बुधवार, 11 अगस्त 2010

रेफ्टिंग

हवा से भरी हुई प्लास्टिक की नाव में रेफ्टिंग करते हैं। रेफ्ट का हिन्दी शब्द अभी याद नहीं है। प्राचीन काल से लकडियों का रेफ्ट बनता आया था। प्लास्टिक तो नया आविष्कार है। लकडी के लट्ठों को मजबूत रस्सियों से बांधकर एक चपटा चबूतरा सा बन जाता है जो पानी की लहरों के भरोसे बहता रहता है। नाविकों का नियंत्रण चप्पू के सहारे होता है। सामुद्रिक जातियों ने सैंकडों हजारों किलोमीटर की यात्राएं इन्हीं रेफ्ट के सहारे सम्पन्न की थी । साहस और जोखिम से भरी हुई यात्राएं।

लेकिन हम सुरक्षित थे। बम्बई गोआ राजमार्ग पर कोलाड कस्बे के पास कुन्डलिका नदी के किनारे सुबह नौ बजे पहुंचे थे। पिछले तीन दिनों से लगातार बारिश हो रही थी। नदी पूर पर थी। पश्चिमी घाट से निकलने वाली नदियाँ अरब सागर की अपनी लघु यात्रा सौ सवा सौ किलोमीटर में पूरी कर लेती हैं। छोटा जीवन, पर भरपूर सौन्दर्य। पहाडी नदियाँ वैसे भी अधिक मनोहारी होती हैं। बडी-बडी चट्टानों पर पछाड खाता हुआ पानी ऊंची लहरें और गहरे भंवर बनाता है। इंसान के विकास की तमाम लालच भरी गुस्ताखियों, दुष्कर्मों, बेहरमियों के बावजूद मानसून के महीनों में घाट में जंगलों का आभास जीवित रहता है।

मर्क्यूरी हिमालयन एक्पीडीशान कम्पनी के बाशिंदे जीप गाडियों की छत पर हवा से फूली हुई प्लास्टिक की नावें लाद कर पहुंच रहे थे। चार व्यक्तियों के कन्धों पर नावों को ढोकर नदी के किनारे लाया गया। पानी बरसता रहा। एक बोट में आठ पर्यटक और एक गाईड बैठता है। हम चालीस पर्यटक थे। उत्तराखण्ड वासी प्रमोद मुख्य गाईड था। उसने सबकी क्लास ली। "सुनो सुनो ध्यान से सुनो। टीम के लिये जरूरी है कि गाईड के आर्डर्स का पालन करे । बीच में बातचीत नहीं। बोट के किनारे पर मार्जिन पर बैठना है। एक पांव आगे व एक पांव पीछे बाटम प्लास्टिक के नीचे फंसा कर फिक्स करना है वरना बाहर फिंका जाओगे।" हमारे दिल की धडकन बढ रही थी। नदी की दूर से दिखाई देती उद्दाम लहरें डर को बढा रही थी।

प्रमोद कह रहा था - "पहला आर्डर सीखो - 'पैडल फारवर्ड' आगे की दिशा में चप्पू चलाओ। एक हाथ से चप्पू का टी नुमा सिरा यों पकडो। दूसरे हाथ से ब्लेड के चार इंच ऊपर हेंडल को टाईट पकडो। चप्पू को पानी में नाइंटी डिग्री के एंगल से , खडा डालो। बदन आगे की ओर झुकाओ । पूरी ताकत और स्पीड से बदन के साथ हाथों को पीछे की ओर खींचो। सारे टीम मेम्बर एक साथ करेंगे। अपनी ढपली अपना राग नहीं होगा। कढाई में कडधुल जैसा नहीं चलता। चप्पा चप्पा चरखा नहीं चलेगा। दूसरा कमाण्ड सिखाया गया 'पैडल बेकवर्ड', तीसरा 'स्टाप' जिसमें चप्पू को जांघों पर आडा रख कर बैठना था। दायें या बायें मोडने के आदेश अलग थे। छठा आर्डर था मूव इन । सभी सदस्यों को बोट के अन्दर को झुकना था तथा किनारे पर बंधी रस्सी अर्थात लाईफ लाईन को पकडना था। प्रमोद ने बताया 'चीखना मना है। आंखें आगे की ओर तथा कान गाईड की आवाज की तरफ हों और अब सुनो रेस्क्यू यानि बचाव के बारे में। यदि कोई मेम्बर पानी में गिर जाता है तो कोई घबराएगा नहीं। मेम्बर खुद तैर कर बोट के पास आने की कोशिश करे और लाईफ लाईन पकड लें। दूसरे सदस्य या गाईड मेम्बर की लाईफजेकेट के कन्धों वाली पट्टियाँ पकड कर उसे ऊपर खींचेंगे। यदि बोट दूर है तो चप्पू का टी वाला सिरा मेम्बर की तरफ बढाऐं और उसे पकडने को कहें। दूरी और भी अधिक होने पर रस्सी भरी यह थैली फैंकी जावेगी। सब लोग अपना लाईफ जैकेट चेक कर लें। सारे हुक कस कर बंधे होना चाहिये । किसी का वजन १५० किलो से ज्यादा तो नहीं है ? इस जैकेट की केपेसिटी १५० किलो है। सिर पर हेलमेट भी टाईट फिट होना चाहिये।"

सब की घबराहट चरम पर थी। प्रमोद ने किनारे के शान्त पानी में सारे अभ्यास की दो दो बार ड्रिल करवाई और कहा कि "अपने आपरेशन की सफलता की ९०% जिम्मेदारी टीम के हाथ में और १०% जिम्मदारी गाईड के हाथों में होती है। रास्ते में अनेक रेपिड्‌स मिलेंगे।" रेपिड्‌स का मतलब होता है चट्टानी ढलानों पर गुजरते समय धारा की गति का तेज होना तथा लहरों का ऊंचा होना या भंवर बनना। ग्रेड वन रेपिड सबसे आसान और ग्रेड फाईव सबसे कठिन होते हैं। आज की यात्रा में ग्रेड २ व गे्रड ३ रेपिड्‌स मिलने वाले थे।

हम पांच के साथ पूना का एक कपल था और अच्छी किस्मत से हमें गाईड खुद प्रमोद मिला। बीच धारा में आते ही बोट तीव्र गति से बह निकली। हम आनंदित हो उठे । मजा आ रहा था। लहरों पर बोट उछलती और फिर टपक पडती। डर कम हो गया था। डर मन की अवस्था है। जो होगा उसकी कल्पना अधिक भयावह होती है। जो होता है, जिसे भोगा जाता है, जिसमें जिया जाता है, उसमें हम इतने व्यस्त हो जाते हैं, रम जाते हैं कि डरने के लिये समय ही नहीं रहता।

बीच-बीच में आदेश दुहराए जा रहे थे। टीम पैडल फारवर्ड। स्टाप। फिर पैडल फारवर्ड। एक के पीछे एक पांच नावें। भूरा आकाश, हरे किनारे, लाल मटमैला पानी और उसमें छितरी हुई चटख रंग बिरंगी नावों पर सवार हेलमेट धारी रंगीन हम नाविक। हसीन और प्यारा दृश्य बन रहा था। रोमांच, भय,धुकधुकी, आल्हाद और संतोष की मिलीजुली अनुभूति हो रही थी।

प्रमोद ने कहा - "आगे बडा रेपिड है। सब तैयार रहें। हमें तेजी से नाव को दायीं दिशा में धारा के पार काटना है। पूरी ताकत, पूरी स्पीड व पूरे ताल के साथ, फास्ट पैडल फारवर्ड।" विशालकाय लहर केसामने आदेश मिला मूव इन, हम अन्दर की दिशा में दुबके, मोटी लहर के तेज थपेडे में एक क्षण के लिये डूबे और फिर बाहर । सफलता की खुशी में चेहरे खिल उठे। विश्वास का आनंद था कि हम यह कर सकते हैं, हमने यह कर लिया।

कभी कभी नाव एक ही स्थान पर चरघिन्नी खाने लगती, उल्टी दिशा में मुंह कर लेती। हमें बेकवर्ड पैडल का आदेश मिलता। बीच-बीच में बडे वृक्ष या चट्टानें मार्ग में आते। गाईड प्रमोद ने ९०% काम किया होगा। अकेला अपने एक चप्पू से वह बोट की दिशा, दायें या बायें नियंत्रित करता रहा। टीम मेम्बर एक दूसरे को टोकने से बाज न आते। "सुना नहीं स्टाप कमाण्ड, रुक जा ।" "आप सिंक्रोनाईज नहीं कर रहे हैं, सब के साथ एक लय में पैडल करो।" "पानी मत उछालो। चप्पू को वर्टीकल अन्दर डालो।" "बोट से दूर रखो, उससे सटा कर मत रगडो।" दो बार नाव को किनारे के पास शान्त पानी में रोका गया। खींच कर जमीन पर अटकाया। पांचों गाइड पैदल आगे जाकर देख कर आये कि रेपिड्‌स कैसा है, पानी का लेवल कितना है, किस साईड से, किस दिशा से, किस कोण से धारा को काटना होगा।

नदी के किनारे पर छोटी पहाडियाँ व घने जंगल थे। बडी झाडियाँ और छोटे वृक्ष पानी में आधे डूबे हुए थे। कुछ सुन्दर रंगबिरंगे जंगली फूलों को पाने की ख्वाहिश अन्विता ने जाहिर की तो प्रमोद ने पेडल बेकवर्ड के आदेश के साथ वह भी पूरी करवा दी।

कमर टेढी कर के ताकत के साथ चप्पू चलाते रहने पर मांसपेशियों में हल्का दर्द था। थकान न थी। अन्य बोट्‌स कभी-कभी पास आ जाती, या हौले से टकरा जाती, लोग एक दूसरे पर पानी उछालते या रेस में आगे हो जाने पर शोर मचाते। यात्रा के अंतिम कुछ किलोमीटर में रेपिड्‌स नहीं थे। मंदर गंभीर गति से बहती नदी थी। जगह-जगह छोटी बडी धाराएं और झरने नदी में मिल रहे थे। एक एक करके अधिकांश सदस्य नदी में टपक पडे। लाईफ जैकेट पहना था। डूबने का डर न था। आराम से बहते रहे। थोडा सा जतन करना पडता है, चित्ते या औंधे, पानी पर लेटे रहने के लिये या लम्बवत खडे खडे बहने के लिये।

हौले हौले बहते समय मन में विचार गम्भीर आते हैं। दार्शनिक मूड बनने लगता है। यह जो शरीर है यह मैं हूँ ? या मैं कोई और हूँ ? मैं क्यों हूँ ? मेरा क्या उद्‌देश्य है ? यह दुनिया कितनी सुन्दर है । यह समय कितना प्यारा है? क्या यह कुछ देर के लिये ठहर नहीं सकता ? मुझमें और प्रकृति में क्या अन्तर है ? मैं उसी का हिस्सा हूँ ?

मेरी ध्यान साधना टूटती है - नीरू चिल्ला कर कह रही है - बहुत हो गया, ऊपर आ जाओ। पानी गन्दा है। तुलनात्मक रूप से धीमी धारा में पत्तियों और डण्ठलों की एक परत सतह पर बिछी हुई थी। इसमें गन्दा क्या है, मैंने सोचा। फिर भी लाइफ लाइन पकड कर बोट के सहारे बहने लगा। प्रमोद ने ऊपर खींच कर बोट के अंदर पटक दिया। ऋतु और अनी कहना नहीं सुन रहे थे।

पानी पर भूरे-मटमैले लाल रंग के अनेक शेड्‌स थे। पानी की गहराई और धारा की गति से बनते बिगडते थे। इतना इलाका गहरा, गाढा है, वह दूर का हिस्सा हल्का उजला है। शेड्‌स को सीमांकित करती रेखाएं अपनी दिशा और डिजाइन बदलती रहती हैं। मांडने की मूल आकृति में बाद में टिपकियाँ भरी जाती हैं। बारिश की बडी और छोटी बूंदों द्वारा यह कार्य सतत जारी था।

उतरने का स्थान आने के पूर्व हम एक बार फिर पानी में कूद पडे। नदी के आगोश में रहने के कुछ मिनिट और के आनंद को भोगना चाहते थे। पानी में खेलने वाले बधे को बाहर निकलने का मन नहीं होता । हमारे अंदर का बधा जब-जब पुनर्जीवित होता है तब तब हर्षातिरेक के क्षण होते हैं।

सभी टीम मेम्बर्स ने अपने कंधों पर बोट को उठाया, ढलवां पहाडी किनारे के गीले चिकने, फिसलन भरे रास्ते से कुछ सौ मीटर की दूरी पर पार्किंग स्थल पर ला पटका। धुआँधार बारिश में टपकती झोपडियों में गरमागरम वडा-पाव, भुट्टा और चाय को लपालप निगल गये।

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