शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

डॉ. आलिवर सॉक्स

डॉ. आलिवर सॉक्स चिकित्सक लेखकों की बिरली जमात के बिरले उदाहरण है । आपका जन्म १९३३ में लन्दन में एक समृद्ध यहूदी परिवार में हुआ था । पिता जनरल प्रेक्टीशनर थे और माता प्रसूति व स्त्री रोग विशेषज्ञ । ज्ञान, साहित्य, संगीत, प्राकृतिक अवलोकन और वैज्ञानिक प्रयोगों के लिये अदम्य भूख और तीक्ष्ण मेधा के चिन्ह बचपन और किशोरावस्था में नजर आने लगे थे । बडे संयुक्त परिवारों के उस जमाने में ओलिवर को विविध रूचियों और योग्यताओं वाले अंकल और आंटी (मामा, मौसी, बुआ आदि) द्वारा देखभाल और मार्गदर्शन का सौभाग्य मिला । उनमें से एक टंगस्टन मामा का बालक आलिवर के कधे संवेदी मन पर गहरा प्रभाव पडा था ।
१९ वीं शताब्दी की प्रयोगात्मक भौतिकी, रसायन और जीव-विज्ञान की अद्‌भुत दुनिया से आलिवर का परिचय हो चुका था । इस अच्छी परवरिश ने द्वितीय विश्वयुद्ध की त्रासदियों के मानसिक सदमें और अनेक सालों के लिये लन्दन के घर से दूर एक नीरस, कठोर बोर्डिंग स्कूल की यातनाओं को सहन करने और अपने आप को टूटने से बचाने में बहुत मदद करी । युवावस्था के वर्षों तक दिशाएं अनिश्चित रहीं । अन्ततः चिकित्सक बनना, न्यूरालाजी में आना और अमेरिका पहुंच जाना और लेखक बनना - शायद नियति ने यही तय कर रखा था ।
आगे का न्यूरालाजी प्रशिक्षण लास एंजलिस में हुआ । अधिकांश जीवन न्यूयार्क में बीता । अल्बर्ट आइन्सटाईन कालेज में प्रोफेसर ऑफ मेडिसिन रहे । युवावस्था में मोटर साईकल चलाना और बचपन से अभी तक तैरना आपकी अभिरुचियां रहीं । आज भी लेखन जारी है । छोटी बडी किताबों के अलावा ढेर सारे लघु लेख, सभाओं में भाषण, रेडियो, टी.वी. पर साक्षात्कार और वक्तव्य आदि चलते रहते हैं । चिकित्सा शोध में भी अच्छा योगदान रहा है । मेडिकल जर्नल्स में अनेक शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं । आजकल मरीज बहुत कम और बहुत चुनकर देखते हैं ।
पारम्परिक रुप से प्रशिक्षण प्राप्त न्यूरालाजिस्ट, मस्तिष्क व नाडियों के काम व उसमें आई खराबियों के बारे में एक बन्धे बन्धाए तरीके से सोचते हैं । लकवे का कोई मरीज सामने आने पर उनका दिमाग चलने लगता है : मस्तिष्क के किस भाग में खराबी आई है ? किस किस्म की व्याधि है ? निदान पुख्ता करने के लिये क्या जाचें करवाना है ? कौन सा उपचार सम्भव है ? भविष्य में सुधार की क्या सम्भावनाएं हैं ? पुनर्वास हेतु क्या करना होगा ? डॉ. ओलिवर का सोच इससे कहीं आगे तक जाता है । उनके लिये स्वस्थ और रोग ग्रस्त दोनों प्रकार के मस्तिष्क के कार्यकलापों का क्षितिज अनन्त तक विस्तारित है । न्यूरालाजी की रूटीन दुनिया में वैसा नहीं सोचा जाता । ओलिवर के लिये बीमारी के बाद की स्थिति में मस्तिष्क द्वारा अपने अपने को नये रूप में ढाल लेना, नैतिक, मॉरल, दार्शनिक, अस्तित्ववादी और इपीस्टेमियोलाजीकल प्रश्न खडे करता है । लकवे का कोई मरीज सामने आने पर वे सोचते हैं कि शेष स्वस्थ बच रहा दिमाग कैसे काम कर रहा है, उसमें क्या परिवर्तन आ रहे हैं - और इस बदली हुई परिस्थिति का तथा नयी न्यूरालाजिकल पहचान का उस इन्सान के लिये क्या अर्थ है ? और न केवल उस मरीज के लिये बल्कि दूसरे मरीज के लिये भी और हम सब के लिये भी । डॉ. ऑलिवर हमें एक नये संसार में ले जाते हैं और सोचने के लिये मजबूर करते हैं । न्यूरालाजिकल अवस्थाओं की यह दुनिया यहां इसी धरती पर है । हमारे जैसे लोग उसके नागरिक हैं । कुछ ऊपर से अलग दिख जाते हैं । ज्यादातर हमारे आपके जैसे ही दिखते हैं । उनके मन की खिडकी खोल कर देखो । ढेर सारे प्रश्न उठ खडे होते हैं । सामान्य मनुष्य होने की परिभाषा को कितनी दिशाओं में कितनी तरह से खींचा ताना जा सकता है। कुछ उत्तर भी मिलते हैं ।
डॉ. आलिवर सॉक्स अपनी न्यूरालाजिकल रूचियों के बारे में लेख और पुस्तकें लिखते हैं । यह लेखन केवल न्यूरालाजिस्ट के बजाय एक वृहत्तर पाठक समुदाय को लक्षित है । डॉ. सॉक्स का लेखन मरीजों से प्राप्त अनुभवों और उन पर की गई शोध में से उभर कर आया है । वे एक घनघोर पाठक भी हैं । पार्किन्सोनिज्म के किसी मरीज पर लिखते लिखते वे न जाने किन किन लेखकों का सन्दर्भ ले आवेंगे - जेम्स जॉयस, डी.एच. लारेन्स, हर्मन हेस, एच.जी. वेल्स या टी.एस. इलियट ।

डॉ. आलिवर सॉक्स द्वारा लिखित पुस्तकें

माईग्रेन (१९७०) :
यह लेखक की प्रथम और सबसे अधिक चिकित्सकीय पुस्तक है । फिर भी, अपनी श्रेणी की अन्य पुस्तकों से बेहद भिन्न । आम पाठक और चिकित्सा विशेषज्ञ दोनों इसे उपयोगी और रुचिकर पाते हैं । माईग्रेन (सिरदर्द) के अनेक लक्षणों और विकृतियों का विस्तृत वर्णन है और साथ ही अवस्था की जन-व्यापकता और रोग-विकृति पैदा होने की प्रक्रियाओं का विवेचन भी है । अन्य मेडिकल किताबों की तुलना में यह अधिक रोचक व ज्ञानवर्धक है । अनेक (?आनन्ददायी) मरीज कथाओं को सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सहित्यिक प्रसंगों और उल्लेखों के साथ गूँथ दिया गया है । उपचार का संक्षिप्त वर्णन है । अन्तिम अध्याय में राल्फ एम.सीगल के साथ संयुक्त रूप से लिखते हुए लेखक दार्शनिक रूप से परिकल्पना करता है कि किस तरह माइग्रेन एक सर्वब्रह्माण्डीय घटना है और खुद-ब-खुद (स्वतः) बनने और व्यवस्थित होने वाली प्राकृतिक प्रणालियों का एक उदाहरण है ।

अवेकनिंग्‌स (१९७३) (जागृति)
इस पुस्तक की मूल विषय वस्तु है एक विशिष्ट अद्वितीय स्थिति में रहने वाले कुछ मरीजों का जीवन और एक खास कारण से उनमें पैदा होने वाली प्रतिक्रियाएं, जिनका चिकित्सा और समग्र विज्ञान के लिये खासा महत्व है । १९२० के दशक में एक महामारी फैली थी, जो अब अज्ञात है व भूला दी गई है - एन्सेफेलाईटिस लेथार्जिका । शायद किसी वायरस (जीवाणु) द्वारा मस्तिष्क में इन्फेक्शन (संक्रमण) होता था । बच जाने वाले मरीजों में से कुछ में, अनेक महीनों के अन्तराल के बाद धीरे-धीरे पार्किन्सोनिज्म रोग बढता है । मरीजों का शरीर अकडता जाता है, शिथिल व धीमा हो जाता है । लगभग सभी गतियाँ बाधित हो जाती हैं । शरीर मूर्तिवत या जड प्रतीत होता है और चेहरा भावशून्य । ऐसे दसियों मरीज आगामी ४ से ६ दशकों तक बिना आशा के कुछ खास अस्पतालों में पडे रहे, डले रहे । १९६० के दशक के उतरार्ध में जब लीवोडोपा औषधि का पार्किन्सोनिज्म में प्रथम सफल उपचार के रूप में आविष्कार हुआ तो युवा डॉ. आलिवर न्यूयार्क के एक बडे क्रोनिक-केयर अस्पताल (दीर्घकालिक - सुश्रुषा) में न्यूरालाजिस्ट के रूप में कार्यरत थे । उस औषधि ने इन मरीजों के जीवन में क्रान्तिकारी (हालांकि उथल-पुथल भरा) परिवर्तन पैदा किया । कोई और न्यूरालाजिस्ट होता तो यह पुस्तक न लिखी जाती । डॉ. आलिवर की नजर पैनी व खोजी थी तथा मन मानवीयता से भरा हुआ । ये मरीज मानों दशकों की नींद से जागे थे, मूक से वाचाल बने थे । फिर लेखक बहस शुरु करता है कि इन घटनाओं और अवलोकनों के दूरगामी और व्यापक दृष्टि से क्या निहितार्थ हो सकते हैं । वे अर्थ जो मानवमात्र के सामान्य स्वास्थ्य, रोग, पीडा, सेवा और उससे भी कहीं अधिक परे जाकर मानव नियति को अपने आप में समाहित करते हैं । बाद में (१९९१) इस रचना पर हालीवुड में इसी नाम की एक फिल्म बनी थी । राबिन विलियम ने डॉ. ओलिवर की तथा राबर्ट दि नीरो ने एक मरीज की भूमिका (आस्कर नामांकित) निभाई थी ।

ए लेग टू स्टेण्ड आन (१९८४) खडे रहने को एक पांव
डॉक्टर्स प्रायः स्वयं अच्छे मरीज नहीं होते परन्तु यदि कोई एक डाक्टर मरीज अच्छा विचारक और लेखक हो तो पाठकों को मिलती है एक गहन, गम्भीर, उत्तम और समृद्ध कथा । डॉ. ऑलिवर सॉक्स नार्वे में अकेले पहाड चढते समय गिर पडे और बांयी जांघ में गहरी चोट से वहां की नाडी (नर्व) क्षतिग्रस्त हुई । जैसे तैसे जान बची । दो बार आपरेशन हुए । दो सप्ताह तक पांव प्लास्टर में बंधा रहा । बाद में धीरे-धीरे खडा करने की कोशिश करी गई । इस अवधि में आलिवर के संवेदी मन ने क्या-क्या न अनुभव किया और सोचा और फिर लिख डाला । एक भयावह दुःस्वप्न था - बेहद बैचेन करने वाला अहसास कि मेरा बायां पांव है ही नहीं । शरीर पर से नियंत्रण गया, उक्त अंग का बिम्ब, उसकी कल्पना तक मन से गायब हो गये, कोशिश करने पर भी वह सामान्य अहसास जागृत न हो पाता था । बाद में लेखक ने अपने अन्य मरीजों से तथा मास्को के वरिष्ठ न्यूरोसायकोलाजिस्ट, अलेक्सांद्र लूरिया से पत्र व्यवहार में जाना कि ऐसी अवस्थाएं प्रायः होती रहती हैं परन्तु चिकित्सा साहित्य में उनकी उपेक्षा हुई है, क्योंकि न्यूरालाजिस्ट अक्सर उसी को मापते और परिभाषित करते हैं जो वस्तुपरक हो तथा आत्मपरक के अन्दरूनी अनुभवों को तुच्छ मानते हैं - ऐसा व्यवहार करते हैं जो पशु चिकित्सक (वेटरनरी डॉक्टर) अपने पशुओं के साथ करते हैं ।

द मेन हू मिसटुक हिस वाईफ फॉर ए हेट (१९८५) वो आदमी जो अपनी पत्नी को गलती से टोप समझ बैठा
इस सबसे लोकप्रिय और सर्वाधिक उद्दत रचना में २४ क्लीनिकल कथाएं हैं । पात्रों को तरह-तरह की न्यूरालाजिकल बीमारियां हैं - कुछ दुर्लभ तो कुछ बहु-व्याप्त, कुछ साधारण तो कुछ खास । इन कथाओं में से समझ और बुद्धि के अर्थवान मोती ढूंढ निकालने के लिये आपकी तीक्ष्ण मेधा में पैना अवलोकन, ज्ञान की वृह्त पृष्ठभूमि और विचारवान कल्पनाशीलता होना जरूरी है । इन सब गुणों के साथ लेखक हमारे सामने प्रस्तुत होता है । लेखन शैली बांधे रखती है । भाषा समृद्ध है । शब्द भण्डार अनन्त है । समान्तर शब्दों और पर्यायवाचियों का बहुलता से उपयोग है । ये कहानियां एक प्रमुख उक्ति को सच ठहराती हैं कि - गल्प की तुलना में सत्य कहीं अधिक अजीब होता है । बहुत से पात्र सचमुच अजनबी प्रतीत होते हैं, लेकिन लेखक ने प्रत्येक चरित्र का निर्वाह सम्पूर्ण समझदारी, संवेदना और आदर के साथ किया है ।

सीईंग वाईसेस (१९८९) आवाजों को देखते हुए ।
इस पुस्तक को पढने के पहले, स्वयं लेखक के समान, मैंने कल्पना नहीं की थी कि बहरे लोगों की दुनिया कैसी होती है । बहरा होना, बहरापन, बहरेपन की संस्कृति, उनकी सीमाएं, दुःख और उस सब से जूझना, उबरना जिन्दगी में अर्थ ढूंढना उसे सार्थक बनाना और जीवन की सम्भावनाओं को अधिकतम की सीमा तक साकार करना : यही विषय वस्तु है - सीईंग वाईसेस की । लेखक ने पहले स्वयं शोध करी, श्रवण बाधित लोगों के संसार में लम्बा समय गुजारा, उनकी इशारों वाली भाषा (साइन-लेंग्वेज) को सीखने की कोशिश करी । फिर वे अपने पाठकों का परिचय इस अद्‌भुत संसार से कराते हैं जहां ध्वनियां नहीं हैं । जो कुछ है केवल दृश्य है, श्रव्य कुछ नहीं । साइन लेंग्वेज (इशारा-भाषा) की सुन्दरता और समृद्धता से हम रूबरू होते हैं । हम सोचने के लिये मजबूर होते है कि अन्ततः भाषा क्या है ? संवाद की परिभाषा का दायरा बढ जाता है । मस्तिष्क की भाषागत प्रणाली की इस अल्पज्ञात परन्तु अद्‌भुत क्षमता को जान कर हम चमत्कृत और आश्वस्थ होते हैं । बहरे लोगों के ऊपर से शान्त या मौन दिखने वाले संसार की इस सघन यात्रा में अनेक पात्रों और घटनाओं को विषय के वैज्ञानिक और सांस्कृतिक इतिहास के साथ रोचक तरीके से मिलाकर पेश किया गया है ।

एन एन्थ्रोपोलाजिस्ट ऑन मार्स (१९९४) मंगलगृह पर एक नृविज्ञानी
मिस्टर आई एक सिद्धहस्त चित्रकार हैं और उन्हें सिर की चोट के बाद एक अत्यन्त दुर्लभ समस्या पैदा हो जाती है : रंगान्धता या कलर ब्लाइण्डनेस । कहना न होगा कि कलाकार की दृष्टि बदल जाती है और उसकी रचनाओं का स्वरूप भी । ग्रेग के मस्तिष्क में धीरे-धीरे एक ट्यूमर (गांठ) पैदा होती है, बढती जाती है और उसकी स्मृति और आंखों की रोशनी खत्म कर देती है । बचा रहता है एक खास प्रकार के संगीत के लिये उसका अनुराग । डॉ. बेनेट को टिक की बीमारी है । वह अपने आपको हिलने डुलने से रोक नहीं पाता । इसे छूना, उसे पकडना, इधर सरकना, उधर खिसकना, उचकाना, चमकना, अस्फुट आवाजें करना, मुंह बनाना, हाथ-पांव नचाना । सब चलता रहता है - अनवरत, सतत्‌ । अजीब दिखता है । हंसी आती है । लेकिन ऑपरेशन थिएटर में डाक्टर की सर्जरी, शान्त, स्थिर, सटीक और सधी हुई रहती है । वरजिल बचपन में अन्धा हो गया था और अपनी इस पहचान के साथ वह सामंजस्य में था । अधेड अवस्था में आपरेशन द्वारा रोशनी वापस आती है । अंधा क्या मांगे - दो आंखें ! गलत । वरजिल परेशान है । दृष्टिहीन संसार की जीवन शैली के साथ वह मजे में था । दिखाई पडना उसे व्यग्र और भ्रमित करता है । इस पुस्तक की सात कहानियों के पात्र अपनी अपनी नयी दुनियाएं गढते हैं और उन्हें आबाद करते हैं । मनुष्य के जाने-माने अनुभव संसार से परे की इस दुनिया में रहने वाले पात्रों के घरों पर डॉक्टर होम विजिट करने जाता है । एक डाक्टर जो नृविज्ञानी है और प्रकृति विज्ञानी है । उसके पात्रों की नस्ल न्यारी है और वे शायद धरती ग्रह पर नहीं रहते ।

द आयलेण्ड ऑफ कलर ब्लाइण्ड (१९९६) रंगान्ध लोगों का द्वीप
यह रचना मजेदार यात्रा वर्णन है । प्रशान्त महासागर के छोटे-छोटे अनाम से द्वीपों में से कुछ में, खास न्यूरालाजिकल बीमारियों की व्यापकता अधिक है । एक द्वीप पर कलर ब्लाइण्ड लोग ज्यादा हैं । आनुवांशिक अवस्था है । रोशनी कमजोर । दिन में आंखें मिचमिची । शाम अंधेरे नजर बेहतर हो जाती है । कुछ अन्य द्वीपों पर पार्किन्सोनिज्म, बुद्धिक्षय (डिमेन्शिया) और मोटर न्यूरान रोग की बहुतायात है । इन बीमारियों का वैज्ञानिक वर्णन है । उनसे पीडित लोगों के जीवन और बदली हुई संस्कृति का खाका है । लघु द्वीपों के भूगोल, इतिहास, भूविज्ञान और वनस्पतियों का रोचक रिपोर्ताज है ।

ओहाका जर्नल (२००१)
यह शुद्ध रूप से नान-मेडिकल (गैर चिकित्सकीय) पुस्तक है । डॉ. ओलिवर सॉक्स नियमित रूप से डायरी लिखते हैं । पेड पौधों में उनकी रुचि है - विशेषकर फर्न प्रजाति में । न्यूयार्क फर्न सोसायटी के सदस्य के रूप में वे एक दल के साथ दक्षिणी मेक्सिको के आहोका राज्य की यात्रा पर जाते हैं क्योंकि यहां पर फर्न की विविध प्रजातियां उगती हैं । लेकिन पाठकों को बॉटनी के अलावा और भी बहुत कुछ मिलता है - उस प्रान्त की संस्कृति, लोग, रीति-रिवाज, इतिहास, भौगोलिक परिवेश, भवन स्थापत्य आदि ।
उन्नीसवीं शताब्दी में प्रकृति विज्ञान के अनेक महान अन्वेषक ऐसी डायरियां प्रायः लिखा करते थे जो व्यक्तिगत और वैज्ञानिक का सुन्दर मेल होती थीं । याद कीजिये चार्ल्स डार्विन की पुस्तक - बीगल जहाज पर मेरी विश्व यात्रा । ओहाका जर्नल एवं आईलेण्ड ऑफ कलर ब्लाइण्ड थोडा-थोडा उसी पुरानी परम्परा की याद दिलाती है।

अंकल टंगस्टन (२००३) टंगस्टन मामा
रसायन जगत से भरपूर लडकपन की यादें । इस आत्मकथात्मक रचना में बचपन की प्रथम स्मृतियों से शुरु कर के लगभग १५ वर्ष की उम्र तक के जीवन की झांकियां प्रस्तुत की गई हैं । किताब का फलक सीमित है बालक ओलिवर को अपने मामाओं, मौसियों और बुआओं से विरासत में ढेर सारा ज्ञान और कौतुहल-परक अच्छी रोचक आदतें मिली थीं । भौतिकी, रसायन और जीव-विज्ञान से भरी हुई विस्मयकारी दुनिया थी । ओलिवर का तेज दिमाग प्रयोगशील था । १९३० के दशक का उत्तरार्ध और चालीस का पूर्वार्ध था । खास समय था - द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि थी । खास घर था - लन्दन का एक समृद्ध यहूदी परिवार । खास दिमाग था जो अपने तरीके से पक रहा था, बढ रहा था । पूत के पांव पालने में नजर आते हैं । डॉ ओलिवर सॉक्स के आगामी जीनियस का आगाज इस बचपन में दिखता है । गोकि न्यूरालाजिस्ट बनने की संभावना दृष्टिगोचर नहीं होती ।

म्यूजिकोफिलिया (२००७) संगीत-अनुराग
संगीत और मस्तिष्क के अन्तर्सम्बन्धों की कहानियां ।
यह अभी तक की अन्तिम पुस्तक, ओलिवर के प्रशंसकों और संगीत प्रेमियों, दोनों के लिये उत्तम उपहार है । मनुष्य एक संगीतमय प्राणी है, ठीक वैसे ही, और उतना ही जैसे कि वह एक भाषामय प्राणी है । संगीत इन्सान की पहचान के अहम पहलुओं में से एक है । संगीतमयता का दायरा विस्तृत है । यह गुण काफी हद तक जन्मजात होता है । पर कुछ हद तक सीखा जा सकता है, परिष्कृत किया जा सकता है । दिमाग की बीमारियों में सांगितिक क्षमता नष्ट हो सकती है या बिरले बढ सकती है । डार्विन के विकासवाद के सन्दर्भ में संगीत की कोई बायोलाजिकल भूमिका है या नहीं इससे लेखक को कोई मतलब नहीं । वह तो इस बात से संतुष्ट है कि उसकी कहानियों के पात्र संगीत की सार्वभौमिकता और सार्वजनिकता के इन्द्रधनुषी पारिदृश्य को समृद्ध बनाते है।

1 टिप्पणी:

Amin ने कहा…

Hi
I am Akhil Kumar Gautam From Nagpur.
I want to some information in neuro linguistics.what is cannection with computer in neurolinguistics so plz give me information.