शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

ड्रग ट्रायल्स : मिथ्या आरोप और सत्यनिष्ठ उत्तर

प्रश्न : क्या ड्रग ट्रायल्स के बिना औषधि विकास नहीं हो सकता ?
उत्तर : मनुष्यों पर ट्रायल्स के बिना औषधि का विकास असम्भव है। वैज्ञानिक और कानूनी दोनों दृष्टियों से ट्रायल्स अनिवार्य हैं।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल्स के संदर्भ में भारत शासन की क्या नीति है ?
उत्तर : औषधियों पर शोध तथा उनका लाईसेंसीकरण केन्द्रीय शासन की विषय वस्तु है, राज्यों की नहीं । भारत सरकार क्लिनिकल ट्रायल्स को देश में बढावा देने के लिये प्रयत्नरत है। इस हेतु सरकार ने एक नया विभाग शुरू किया है जो डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ रिसर्च कहलाता है। यह मेडिकल स्नातकों तथा चिकित्सकों को इस क्षेत्र में आने के लिये निःशुल्क ट्रेनिंग एवं प्रोत्साहन देता है।
राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने जुलाई २०१० में दिये एक भाषण में भारत को अन्तरराष्ट्रीय क्लिनिकल ट्रायल्स करने हेतु विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण क्षेत्र माना है तथा भारतीय दवा उोग को नई औषधि अनुसंधान क्षेत्र में आगे आने के लिये आह्वान किया है ताकि बीमारियों का कारगर उपचार सर्व सुलभ हो सके।
प्रश्न : क्या मरीजों पर ड्रग ट्रायल्स करना गैर कानूनी काम है?
उत्तर : स्वस्थ व्यक्तियों और मरीजों पर ड्रग ट्रायल करना कानूनी काम है। भारत सहित दुनिया के सभी देशों में ड्रग ट्रायल पर रोक नहीं है। इन्हें करने की विधियों पर बकायदा नियम बने हुए हैं।
प्रश्न : क्या मरीजों पर ड्रग ट्रायल करना अनैतिक काम है। उनका शोषण है। उन्हें अंधेरे में रखा जाता है। उन पर ट्रायल करना, चूहों पर प्रयोग करने जैसा है।
उत्तर : ड्रग ट्रायल करना शोध की वैज्ञानिक विधि है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। मरीजों को पूरी जानकारी बोलकर तथा लिखित में समझाई जाती है। सोचने विचारने का पूरा समय देते हैं। समस्त शंकाओं का समाधान करते हैं। अनपढ मरीज या दिमागी रूप से अक्षम मरीज के मामले में उसके परिवार के जिम्मेदार कानून सम्मत व्यक्ति की सहमति लेते हैं। मरीज पर कोई दबाव नहंी डाला जाता। कोई जानकारी छिपाई नहीं जाती। दवाई के नुकसानों के बारे में भी बताया जाता है। मरीज को स्वतंत्रता रहती है कि अध्ययन को वह जब चाहे बीच में, बिना कारण बताए छोड सकता है। इसके बाद भी मरीज की देखभाल में कोई अन्तर नहीं किया जाता है। मरीजों को यह भी मालूम रहता है कि उन्हें दिये जाने वाली गोली/केप्सूल/इन्जेक्शन आदि में या तो असली औषधि हो सकती है या निष्क्रिय हानिरहित प्लेसीबो।
प्रश्न : क्या ड्रग ट्रायल करना मरीजों के साथ चूहे जैसा व्यवहार करना नहीं है ?
उत्तर : ड्रग ट्रायल्स संचालित करने वाले चिकित्सकों व अनुसंधान कर्ताओं ने अपने मरीजों को कभी गिनीपिग नहीं समझा। मरीजों के लिये चूहा या जानवर जैसे शब्दों का उपयोग करना न केवल वैज्ञानिकों का अपमान है बल्कि उन हजारों सयाने और समझदार (फिर चाहे वे अनपढ हों या पढे लिखे हों, ग्रामीण हों या शहरी हों) मरीजों व घरवालों का अपमान है जिन्होंने अपने पूरे होशों हवास में सोच समझकर ट्रायल में शामिल होने के सहमति पत्र पर न केवल हस्ताक्षर किये बल्कि अनेक महीनों या वर्षों तक नियमित रूप से, विश्वासपूर्वक बिना प्रलोभन या दबाव के, परीक्षण हेतु आते रहे।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल के बजट में से मरीजों को क्या भुगतान किया जाता है ?
उत्तर : क्लीनिकल ड्रग ट्रायल्स में भाग लेने वाले किसी भी मरीज को धन भुगतान या कोई प्रलोभन देना गैर कानूनी है। अतः ट्रायल में भाग लेने वाले मरीजों को इसके लिये कोई भुगतान नहीं किया जाता । उनकेआने जाने का खर्च तथा भोजन पर किये गये खर्चे की प्रतिपूर्ति ट्रायल मद से की जाती है।
प्रश्न : मरीजों की सुरक्षा व हितों के लिये क्या उपाय किये जाते हैं ?
उत्तर : ट्रायल में भाग ले रहे मरीजों की सुरक्षा तथा हितों की रक्षा के लिये हर स्तर पर जागरूकता रखी जाती है जो कि (जी.सी.पी.) उत्तम क्लीनिकल व्यवहार के मूल सिद्धांतों अनुसार किया जाता है। रिसर्च में भाग ले रहे प्रत्येक मरीज की देखभाल भली-भांति की जाती है तथा उसे रिसर्च को कभी भी स्वैच्छिक रूप से छोडने की स्वतंत्रता दी जाती है। यदि कोई मरीज क्लीनिकल ड्रग ट्रायल हेतु अपनी सहमति वापस लेता है तो उसकी बाद में देखभाल तथा इलाज में कोई भी कमी नहीं रखी जाती है।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल में शामिल होने वाले मरीजों को क्या लाभ ?
उत्तर : सहमति पत्र भरवाने के पहले, शुरू में ही मरीजों को बताया जाता है कि अध्ययन में शामिल होने से आपको कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं होगा। जो दवाई दी जावेगी उसमें असली औषधि है या प्लेसीबो यह ज्ञात नहीं । यदि आपको संयोगवश असली औषधि मिल रही है तो सम्भव है कि कुछ लाभ हो। अंतिम परिणाम, ट्रायल समाप्त होने के बाद ही मिलेगा। ट्रायल प्रायः कुछ माह से लेकर एक - दो वर्ष तक चलते हैं। तत्पश्चात्‌ यह औषधि नहीं मिलेगी। बाजार में फिलहाल उपलब्ध नहीं है। कब मिलेगी कह नहीं सकते। जो पुराना इलाज है वह जारी रहेगा। ट्रायल की अवधि में आपको बार-बार आना पडेगा। आवागमन और नाश्ते का भत्ता मिलेगा। अन्य कोई राशि नहीं मिलेगी । अनेक उपयोगी जांचें ट्रायल बजट से हो जाती हैं। डाक्टर्स आपके स्वास्थ्य पर ज्यादा बारीकी से ध्यान देते हैं। अनेक मरीज इसी बात से संतोष महसूस करते हैं कि उन्होंने विज्ञान की प्रगति में योगदान दिया।
प्रश्न : मरीजों की सहमति कैसे प्राप्त करते हैं ?
उत्तर : अध्ययन में शामिल करते समय सहमति पत्र भरवाने के पहले, मरीज व घरवालों को ये सारी बातें विस्तार से समझाई जाती है। कहा जाता है - आपको जो औषधि दी जावेगी उसमें वास्तविक दवा हो सकती है या बिना असर वाली प्लेसीबो। न आपको ज्ञात होगा न हमें।ङ्घ संतोष और सुखद आश्चर्य की बात है कि न केवल शहरी शिक्षित वरन अनपढ व ग्रामीण मरीज भी इस तर्क से वैज्ञानिक पहलू को भली भांति समझ जाते हैं और उसके बाद ही अनुमति पत्र पर हस्ताक्षर करते हैं।
ट्रायल में भाग लेने वाले संभावित मरीजों को अनुसंधान प्रोटोकॉल तथा औषधि के बारे में सारी जानकारी हिन्दी में देते हैं एवं हिन्दी के सूचित सहमति पत्र पर हस्ताक्षर लेते हैं। हिन्दी में अंकित सूचित सहमति पत्र में दवाई से संबंधित आज तक की पूर्ण जानकारी रहती है, इसको पढने एवं समझने तथा मरीज के प्रश्नोत्तर के बाद संतुष्ट होने पर ही सहमति ली जाती है।
प्रश्न : ट्रायल में शामिल मरीज की कोई पहचान नहीं रह जाती। वह केवल एक नम्बर रह जाता है। गुमनाम हो जाता है।
उत्तर : मरीजों की पहचान छिपाकर रखना कानूनी दृष्टि से जरूरी है। हर इन्सान को अपनी प्रायवेसी या निजता का हक होता है। मरीज से सम्बन्धित जानकारी एक कोड नम्बर के रूप में संग्रहित रहती है। आवश्यकता पडने पर मरीज से सम्पर्क किया जा सकता है। मरीज गुमनाम नहीं होता। उसकी प्रतिष्ठा और पहचान की रक्षा की जाती है।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल में गुप्त या गुमनाम दवा का प्रयोग करते हैं जिसकी जानकारी मरीज व डाक्टर को नहीं रहती। ये ट्रायल ब्लाइंड या अन्धे होते हैं।
उत्तर : अन्तरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय नियमों के अनुसार ड्रग ट्रायल का डबल ब्लाईंड या दुहरा अन्धा होना जरूरी है। आधे मरीजों में असली दवा तथा आधे मरीजों में नकली या झूठमूठ की दवा (प्लेसीबो) देना होती है। किसी को मालूम नहीं होना चाहिये- न मरीज को न डाक्टर्स को। वरना सायकोलाजिकल रूप से मरीज व डाक्टर्स दवाई के असर के बारे में सोचने लगते हैं। उनका निर्णय निष्पक्ष नहीं रह पाता। दवा गुमनाम या गुप्त नहीं होती। उसका नाम, केमिस्ट्री, फार्माकोलाजी आदि की विस्तृत जानकारी डी.सी.जी.आई., अध्ययनकर्ता डाक्टर व एथिक्स कमेटी के सदस्यों को दी जाती है।
प्रश्न : ये ट्रायल्स विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा ही क्यों चलाये जाते हैं ?
उत्तर : बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ प्रायः पुरानी व बडी होती हैं। रिसर्च हेतु उनके पास बजट अधिक होता है। उनके स्टाफ में उध कोटि के वैज्ञानिक होते हैं । भारतीय कम्पनियाँ भी अब बडी और बहुराष्ट्रीय होने लगी हैं तथा ड्रग ट्रायल्स के क्षेत्र में पदार्पण कर रही हैं।
प्रश्न : ये ट्रायल्स बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा भारत जैसे विकासशील देशों की गरीब जनता पर ही क्यों चलाये जाते हैं ? विकसित देशों की जनता पर क्यों नहीं ?
उत्तर : आज से एक दशक पूर्व तक समस्त ट्रायल्स केवल विकसित देशों में ही होते थे । आर्थिक विकास से साथ भारत जैसे देशों में शिक्षा, ज्ञान व कौशल का स्तर बढा है तथा उध कोटि के विश्वसनीय ट्रायल यहां तुलनात्मक रूप से कम खर्च में सम्भव है। जन-संख्या अधिक होने से ट्रायल के लिये जरूरी मरीज जल्दी मिल जाते हैं। ये ट्रायल्स अभी भी मुख्यतया विकसित देशों में ही होते हैं। ड्रग ट्रायल्स में समाज के समस्त वर्गों के मरीज भाग लेते हैं केवल गरीब लोग नहीं। मिथ्या धारणा के विपरीत ट्रायल्स में समाज के मध्यम व उध वर्ग के मरीजों का अनुपात अधिक होता है क्योंकि वे शहरों में, पास ही रहते हैं तथा शिक्षित होते हैं।
प्रश्न : ट्रायल्स में विदेशों में प्रतिबन्धित दवाईयों का उपयोग तो नहीं होता ?
उत्तर : कोई भी औषधि जो अन्य देशों में प्रतिबन्धित हो, जिसके कारण खतरे व नुकसान होने की आशंकाएं अधिक हो उन्हें डी.सी.जी.आई. कभी ट्रायल में प्रयुक्त होने की अनुमति नहीं देता। यह सोचना गलत है कि अमेरिका वाले जिन दवाओं का प्रयोग उनके देश में नहीं करना चाहते, विकासशील देशों की भोली गरीब जनता को शिकार बनाते हैं । यह सम्भव नहीं है। हम इतने गये गुजरे व निरीह नहीं हैं। नाना प्रकार के षडयंत्रों के अंदेशों से हमें अनावश्यक रूप से दुबले होने और डरने की जरूरत नहीं है। भारत अब एक विश्वशक्ति है जिसका रूतबा बढ रहा है। भारत सरकार की नियामक संस्थाओं की अनुमति और सतत्‌ निगरानी के बगैर कोई ट्रायल संचालित नहीं हो सकता।
प्रश्न : जिन दवाओं को एफ.डी.ए. की अनुमति नहीं मिली है उनका उपयोग ट्रायल में क्यों होता है ?
उत्तर : - फूड एण्ड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफ.डी.ए.) (खा एवं औषधि प्रशासन) : की अनुमति के बगैर किसी औषधि को बाजार में या अस्पतालों में उपलब्ध नहीं कराया जा सकता। लेकिन ड्रग ट्रायल्स में शोध हेतु काम आने वाली औषधियों का सीमित उपयोग किया जा सकता है। बशर्ते डी.जी.सी.आई. ने अनुमति दे दी हो।
उदाहरणार्थ पार्किंसोनिज्म के उपचार में आने वाली एक नई औषधि रोटीगोटीन को चमडी पर स्टीकर चिपका कर देते हैं। फिलहाल इसे भारतीय बाजार में बेचने का लाईसेंस नहीं मिला है परन्तु डी.सी.जी.आई. में शोध ट्रायल हेतु अनुमति दे दी है जो देश में अनेक केन्द्रों पर चल रहा है।
प्रश्न : राज्य शासन की अनुमति व निगरानी के बगैर ये ट्रायल सरकारी अस्पतालों में क्यों चल रहे हैं?
उत्तर : भारत के अधिकांश राज्यों ने इस हेतु किन्हीं नियमों की आवश्यकता महसूस नहीं करी है क्योंकि ड्रग -ट्रायल के माध्यम के औषधियों पर शोध उनकी विषय वस्तु नहीं है। चूंकि राज्य स्तर पर नियम नहीं है अतः किसी नियम के उल्लंघन का सवाल नहीं उठता। एस.एम.एस. मेडिकल कॉलेज, जयपुर, के.जी. मेडिकल कालेज, लखनऊ जैसे पुराने प्रतिष्ठित अस्पतालों में डाक्टर्स बगैर राजस्थान या उत्तरप्रदेश शासन की अनुमति से अनेक वर्षों से ट्रायल्स कर रहे हैं।
प्रश्न : यदि राज्य शासन की नहीं तो फिर किन अन्य संस्थाओं की अनुमति व निगरानी की व्यवस्था रहती है ।
अ. भारत शासन की ओर से भारत के महा औषधि नियंत्रक (डी.सी.जी.आई.)
ब. भारत शासन की ओर से खा एवं औषधि प्रशासन
स. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा बायोमेडिकल रिसर्च के सन्दर्भ में तथा संस्थागत एथिक्स कमेटी के गठन व कार्यकलाप के सन्दर्भ में दिशा निर्देश
द. संयुक्त राज्य अमेरिका तथा यूरोपियन युनियन के एफ.डी.ए. क्योंकि अनेक बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियों के मुख्यालय वहां स्थित हैं तथा वे कम्पनियाँ वहां के एफ.डी.ए. के प्रति उत्तरदायी हैं, भले ही ट्रायल अन्य देशों में भी चल रहा हो ।
प्रश्न : क्या म.प्र. शासन को किसी भी स्तर पर इन ट्रायल के बारे में कभी कोई जानकारी नहीं दी गई।
उत्तर :स्वशासी संस्था एम.जी.एम. मेडिकल कालेज, इन्दौर के संदर्भ में एक्जीक्यूटिव काउन्सिल व जनरल काउन्सिल में निर्णय लिया गया था कि ट्रायल बजट की कुल राशि का १०% विभागीय फण्ड में जमा कर के विभाग के उन्नयन में लगाया जावेगा। उक्त मीटिंग में तत्कालीन माननीय चिकित्सा शिक्षा मंत्री, इन्दौर संभाग के आयुक्त व कालेज के डीन उपस्थित थे। अतः यह कहना उचित नहीं है कि ड्रग ट्रायल्स के बारे में शासकीय स्तर पर कोई जानकारी नहीं है । बजट कि १०% राशि विभागीय फण्ड में जमा करने का निर्णय किया गया था न कि संस्थागत फण्ड में। यह निर्णय अध्ययनकर्ता चिकित्सकों की स्वप्रेरित पहल व अनुरोध पर लिया गया था।
प्रश्न : क्या सरकारी अस्पतालों में जारी ट्रायल्स की जानकारी वहां के विभागाध्यक्ष या संस्था प्रमुख या एथिक्स कमेटी के सदस्यों को नहीं रहती है ?
उत्तर : ट्रायल्स अनुबन्ध की समस्त प्रतियों पर संस्था के प्रमुख (डीन) या अधीक्षक या विभागाध्यक्ष तथा रिसर्च करने वाले डाक्टर के हस्ताक्षर होते हैं। इसकी एक प्रति विभागाध्यक्ष तथा एथिक्स कमेटी के अध्यक्ष के पास सदैव रहती है जिसे डीन तथा एथिक्स कमेटी केसदस्य कभी भी पढ सकते हैं।
ट्रायल प्रोटोकाल (रिसर्च की विधि) की विस्तृत प्रतियाँ एथिक्स कमेटी के सभी सदस्यों को दी जाती है।
प्रश्न : क्या से ट्रायल्स सिर्फ म.प्र. में या सिर्फ इन्दौर में हो रहे हैं ?
उत्तर : भारत सहित पूरी दुनिया के सैकडों निजी और सरकारी अस्पतालों में हजारों डाक्टर्स द्वारा लाखों मरीजों पर बीसियों सालों से ड्रग ट्रायल्स चल रहे हैं। मध्यप्रदेश पिछडा प्रदेश होने से यहां बहुत बाद में शुरू हुए हैं, बहुत कम संख्या में हुए हैं। अतः यहां की जनता और मीडिया को लगता है कि यह कोई नया काम शुरू हुआ है।
प्रश्न : शासकीय वेतन के अतिरिक्त ट्रायल्स से प्राप्त अतिरिक्त आय की अनुमति सरकारी डाक्टर्स को कैसे मिली ?
उत्तर : स्वीकृत बजट का एक बडा हिस्सा ट्रायल संचालन में खर्च होने के बाद अनुसंधानकर्ता चिकित्सक के पास यदि कुछ राशि बची रह जाती है तो वह उसकी वैधानिक आय होती है, जिसका कि वह हकदार है तथा जिस पर उसे आयकर अदा करना होता है। यह प्रायवेट प्रेक्टिस नहीं है लेकिन एक प्रकार की कन्सलटेंसी (परामर्श सेवा) है जो विभिन्न विश्वविद्‌यालयों, आई.आई.टी., आई.आई.एम. आदि के प्रोफेसर भी करते हैं।
प्रश्न : शासकीय अस्पतालों में बिना अनुमति बाहरी व्यक्तियों को क्यों काम पर लगाया जाता है ?
उत्तर : मध्यप्रदेश शासन या उसकी संस्थाओं द्वारा क्लिनिकल ट्रायल्स हेतु अन्वेषकों को कोई अघोसंरचना सुविधाएं या प्रशिक्षित टेक्निकल स्टॉफ नहीं दिया जा रहा है। शासकीय चिकित्सालयों में ड्रग ट्रायल्स के संचालन हेतु अतिरिक्त अस्थायी स्टाफ आदि की व्यवस्था ट्रायल के बजट से होती है। शासन पर आर्थिक भार नहीं आता है। उपरोक्त सुविधाओं को अलग से प्रशासकीय स्वीकृति देने की कोई आवश्यकता नहीं होना चाहिये।
प्रश्न : शासकीय अस्पतालों में बिना अनुमति टेलीफोन, कम्प्यूटर, फेक्स, इन्टरनेट, रेफ्रिजरेटर व अन्य साधन क्यों लगाए गये ?
उत्तर : शासन पर आर्थिक भार नहीं आता है। अस्पताल की सुविधाओं में वृद्धि होती है। कुछ संसाधन अस्थायी तौर पर उपलब्ध होते हैं तो कुछ अन्य संसाधन स्थायी रूप से विभाग की संपत्ति बन जाते हैं। ड्रग ट्रायल्स चूंकि केन्द्रीय शासन व अन्तरराष्ट्रीय नियामक संस्थाओं की निगरानी में चलते हैं अतः स्थानीय स्तर पर अनुमति की आवश्यकता नहीं है।
प्रश्न : ट्रायल करने वाले सीनियर और जूनियर डाक्टर्स को विदेश यात्रा पर क्यों भेजा जाता है?
उत्तर : ड्रग ट्रायल्स के उचित संचालन हेतु टीम के सदस्यों के प्रशिक्षण हेतु प्रायोजक कम्पनी द्वारा एक या दो दिन हेतु देश के अन्दर या बाहर मीटिंग में जाने की अनिवार्यता होती है। इस गतिविधि को त्वरित स्वतः स्थानीय स्वीकृति प्रदान करने की प्रक्रिया पर शासन को विचार करना चाहिये। उक्त मीटिंग में सुबह से शाम तक ट्रेनिंग दी जाती है। साईट सीईंग नहीं होता, गुलछर्रे नहीं उडाये जाते । वरिष्ठ चिकित्सक वैसे भी अनेक विदेश यात्राएं कर चुके होते हैं। उन्हें कोई लालच नहीं होता। जूनियर डाक्टर्स के लिये ये मीटिंग उपयोगी होती है। ट्रायल के परिचालन की ट्रेनिंग हेतु देश या विदेश में जब वरिष्ठ व कनिष्ठ चिकित्सक शिरकत करते हैं तो उनका ज्ञान बढता है, सम्पर्क व पहचान बढते हैं।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल्स का बजट कहां से आता है ?
उत्तर : नई औषधि का आविष्कार या विकास करने वाली फार्मास्यूटिकल कम्पनी ड्रग ट्रायल्स का बजट प्रदान करती है। प्रायोजक ड्रग कम्पनी, अनुसंधानकर्ता चिकित्सक तथा संस्था के मध्य त्रिपक्षीय अनुबंध होता है। संस्था के डीन व एथिक्स कमेटी के अध्यक्ष को इसकी प्रति दी जाती है। प्रस्तावित बजट इस बात पर निर्भर करता है कि कितने मरीजों को कितनी बार आना पडेगा, कितना स्टाफ रखना पडेगा, प्रत्येक विजिट में और उसके बाद समस्त रेकार्ड कीपिंग में अनुसंधानकर्ता का कितना समय खर्च होगा आदि।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल्स का बजट डीन के या शासन के खाते में क्यों नहीं आता सीधे डाक्टर्स के खाते में क्यों आता है?
उत्तर : ड्रग कम्पनी और उनके लिये काम करने वाले कान्ट्रेक्ट रिसर्च आर्गेनाईजेशन एक डाक्टर का अध्ययनकर्ता के रूप में चुनते हैं न कि संस्था को । अध्ययनकर्ता डाक्टर्स की अकादमिक योग्यता, प्रकाशन, शोध अनुभव आदि देखे जाते हैं। चूंकि संस्था की सीमित सुविधाओं का उपयोग किया जाता है। अतः कुल बजट का १०% विभागीय फण्ड में शुरु करने की स्थानीय परम्परा है।
प्रश्न : क्या ड्रग-ट्रायल्स का पूरा बजट, शुरू में ही एक मुश्त दे दिया जाता है ?
उत्तर : प्रायोजक कम्पनी से प्राप्त बजट का भुगतान सी.आर.ओ द्वारा विभिन्न किश्तों में यह सुनिश्चित करने के बाद किया जाता है कि कितने मरीजों की कितनी विजिट हुई तथा औषधि के प्रभावों को सही तरह से रेकार्ड किया गया या नहीं। सी.आर.ओ. कम्पनी के प्रतिनिधि प्रति एक या दो माह में क्लिनिक आकर समस्त रेकार्ड्‌स का बारीकी से मुआयना करते हैं। इस बात की पुष्टि करते हैं कि सही डायग्रोसिस वाले मरीजों को अनुसंधान में शामिल किया गया है, सहमति पत्र भरवाने की प्रक्रिया दोष रहित है, औषधि प्रदान करने, उपयोग करने और बची रहने पर वापस करने का लेखा जोखा सम्पूर्ण है। अन्यथा बजट की किश्तें रोक ली जाती है।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल्स से प्राप्त बजट के खर्चों पर कौन निगरानी रखता है।
उत्तर : ड्रग ट्रायल्स से प्राप्त बजट के खर्चों का नियमित रूप से आडिट/लेखा जोखा रखा जाना अनुसंधान कर्ता की जिम्मेदारी है। किसी प्रकार की अनियमितता पायी जाने पर उन्हें प्रशासकीय या कानूनी कार्यवाही का सामना करना पडेगा जो निम्न विभाग कर सकते हैं - भारत सरकार का आयकर विभाग, आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो, लोकायुक्त तथा चिकित्सा महाविालय के अधिष्ठाता।
प्रश्न : संस्था के डीन, अधिक्षक व विभागाध्यक्ष की क्या जिम्मेदारियाँ होती हैं ?
उत्तर : यह सुनिश्चित करना कि एथिक्स कमेटी का गठन व कार्यप्रणाली नियमानुसार है, ड्रग ट्रायल्स सम्बन्धी कार्यों की अधिकता और व्यस्तता के कारण अनुसंधानकर्ता व जूनियर डाक्टर्स अपनी मूलभूत प्राथमिक जिम्मेदारी यथा मरीजों की देखभाल, अध्ययन और अध्यापन में कोई कोताही तो नहीं बरत रहे हैं, प्रायोजक द्वारा प्रदान किये गये बजट का १०% विभागीय फण्ड में जमा होकर, उचित उद्देश्यों पर खर्च हो रहा है।
प्रश्न : ड्रग ट्रायल्स का बजट किन-किन मदों में खर्च होता है ?
उत्तर : रिसर्च असिस्टेंट व स्टडी कोआर्डिनेटर (जो नान मेडिकल या मेडिकल हो सकते हैं) को मासिक वेतन, मरीजों को आवागमन व भोजन हेतु भत्ता, टेलीफोन व इन्टरनेट बिल्स, कम्प्यूटर्स, प्रिंटर्स का रखरखाव, स्टेशनरी, पत्र-व्यवहार, कुरियर सर्विस आदि। स्थायी संसाधन खरीदना जैसे - अलमारी, फर्नीचर, रेफ्रिजरेटर आदि। दस प्रतिशत राशि विभागीय फण्ड में जमा की जाती है।
प्रश्न : दवा कम्पनी और अध्ययनकर्ता चिकित्सक के बीच होने वाला एग्रीमेन्ट, गोपनीय क्यों माना जाता है ?
उत्तर : बौद्धिक संपदा की सुरक्षा जरूरी है। पारदर्शिता का अपना महत्व है परन्तु उसी के साथ इस बात को भी स्वीकार किया जाता है कि जब कोई दवा कम्पनी किसी नई औषधि का विकास करने हेतु ट्रायल संचालित करती है तो अन्य प्रतिस्पर्धी कम्पनियों से उक्त जानकारी का साझा नहीं करना चाहती। बिजनेस सीक्रेट एक कानूनी अधिकार है। ट्रायल हेतु किसी डाक्टर का चयन करने के पहले दवा कम्पनी व ट्रायल के संचालन की व्यवस्था करने वाला कान्ट्रेक्टर रिसर्च आर्गेनाईजेशन, डाक्टर्स से गोपनीयता अनुबन्ध पर हस्ताक्षर करवाते हैं कि वह इस ट्रायल से संबंधित कोई जानकारी (जिसमें बजट भी शामिल है) नियामक संस्थाओं और अधिकारियों (अध्यक्ष एथिक्स कमेटी, डीन, विभागाध्यक्ष, या अधीक्षक) के अलावा किसी को भी जाहिर नहीं करेगा।
प्रश्न : इस प्रकरण में मीडिया की क्या भूमिका है ?
उत्तर : इस समस्त प्रकरण में मीडिया की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका के साथ मीडिया को लोकतंत्र का चौथा पाया माना जाता है। फिर भी यह देखकर दुःख और क्षोभ होता है कि मीडिया से जितनी परिपक्वता, जिम्मेदारी, सन्तुलन और खोजपरकता की उम्मीद की जाती है, अनेक अवसरों पर वह उस पर खरा नहीं उतरता। ठीक वैसे ही जैसे कि डाक्टर्स, कभी-कभी आम जनता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। हालांकि एक पक्ष की कमी, दूसरे पक्ष की माफी नहीं होती।
प्रश्न : इस प्रकरण में मीडिया के नकारात्मक कवरेज का क्या कारण है ?
उत्तर : ड्रग ट्रायल्स को लेकर व्याप्त बेड-प्रेस (कुख्याति) के एक से अधिक कारण है। एक है अज्ञान, जानकारी का अभाव। खोज और अध्ययन के लिये जो मेहनत और बुद्धि लगती है उसमें कमी। दूसरा प्रमुख कारण है ईर्ष्या। प्रख्यात लेखक चेतन भगत ने अभी कुछ ही सप्ताह पूर्व अपने स्तम्भ में लिखा था कि हम भारतीय अपने लोगों की सफलता से प्रभावित होने के बजाय जलन करते हैं। दुनिया के अन्य देशों की तुलना में भारत पिछडा क्यों है ? भारत के अनेक प्रान्तों की तुलना में मध्यप्रदेश पिछडा क्यों है ?- इसके अनेक कारण है। परन्तु एक प्रमुख कारण है मेरिट की सराहना के बजाय ईर्ष्या की अधिकता।
प्रश्न : चूंकि ड्रग ट्रायल्स के संचालन में अनेक बार कमियाँ देखी जाती हैं इसलिये क्या उन पर रोक नहीं लगा देना चाहिये ?
उत्तर : कमियाँ किस में नहीं होती ? लोग अच्छे और बुरे होते हैं। कम्पनियाँ अच्छी और बुरी होती हैंफिर वे चाहे बडी हों या छोटी, देशी हों या विदेशी, एक-राष्ट्रीय हों या बहुराष्ट्रीय। प्रश्न तुलनात्मकता का है। कुल लाभ अधिक है या कुल हानि? कुछ ट्रायल में गडबडियाँ हैं, कभी-कभी मरीजों के हितों पर नुकसान पहुंच सकता है- इन कारणों से ट्रायल्स पर रोक लगाना या उनके सुचारू संचालन को जकड देना वैसा ही होगा कि पत्रकारिता में बहुत कमियाँ हैं- इसलिये प्रेस की आजादी बंद कर दो, लोकतंत्र में कमियाँ है इसलिये तानाशाही ले आओ। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार आ पहुंचा है इसलिये राजतंत्र जैसी न्यायप्रणाली ले आओ। ड्रग ट्रायल के सन्दर्भ में कुप्रचारित कमियाँ प्रायः गौण व तकनीकी किस्म की है । उन पर निगरानी, नियंत्रण व सुधार हेतु पहले से पर्याप्त व्यवस्थाएं हैं। तथा उनमें निरन्तर विकास जारी है।

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