा द्वारा शुरु हुई जिन्होंने मुझे धातुविज्ञान और उस काल के सिद्धान्तों और धारणाओं से परिचित कराया - उसके बाद में मेरा सामना डाल्टन के परमाणुवाद में हुआ, फिर मेन्डलीफ (तत्वों की तालिका) और फिर क्वान्टम सिद्धान्त । मेरे अपने अन्दर ज्ञान का एक जीवित, विकास मान इतिहास फलीभूत होता रहा । मुझे यह स्वीकार करना होगा कि कैनिजारो की यह राय अधिकांश शिक्षाविदों को स्वीकार्य नहीं होगी । वे कहेंगे कि इतिहास में किसकी रुचि है ? समय क्यों व्यर्थ जाया किया जावे ? किसे फिक्र पडी है कि विचारों का विकास कैसे हुआ ? व्यक्तियों और घटनाओं का क्या महत्व ? हम तो जानना चाहेंगे कि आधुनिकतम क्या है । जहां तक मेरा सवाल है, रसायन शास्त्र, वनस्पति शास्त्र, न्यूरालाजी किसी भी विषय का विकास, ज्ञान की किसी भी शाखा की वृद्धि, एक जीवित प्राणी के समान है जो अनेक अवस्थाओं से होकर गुजरता है ।
अपूर्व - शैक्षणिक दृष्टि से इसका क्या महत्व है ? न्यूरालाजी विषय के एक प्राध्यापक के रूप में अपने छात्रों के सम्मुख आप न्यूरोविज्ञान के विकास के इतिहास को कितनी बार महत्व देते हैं ?
ऑलिवर - सदैव ... और यदि किसी को मेरा पढाना पसन्द न हो तो बेशक वह दूसरे टीचर के पास जा सकता है। मैं दावा नहीं करता कि अध्यापन में कैनिजारो का तरीका एक मात्र तरीका है । वह एक विधि है जो कुछ लोगों को ठीक लगती है तो कुछ को नहीं ।
अपूर्व - मैं भारतीय योग के बारे में कुछ कहना चाहूंगा । इसका सम्बन्ध आत्मपरकता (सेल्फहुड) से है और शरीर और चेतना से । आपने फ्रायड को उद्दत किया है कि सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्व का ईगोङ्ख (अहं), शरीर का ईगो है । मैंने थोडा बहुत योग करना सीखा है । हालांकि मैं उसे व्यवहार में नहीं लाता । योग सीखने वाले शिक्षक, विभिन्न आसन या मुद्राओं के दौरान सदैव शरीर के अहसास को जागृत करने, तीक्ष्ण करने, घनीभूत करने पर जोर देते हैं । विभिन्न सन्धियों (जोडों) पर क्या स्थिति है (प्रोप्रियोसेप्शन) इसे महसूस कराया जाता है । प्रत्येक पद पर कहा जाता है शरीर के बारे में सोचो, जोड कैसा महसूस कर रहे हैं, श्वास के अन्दर आने और बाहर जाने पर ध्यान दो, केवल अभीङ्ख और यहांङ्ख पर मन केंद्रित करो, आंखें मूंद कर ध्वनियों को सुनों, नीचे जमीन के स्पर्श पर गौर करो । मैं सोचता हूॅं कि यह सब हमें रिलेक्स (शान्त) करता है ।
ओलिवर - बिल्कुल सही ! मैं सोचता हूँ कि हमें शरीरवान होने के बारे में गहराई से सचेत होना चाहिये - यहां और अभी में शरीर की संवेदना । नीत्शे ने कहा था कि दर्शनशास्त्र में सभी गलतियां शरीर को ठीक से न समझ पाने के कारण पैदा होती हैं । संगीत पर मेरी किताब एक पहलू (थीम) संगीत की शारीरिकता पर है ।
अपूर्व - अब जबकि हम शरीर की चेतना की बात कर रहे हैं तो क्या एन्तोनियो दमासियो की पुस्तक द फीलिंग आफ व्हाट हेप्पन्सङ्ख (जो होता है उसका अहसास) में प्रतिपादित बात से सहमत हैं कि चेतना उस समय जागृत होती है जब मस्तिष्क में शरीर की अनुभूति को बिम्ब क्षण-क्षण बदलते हैं ।
ऑलिवर - हाँ, मूल रूप से .. (सहमत हूँ)
अपूर्व - मैंने आपके लेखन में अनेक द्वन्दों या विरोधाभासों के अक्ष या या पैमाने काफी करीब से देखे हैं - एक रूपता के विरुद्ध बहुरूपता, अद्वैत के विरुद्ध द्वैत, समांगी विरुद्ध विषमांगी और न्यूरालाजी में सर्वव्यापकता (होलिज्म) के विरुद्ध स्थानिकता (लोकेलाईलेजनिस्टिक) । आप इन द्वन्दों को कैसे साधते हैं ? क्या आप अपने आप को घुर सिरे की किसी स्थिति में पाते हैं या बीच का मार्ग पकडते हैं ?
ओलिवर - अजीब संयोग है, अभी कुछ देर पहले मित्र, न्यूरालाजिस्ट से चर्चा के दौरान मैंने एक शब्द कहा था, जो उन्हें मालूम न था - आयरीनिकङ्ख ग्रीक भाषा से आया है - शान्त या शान्तिपूर्ण । (धीरोदात्त, स्थितप्रज्ञ) इसे हम अति का विलोम मान सकते हैं । कोई भी शान्त व्यक्ति विचारों को लेकर कठोर मुद्राएं अख्तियार नहीं करता । वह सब के बारे में सोचता है और सन्तुलन की कोशिश करता है ।
अपूर्व - भारतीय दर्शन में, विशेषकर जैन और बौद्ध परम्पराओं में मध्यम मार्ग पर जोर दिया जाता है । अनेकान्तवाद है । कहते हैं कि सत्य के अनेक चेहरे हैं । कोई एक सत्य नहीं होता । प्रत्येक व्यक्ति सत्य तक अपने अलग मार्ग से पहुंचता है ।
ओलिवर - कुछ लोग जैसे कि रिचर्ड डॉकिन्स विज्ञान और धर्म को दो अतिवादी ध्रुवों के रूप में देखते हैं । लेकिन फ्रीमेन डायसन इसे अलग नजरिये से देखता है । वह उदाहरण देता है एक घर का जिसमें अनेक खिडकियांॅ हैं । एक खिडकी विज्ञान की है तो दूसरी धर्म की । बहुत साल पहले मेरे एक न्यूरालाजिस्ट सहकर्मी ने पूछा था - आप लम्पर हैं या स्प्लिटर ? भेल करने वाले, मिलाने वाले है या उधेडने वाले, वर्गीकृत करने वाले ? मैंने कहा कुछ भी नहीं ।ङ्ख मित्र बोला कुछ भी नहीं कैसे हो सकता है ।ङ्ख मैंने कहा - आपके लिये हो सकता है पर मेरे लिये नहीं ।
अपूर्व - मेरी पत्नी को मुझसे अक्सर शिकायत रहती है कि मैं प्रायः निश्चित राय नहीं देता ।मैं कहूँगा यह सही हो सकता है, पर वह भी सही हो सकता है । मेरी पत्नी और पुत्री मेरी इस बात पर असहजता महसूस करते हैं । वे पूछते हैं कि आप दृढमत धारण क्यों नहीं करते ?
ओलिवर - पर कुछ मुद्दों पर मेरे दृढ मत हैं ।
अपूर्व - हर एक के होते हैं ।
ओलिवर - मैं नहीं जानता कि इसे राजनैतिक कहूँ या इकॉलाजिकल (पारिस्थितिक) पर मैं सोचता हूँ कि राष्ट्रपति बुश (की नीतियों) ने जो नुक्सान किया है उसकी भरपाई (यदि कभी हुई भी तो) करने में अनेक दशक लग जायेंगे । मैं राजनैतिक मामलों पर कभी समाचार पत्र नहीं पढता था, आज से पांच छः साल पहले तक, अब पढता हूँ ।
अपूर्व - पर मैें उम्मीद करूं कि आप घनघोर इकालाजिस्ट (पर्यावरणवादी) या अतिवादी ग्रीन नहीं हैं ।
ऑलिवर - नहीं, मैं नही हूँ । मैं सोचता हूँ कि वे (ग्रीन) कुछ ज्यादा ही दूर तक जाते हैं । जो कुछ थोडा बहुत मैं कर सकता हूँ, करता हूँ । मेरे पास हायब्रिड कार है (पेट्रोल व बिजली दोनों से चलने वाली) । मैं जिस घर में रहता था उसकी छत पर सौर ऊर्जा की पट्टिकाएं लगी थी ।
अपूर्व - आपके लेखन की केन्द्रीय विषय वस्तु है - पहचान की न्यूरालाजी । आप कहते हैं कि इस दिशा में न्यूरालाजी ने पर्याप्त प्रगति नहीं करी है । आपको दुःख है कि मनोरोग विज्ञान न्यूरोमनोविज्ञान और भी ज्यादा साईंटिफिक होते जा रहे हैं और पहचान के विषय के रूप में वे नहीं उभरे हैं । न्यूरालाजी विषय को लेकर भी आप के मन में ऐसी ही चिन्ता है ।
ऑलिवर - मैं सोचता हूँ कि स्थिति बदल रही है । यह बात बहुत पहले से शुरु होती है । फीनिस गेज की कहानी याद है ? उसके सिर में से लोहे की मोटी छड बेध कर निकली थी । उसकी बुद्धि बची रही, उसकी वाचिक क्षमता, मानसिक विधाएं और मांसपेशियों की शक्ति, सब ठीक हो गये । पर उसके मित्र कहते थे - गेज, अब पहले वाला गेज न रहा । इन्सान की नैतिक या मॉरल पहचान में बदलाव की यह एक सुन्दर आरम्भिक कहानी थी । गेज विचारशून्य रूप से, यकायक आवेग में कुछ कर बैठता था । मस्तिष्क के फ्रोन्टल खण्ड की बीमारियों के कारण पैदा होने वाले लक्षणों की समझ के विकास में फीनिस गेज की केस हिस्ट्री (१८७०) एक खास मील का पत्थर थी । अवेकनिंग (जागरण) की कथाओं के मेरे मरीजों की चेतना की पहचान अवलम्बित (सस्पेन्डेड) हो गई थी । उनमें से कुछ के लिये, अनेक दशकों जक कुछ घटित ही नहीं हुआ । सब मातापिता जानते हैं कि उनके प्रत्येक बधे की अपनी एक अलग पहचान होती है । हमशक्ल जुडवां बधों का व्यक्तित्व एक सा नहीं होता । उनकी जीन्स एक जैसी हो, परन्तु दूसरे कारक अपना असर डालते हैं । मुझे क्यों कहानियां कहना भाता है ? मुझे क्यों कहानियाँ मिलती हैं ? क्योंकि ये पहचान की कहानियाँ हैं । और न्यूरालाजिकल दुर्घटना के कारण उस पहचान में आये बदलाव की कहानियाँ हैं । मैंने एक कथा लिखी थी देखना और न देखनाङ्ख (सी एण्ड नाट सी) - एक अन्धे व्यक्ति की कहानी जो अपने अन्धेपन की पहचान के साथ आराम से खुश था - और रोशनी पाने पर उस पहचान का नष्ट होना वह सहन नहीं कर पाता ।
अपूर्व - क्या आप सन्तुष्ट हैं कि न्यूरालाजी की मुख्य धारा के अध्यापन और व्यवहार दोनों में पहचान की न्यूरालाजी की परिकल्पना को अधिकता के साथ ग्राह्य किया जा रहा है ।
ऑलिवर - हाँ, मुझे ऐसा लगता है ।
अपूर्व - क्या आप आशावादी हैं कि यह भविष्य में बढेगी ?
ऑलिवर - हाँ यह ग्राह्यता बढ रही है । मैं सोचता हूँ कि आज से बीस साल पहले तक इस बात का डर था कि वैयक्तिक अधययन या प्रत्येक पहचानदार इन्सानों पर अध्ययन कहीं गुम न हो जाएं, सांख्यिकी के गणित में, औसत में डूब न जाएं । मैं अपना असली गुरु डॉ. अलेक्सान्द्र लूरिया को मानता हूँ । उनसे मैं कभी मिला नहीं पर पत्र व्यवहार हुआ । उनकी दो महान रचनाएं पहचान की न्यूरालाजी के देदीप्यमान उदाहरण हैं । आदमी जिसकी दुनिया बिखर गईङ्ख का पात्र अपनी तमाम बौद्धिक-सांज्ञानिक हानियों के बावजूद अपनी पहचान बनाये रख पाता है । जब पहचान को चोट किसी भारी-भरकम शक्ति के कारण पहुंचती है तो मेरी रुचि और भी बढ जाती है ।
अपूर्व - मैं भी लूरिया को उद्दत करते हुए कहना चाहूंगा कि काश बाह्य तंत्रिका तंत्र (पेरिफेरल नर्वस सिस्टम) की बीमारियों के सन्दर्भ में न्यूरालाजी वर्तमान पशुचिकित्सकीय सोच से ऊपर उठ पाये ...
ओलिवर - (रोकते हुए) ... ऐसा लगता है कि तुमने मेरा लिखा एक एक शब्द पढा है ।
नीरजा - बहुत गहराई में ।
अपूर्व - (जारी रखते हुए) .. एडलमेन ने कहा कि यदि न्यूरालाजी वेटरनरी (पशुचिकित्सा) स्तर के सोच व व्यवहार से ऊपर उठ पाये तो यह न्यूरालाजी के लिये वैसी ही युगान्तरकारी क्रान्ति होगी जैसी कि गैलीलियो की खोजें उस युग में भौतिक शास्त्र के लिये थीं । मुझे लगता है कि यह जरा ज्यादा ही जोर से कहा गया स्ट्रांग कथन है ।
ओलिवर - एडलमेन का केन्द्रीय योगदान पहचान की समझ को लेकर है । चेतना की न्यूरोवैज्ञानिक व्याख्या पर उसे नोबल पुरस्कार मिला ।
अपूर्व - क्या आप नहीं मानते कि उक्त कथन जरा ज्यादा (स्ट्रांग) ही है ?
ओलिवर - हाँ, वह है तो और ऐसा भी जो लोगों को संशंकित करे । जिस शब्द का तुमने शुरु में उपयोग किया था - ट्रान्सिन्डेन्टल, या अतीन्द्रिय, सुपर नेचरल, पराभौतिक आदि दृष्टि से सोचने वाले लोग, जो मानते हैं कि शरीर के अन्दर आत्मा नाम की कोई अन्य सत्ता निवास करती है - उन्हें पहचान की न्यूरालाजी का विज्ञान और विचार अच्छा न लगेगा । वे इससे अपमानित महसूस करेंगे और कहेंगे कि यह रिडक्शनिज्म है - किसी महान गुण की तुच्छ भौतिक रूप से व्याख्या कर उसे घटा देना, रिड्यूस कर देना । एडलमेन को मैं अच्छे से जानता हूँ और उसने कहा है - मैं यहां क्या कर रहा हूँ, शेक्सपीयर सब कह चुका है ।
अपूर्व - सबूत पर आधारित चिकित्सा (इवीडेन्स बेस्ड मेडिसिन) की फैशन के इस जमाने में क्या आप को लगता है कि एनीकडोटल (अर्थात्‌ कथा-किस्से पर आधारित) अपना स्थान बचा पायेगा ?
ऑलिवर - उसे बचाना चाहिये । और मैं सोचता हूँ कि वह बचेगा । मैं नहीं जानता कि सबूत-आधारित चिकित्सा का अर्थ क्या है ? मरीज कथाएं भी एक सबूत हैं । इसका विकल्प क्या है ? क्या आस्था पर आधारित चिकित्सा या होमियोपेथी ? सबूत अनेक प्रकार के होते हैं । केवल एक मरीज भी जिसका लम्बे समय तक विस्तार से अध्ययन किया गया हो ।
केट-एडगर - मुझे लगता है कि अब आप लोगों को समेटना होगा ।
अपूर्व - क्या मुझे पांच दस मिनिट मिल सकते हैं ?
केट - नहीं, दस मिनिट नहीं । ओलिवर, आपको मेरे साथ बैठना है । पांडुलिपि के प्रुफ आ गये हैं ।
ऑलिवर - (आश्चर्य से) क्या कहा - प्रुफ आ गये हैं ! (उनकी आगामी पुस्तक संगीत अनुराग के) मुझे समाप्त करना होगा । केवल पांच मिनिट । और प्रश्न नहीं ।
नीरजा - मुझे पांच मिनिट दीजिये । मैं भारत से कुछ भेंटे लाई हूँ ।
अपूर्व - जेम्स ह्यूग्स द्वारा प्रतिपादित परामानवतावाद (ट्रान्सह्यूमेनिज्म) के बारे में आप क्या सोचते हैं ? जीन-थेरापी द्वारा उपचार से परे जाकर मानव-जाति के उत्थान के बारे में आपकी क्या राय है ?
ऑलिवर - क्या स्टेम सेल्स (स्तम्भ कोशिकाएं) ?
अपूर्व - नहीं जीन उपचार और अभिवृद्धि ।
ऑलिवर - जीन उपचार व परिवर्धन में तकनीकी रूप से अपार सम्भावनाएं हैं परन्तु नैतिक और पारिस्थिकी दृष्टि से मामला जटिल है । थोडी बहुत अभिवृद्धि तो पहले भी होती रही है । खिलाडी लोग स्टीराइड लेते हैं । इन विषयों पर मैंने ज्यादा सोचा नहीं हैं ।
अपूर्व - अन्तिम प्रश्न । ब्लेज पास्कल ने बीमारी के भले उपयोग की प्रार्थना की चर्चा करी है । क्या आप मानते हैं कि व्यक्ति या समाज के जीवन में बीमारी का कोई उद्देश्य हो सकता है ।
ओलिवर - हाँ वे कुछ भरती तो हैं, पराभौतिक या अतीन्द्रिय दृष्टि से नहीं । फिर भी सोचता हूँ कि किसी भी सभ्यता का कुछ हद तक आकलन इस बात से किया जाना चाहिये कि वह अपने बीमार व विकलांग व्यक्तियों के साथ कितनी करुणा और समझ के साथ पेश आती है । बीमारी का उद्देश्य ? नहीं, उद्देश्य शब्द का उपयोग मैं नहीं करूंगा । यदि कोई बीमार पडे या मैं स्वयं बीमार पडूं तो मुझे खेद होगा - हालांकि मैं यह भी महसूस करता हूँ कि उसका (बीमार पडने के अनुभव का) अधिकतम सम्भव उपयोग किया जाना चाहिये ।
अपूर्व - आपने एक बार लिखा था कि मैं इन मरीज कथाओं की जटिलताओं से आल्हादित हूँ..
ओलिवर - हाँ, मेरी पुस्तक माईग्रेन की भूमिका में मैंने यह लिखा था । इनका तात्पर्य वास्तविकता की सघनता और समृद्धि से था। मैं मानता हूँ कि वर्तमान में विमान अधिकांश मरीज कथाएं बडी झीनी हैं । पार्किन्सोनिज्म का एक मरीज कैसे धीरे-धीरे उठकर एक कमरा पार करता है यदि इसे सघन और समृद्ध रूप से लिखना हो तो ३० से ४० पृष्ठ लगेंगे । तभी एक उपन्यासकार और एक चिकित्सक एक दूसरे के पास आ पायेंगे ।
ओलिवर - (केट एडगर से) मैंने जो लिखा है, उसका प्रत्येक शब्द इसने पढा है । उसे सब याद है और वह विषय को सीधे ऊपर लाता है और मुझे कहना पडता है कि अब मैं वैसा नहीं सोचता और मुझे माफ किया जावे ।
साक्षात्कार के बाद डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा लिखित भारतीय दर्शन के दो खण्ड हमने भेंट किये । अन्दर लिखा डॉ. ऑलिवर सेक्स के ज्ञान और बुद्धि के प्रति आदर और प्रेम के साथ।ङ्ख अरविंद आश्रम पाण्डिचेरी द्वारा टाइम्स म्यूजिक के लिये निर्मित भारतीय शास्त्रीय संगीत (हिन्दुस्तानी व कर्नाटक) पर बीस ऑडियो सीडी का सेट भी दिया और लिखा डॉ ऑलिवर सेक्स के कवित्ममय ग की संगीतमयता के प्रति आदर सहितङ्ख। उन्होंने कहा मुझे खुशी है कि आप लोग संगीत लाये । मैं स्वीकार करता हूँ कि संगीत में मेरी रुचियाँ संकीर्ण और स्थानिक या आंचलिक रही हैं । मैं उन्हें बढाना चाहता था । तुम्हे कैसे मालूम कि मैं संगीत पर पुस्तक लिख रहा हूँ ?
डॉ आलिवर व केट एडगर कुछ देर पशोपेश में रहे कि बदले में क्या दें ? वे अपनी कोई किताब दे रहे थे पर मेरे पास सब थी । अचानक उनके मन में विचार कौंधा । आगामी पुस्तक संगीत अनुराग के प्रूफ अभी-अभी आये थे । उस पांडुलिपी के बिना बन्धे (ढीले) पृष्ठों का पुलिन्दा हमें दिया गया और उस पर सुन्दर सी एक टिप्पणी । इस मुलाकात में मिले अनेक प्रथम सौभाग्यों में से यह सबसे अहम और नायाब था। प्रकाशन से छः माह पहले उसकी पांडूलिपी पा जाना ।
बिदा होते समय हमने फिर उनके पैर छुए । एक क्षण पुनः उनके चेहरे पर विमूढता का भाव आया और चला गया । पर अब वे जानते थे । आशीर्वाद रूपी सौम्य मुस्कान ओठों पर तिर रही थी ।
कुछ कहने और बताने का उनका आवेग और ऊर्जा वैसे ही थे । बाहर निकलने के द्वार तक ले जाये जाते समय, डॉ आलिवर सॉक्स पुनः रुके, हमें एक अंधेरे कोने में ले गये और अल्ट्रावायलेट रोशनी की टार्च के माध्यम से विभिन्न अयस्कों के प्रकाशवानगुण बताने लगे - इरीडिसेन्स, फास्फोरेसेन्स, फ्लूओरोसेन्स । मुलाकात के आखिरी क्षण तक हमारे अनुभवों की झोली भरते रहे । ज्ञान के प्रकाश के नाना रूप दमकाते रहे । काश ये रोशनियाँ सदैव हमारे साथ रहे ।

डॉ. आलिवर सॉक्स - मुलाकात और साक्षात्कार : चाय पर गपशप

डॉ. आलिवर सॉक्स के बारे में मैंने सबसे पहले मई १९८७ में जाना था । फिलाडेल्फिया, पेन्सिल्वानिया में मेरे एक न्यूरोसर्जन मित्र के घर प्रसिद्ध पुस्तक वह आदमी जो गलती से पत्नी को टोप समझ बैठाङ्ख पढना शुरु की थी । उसमें डूब गया था । अपनी पसन्द की चीज मिल गई थी। उसके बाद से ऑलिवर सॉक्स के व्यक्तित्व और लेखन में रुचि लगातार बढती गई । शुरु में धीरे-धीरे और बाद में जल्दी-जल्दी मैंने उनकी सभी किताबें पढ डाली । मैं आभारी हूँ हैदराबाद से डॉ. रेड्डीज लेबोरेटरी द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका हाउसकाल्सङ्ख की संपादक सुश्री रत्ना राव शेखर का जिन्होंने सुझाव दिया कि क्यों न मैं डॉ. आलिवर से भेंट का समय लूं, साक्षात्कार करूं और उन पर आलेख लिखूं । समय मांगने हेतु पत्र में मैंने लिखा - मैं आपका अनन्य प्रशंसक हूँ । आपके लेखन से प्रेरित होकर उम्मीद करता हूँ कि मैं भी हिन्दी में अपने मरीजों के बारे में लिखूं । एक गुरु के रूप में आपकी छवि और विचारवान अर्न्तदृष्टि का भारतीय सांस्कृतिक मानकों और दार्शनिक परम्पराओं का साथ मुझे मधुर सामंजस्य प्रतीत होता है ।ङ्ख
मिलने का समय तय हुआ २७ अप्रैल २००७, न्यूयार्क दोपहर २ः३० बजे । मैं और पत्नी नीरजा उनके द्वार पर पांच मिनिट पहले पहुंच गये थे । गलियारे में एक सज्जन बाहर आये और पूछा कि क्या आप डॉ. ओलिवर सॉक्स का कमरा ढूंढ रहे हैं । हमारे हाँ, कहने पर उन्होंने एक ओर इशारा करा और बोले - जाओ, अन्दर जाओ, खूब आनन्द आयेगा । नीरजा ने पूछा - आपको कैसे मालूम कि हम किसे ढूंढ रहे हैं । जवाब मिला - अभी मैं उनके साथ था और उन्होंने अगले मुलाकाती से भेंट के बारे में बताया था । जाओ, मजे लो ।
और निःसन्देह आगामी दो घण्टे हमें भरपूर आनन्द से सराबोर कर देने वाले थे । एक शुद्ध आल्हाद जो महान मेघा के सान्निध्य मं प्राप्त होता है । ऐसे विनम्र विद्वान जो दूसरों को उनकी तुच्छता का अहसास नहीं कराते । ऐसी प्रतिभा जिससे ज्ञान, समझ व बुद्धि झरते हैं । डॉ. ऑलिवर में सतत्‌ बोलने, कहने, बताने, साझा करने टिप्पणी करने, दर्शाने और समझाने की चाहत है । वाणी का ऊर्जावान आवेग है । कोमल, मुलायम, धीमी, मधुर वाणी । अपने श्रवण यंत्र के साथ वे अच्छे श्रोता भी हैं । आप उन्हें रोक सकते हैं । वे आपके लम्बे, घुमावदार प्रश्न या कथन को ध्यान से सुनेंगे और आप क्या कहना चाहते हैं इसे शीघ्र बूझ कर, आपको बीच में रोक देंगे तथा दोनों पक्षों का समय बचा लेंगे ।
उनके दफ्तर और आवासीय कक्ष दोनों, ढेर सारी दुर्लभ, सुन्दर, महत्वपूर्ण, ऐतिहासिक और अर्थवान वस्तुओं द्वारा घनीभूत और समृद्ध तरीके से भरे हुए हैं । ऐसी तमाम चीजों को दिखाने और समझाने के लिये एक अच्छे गाईड की जरूरत होती है । डॉ ओलिवर सॉक्स इस हेतु स्वतत्पर हैं । उन्हें आनन्द आता है । स्वयं चुनते हैं या हमारे इशारा करने या पूछने पर बताते हैं । ढेर सारी किताबें, कागजात, दस्तावेज और पत्र-व्यवहार से टेबल, अलमारी आदि पटे पडे हैं । कमरा ठसाठस है पर बेतरतीब नहीं । चीजें व्यवस्थित हैं । उनके पुरस्कारों और सम्मानों की पट्टिकाएं हैं । दीवार पर लगे प्रदर्शन-तख्तों पर बहुत से फोटोग्राफ चिपके हैं दृश्य इन्द्रियों के लिये देख पाने का सैलाब हैं ।
सुश्री केट एडगर लम्बे समय से डॉ. ओलिवर की सहयोगी, मित्र व उनकी पुस्तकों की संपादिका रही हैं । वे आपका स्वागत करती हैं । डॉ. सॉक्स के लिये समस्त पत्र व्यवहार, ई-मेल व एपाईन्टमेंट आदि वे ही सम्हालती हैं । मुलाकात के पहले जब मैं अपने विभिन्न केमरा और डायरी आदि के साथ घबराया हुआ जूझ रहा था तो उन्हीं ने मुझे शान्तिपूर्वक धैर्य धारण करवाया । शीघ्र ही डॉ. ओलिवर का ऊंचा पूरा, सुदर्शन, सुन्दर व्यक्तित्व हमारे सामने उपस्थित होता है । आरम्भिक अभिवादन और हाथ मिलाने के बाद हम दोनों उनके पैर छूते हैं और बताते हैं कि भारत में बडों और सम्माननीय व्यक्तियों से मिलते और जुदा होते समय इसी प्रकार आदर व्यक्त किया जाता है । वे शायद पूरा समझे नहीं । खुद झुक कर हमारे शिष्ट आचरण की नकल करने की कोशिश करते हैं । बीच में रुक जाते हैं । मुझे कमर दर्द है मैं झुक नहीं सकताङ्ख । हम शर्मसार हो जाते हैं । नहीं नहीं... आपको ऐसा कुछ नहीं करना है । आप बस हमारे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद देवें ।ङ्ख और अपने हाथों से हम उनसे यह करवा लेते हैं ।
उन्होंने हल्के नीले रंग की कमीज पहनी है, गहरे नीले रंग की टाई व जैकेट है । उनकी प्रसिद्ध ढाढी व निश्छल मुस्कान सदैव विमान है । पास से देखने पर ललाट पर हल्के रंग का लांछन है ।
अध्ययन कक्ष की ओर जाते समय, एक टेबल पर डॉ. ओलिवर हमें तरह-तरह की धातुओं के अयस्क बताना शुरु करते हैं । मुझे मालूम था कि बचपन से डॉ.ओलिवर को रसायन शास्त्र, धातुएं और पीरियाडिक टेबल द्वारा उनके वर्गीकरण में गहरी रूचि थी । मुलाकात का अन्त होते होते हम अनेक कमीजों, टोपी, पोस्टर, चादर, तकिया, लिहाफ, काफी-मग आदि पर रासायनिक तत्वों के चिन्हों या फार्मूलों का कलात्मक, कल्पनामय और बौद्धिक चित्रण देख चुके थे । धातुओं और तत्वों के रसायन विज्ञान में ओलिवर का मन जब बचपन से डूबा तो अभी भी वैसा ही निमग्र है । एक खास प्रकार का जुनून है । लेकिन डॉ. ओलिवर अपने असली रूप में स्थितप्रज्ञ, मध्यमार्गी और उदार हैं ।
उनकी लिखने की मेज पर दो प्रकार के लेम्प हैं । एक पुराना पारम्परिक जिसमें टंगस्टन का तार विुत द्वारा गरम होने से दमकता है । और दूसरा आधुनिक, प्रयोगधर्मी, दैदीप्यमान गैस से भरा हुआ, जिन्हें हम ट्यूब लाइट, वेपर लेम्प या सी.एफ.एल. के रूप में जानते हैं । दूसरे लेम्प में इलेक्ट्रानिक रूप से उसके प्रकाश की तीव्रता, रंग और आभा को नियंत्रित करने की व्यवस्था है । हमारे मेजबान को पुराने प्रकार का बल्ब अधिक सुन्दर लगता है । मैं कहता हूँ कि ऊर्जा के उपभोग में कमी लाने के लिये नये प्रकार के प्रकाश स्रोत जरूरी हैं । वे भी मानते हैं और उल्लेख करते हैं कि आस्ट्रेलिया में गरम तन्तु वाले पुराने लेम्प बन्द किये जा रहे हैं । जब मैं कहता हूँ कि मुझे भी फिलामेंट बल्ब में ज्यादा सौन्दर्य अनुभूति मिलती है तो वे खुश हो जाते हैं । उनके अध्ययन कक्ष के बाहर लगे एक पुराने बल्ब के बारे में फख्र से बताते हैं कि वह उनके मामा की फेक्टरी के जमाने का है ।
मेज के ऊपर एक बोर्ड पर लगे चित्रों की ओर इशारा करके कहते हैं - ये मेरे नायक हैं । मैं शर्मिंदा हूँ कि मैं उनमें से किसी को भी पहचान नहीं पाता । चेहरों के बारे में मेरी स्मृति (ओलिवर की भी, जैसा कि उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है) कमजोर है । अधिकांश चित्र १८वीं और १९वीं शताब्दी के रसायन और भौतिकी के वैज्ञानिकों के हैं । नाम मेरे सुने हुए थे । बीसवीं सदी में से , डी.एन.ए. की रचना के खोजकार नोबल विजेता डॉ. फ्रांसिस क्रिक का चेहरा मैं जानता हूँ । एक भरे बदन की स्वस्थ खुशनुमा स्त्री का चित्र है जो खोजी है और तैराक है, एन्टार्कटिका के ठण्डे समुद्र में भी बिना गर्म सुरक्षा के चली जाती है ।
टेबल की दराज से डॉ. ऑलिवर दो चमकीले चिकने, रुपहले, धातुओं के गोले निकालते हैं और हमें अपने हाथ में उठाने को देते हैं । देखो - कितने सुन्दर एलिमेन्ट्‌स हैं - यह टंग्स्टन है - कितना भारी है । दूसरा थोडा हल्का है - टेन्टालम । वर्गीकरण में टेन्टालम का क्रम ७२ और टंग्स्टन का ७४ है। और मैं बीच में हुआ ७३ ।
डॉ. ओलिवर का जन्म १९३३ में हुआ था । वर्ष २००७ में साक्षात्कार के समय वे ७३ वर्ष के थे । हल्के मुदित हास्य की बालसुलभ लेकिन वैज्ञानिक अदा पर हम निहाल हो गये ।
मैं अपना छोटा सा वीडियो कैमरा शुरु करता हूँ और एक लघु तिपाये स्टेण्ड पर उसे कस कर बीच की टेबल पर रखता हूँ ।
तुम्हारा कैमरा और तिपाया कितने सुन्दर हैं । किसी दूसरे ग्रह से आये प्राणी की तरह हमें आंख गडा कर घूरते प्रतीत हो रहे हैं । है न जिज्ञासा की और सोचने की बात कि जीवन के बायोलाजिकल विकास में चौपाये और दो पाये बने पर तीन या पांच पांव वाले प्राणी नहीं । हालांकि लेखन साहित्य के कल्पनालोक में इक्का दुक्का उदाहरण हैं । साइन्स फिक्शन (विज्ञान-गल्प) के उपन्यास द डे आफ टेरेफिकङ्ख (भयानक का दिन) में एक डरावना पौधा है जिसमें जानवरों के गुण हैं और तीन पांव हैं । महान लेखक एच.जी. वेल्स के उपन्यास दुनियाओं का युद्धङ्ख में तीन पांव वाली मार्शल-मशीन है ।"
मैं साक्षात्कार व मुलाकात का अवसर प्रदान करने के लिये आभार व्यक्त करता हूँ । डॉ. सॉक्स मेरे पत्र, हाउसकाल्स पत्रिका, उसके कलेवर तथा उसमें प्रकाशित मेरी मातृ संस्था महात्मागांधी मेडिकल कॉलेज इन्दौर के बारे में मेरे लेख की सराहना करते हैं । इसी बीच पास के फ्लेट से ठक-ठक की आवाज बार-बार परेशान करने लगती है । कोई मिस्त्री काम कर रहा था । डॉ. सेक्स निर्णय लेते हैं कि हम उनके आवास कक्ष चले चलें । ईमारत से बाहर निकल कर पचास कदमों की दूरी थी । लगी हुई बिल्डिंग थी । न्यूयार्क शहर की पूर्वी नदी के किनारे वसन्त की उस दोपहर सूरज की धूप चटख परन्तु सौम्य थी । हवा ठण्डी और ताजी थी । नौकाएं और छोटे जहाज लंगर डाले पडे थे । ये क्षण मानों मेरे लिये जिन्दगी में किसी मुकाम पर पहुंच पाने के क्षण थे । नीरजा ने हम दोनों का पीछे से एक चित्र लिया ।
डॉ. ऑलिवर का सजग, अवलोकनशील, विश्लेषणात्मक और मुखर मन आपको बारम्बार आश्चर्य चकित और मनोरंजित करता है । आवासीय इमारत में लिफ्ट में ऊपर जाते समय नीरजा ने डॉ. ओलिवर का एक फोटोग्राफ लिया तो वे टिप्पणी करने से न चूके । किसी लिफ्ट में फोटो लिये जाने का यह मेरे लिये प्रथम अवसर है ।ङ्ख भाग्यशाली हम थे कि हमें अनेक प्रथम अनुभवों का मौका मिला । जैसे कि स्वयं डॉ. ओलिवर के अनुसार उनके शयन कक्ष में आगंतुकों को ले जाया जाना । केवल इसलिये कि मुलाकात की शुरुआत में मैंने रासायनिक तत्वों के वर्गीकरण हेतु मेन्डलीफ की पीरियाडिक तालिका के बारे में पूछ लिया थाऔर वे हमें अपने बेडरूम में चादर, तकिया और लिहाफ पर उक्त तालिका की सुन्दर कढाई दिखाना चाहते थे । प्रथम अवसर का एक और उदाहरण था - डॉ. ओलिवर के किचन में गपशप जब कि वे हमारे लिये खास ब्रिटिश चाय बना रहे थे । चौके में उनका एक मात्र और सर्वाधिक हुनर, जो भी था, हमारी सेवा में हाजिर था । चाय-पत्ती, पानी, दूध, चीनी सभी चीजों को सावधानीपूर्वक मापा गया । हम गद्‌गद्‌ थे कि दूध अलग से गर्म किया गया । वरना उत्तरी अमेरिका व यूरोप में चाय-काफी में या तो दूध डालते नहीं या फिर फ्रिज का ठण्डा दूध रख देते हैं । गरमागरम पेय का मजा जाता रहता है । चाय बनाने के बाद उसे भिन्न आकार के तीन मग में समान रूप से वितरित किया गया । पूरे समय डाक्टर साहब की कमेन्टरी और नीरजा का कैमरा चलते रहे । मैं तो सातवे आसमान पर था । प्यालियों के बाहर अलग-अलग डिजाइनें थीं । एक पर फर्न्‌स,दूसरे पर शक्कर का फार्मूला (C6H12O6)तीसरे पर भेडिया (डॉक्टर साहब का पूरा नाम ओलिवर वोल्फ सॉक्स है) । बशियों या प्लेटों पर भी इसी प्रकार की कलाकारियां थीं । एक दौर में ओलिवर सामुद्रिक जीव वैज्ञानिक (मरीन बायोलाजिस्ट) बनना चाहते थे । कटलफिशङ्ख नामक प्राणी उन्हें प्रिय है । उसकी एम्ब्रायडरी से युक्त एक केप पहन कर उन्होंने हंसते हुए फोटोग्राफ का पोज दिया । डॉ. ओलिवर के अन्दर एक शो-मेन छिपा हुआ है - जिसका दिखावा आपको चुभता या चिढाता नहीं, बल्कि आपके हृदय को हल्का और खुशनुमा बनाता है । कैमरे के सम्मुख उनका चेहरा और भी अधिक भावप्रवण हो उठता है तथा मुस्कान अधिक संक्रामक ।
हर वस्तु के बारे में कुछ न कुछ कहना अनवरत जारी था। यह मग इस्टोनिया से है । इस बोन चाइना जार में मैं नमक रखता हूँ अतः इस पर फार्मूला छरउश्र छपा है । यह फॉसिल डॉ. जेम्स पार्किन्सन ने ढूंढा था । हाँ, वही डाक्टर जिसके द्वारा वर्णित बीमारी बाद में पार्किन्सन रोग के रूप में जानी गई । वह एक महान बायोलाजिस्ट भी था ।ङ्ख

बुधवार, 11 अगस्त 2010

रेफ्टिंग

हवा से भरी हुई प्लास्टिक की नाव में रेफ्टिंग करते हैं। रेफ्ट का हिन्दी शब्द अभी याद नहीं है। प्राचीन काल से लकडियों का रेफ्ट बनता आया था। प्लास्टिक तो नया आविष्कार है। लकडी के लट्ठों को मजबूत रस्सियों से बांधकर एक चपटा चबूतरा सा बन जाता है जो पानी की लहरों के भरोसे बहता रहता है। नाविकों का नियंत्रण चप्पू के सहारे होता है। सामुद्रिक जातियों ने सैंकडों हजारों किलोमीटर की यात्राएं इन्हीं रेफ्ट के सहारे सम्पन्न की थी । साहस और जोखिम से भरी हुई यात्राएं।

लेकिन हम सुरक्षित थे। बम्बई गोआ राजमार्ग पर कोलाड कस्बे के पास कुन्डलिका नदी के किनारे सुबह नौ बजे पहुंचे थे। पिछले तीन दिनों से लगातार बारिश हो रही थी। नदी पूर पर थी। पश्चिमी घाट से निकलने वाली नदियाँ अरब सागर की अपनी लघु यात्रा सौ सवा सौ किलोमीटर में पूरी कर लेती हैं। छोटा जीवन, पर भरपूर सौन्दर्य। पहाडी नदियाँ वैसे भी अधिक मनोहारी होती हैं। बडी-बडी चट्टानों पर पछाड खाता हुआ पानी ऊंची लहरें और गहरे भंवर बनाता है। इंसान के विकास की तमाम लालच भरी गुस्ताखियों, दुष्कर्मों, बेहरमियों के बावजूद मानसून के महीनों में घाट में जंगलों का आभास जीवित रहता है।

मर्क्यूरी हिमालयन एक्पीडीशान कम्पनी के बाशिंदे जीप गाडियों की छत पर हवा से फूली हुई प्लास्टिक की नावें लाद कर पहुंच रहे थे। चार व्यक्तियों के कन्धों पर नावों को ढोकर नदी के किनारे लाया गया। पानी बरसता रहा। एक बोट में आठ पर्यटक और एक गाईड बैठता है। हम चालीस पर्यटक थे। उत्तराखण्ड वासी प्रमोद मुख्य गाईड था। उसने सबकी क्लास ली। "सुनो सुनो ध्यान से सुनो। टीम के लिये जरूरी है कि गाईड के आर्डर्स का पालन करे । बीच में बातचीत नहीं। बोट के किनारे पर मार्जिन पर बैठना है। एक पांव आगे व एक पांव पीछे बाटम प्लास्टिक के नीचे फंसा कर फिक्स करना है वरना बाहर फिंका जाओगे।" हमारे दिल की धडकन बढ रही थी। नदी की दूर से दिखाई देती उद्दाम लहरें डर को बढा रही थी।

प्रमोद कह रहा था - "पहला आर्डर सीखो - 'पैडल फारवर्ड' आगे की दिशा में चप्पू चलाओ। एक हाथ से चप्पू का टी नुमा सिरा यों पकडो। दूसरे हाथ से ब्लेड के चार इंच ऊपर हेंडल को टाईट पकडो। चप्पू को पानी में नाइंटी डिग्री के एंगल से , खडा डालो। बदन आगे की ओर झुकाओ । पूरी ताकत और स्पीड से बदन के साथ हाथों को पीछे की ओर खींचो। सारे टीम मेम्बर एक साथ करेंगे। अपनी ढपली अपना राग नहीं होगा। कढाई में कडधुल जैसा नहीं चलता। चप्पा चप्पा चरखा नहीं चलेगा। दूसरा कमाण्ड सिखाया गया 'पैडल बेकवर्ड', तीसरा 'स्टाप' जिसमें चप्पू को जांघों पर आडा रख कर बैठना था। दायें या बायें मोडने के आदेश अलग थे। छठा आर्डर था मूव इन । सभी सदस्यों को बोट के अन्दर को झुकना था तथा किनारे पर बंधी रस्सी अर्थात लाईफ लाईन को पकडना था। प्रमोद ने बताया 'चीखना मना है। आंखें आगे की ओर तथा कान गाईड की आवाज की तरफ हों और अब सुनो रेस्क्यू यानि बचाव के बारे में। यदि कोई मेम्बर पानी में गिर जाता है तो कोई घबराएगा नहीं। मेम्बर खुद तैर कर बोट के पास आने की कोशिश करे और लाईफ लाईन पकड लें। दूसरे सदस्य या गाईड मेम्बर की लाईफजेकेट के कन्धों वाली पट्टियाँ पकड कर उसे ऊपर खींचेंगे। यदि बोट दूर है तो चप्पू का टी वाला सिरा मेम्बर की तरफ बढाऐं और उसे पकडने को कहें। दूरी और भी अधिक होने पर रस्सी भरी यह थैली फैंकी जावेगी। सब लोग अपना लाईफ जैकेट चेक कर लें। सारे हुक कस कर बंधे होना चाहिये । किसी का वजन १५० किलो से ज्यादा तो नहीं है ? इस जैकेट की केपेसिटी १५० किलो है। सिर पर हेलमेट भी टाईट फिट होना चाहिये।"

सब की घबराहट चरम पर थी। प्रमोद ने किनारे के शान्त पानी में सारे अभ्यास की दो दो बार ड्रिल करवाई और कहा कि "अपने आपरेशन की सफलता की ९०% जिम्मेदारी टीम के हाथ में और १०% जिम्मदारी गाईड के हाथों में होती है। रास्ते में अनेक रेपिड्‌स मिलेंगे।" रेपिड्‌स का मतलब होता है चट्टानी ढलानों पर गुजरते समय धारा की गति का तेज होना तथा लहरों का ऊंचा होना या भंवर बनना। ग्रेड वन रेपिड सबसे आसान और ग्रेड फाईव सबसे कठिन होते हैं। आज की यात्रा में ग्रेड २ व गे्रड ३ रेपिड्‌स मिलने वाले थे।

हम पांच के साथ पूना का एक कपल था और अच्छी किस्मत से हमें गाईड खुद प्रमोद मिला। बीच धारा में आते ही बोट तीव्र गति से बह निकली। हम आनंदित हो उठे । मजा आ रहा था। लहरों पर बोट उछलती और फिर टपक पडती। डर कम हो गया था। डर मन की अवस्था है। जो होगा उसकी कल्पना अधिक भयावह होती है। जो होता है, जिसे भोगा जाता है, जिसमें जिया जाता है, उसमें हम इतने व्यस्त हो जाते हैं, रम जाते हैं कि डरने के लिये समय ही नहीं रहता।

बीच-बीच में आदेश दुहराए जा रहे थे। टीम पैडल फारवर्ड। स्टाप। फिर पैडल फारवर्ड। एक के पीछे एक पांच नावें। भूरा आकाश, हरे किनारे, लाल मटमैला पानी और उसमें छितरी हुई चटख रंग बिरंगी नावों पर सवार हेलमेट धारी रंगीन हम नाविक। हसीन और प्यारा दृश्य बन रहा था। रोमांच, भय,धुकधुकी, आल्हाद और संतोष की मिलीजुली अनुभूति हो रही थी।

प्रमोद ने कहा - "आगे बडा रेपिड है। सब तैयार रहें। हमें तेजी से नाव को दायीं दिशा में धारा के पार काटना है। पूरी ताकत, पूरी स्पीड व पूरे ताल के साथ, फास्ट पैडल फारवर्ड।" विशालकाय लहर केसामने आदेश मिला मूव इन, हम अन्दर की दिशा में दुबके, मोटी लहर के तेज थपेडे में एक क्षण के लिये डूबे और फिर बाहर । सफलता की खुशी में चेहरे खिल उठे। विश्वास का आनंद था कि हम यह कर सकते हैं, हमने यह कर लिया।

कभी कभी नाव एक ही स्थान पर चरघिन्नी खाने लगती, उल्टी दिशा में मुंह कर लेती। हमें बेकवर्ड पैडल का आदेश मिलता। बीच-बीच में बडे वृक्ष या चट्टानें मार्ग में आते। गाईड प्रमोद ने ९०% काम किया होगा। अकेला अपने एक चप्पू से वह बोट की दिशा, दायें या बायें नियंत्रित करता रहा। टीम मेम्बर एक दूसरे को टोकने से बाज न आते। "सुना नहीं स्टाप कमाण्ड, रुक जा ।" "आप सिंक्रोनाईज नहीं कर रहे हैं, सब के साथ एक लय में पैडल करो।" "पानी मत उछालो। चप्पू को वर्टीकल अन्दर डालो।" "बोट से दूर रखो, उससे सटा कर मत रगडो।" दो बार नाव को किनारे के पास शान्त पानी में रोका गया। खींच कर जमीन पर अटकाया। पांचों गाइड पैदल आगे जाकर देख कर आये कि रेपिड्‌स कैसा है, पानी का लेवल कितना है, किस साईड से, किस दिशा से, किस कोण से धारा को काटना होगा।

नदी के किनारे पर छोटी पहाडियाँ व घने जंगल थे। बडी झाडियाँ और छोटे वृक्ष पानी में आधे डूबे हुए थे। कुछ सुन्दर रंगबिरंगे जंगली फूलों को पाने की ख्वाहिश अन्विता ने जाहिर की तो प्रमोद ने पेडल बेकवर्ड के आदेश के साथ वह भी पूरी करवा दी।

कमर टेढी कर के ताकत के साथ चप्पू चलाते रहने पर मांसपेशियों में हल्का दर्द था। थकान न थी। अन्य बोट्‌स कभी-कभी पास आ जाती, या हौले से टकरा जाती, लोग एक दूसरे पर पानी उछालते या रेस में आगे हो जाने पर शोर मचाते। यात्रा के अंतिम कुछ किलोमीटर में रेपिड्‌स नहीं थे। मंदर गंभीर गति से बहती नदी थी। जगह-जगह छोटी बडी धाराएं और झरने नदी में मिल रहे थे। एक एक करके अधिकांश सदस्य नदी में टपक पडे। लाईफ जैकेट पहना था। डूबने का डर न था। आराम से बहते रहे। थोडा सा जतन करना पडता है, चित्ते या औंधे, पानी पर लेटे रहने के लिये या लम्बवत खडे खडे बहने के लिये।

हौले हौले बहते समय मन में विचार गम्भीर आते हैं। दार्शनिक मूड बनने लगता है। यह जो शरीर है यह मैं हूँ ? या मैं कोई और हूँ ? मैं क्यों हूँ ? मेरा क्या उद्‌देश्य है ? यह दुनिया कितनी सुन्दर है । यह समय कितना प्यारा है? क्या यह कुछ देर के लिये ठहर नहीं सकता ? मुझमें और प्रकृति में क्या अन्तर है ? मैं उसी का हिस्सा हूँ ?

मेरी ध्यान साधना टूटती है - नीरू चिल्ला कर कह रही है - बहुत हो गया, ऊपर आ जाओ। पानी गन्दा है। तुलनात्मक रूप से धीमी धारा में पत्तियों और डण्ठलों की एक परत सतह पर बिछी हुई थी। इसमें गन्दा क्या है, मैंने सोचा। फिर भी लाइफ लाइन पकड कर बोट के सहारे बहने लगा। प्रमोद ने ऊपर खींच कर बोट के अंदर पटक दिया। ऋतु और अनी कहना नहीं सुन रहे थे।

पानी पर भूरे-मटमैले लाल रंग के अनेक शेड्‌स थे। पानी की गहराई और धारा की गति से बनते बिगडते थे। इतना इलाका गहरा, गाढा है, वह दूर का हिस्सा हल्का उजला है। शेड्‌स को सीमांकित करती रेखाएं अपनी दिशा और डिजाइन बदलती रहती हैं। मांडने की मूल आकृति में बाद में टिपकियाँ भरी जाती हैं। बारिश की बडी और छोटी बूंदों द्वारा यह कार्य सतत जारी था।

उतरने का स्थान आने के पूर्व हम एक बार फिर पानी में कूद पडे। नदी के आगोश में रहने के कुछ मिनिट और के आनंद को भोगना चाहते थे। पानी में खेलने वाले बधे को बाहर निकलने का मन नहीं होता । हमारे अंदर का बधा जब-जब पुनर्जीवित होता है तब तब हर्षातिरेक के क्षण होते हैं।

सभी टीम मेम्बर्स ने अपने कंधों पर बोट को उठाया, ढलवां पहाडी किनारे के गीले चिकने, फिसलन भरे रास्ते से कुछ सौ मीटर की दूरी पर पार्किंग स्थल पर ला पटका। धुआँधार बारिश में टपकती झोपडियों में गरमागरम वडा-पाव, भुट्टा और चाय को लपालप निगल गये।

मानसून में पश्चिमी घाट

पश्चिमी घाट को दुनिया के जैव विविधता के गिने चुने हॉट स्पाट्‌स में से एक माना जाता है। (सन्दर्भ नेशनल जियोग्राफिक) मानसून में बारिश खूब होती है। महाबलेश्वर, दुर्शित, कोलाड, माथेरान, खण्डाला, लोनावला, कशेले आदि कुछ स्थानों पर मानसून में पश्चिमी घाट को थोडा बहुत घूमा और निहारा है। एक अनूठा सौंदर्य संसार है।
नेचर ट्रेल्स कम्पनी के साथ हमारी बुकिंग थी। दुर्शित फारेस्ट लॉज (जिल्हा रायगढ, महाराष्ट्र) में हम ठहरे थे। मुम्बई के नानावटी स्कूल के लगभग पचास लडके-लडकियाँ आये थे। उनकी उपस्थिति से हमारा प्रवास जीवन्त और रोचक हो गया।
हम शहरी लोग कितने कम अवसरों पर प्रकृति के पास आ पाते हैं। भीगने से बचने के उपक्रम को भूलकर ऐसा कब होता है कि बारिश जैसे पूरी धरती, वनस्पति व जन्तुओं को प्लावित कर रही है वैसे ही हमारे शरीर को भी करती रहे, अनवरत्‌ - घन्टे दर घन्टे। कपडों का गीलापन, चमडी का गीलापन, बालों का गीलापन, हवा का गीलापन, सब एकाकार हो जाये, कोई भेद न रहे। ऐसा कब होता है कि कीचड, कीचड न लगे, महज गीली नरम सोंधी, मुलायम मिट्टी लगे, जिसमें सनना, लिपटना एक नितान्त सहज प्राकृतिक क्रिया हो। काश हम फुरसत के और ऐसे क्षण निकाल पायें। काश हमारे पास सौंदर्य को देखने की आंख और मन हो क्योंकि असली सौंदर्य की अनुभूति वहीं होती है।
बारिश .. बारिश... बारिश ... । लगातार । रिमझिम । तरबतर । सब कुछ गीला-गीला, ठण्डा-ठण्डा, पानी ही पानी। सब कुछ हरा भरा। चप्पा-चप्पा हरियाले से लबालब - घांस, पौधे, झाडियाँ, लताएं, वृक्ष, खेत। पानी की अनगिनत धाराएं। जगह-जगह फूट पडते सोने, झरने। सारे पहाड बिन्दु-बिन्दु से टपक रहे, झर रहे।
और इस बारिश का संगीत। फुरसत हो तो सुनो। टपटप टपटप। झरझर-झरझर। चपाक छपाक। गरजत-फरफर। अम्बा नदी के लाल पानी में चित्ते लेट कर बहते पानी का संगीत सुना। नदी गा रही थी। जलतरंग बज रहा था। नदी उफन रही थी। अपने किनारे की सीमाओं को उलांघने को उतावली। भरी-भरी, मांसल, पुष्ट, गदराई, मस्ताती हुई। लघु अवधि का यौवन। प्रियतम मेघ चले जायेंगे। फिर शान्त, क्षीण, गम्भीर, विनम्र हो जायेगी।
पत्तों के हरे रंग के अनगिनत शेड । चितकबरी ज्यामितीय डिजाईनें। लताओं के लहरदार सर्पीले पतले तने। महीन सुई जैसी लम्बी नुकीली पत्तियों के पोरों पर हीरे की छोटी कनियों के माफिक, पानी की बूंदें जगमगा रही थी। काले खुरदरे काई लगे सख्त तने पर चटक गुलाबी रंग के कांटे करीने से सजे हुए थे। मांड के वृक्ष का पुष्पगुच्छ किसी ऋषि की जटाओं जैसा या राजा के सिर पर डुलाए जाने वाले चंवर के समान लटक रहा था या अफ्रीकी स्त्री के केश विन्यास जैसा।
झरने जितनी बार देखो, जितनी संख्या में देखो, जितनी बार नहाओ, हमेशा अच्छे लगते हैं, नये लगते हैं। मन नहीं भरता। छोटे झरने, बडे झरने। पतली धारा, मोटी धारा। खूब ऊंचाई से गिरती धार या चट्टानों पर टूट-टूट कर बनते हुए झरनों के लघु खण्ड। पानी गिरने के स्थान पर छोटे कुण्ड। पानी प्रायः ठण्डा, ताजा, शुद्ध मीठा और मन को तरावट देने वाला। घाट के हरेक ओर पहाडों पर ढेर सारे झरने। मानों चमकीली चांदी की जरी वाली अनेक चुनरियाँ पहाड पर करीने से ओढा दी गई हों। या सफेद रिबन बिछा दी गई हों या किसी वृद्ध ऋषि के श्यामल शरीर पर श्वेत जटाएं बिखरी हों।
बादलों में चल कर देखा है ? भाप का नरम, मुलायम, धुआँ कभी गहराता है, कभी छितर जाता है। अभी मार्ग दिख रहा है, अभी नहीं । काला घुप्प अंधेरा तो सुना है, देखा है । सफेद धुंध, अंधियारा भी होता है। सब कुछ अदृश्य हो जाता है। रूपविहीन भाप चहुं ओर से ढंक लेती है। गहराते समय या छितरते समय उसमें बहाव दिखता है। कम और अधिक घनत्व की वाष्पीय लहरें एक दूसरे में डूबती उतरती हैं, गड्डमड्ड होती हैं। उनकी गति पलपल पर परिवर्तित होती हैं । हरी घांसके मैदान में खडे हुए वृक्षों के तनों के बीच में बादलों की कोमल सफेद धुंध भरी हुई है। जो ठोस है उसकी कुछ पहचान है, जो वायवीय है, छोटा है, दूर है वह अदृश्य है।

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

डॉ. आलिवर सॉक्स

डॉ. आलिवर सॉक्स चिकित्सक लेखकों की बिरली जमात के बिरले उदाहरण है । आपका जन्म १९३३ में लन्दन में एक समृद्ध यहूदी परिवार में हुआ था । पिता जनरल प्रेक्टीशनर थे और माता प्रसूति व स्त्री रोग विशेषज्ञ । ज्ञान, साहित्य, संगीत, प्राकृतिक अवलोकन और वैज्ञानिक प्रयोगों के लिये अदम्य भूख और तीक्ष्ण मेधा के चिन्ह बचपन और किशोरावस्था में नजर आने लगे थे । बडे संयुक्त परिवारों के उस जमाने में ओलिवर को विविध रूचियों और योग्यताओं वाले अंकल और आंटी (मामा, मौसी, बुआ आदि) द्वारा देखभाल और मार्गदर्शन का सौभाग्य मिला । उनमें से एक टंगस्टन मामा का बालक आलिवर के कधे संवेदी मन पर गहरा प्रभाव पडा था ।
१९ वीं शताब्दी की प्रयोगात्मक भौतिकी, रसायन और जीव-विज्ञान की अद्‌भुत दुनिया से आलिवर का परिचय हो चुका था । इस अच्छी परवरिश ने द्वितीय विश्वयुद्ध की त्रासदियों के मानसिक सदमें और अनेक सालों के लिये लन्दन के घर से दूर एक नीरस, कठोर बोर्डिंग स्कूल की यातनाओं को सहन करने और अपने आप को टूटने से बचाने में बहुत मदद करी । युवावस्था के वर्षों तक दिशाएं अनिश्चित रहीं । अन्ततः चिकित्सक बनना, न्यूरालाजी में आना और अमेरिका पहुंच जाना और लेखक बनना - शायद नियति ने यही तय कर रखा था ।
आगे का न्यूरालाजी प्रशिक्षण लास एंजलिस में हुआ । अधिकांश जीवन न्यूयार्क में बीता । अल्बर्ट आइन्सटाईन कालेज में प्रोफेसर ऑफ मेडिसिन रहे । युवावस्था में मोटर साईकल चलाना और बचपन से अभी तक तैरना आपकी अभिरुचियां रहीं । आज भी लेखन जारी है । छोटी बडी किताबों के अलावा ढेर सारे लघु लेख, सभाओं में भाषण, रेडियो, टी.वी. पर साक्षात्कार और वक्तव्य आदि चलते रहते हैं । चिकित्सा शोध में भी अच्छा योगदान रहा है । मेडिकल जर्नल्स में अनेक शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं । आजकल मरीज बहुत कम और बहुत चुनकर देखते हैं ।
पारम्परिक रुप से प्रशिक्षण प्राप्त न्यूरालाजिस्ट, मस्तिष्क व नाडियों के काम व उसमें आई खराबियों के बारे में एक बन्धे बन्धाए तरीके से सोचते हैं । लकवे का कोई मरीज सामने आने पर उनका दिमाग चलने लगता है : मस्तिष्क के किस भाग में खराबी आई है ? किस किस्म की व्याधि है ? निदान पुख्ता करने के लिये क्या जाचें करवाना है ? कौन सा उपचार सम्भव है ? भविष्य में सुधार की क्या सम्भावनाएं हैं ? पुनर्वास हेतु क्या करना होगा ? डॉ. ओलिवर का सोच इससे कहीं आगे तक जाता है । उनके लिये स्वस्थ और रोग ग्रस्त दोनों प्रकार के मस्तिष्क के कार्यकलापों का क्षितिज अनन्त तक विस्तारित है । न्यूरालाजी की रूटीन दुनिया में वैसा नहीं सोचा जाता । ओलिवर के लिये बीमारी के बाद की स्थिति में मस्तिष्क द्वारा अपने अपने को नये रूप में ढाल लेना, नैतिक, मॉरल, दार्शनिक, अस्तित्ववादी और इपीस्टेमियोलाजीकल प्रश्न खडे करता है । लकवे का कोई मरीज सामने आने पर वे सोचते हैं कि शेष स्वस्थ बच रहा दिमाग कैसे काम कर रहा है, उसमें क्या परिवर्तन आ रहे हैं - और इस बदली हुई परिस्थिति का तथा नयी न्यूरालाजिकल पहचान का उस इन्सान के लिये क्या अर्थ है ? और न केवल उस मरीज के लिये बल्कि दूसरे मरीज के लिये भी और हम सब के लिये भी । डॉ. ऑलिवर हमें एक नये संसार में ले जाते हैं और सोचने के लिये मजबूर करते हैं । न्यूरालाजिकल अवस्थाओं की यह दुनिया यहां इसी धरती पर है । हमारे जैसे लोग उसके नागरिक हैं । कुछ ऊपर से अलग दिख जाते हैं । ज्यादातर हमारे आपके जैसे ही दिखते हैं । उनके मन की खिडकी खोल कर देखो । ढेर सारे प्रश्न उठ खडे होते हैं । सामान्य मनुष्य होने की परिभाषा को कितनी दिशाओं में कितनी तरह से खींचा ताना जा सकता है। कुछ उत्तर भी मिलते हैं ।
डॉ. आलिवर सॉक्स अपनी न्यूरालाजिकल रूचियों के बारे में लेख और पुस्तकें लिखते हैं । यह लेखन केवल न्यूरालाजिस्ट के बजाय एक वृहत्तर पाठक समुदाय को लक्षित है । डॉ. सॉक्स का लेखन मरीजों से प्राप्त अनुभवों और उन पर की गई शोध में से उभर कर आया है । वे एक घनघोर पाठक भी हैं । पार्किन्सोनिज्म के किसी मरीज पर लिखते लिखते वे न जाने किन किन लेखकों का सन्दर्भ ले आवेंगे - जेम्स जॉयस, डी.एच. लारेन्स, हर्मन हेस, एच.जी. वेल्स या टी.एस. इलियट ।

डॉ. आलिवर सॉक्स द्वारा लिखित पुस्तकें

माईग्रेन (१९७०) :
यह लेखक की प्रथम और सबसे अधिक चिकित्सकीय पुस्तक है । फिर भी, अपनी श्रेणी की अन्य पुस्तकों से बेहद भिन्न । आम पाठक और चिकित्सा विशेषज्ञ दोनों इसे उपयोगी और रुचिकर पाते हैं । माईग्रेन (सिरदर्द) के अनेक लक्षणों और विकृतियों का विस्तृत वर्णन है और साथ ही अवस्था की जन-व्यापकता और रोग-विकृति पैदा होने की प्रक्रियाओं का विवेचन भी है । अन्य मेडिकल किताबों की तुलना में यह अधिक रोचक व ज्ञानवर्धक है । अनेक (?आनन्ददायी) मरीज कथाओं को सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सहित्यिक प्रसंगों और उल्लेखों के साथ गूँथ दिया गया है । उपचार का संक्षिप्त वर्णन है । अन्तिम अध्याय में राल्फ एम.सीगल के साथ संयुक्त रूप से लिखते हुए लेखक दार्शनिक रूप से परिकल्पना करता है कि किस तरह माइग्रेन एक सर्वब्रह्माण्डीय घटना है और खुद-ब-खुद (स्वतः) बनने और व्यवस्थित होने वाली प्राकृतिक प्रणालियों का एक उदाहरण है ।

अवेकनिंग्‌स (१९७३) (जागृति)
इस पुस्तक की मूल विषय वस्तु है एक विशिष्ट अद्वितीय स्थिति में रहने वाले कुछ मरीजों का जीवन और एक खास कारण से उनमें पैदा होने वाली प्रतिक्रियाएं, जिनका चिकित्सा और समग्र विज्ञान के लिये खासा महत्व है । १९२० के दशक में एक महामारी फैली थी, जो अब अज्ञात है व भूला दी गई है - एन्सेफेलाईटिस लेथार्जिका । शायद किसी वायरस (जीवाणु) द्वारा मस्तिष्क में इन्फेक्शन (संक्रमण) होता था । बच जाने वाले मरीजों में से कुछ में, अनेक महीनों के अन्तराल के बाद धीरे-धीरे पार्किन्सोनिज्म रोग बढता है । मरीजों का शरीर अकडता जाता है, शिथिल व धीमा हो जाता है । लगभग सभी गतियाँ बाधित हो जाती हैं । शरीर मूर्तिवत या जड प्रतीत होता है और चेहरा भावशून्य । ऐसे दसियों मरीज आगामी ४ से ६ दशकों तक बिना आशा के कुछ खास अस्पतालों में पडे रहे, डले रहे । १९६० के दशक के उतरार्ध में जब लीवोडोपा औषधि का पार्किन्सोनिज्म में प्रथम सफल उपचार के रूप में आविष्कार हुआ तो युवा डॉ. आलिवर न्यूयार्क के एक बडे क्रोनिक-केयर अस्पताल (दीर्घकालिक - सुश्रुषा) में न्यूरालाजिस्ट के रूप में कार्यरत थे । उस औषधि ने इन मरीजों के जीवन में क्रान्तिकारी (हालांकि उथल-पुथल भरा) परिवर्तन पैदा किया । कोई और न्यूरालाजिस्ट होता तो यह पुस्तक न लिखी जाती । डॉ. आलिवर की नजर पैनी व खोजी थी तथा मन मानवीयता से भरा हुआ । ये मरीज मानों दशकों की नींद से जागे थे, मूक से वाचाल बने थे । फिर लेखक बहस शुरु करता है कि इन घटनाओं और अवलोकनों के दूरगामी और व्यापक दृष्टि से क्या निहितार्थ हो सकते हैं । वे अर्थ जो मानवमात्र के सामान्य स्वास्थ्य, रोग, पीडा, सेवा और उससे भी कहीं अधिक परे जाकर मानव नियति को अपने आप में समाहित करते हैं । बाद में (१९९१) इस रचना पर हालीवुड में इसी नाम की एक फिल्म बनी थी । राबिन विलियम ने डॉ. ओलिवर की तथा राबर्ट दि नीरो ने एक मरीज की भूमिका (आस्कर नामांकित) निभाई थी ।

ए लेग टू स्टेण्ड आन (१९८४) खडे रहने को एक पांव
डॉक्टर्स प्रायः स्वयं अच्छे मरीज नहीं होते परन्तु यदि कोई एक डाक्टर मरीज अच्छा विचारक और लेखक हो तो पाठकों को मिलती है एक गहन, गम्भीर, उत्तम और समृद्ध कथा । डॉ. ऑलिवर सॉक्स नार्वे में अकेले पहाड चढते समय गिर पडे और बांयी जांघ में गहरी चोट से वहां की नाडी (नर्व) क्षतिग्रस्त हुई । जैसे तैसे जान बची । दो बार आपरेशन हुए । दो सप्ताह तक पांव प्लास्टर में बंधा रहा । बाद में धीरे-धीरे खडा करने की कोशिश करी गई । इस अवधि में आलिवर के संवेदी मन ने क्या-क्या न अनुभव किया और सोचा और फिर लिख डाला । एक भयावह दुःस्वप्न था - बेहद बैचेन करने वाला अहसास कि मेरा बायां पांव है ही नहीं । शरीर पर से नियंत्रण गया, उक्त अंग का बिम्ब, उसकी कल्पना तक मन से गायब हो गये, कोशिश करने पर भी वह सामान्य अहसास जागृत न हो पाता था । बाद में लेखक ने अपने अन्य मरीजों से तथा मास्को के वरिष्ठ न्यूरोसायकोलाजिस्ट, अलेक्सांद्र लूरिया से पत्र व्यवहार में जाना कि ऐसी अवस्थाएं प्रायः होती रहती हैं परन्तु चिकित्सा साहित्य में उनकी उपेक्षा हुई है, क्योंकि न्यूरालाजिस्ट अक्सर उसी को मापते और परिभाषित करते हैं जो वस्तुपरक हो तथा आत्मपरक के अन्दरूनी अनुभवों को तुच्छ मानते हैं - ऐसा व्यवहार करते हैं जो पशु चिकित्सक (वेटरनरी डॉक्टर) अपने पशुओं के साथ करते हैं ।

द मेन हू मिसटुक हिस वाईफ फॉर ए हेट (१९८५) वो आदमी जो अपनी पत्नी को गलती से टोप समझ बैठा
इस सबसे लोकप्रिय और सर्वाधिक उद्दत रचना में २४ क्लीनिकल कथाएं हैं । पात्रों को तरह-तरह की न्यूरालाजिकल बीमारियां हैं - कुछ दुर्लभ तो कुछ बहु-व्याप्त, कुछ साधारण तो कुछ खास । इन कथाओं में से समझ और बुद्धि के अर्थवान मोती ढूंढ निकालने के लिये आपकी तीक्ष्ण मेधा में पैना अवलोकन, ज्ञान की वृह्त पृष्ठभूमि और विचारवान कल्पनाशीलता होना जरूरी है । इन सब गुणों के साथ लेखक हमारे सामने प्रस्तुत होता है । लेखन शैली बांधे रखती है । भाषा समृद्ध है । शब्द भण्डार अनन्त है । समान्तर शब्दों और पर्यायवाचियों का बहुलता से उपयोग है । ये कहानियां एक प्रमुख उक्ति को सच ठहराती हैं कि - गल्प की तुलना में सत्य कहीं अधिक अजीब होता है । बहुत से पात्र सचमुच अजनबी प्रतीत होते हैं, लेकिन लेखक ने प्रत्येक चरित्र का निर्वाह सम्पूर्ण समझदारी, संवेदना और आदर के साथ किया है ।

सीईंग वाईसेस (१९८९) आवाजों को देखते हुए ।
इस पुस्तक को पढने के पहले, स्वयं लेखक के समान, मैंने कल्पना नहीं की थी कि बहरे लोगों की दुनिया कैसी होती है । बहरा होना, बहरापन, बहरेपन की संस्कृति, उनकी सीमाएं, दुःख और उस सब से जूझना, उबरना जिन्दगी में अर्थ ढूंढना उसे सार्थक बनाना और जीवन की सम्भावनाओं को अधिकतम की सीमा तक साकार करना : यही विषय वस्तु है - सीईंग वाईसेस की । लेखक ने पहले स्वयं शोध करी, श्रवण बाधित लोगों के संसार में लम्बा समय गुजारा, उनकी इशारों वाली भाषा (साइन-लेंग्वेज) को सीखने की कोशिश करी । फिर वे अपने पाठकों का परिचय इस अद्‌भुत संसार से कराते हैं जहां ध्वनियां नहीं हैं । जो कुछ है केवल दृश्य है, श्रव्य कुछ नहीं । साइन लेंग्वेज (इशारा-भाषा) की सुन्दरता और समृद्धता से हम रूबरू होते हैं । हम सोचने के लिये मजबूर होते है कि अन्ततः भाषा क्या है ? संवाद की परिभाषा का दायरा बढ जाता है । मस्तिष्क की भाषागत प्रणाली की इस अल्पज्ञात परन्तु अद्‌भुत क्षमता को जान कर हम चमत्कृत और आश्वस्थ होते हैं । बहरे लोगों के ऊपर से शान्त या मौन दिखने वाले संसार की इस सघन यात्रा में अनेक पात्रों और घटनाओं को विषय के वैज्ञानिक और सांस्कृतिक इतिहास के साथ रोचक तरीके से मिलाकर पेश किया गया है ।

एन एन्थ्रोपोलाजिस्ट ऑन मार्स (१९९४) मंगलगृह पर एक नृविज्ञानी
मिस्टर आई एक सिद्धहस्त चित्रकार हैं और उन्हें सिर की चोट के बाद एक अत्यन्त दुर्लभ समस्या पैदा हो जाती है : रंगान्धता या कलर ब्लाइण्डनेस । कहना न होगा कि कलाकार की दृष्टि बदल जाती है और उसकी रचनाओं का स्वरूप भी । ग्रेग के मस्तिष्क में धीरे-धीरे एक ट्यूमर (गांठ) पैदा होती है, बढती जाती है और उसकी स्मृति और आंखों की रोशनी खत्म कर देती है । बचा रहता है एक खास प्रकार के संगीत के लिये उसका अनुराग । डॉ. बेनेट को टिक की बीमारी है । वह अपने आपको हिलने डुलने से रोक नहीं पाता । इसे छूना, उसे पकडना, इधर सरकना, उधर खिसकना, उचकाना, चमकना, अस्फुट आवाजें करना, मुंह बनाना, हाथ-पांव नचाना । सब चलता रहता है - अनवरत, सतत्‌ । अजीब दिखता है । हंसी आती है । लेकिन ऑपरेशन थिएटर में डाक्टर की सर्जरी, शान्त, स्थिर, सटीक और सधी हुई रहती है । वरजिल बचपन में अन्धा हो गया था और अपनी इस पहचान के साथ वह सामंजस्य में था । अधेड अवस्था में आपरेशन द्वारा रोशनी वापस आती है । अंधा क्या मांगे - दो आंखें ! गलत । वरजिल परेशान है । दृष्टिहीन संसार की जीवन शैली के साथ वह मजे में था । दिखाई पडना उसे व्यग्र और भ्रमित करता है । इस पुस्तक की सात कहानियों के पात्र अपनी अपनी नयी दुनियाएं गढते हैं और उन्हें आबाद करते हैं । मनुष्य के जाने-माने अनुभव संसार से परे की इस दुनिया में रहने वाले पात्रों के घरों पर डॉक्टर होम विजिट करने जाता है । एक डाक्टर जो नृविज्ञानी है और प्रकृति विज्ञानी है । उसके पात्रों की नस्ल न्यारी है और वे शायद धरती ग्रह पर नहीं रहते ।

द आयलेण्ड ऑफ कलर ब्लाइण्ड (१९९६) रंगान्ध लोगों का द्वीप
यह रचना मजेदार यात्रा वर्णन है । प्रशान्त महासागर के छोटे-छोटे अनाम से द्वीपों में से कुछ में, खास न्यूरालाजिकल बीमारियों की व्यापकता अधिक है । एक द्वीप पर कलर ब्लाइण्ड लोग ज्यादा हैं । आनुवांशिक अवस्था है । रोशनी कमजोर । दिन में आंखें मिचमिची । शाम अंधेरे नजर बेहतर हो जाती है । कुछ अन्य द्वीपों पर पार्किन्सोनिज्म, बुद्धिक्षय (डिमेन्शिया) और मोटर न्यूरान रोग की बहुतायात है । इन बीमारियों का वैज्ञानिक वर्णन है । उनसे पीडित लोगों के जीवन और बदली हुई संस्कृति का खाका है । लघु द्वीपों के भूगोल, इतिहास, भूविज्ञान और वनस्पतियों का रोचक रिपोर्ताज है ।

ओहाका जर्नल (२००१)
यह शुद्ध रूप से नान-मेडिकल (गैर चिकित्सकीय) पुस्तक है । डॉ. ओलिवर सॉक्स नियमित रूप से डायरी लिखते हैं । पेड पौधों में उनकी रुचि है - विशेषकर फर्न प्रजाति में । न्यूयार्क फर्न सोसायटी के सदस्य के रूप में वे एक दल के साथ दक्षिणी मेक्सिको के आहोका राज्य की यात्रा पर जाते हैं क्योंकि यहां पर फर्न की विविध प्रजातियां उगती हैं । लेकिन पाठकों को बॉटनी के अलावा और भी बहुत कुछ मिलता है - उस प्रान्त की संस्कृति, लोग, रीति-रिवाज, इतिहास, भौगोलिक परिवेश, भवन स्थापत्य आदि ।
उन्नीसवीं शताब्दी में प्रकृति विज्ञान के अनेक महान अन्वेषक ऐसी डायरियां प्रायः लिखा करते थे जो व्यक्तिगत और वैज्ञानिक का सुन्दर मेल होती थीं । याद कीजिये चार्ल्स डार्विन की पुस्तक - बीगल जहाज पर मेरी विश्व यात्रा । ओहाका जर्नल एवं आईलेण्ड ऑफ कलर ब्लाइण्ड थोडा-थोडा उसी पुरानी परम्परा की याद दिलाती है।

अंकल टंगस्टन (२००३) टंगस्टन मामा
रसायन जगत से भरपूर लडकपन की यादें । इस आत्मकथात्मक रचना में बचपन की प्रथम स्मृतियों से शुरु कर के लगभग १५ वर्ष की उम्र तक के जीवन की झांकियां प्रस्तुत की गई हैं । किताब का फलक सीमित है बालक ओलिवर को अपने मामाओं, मौसियों और बुआओं से विरासत में ढेर सारा ज्ञान और कौतुहल-परक अच्छी रोचक आदतें मिली थीं । भौतिकी, रसायन और जीव-विज्ञान से भरी हुई विस्मयकारी दुनिया थी । ओलिवर का तेज दिमाग प्रयोगशील था । १९३० के दशक का उत्तरार्ध और चालीस का पूर्वार्ध था । खास समय था - द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि थी । खास घर था - लन्दन का एक समृद्ध यहूदी परिवार । खास दिमाग था जो अपने तरीके से पक रहा था, बढ रहा था । पूत के पांव पालने में नजर आते हैं । डॉ ओलिवर सॉक्स के आगामी जीनियस का आगाज इस बचपन में दिखता है । गोकि न्यूरालाजिस्ट बनने की संभावना दृष्टिगोचर नहीं होती ।

म्यूजिकोफिलिया (२००७) संगीत-अनुराग
संगीत और मस्तिष्क के अन्तर्सम्बन्धों की कहानियां ।
यह अभी तक की अन्तिम पुस्तक, ओलिवर के प्रशंसकों और संगीत प्रेमियों, दोनों के लिये उत्तम उपहार है । मनुष्य एक संगीतमय प्राणी है, ठीक वैसे ही, और उतना ही जैसे कि वह एक भाषामय प्राणी है । संगीत इन्सान की पहचान के अहम पहलुओं में से एक है । संगीतमयता का दायरा विस्तृत है । यह गुण काफी हद तक जन्मजात होता है । पर कुछ हद तक सीखा जा सकता है, परिष्कृत किया जा सकता है । दिमाग की बीमारियों में सांगितिक क्षमता नष्ट हो सकती है या बिरले बढ सकती है । डार्विन के विकासवाद के सन्दर्भ में संगीत की कोई बायोलाजिकल भूमिका है या नहीं इससे लेखक को कोई मतलब नहीं । वह तो इस बात से संतुष्ट है कि उसकी कहानियों के पात्र संगीत की सार्वभौमिकता और सार्वजनिकता के इन्द्रधनुषी पारिदृश्य को समृद्ध बनाते है।

ड्रग ट्रायल्स : मिथ्या आरोप और सत्यनिष्ठ उत्तर

प्रश्न : क्या ड्रग ट्रायल्स के बिना औषधि विकास नहीं हो सकता ?
उत्तर : मनुष्यों पर ट्रायल्स के बिना औषधि का विकास असम्भव है। वैज्ञानिक और कानूनी दोनों दृष्टियों से ट्रायल्स अनिवार्य हैं।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल्स के संदर्भ में भारत शासन की क्या नीति है ?
उत्तर : औषधियों पर शोध तथा उनका लाईसेंसीकरण केन्द्रीय शासन की विषय वस्तु है, राज्यों की नहीं । भारत सरकार क्लिनिकल ट्रायल्स को देश में बढावा देने के लिये प्रयत्नरत है। इस हेतु सरकार ने एक नया विभाग शुरू किया है जो डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ रिसर्च कहलाता है। यह मेडिकल स्नातकों तथा चिकित्सकों को इस क्षेत्र में आने के लिये निःशुल्क ट्रेनिंग एवं प्रोत्साहन देता है।
राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने जुलाई २०१० में दिये एक भाषण में भारत को अन्तरराष्ट्रीय क्लिनिकल ट्रायल्स करने हेतु विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण क्षेत्र माना है तथा भारतीय दवा उोग को नई औषधि अनुसंधान क्षेत्र में आगे आने के लिये आह्वान किया है ताकि बीमारियों का कारगर उपचार सर्व सुलभ हो सके।
प्रश्न : क्या मरीजों पर ड्रग ट्रायल्स करना गैर कानूनी काम है?
उत्तर : स्वस्थ व्यक्तियों और मरीजों पर ड्रग ट्रायल करना कानूनी काम है। भारत सहित दुनिया के सभी देशों में ड्रग ट्रायल पर रोक नहीं है। इन्हें करने की विधियों पर बकायदा नियम बने हुए हैं।
प्रश्न : क्या मरीजों पर ड्रग ट्रायल करना अनैतिक काम है। उनका शोषण है। उन्हें अंधेरे में रखा जाता है। उन पर ट्रायल करना, चूहों पर प्रयोग करने जैसा है।
उत्तर : ड्रग ट्रायल करना शोध की वैज्ञानिक विधि है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। मरीजों को पूरी जानकारी बोलकर तथा लिखित में समझाई जाती है। सोचने विचारने का पूरा समय देते हैं। समस्त शंकाओं का समाधान करते हैं। अनपढ मरीज या दिमागी रूप से अक्षम मरीज के मामले में उसके परिवार के जिम्मेदार कानून सम्मत व्यक्ति की सहमति लेते हैं। मरीज पर कोई दबाव नहंी डाला जाता। कोई जानकारी छिपाई नहीं जाती। दवाई के नुकसानों के बारे में भी बताया जाता है। मरीज को स्वतंत्रता रहती है कि अध्ययन को वह जब चाहे बीच में, बिना कारण बताए छोड सकता है। इसके बाद भी मरीज की देखभाल में कोई अन्तर नहीं किया जाता है। मरीजों को यह भी मालूम रहता है कि उन्हें दिये जाने वाली गोली/केप्सूल/इन्जेक्शन आदि में या तो असली औषधि हो सकती है या निष्क्रिय हानिरहित प्लेसीबो।
प्रश्न : क्या ड्रग ट्रायल करना मरीजों के साथ चूहे जैसा व्यवहार करना नहीं है ?
उत्तर : ड्रग ट्रायल्स संचालित करने वाले चिकित्सकों व अनुसंधान कर्ताओं ने अपने मरीजों को कभी गिनीपिग नहीं समझा। मरीजों के लिये चूहा या जानवर जैसे शब्दों का उपयोग करना न केवल वैज्ञानिकों का अपमान है बल्कि उन हजारों सयाने और समझदार (फिर चाहे वे अनपढ हों या पढे लिखे हों, ग्रामीण हों या शहरी हों) मरीजों व घरवालों का अपमान है जिन्होंने अपने पूरे होशों हवास में सोच समझकर ट्रायल में शामिल होने के सहमति पत्र पर न केवल हस्ताक्षर किये बल्कि अनेक महीनों या वर्षों तक नियमित रूप से, विश्वासपूर्वक बिना प्रलोभन या दबाव के, परीक्षण हेतु आते रहे।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल के बजट में से मरीजों को क्या भुगतान किया जाता है ?
उत्तर : क्लीनिकल ड्रग ट्रायल्स में भाग लेने वाले किसी भी मरीज को धन भुगतान या कोई प्रलोभन देना गैर कानूनी है। अतः ट्रायल में भाग लेने वाले मरीजों को इसके लिये कोई भुगतान नहीं किया जाता । उनकेआने जाने का खर्च तथा भोजन पर किये गये खर्चे की प्रतिपूर्ति ट्रायल मद से की जाती है।
प्रश्न : मरीजों की सुरक्षा व हितों के लिये क्या उपाय किये जाते हैं ?
उत्तर : ट्रायल में भाग ले रहे मरीजों की सुरक्षा तथा हितों की रक्षा के लिये हर स्तर पर जागरूकता रखी जाती है जो कि (जी.सी.पी.) उत्तम क्लीनिकल व्यवहार के मूल सिद्धांतों अनुसार किया जाता है। रिसर्च में भाग ले रहे प्रत्येक मरीज की देखभाल भली-भांति की जाती है तथा उसे रिसर्च को कभी भी स्वैच्छिक रूप से छोडने की स्वतंत्रता दी जाती है। यदि कोई मरीज क्लीनिकल ड्रग ट्रायल हेतु अपनी सहमति वापस लेता है तो उसकी बाद में देखभाल तथा इलाज में कोई भी कमी नहीं रखी जाती है।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल में शामिल होने वाले मरीजों को क्या लाभ ?
उत्तर : सहमति पत्र भरवाने के पहले, शुरू में ही मरीजों को बताया जाता है कि अध्ययन में शामिल होने से आपको कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं होगा। जो दवाई दी जावेगी उसमें असली औषधि है या प्लेसीबो यह ज्ञात नहीं । यदि आपको संयोगवश असली औषधि मिल रही है तो सम्भव है कि कुछ लाभ हो। अंतिम परिणाम, ट्रायल समाप्त होने के बाद ही मिलेगा। ट्रायल प्रायः कुछ माह से लेकर एक - दो वर्ष तक चलते हैं। तत्पश्चात्‌ यह औषधि नहीं मिलेगी। बाजार में फिलहाल उपलब्ध नहीं है। कब मिलेगी कह नहीं सकते। जो पुराना इलाज है वह जारी रहेगा। ट्रायल की अवधि में आपको बार-बार आना पडेगा। आवागमन और नाश्ते का भत्ता मिलेगा। अन्य कोई राशि नहीं मिलेगी । अनेक उपयोगी जांचें ट्रायल बजट से हो जाती हैं। डाक्टर्स आपके स्वास्थ्य पर ज्यादा बारीकी से ध्यान देते हैं। अनेक मरीज इसी बात से संतोष महसूस करते हैं कि उन्होंने विज्ञान की प्रगति में योगदान दिया।
प्रश्न : मरीजों की सहमति कैसे प्राप्त करते हैं ?
उत्तर : अध्ययन में शामिल करते समय सहमति पत्र भरवाने के पहले, मरीज व घरवालों को ये सारी बातें विस्तार से समझाई जाती है। कहा जाता है - आपको जो औषधि दी जावेगी उसमें वास्तविक दवा हो सकती है या बिना असर वाली प्लेसीबो। न आपको ज्ञात होगा न हमें।ङ्घ संतोष और सुखद आश्चर्य की बात है कि न केवल शहरी शिक्षित वरन अनपढ व ग्रामीण मरीज भी इस तर्क से वैज्ञानिक पहलू को भली भांति समझ जाते हैं और उसके बाद ही अनुमति पत्र पर हस्ताक्षर करते हैं।
ट्रायल में भाग लेने वाले संभावित मरीजों को अनुसंधान प्रोटोकॉल तथा औषधि के बारे में सारी जानकारी हिन्दी में देते हैं एवं हिन्दी के सूचित सहमति पत्र पर हस्ताक्षर लेते हैं। हिन्दी में अंकित सूचित सहमति पत्र में दवाई से संबंधित आज तक की पूर्ण जानकारी रहती है, इसको पढने एवं समझने तथा मरीज के प्रश्नोत्तर के बाद संतुष्ट होने पर ही सहमति ली जाती है।
प्रश्न : ट्रायल में शामिल मरीज की कोई पहचान नहीं रह जाती। वह केवल एक नम्बर रह जाता है। गुमनाम हो जाता है।
उत्तर : मरीजों की पहचान छिपाकर रखना कानूनी दृष्टि से जरूरी है। हर इन्सान को अपनी प्रायवेसी या निजता का हक होता है। मरीज से सम्बन्धित जानकारी एक कोड नम्बर के रूप में संग्रहित रहती है। आवश्यकता पडने पर मरीज से सम्पर्क किया जा सकता है। मरीज गुमनाम नहीं होता। उसकी प्रतिष्ठा और पहचान की रक्षा की जाती है।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल में गुप्त या गुमनाम दवा का प्रयोग करते हैं जिसकी जानकारी मरीज व डाक्टर को नहीं रहती। ये ट्रायल ब्लाइंड या अन्धे होते हैं।
उत्तर : अन्तरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय नियमों के अनुसार ड्रग ट्रायल का डबल ब्लाईंड या दुहरा अन्धा होना जरूरी है। आधे मरीजों में असली दवा तथा आधे मरीजों में नकली या झूठमूठ की दवा (प्लेसीबो) देना होती है। किसी को मालूम नहीं होना चाहिये- न मरीज को न डाक्टर्स को। वरना सायकोलाजिकल रूप से मरीज व डाक्टर्स दवाई के असर के बारे में सोचने लगते हैं। उनका निर्णय निष्पक्ष नहीं रह पाता। दवा गुमनाम या गुप्त नहीं होती। उसका नाम, केमिस्ट्री, फार्माकोलाजी आदि की विस्तृत जानकारी डी.सी.जी.आई., अध्ययनकर्ता डाक्टर व एथिक्स कमेटी के सदस्यों को दी जाती है।
प्रश्न : ये ट्रायल्स विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा ही क्यों चलाये जाते हैं ?
उत्तर : बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ प्रायः पुरानी व बडी होती हैं। रिसर्च हेतु उनके पास बजट अधिक होता है। उनके स्टाफ में उध कोटि के वैज्ञानिक होते हैं । भारतीय कम्पनियाँ भी अब बडी और बहुराष्ट्रीय होने लगी हैं तथा ड्रग ट्रायल्स के क्षेत्र में पदार्पण कर रही हैं।
प्रश्न : ये ट्रायल्स बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा भारत जैसे विकासशील देशों की गरीब जनता पर ही क्यों चलाये जाते हैं ? विकसित देशों की जनता पर क्यों नहीं ?
उत्तर : आज से एक दशक पूर्व तक समस्त ट्रायल्स केवल विकसित देशों में ही होते थे । आर्थिक विकास से साथ भारत जैसे देशों में शिक्षा, ज्ञान व कौशल का स्तर बढा है तथा उध कोटि के विश्वसनीय ट्रायल यहां तुलनात्मक रूप से कम खर्च में सम्भव है। जन-संख्या अधिक होने से ट्रायल के लिये जरूरी मरीज जल्दी मिल जाते हैं। ये ट्रायल्स अभी भी मुख्यतया विकसित देशों में ही होते हैं। ड्रग ट्रायल्स में समाज के समस्त वर्गों के मरीज भाग लेते हैं केवल गरीब लोग नहीं। मिथ्या धारणा के विपरीत ट्रायल्स में समाज के मध्यम व उध वर्ग के मरीजों का अनुपात अधिक होता है क्योंकि वे शहरों में, पास ही रहते हैं तथा शिक्षित होते हैं।
प्रश्न : ट्रायल्स में विदेशों में प्रतिबन्धित दवाईयों का उपयोग तो नहीं होता ?
उत्तर : कोई भी औषधि जो अन्य देशों में प्रतिबन्धित हो, जिसके कारण खतरे व नुकसान होने की आशंकाएं अधिक हो उन्हें डी.सी.जी.आई. कभी ट्रायल में प्रयुक्त होने की अनुमति नहीं देता। यह सोचना गलत है कि अमेरिका वाले जिन दवाओं का प्रयोग उनके देश में नहीं करना चाहते, विकासशील देशों की भोली गरीब जनता को शिकार बनाते हैं । यह सम्भव नहीं है। हम इतने गये गुजरे व निरीह नहीं हैं। नाना प्रकार के षडयंत्रों के अंदेशों से हमें अनावश्यक रूप से दुबले होने और डरने की जरूरत नहीं है। भारत अब एक विश्वशक्ति है जिसका रूतबा बढ रहा है। भारत सरकार की नियामक संस्थाओं की अनुमति और सतत्‌ निगरानी के बगैर कोई ट्रायल संचालित नहीं हो सकता।
प्रश्न : जिन दवाओं को एफ.डी.ए. की अनुमति नहीं मिली है उनका उपयोग ट्रायल में क्यों होता है ?
उत्तर : - फूड एण्ड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफ.डी.ए.) (खा एवं औषधि प्रशासन) : की अनुमति के बगैर किसी औषधि को बाजार में या अस्पतालों में उपलब्ध नहीं कराया जा सकता। लेकिन ड्रग ट्रायल्स में शोध हेतु काम आने वाली औषधियों का सीमित उपयोग किया जा सकता है। बशर्ते डी.जी.सी.आई. ने अनुमति दे दी हो।
उदाहरणार्थ पार्किंसोनिज्म के उपचार में आने वाली एक नई औषधि रोटीगोटीन को चमडी पर स्टीकर चिपका कर देते हैं। फिलहाल इसे भारतीय बाजार में बेचने का लाईसेंस नहीं मिला है परन्तु डी.सी.जी.आई. में शोध ट्रायल हेतु अनुमति दे दी है जो देश में अनेक केन्द्रों पर चल रहा है।
प्रश्न : राज्य शासन की अनुमति व निगरानी के बगैर ये ट्रायल सरकारी अस्पतालों में क्यों चल रहे हैं?
उत्तर : भारत के अधिकांश राज्यों ने इस हेतु किन्हीं नियमों की आवश्यकता महसूस नहीं करी है क्योंकि ड्रग -ट्रायल के माध्यम के औषधियों पर शोध उनकी विषय वस्तु नहीं है। चूंकि राज्य स्तर पर नियम नहीं है अतः किसी नियम के उल्लंघन का सवाल नहीं उठता। एस.एम.एस. मेडिकल कॉलेज, जयपुर, के.जी. मेडिकल कालेज, लखनऊ जैसे पुराने प्रतिष्ठित अस्पतालों में डाक्टर्स बगैर राजस्थान या उत्तरप्रदेश शासन की अनुमति से अनेक वर्षों से ट्रायल्स कर रहे हैं।
प्रश्न : यदि राज्य शासन की नहीं तो फिर किन अन्य संस्थाओं की अनुमति व निगरानी की व्यवस्था रहती है ।
अ. भारत शासन की ओर से भारत के महा औषधि नियंत्रक (डी.सी.जी.आई.)
ब. भारत शासन की ओर से खा एवं औषधि प्रशासन
स. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा बायोमेडिकल रिसर्च के सन्दर्भ में तथा संस्थागत एथिक्स कमेटी के गठन व कार्यकलाप के सन्दर्भ में दिशा निर्देश
द. संयुक्त राज्य अमेरिका तथा यूरोपियन युनियन के एफ.डी.ए. क्योंकि अनेक बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियों के मुख्यालय वहां स्थित हैं तथा वे कम्पनियाँ वहां के एफ.डी.ए. के प्रति उत्तरदायी हैं, भले ही ट्रायल अन्य देशों में भी चल रहा हो ।
प्रश्न : क्या म.प्र. शासन को किसी भी स्तर पर इन ट्रायल के बारे में कभी कोई जानकारी नहीं दी गई।
उत्तर :स्वशासी संस्था एम.जी.एम. मेडिकल कालेज, इन्दौर के संदर्भ में एक्जीक्यूटिव काउन्सिल व जनरल काउन्सिल में निर्णय लिया गया था कि ट्रायल बजट की कुल राशि का १०% विभागीय फण्ड में जमा कर के विभाग के उन्नयन में लगाया जावेगा। उक्त मीटिंग में तत्कालीन माननीय चिकित्सा शिक्षा मंत्री, इन्दौर संभाग के आयुक्त व कालेज के डीन उपस्थित थे। अतः यह कहना उचित नहीं है कि ड्रग ट्रायल्स के बारे में शासकीय स्तर पर कोई जानकारी नहीं है । बजट कि १०% राशि विभागीय फण्ड में जमा करने का निर्णय किया गया था न कि संस्थागत फण्ड में। यह निर्णय अध्ययनकर्ता चिकित्सकों की स्वप्रेरित पहल व अनुरोध पर लिया गया था।
प्रश्न : क्या सरकारी अस्पतालों में जारी ट्रायल्स की जानकारी वहां के विभागाध्यक्ष या संस्था प्रमुख या एथिक्स कमेटी के सदस्यों को नहीं रहती है ?
उत्तर : ट्रायल्स अनुबन्ध की समस्त प्रतियों पर संस्था के प्रमुख (डीन) या अधीक्षक या विभागाध्यक्ष तथा रिसर्च करने वाले डाक्टर के हस्ताक्षर होते हैं। इसकी एक प्रति विभागाध्यक्ष तथा एथिक्स कमेटी के अध्यक्ष के पास सदैव रहती है जिसे डीन तथा एथिक्स कमेटी केसदस्य कभी भी पढ सकते हैं।
ट्रायल प्रोटोकाल (रिसर्च की विधि) की विस्तृत प्रतियाँ एथिक्स कमेटी के सभी सदस्यों को दी जाती है।
प्रश्न : क्या से ट्रायल्स सिर्फ म.प्र. में या सिर्फ इन्दौर में हो रहे हैं ?
उत्तर : भारत सहित पूरी दुनिया के सैकडों निजी और सरकारी अस्पतालों में हजारों डाक्टर्स द्वारा लाखों मरीजों पर बीसियों सालों से ड्रग ट्रायल्स चल रहे हैं। मध्यप्रदेश पिछडा प्रदेश होने से यहां बहुत बाद में शुरू हुए हैं, बहुत कम संख्या में हुए हैं। अतः यहां की जनता और मीडिया को लगता है कि यह कोई नया काम शुरू हुआ है।
प्रश्न : शासकीय वेतन के अतिरिक्त ट्रायल्स से प्राप्त अतिरिक्त आय की अनुमति सरकारी डाक्टर्स को कैसे मिली ?
उत्तर : स्वीकृत बजट का एक बडा हिस्सा ट्रायल संचालन में खर्च होने के बाद अनुसंधानकर्ता चिकित्सक के पास यदि कुछ राशि बची रह जाती है तो वह उसकी वैधानिक आय होती है, जिसका कि वह हकदार है तथा जिस पर उसे आयकर अदा करना होता है। यह प्रायवेट प्रेक्टिस नहीं है लेकिन एक प्रकार की कन्सलटेंसी (परामर्श सेवा) है जो विभिन्न विश्वविद्‌यालयों, आई.आई.टी., आई.आई.एम. आदि के प्रोफेसर भी करते हैं।
प्रश्न : शासकीय अस्पतालों में बिना अनुमति बाहरी व्यक्तियों को क्यों काम पर लगाया जाता है ?
उत्तर : मध्यप्रदेश शासन या उसकी संस्थाओं द्वारा क्लिनिकल ट्रायल्स हेतु अन्वेषकों को कोई अघोसंरचना सुविधाएं या प्रशिक्षित टेक्निकल स्टॉफ नहीं दिया जा रहा है। शासकीय चिकित्सालयों में ड्रग ट्रायल्स के संचालन हेतु अतिरिक्त अस्थायी स्टाफ आदि की व्यवस्था ट्रायल के बजट से होती है। शासन पर आर्थिक भार नहीं आता है। उपरोक्त सुविधाओं को अलग से प्रशासकीय स्वीकृति देने की कोई आवश्यकता नहीं होना चाहिये।
प्रश्न : शासकीय अस्पतालों में बिना अनुमति टेलीफोन, कम्प्यूटर, फेक्स, इन्टरनेट, रेफ्रिजरेटर व अन्य साधन क्यों लगाए गये ?
उत्तर : शासन पर आर्थिक भार नहीं आता है। अस्पताल की सुविधाओं में वृद्धि होती है। कुछ संसाधन अस्थायी तौर पर उपलब्ध होते हैं तो कुछ अन्य संसाधन स्थायी रूप से विभाग की संपत्ति बन जाते हैं। ड्रग ट्रायल्स चूंकि केन्द्रीय शासन व अन्तरराष्ट्रीय नियामक संस्थाओं की निगरानी में चलते हैं अतः स्थानीय स्तर पर अनुमति की आवश्यकता नहीं है।
प्रश्न : ट्रायल करने वाले सीनियर और जूनियर डाक्टर्स को विदेश यात्रा पर क्यों भेजा जाता है?
उत्तर : ड्रग ट्रायल्स के उचित संचालन हेतु टीम के सदस्यों के प्रशिक्षण हेतु प्रायोजक कम्पनी द्वारा एक या दो दिन हेतु देश के अन्दर या बाहर मीटिंग में जाने की अनिवार्यता होती है। इस गतिविधि को त्वरित स्वतः स्थानीय स्वीकृति प्रदान करने की प्रक्रिया पर शासन को विचार करना चाहिये। उक्त मीटिंग में सुबह से शाम तक ट्रेनिंग दी जाती है। साईट सीईंग नहीं होता, गुलछर्रे नहीं उडाये जाते । वरिष्ठ चिकित्सक वैसे भी अनेक विदेश यात्राएं कर चुके होते हैं। उन्हें कोई लालच नहीं होता। जूनियर डाक्टर्स के लिये ये मीटिंग उपयोगी होती है। ट्रायल के परिचालन की ट्रेनिंग हेतु देश या विदेश में जब वरिष्ठ व कनिष्ठ चिकित्सक शिरकत करते हैं तो उनका ज्ञान बढता है, सम्पर्क व पहचान बढते हैं।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल्स का बजट कहां से आता है ?
उत्तर : नई औषधि का आविष्कार या विकास करने वाली फार्मास्यूटिकल कम्पनी ड्रग ट्रायल्स का बजट प्रदान करती है। प्रायोजक ड्रग कम्पनी, अनुसंधानकर्ता चिकित्सक तथा संस्था के मध्य त्रिपक्षीय अनुबंध होता है। संस्था के डीन व एथिक्स कमेटी के अध्यक्ष को इसकी प्रति दी जाती है। प्रस्तावित बजट इस बात पर निर्भर करता है कि कितने मरीजों को कितनी बार आना पडेगा, कितना स्टाफ रखना पडेगा, प्रत्येक विजिट में और उसके बाद समस्त रेकार्ड कीपिंग में अनुसंधानकर्ता का कितना समय खर्च होगा आदि।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल्स का बजट डीन के या शासन के खाते में क्यों नहीं आता सीधे डाक्टर्स के खाते में क्यों आता है?
उत्तर : ड्रग कम्पनी और उनके लिये काम करने वाले कान्ट्रेक्ट रिसर्च आर्गेनाईजेशन एक डाक्टर का अध्ययनकर्ता के रूप में चुनते हैं न कि संस्था को । अध्ययनकर्ता डाक्टर्स की अकादमिक योग्यता, प्रकाशन, शोध अनुभव आदि देखे जाते हैं। चूंकि संस्था की सीमित सुविधाओं का उपयोग किया जाता है। अतः कुल बजट का १०% विभागीय फण्ड में शुरु करने की स्थानीय परम्परा है।
प्रश्न : क्या ड्रग-ट्रायल्स का पूरा बजट, शुरू में ही एक मुश्त दे दिया जाता है ?
उत्तर : प्रायोजक कम्पनी से प्राप्त बजट का भुगतान सी.आर.ओ द्वारा विभिन्न किश्तों में यह सुनिश्चित करने के बाद किया जाता है कि कितने मरीजों की कितनी विजिट हुई तथा औषधि के प्रभावों को सही तरह से रेकार्ड किया गया या नहीं। सी.आर.ओ. कम्पनी के प्रतिनिधि प्रति एक या दो माह में क्लिनिक आकर समस्त रेकार्ड्‌स का बारीकी से मुआयना करते हैं। इस बात की पुष्टि करते हैं कि सही डायग्रोसिस वाले मरीजों को अनुसंधान में शामिल किया गया है, सहमति पत्र भरवाने की प्रक्रिया दोष रहित है, औषधि प्रदान करने, उपयोग करने और बची रहने पर वापस करने का लेखा जोखा सम्पूर्ण है। अन्यथा बजट की किश्तें रोक ली जाती है।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल्स से प्राप्त बजट के खर्चों पर कौन निगरानी रखता है।
उत्तर : ड्रग ट्रायल्स से प्राप्त बजट के खर्चों का नियमित रूप से आडिट/लेखा जोखा रखा जाना अनुसंधान कर्ता की जिम्मेदारी है। किसी प्रकार की अनियमितता पायी जाने पर उन्हें प्रशासकीय या कानूनी कार्यवाही का सामना करना पडेगा जो निम्न विभाग कर सकते हैं - भारत सरकार का आयकर विभाग, आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो, लोकायुक्त तथा चिकित्सा महाविालय के अधिष्ठाता।
प्रश्न : संस्था के डीन, अधिक्षक व विभागाध्यक्ष की क्या जिम्मेदारियाँ होती हैं ?
उत्तर : यह सुनिश्चित करना कि एथिक्स कमेटी का गठन व कार्यप्रणाली नियमानुसार है, ड्रग ट्रायल्स सम्बन्धी कार्यों की अधिकता और व्यस्तता के कारण अनुसंधानकर्ता व जूनियर डाक्टर्स अपनी मूलभूत प्राथमिक जिम्मेदारी यथा मरीजों की देखभाल, अध्ययन और अध्यापन में कोई कोताही तो नहीं बरत रहे हैं, प्रायोजक द्वारा प्रदान किये गये बजट का १०% विभागीय फण्ड में जमा होकर, उचित उद्देश्यों पर खर्च हो रहा है।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल्स का बजट किन-किन मदों में खर्च होता है ?
उत्तर : रिसर्च असिस्टेंट व स्टडी कोआर्डिनेटर (जो नान मेडिकल या मेडिकल हो सकते हैं) को मासिक वेतन, मरीजों को आवागमन व भोजन हेतु भत्ता, टेलीफोन व इन्टरनेट बिल्स, कम्प्यूटर्स, प्रिंटर्स का रखरखाव, स्टेशनरी, पत्र-व्यवहार, कुरियर सर्विस आदि। स्थायी संसाधन खरीदना जैसे - अलमारी, फर्नीचर, रेफ्रिजरेटर आदि। दस प्रतिशत राशि विभागीय फण्ड में जमा की जाती है।
प्रश्न : दवा कम्पनी और अध्ययनकर्ता चिकित्सक के बीच होने वाला एग्रीमेन्ट, गोपनीय क्यों माना जाता है ?
उत्तर : बौद्धिक संपदा की सुरक्षा जरूरी है। पारदर्शिता का अपना महत्व है परन्तु उसी के साथ इस बात को भी स्वीकार किया जाता है कि जब कोई दवा कम्पनी किसी नई औषधि का विकास करने हेतु ट्रायल संचालित करती है तो अन्य प्रतिस्पर्धी कम्पनियों से उक्त जानकारी का साझा नहीं करना चाहती। बिजनेस सीक्रेट एक कानूनी अधिकार है। ट्रायल हेतु किसी डाक्टर का चयन करने के पहले दवा कम्पनी व ट्रायल के संचालन की व्यवस्था करने वाला कान्ट्रेक्टर रिसर्च आर्गेनाईजेशन, डाक्टर्स से गोपनीयता अनुबन्ध पर हस्ताक्षर करवाते हैं कि वह इस ट्रायल से संबंधित कोई जानकारी (जिसमें बजट भी शामिल है) नियामक संस्थाओं और अधिकारियों (अध्यक्ष एथिक्स कमेटी, डीन, विभागाध्यक्ष, या अधीक्षक) के अलावा किसी को भी जाहिर नहीं करेगा।
प्रश्न : इस प्रकरण में मीडिया की क्या भूमिका है ?
उत्तर : इस समस्त प्रकरण में मीडिया की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका के साथ मीडिया को लोकतंत्र का चौथा पाया माना जाता है। फिर भी यह देखकर दुःख और क्षोभ होता है कि मीडिया से जितनी परिपक्वता, जिम्मेदारी, सन्तुलन और खोजपरकता की उम्मीद की जाती है, अनेक अवसरों पर वह उस पर खरा नहीं उतरता। ठीक वैसे ही जैसे कि डाक्टर्स, कभी-कभी आम जनता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। हालांकि एक पक्ष की कमी, दूसरे पक्ष की माफी नहीं होती।
प्रश्न : इस प्रकरण में मीडिया के नकारात्मक कवरेज का क्या कारण है ?
उत्तर : ड्रग ट्रायल्स को लेकर व्याप्त बेड-प्रेस (कुख्याति) के एक से अधिक कारण है। एक है अज्ञान, जानकारी का अभाव। खोज और अध्ययन के लिये जो मेहनत और बुद्धि लगती है उसमें कमी। दूसरा प्रमुख कारण है ईर्ष्या। प्रख्यात लेखक चेतन भगत ने अभी कुछ ही सप्ताह पूर्व अपने स्तम्भ में लिखा था कि हम भारतीय अपने लोगों की सफलता से प्रभावित होने के बजाय जलन करते हैं। दुनिया के अन्य देशों की तुलना में भारत पिछडा क्यों है ? भारत के अनेक प्रान्तों की तुलना में मध्यप्रदेश पिछडा क्यों है ?- इसके अनेक कारण है। परन्तु एक प्रमुख कारण है मेरिट की सराहना के बजाय ईर्ष्या की अधिकता।
प्रश्न : चूंकि ड्रग ट्रायल्स के संचालन में अनेक बार कमियाँ देखी जाती हैं इसलिये क्या उन पर रोक नहीं लगा देना चाहिये ?
उत्तर : कमियाँ किस में नहीं होती ? लोग अच्छे और बुरे होते हैं। कम्पनियाँ अच्छी और बुरी होती हैंफिर वे चाहे बडी हों या छोटी, देशी हों या विदेशी, एक-राष्ट्रीय हों या बहुराष्ट्रीय। प्रश्न तुलनात्मकता का है। कुल लाभ अधिक है या कुल हानि? कुछ ट्रायल में गडबडियाँ हैं, कभी-कभी मरीजों के हितों पर नुकसान पहुंच सकता है- इन कारणों से ट्रायल्स पर रोक लगाना या उनके सुचारू संचालन को जकड देना वैसा ही होगा कि पत्रकारिता में बहुत कमियाँ हैं- इसलिये प्रेस की आजादी बंद कर दो, लोकतंत्र में कमियाँ है इसलिये तानाशाही ले आओ। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार आ पहुंचा है इसलिये राजतंत्र जैसी न्यायप्रणाली ले आओ। ड्रग ट्रायल के सन्दर्भ में कुप्रचारित कमियाँ प्रायः गौण व तकनीकी किस्म की है । उन पर निगरानी, नियंत्रण व सुधार हेतु पहले से पर्याप्त व्यवस्थाएं हैं। तथा उनमें निरन्तर विकास जारी है।