शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

डॉ. आलिवर - साक्षात्कार

अपूर्व - आप कभी भारत गये या नहीं ?
ऑलिवर - लगभग तीन चार वर्ष पूर्व एक बार गया था । जान क्ले फाउण्डेशन की संस्कृत लाइब्रेरी के प्रकाशन के सन्दर्भ में । पहले या दूसरे ही दिन बीमार पड गया था । दस्त और उल्टी लगे थे । मैं पुनः जाना चाहता हूँ । इस बार मेरी अपनी इच्छा और योजना से जो देखना चाहता हूँ वह देखूंगा - खास तौर से पहाडों में ।
अपूर्व - हिमालय में फर्न्‌स की बहुत सी प्रजातियां हैं, जिनमें शायद आपकी रूचि हो ।
आलिवर - अरे हाँ, फर्न्‌स । मुझे याद आया कि र्‌होडेन्ड्रान्स की बाटनी और हिमालय की वनस्पतियों पर एक किताब१९ वीं शताब्दी में प्रसिद्ध हुई थी और उसे एक श्रेष्ठ यात्रा-वर्णन की कोटि में भी रखा जाता है । संयोगवश यह भी बताना चाहूंगा कि मेरी माँ ने एक छोटी किताब लिखी थी, जिसका किसी भारतीय भाषा में अनुवाद हुआ था । मेरी सदैव से इच्छा रही है कि मेरी किसी किताब का भारतीय भाषा में अनुवाद हो, पर यहां तो बहुत सारी भाषाएं हैं ।
अपूर्व - प्रमुख भाषा हिन्दी है जो औपचारिक रूप से भारत शासन द्वारा मान्य है और लगभग ४०-५०% लोगों द्वारा बोली जाती है ।
नीरजा - आपकी माता प्रसूति व स्त्री रोग विशेषज्ञ थीं । मैं भी वहीं हूँ । (उनके समान) मैं भी शिशुओं में स्तन-पान की सक्रिय समर्थक हूँ ।
आलिवर - क्या ... स्तनपान ... इसका मतलब कि आपको (मेरी आत्मकथा में से) वह किस्सा पसन्द आया । मेरी माँ की लिखी किताब का विषय रजोनिवृत्ति (मीनोपॉज) था और शीर्षक था स्त्रियां - चालीस के बादङ्ख । उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह किताब बेहद लोकप्रिय हुई, बेस्ट सेलर बनीं । अरबी और शायद हिन्दी में उसका अनुवाद हुआ । मेरी किताबें चीनी, कोरियन, हिबू्र और रूसी भाषा में निकली हैं परन्तु भारतीय भाषाओं में किसी में नहीं ।
अपूर्व - मेरी दिली ख्वाहिश है कि मैं आपके कुछ कार्यों का हिन्दी में अनुवाद करूं । मैं कर सकता हूँ । मैं उसके साथ न्याय करूंगा । यह करके मुझे खुशी होगी ।
ओलिवर - परन्तु तुम्हारे अपने दूसरे काम हैं ।
अपूर्व - यह सच है । न्यूरोफिजिशियन के रूप में मेरा अपना व्यावसायिक काम है और मुझे अध्यापन भी करना होता है ।ᅠ
ओलिवर - शायद किसी दिन, मेरी रचना का हिन्दी संस्करण होगा ।
नीरजा - (अपूर्व के प्रति) न्यूरालाजिस्ट होने के नाते आप इसे बेहतर कर पायेंगे ।
ओलिवर - मुझे याद आता है कि भारत से मेरा पहला सम्बन्ध वहां की चाय से रहा । तुम्हें मैं एक मजेदार किस्सा बताता हूँ । बहुत वर्ष पहले, शायद ६० से भी अधिक, एक भारतीय व्यक्ति था, उसके चाय के बागान थे । वह केट की माँ के प्यार में पड गया । परन्तु नियति को अपनी अलग राह चलना था । फिर भी वे अच्छे मित्र बने रहे । अपने चाय के बागानों से वह श्रेष्ठ चाय के पेकेट्‌स केट की माँ को भेजा करता था । माँ उन्हें अपनी बेटी को और केट मुझे दिया करती थी । मैं सोचता हूॅं कि लगभग छः माह पहले उस व्यक्ति का देहान्त हो गया । चाय का मेरा अन्तिम पेकेट मैंने हाल ही में खोला, पर भूल से उसका पैकिंग - डब्बा और बाहर से लेबिल सम्हाल कर नहीं रखा । अब थोडी सी चाय बची है और उसकी छाप (ब्राण्ड) मैं नहीं बता सकता । शायद तुम पहचान पाओ । या फिर थोडा सेम्पल अपने साथ ले जाओ। मेरे पास अब इतनी ही बची है । जरा देखो इसे ।
मैंने अपनी असमर्थता व्यक्त करी । मैं अच्छी नाक वाला नहीं हूँ । एक मूर्खता भरी बात कही कि शायद दार्जलिंग की है । डॉ. आलिवर ने बहुत हौले से बताया कि दार्जलिंग क्षेत्र से सैकडों विशिष्ट फ्लेवर्स (गंध) की चाय पैदा होती है ।
ओलिवर - मैं तुम्हें मेरे एक मित्र के बारे में बताना चाहता हूँ । जान क्ले, स्कूल के जमाने में बहुत मेधावी व अध्ययनशील था और उसे भारतीय सभ्यता, संस्कृति,साहित्य और इतिहास में गहरी रुचि थी । सब सोचते थे कि आगे चलकर वह विद्वान भारतविद्‌ (इन्डालाजिस्ट) बनेगा । परन्तु वह व्यापार की दुनिया में चला गया और जैसा कहते हैं न, बडी किस्मत बटोरी । जीवन के उत्तरार्ध में रिटायरमेंट जैसी स्थिति में उसने एक बेजोड और सार्थक काम करने की ठानी । अपने मित्रों की आशाओं को पुनर्जागृत करते हुए उन्हें पूरा करके दिखाया । साथ ही लम्बे समय से खुद की संजोयी इच्छा और सपनों को साकार किया । उसने जान क्ले फाउण्डेशन की स्थापना की और एक महती काम को पूरा करने का बीडा उठाया - संस्कृत के प्राचीन शास्त्रीय (क्लासिकल) साहित्य का लब्धप्रतिष्ठित विद्वानों द्वारा अंग्रेजी में प्रामाणिक अनुवाद करवाना और उसे सुरूचिपूर्ण कला से सुसज्जित ग्रन्थमाला के रूप में प्रकाशित करवाना । डॉ ओलिवर ने जान क्ले संस्कृत ग्रन्थमाला की जानकारी देने वाली दो लघुपुस्तिकाएं हमें दी जिन्हें पढकर विश्वास होता है कि यह प्रकाशन कितना पठनीय और नयनाभिराम होगा ।
डॉ. ओलिवर की कुर्सी के पीछे की खिडकी से दोपहर का तीव्र प्रकाश आ रहा था और उनका चेहरा तुलनात्मक रूप से अंधेरे में था । फोटोग्राफी की दृष्टि से यह स्थिति उत्तम नहीं होती । मैंने सुझाया कि खिडकी को ढंकने वाले वेनेशियन ब्लाइन्ड्‌स को पलट दिया जावे । डॅा. सॉक्स फुर्ती से उठ खडे हुए और मैं उस काम को करने का उपक्रम करता उसके पहले वे स्वयं करने लगे । इस चक्कर में ब्लाइन्ड्‌स का एक सिरा पेल्मेट से उखड गया । वे बोल पडे बग-अपङ्ख और पुनः कुर्सी पर आ बैठे । फिर बताया कि जब कोई काम गडबडा जाता है तो इंग्लेण्ड में बग-अप कहते हैं । अमेरिकन्स ऐसा नहीं कहते ।
अपूर्व - सांज्ञानिक न्यूरोमनोविज्ञान (काग्रिटिव न्यूरोसायकोलाजी) परीक्षण में हम मरीजों को कोई एक शब्द देते हैं और कहते हैं - इस शब्द को सुन कौन से दूसरे शब्द आपको याद आते हैं - एक मिनिट तक बोलते जाईये । उसी प्रकार कृपया आप बताएं कि इन्डियाङ्ख शब्द सुनकर आप क्या-क्या कहेंगे ।
ओलिवर - चाय, और आप लोगों का रूपया, माउण्टबेटन, भारतीय विद्रोह, राज, संस्कृत... हूँ अब कुछ दिक्कत आ रही है, प्राचीन सभ्यता, मेरे प्रिय मित्र रामचन्द्रन (न्यूरोसाईंटिस्ट), प्रसिद्ध गणितज्ञ रामानुजम, गांधी, टैगोर ...
अपूर्व - आपकी वेबसाईट (जालस्थल) के प्रथम पृष्ठ पर आपके परिचय में लिखा गया है - डॉ. ऑलिवर सॉक्स : लेखक और न्यूरालाजिस्ट । इसी क्रम से । आपको यह अहसास कब हुआ कि आप एक लेखक पहले हैं ।
ओलिवर - सबसे पहले स्पष्ट कर दूं कि मैं वेबसाईट के लिये जिम्मेदार नहीं हूँ । यदि मुझे पता होता कि ऐसा है तो मैं उसे दूसरे क्रम से उलट कर रखता । मैं पहले एक फिजिशियन (चिकित्सक) हूँ । आज सुबह मैंने एक मरीज को देखा । यह सही है कि मैंने उसके बारे में कहानी लिखी है । पर जब मैं उसे देखता हूँ तो वह मेरे लिये पात्र नहीं बल्कि सदैव एक मरीज ही होता है । शुरु से मेरे अन्दर शोध पत्रिकाओं के लिये वैज्ञानिक लेख और केस हिस्ट्री (मरीज कथाएं) लिखने का जज्बा रहा था । शुरु शुरु में मेरे दिमाग की दो विशिष्ट अन्तप्रज्ञाओं के बीच विरोध या तनाव था, मानों कि वे मस्तिष्क के दो भिन्न भागों में अवस्थित हों । फिर धीरे-धीरे वे पास आयीं और मिल गई ं। उस अवधि में मैंने क्लीनिकल रेकार्ड लिखना शुरु किये । मेरी पहली पुस्तक १९६० के उत्तरार्ध में आई । मैंने सैंकडों लम्बी मरीज कथाऐं लिखी हैं और ८००० से अधिक मरीज देखे हैं । शुरु में मैंने उन्हें प्रकाशित नहीं करवाया । मेरी माता और पिता दोनों क्लीनिशियन्स (चिकित्सक) थे और एक माने में कहें तो वे भी निपुण कथाकार थे । कथा-कथन, चिकित्सा विज्ञान का अनिवार्य अंग है । उस के द्वारा आपको किसी व्यक्ति की फिजियालाजी (कार्यप्रणाली) समझने में मदद मिलती है ।
अपूर्व - रासायनिक तत्वों के वर्गीकरण की मेन्डलीफ तालिका से आप बचपन से अब तक अभिभूत रहे हैं । आपने लिखा कि उस तालिका ने आपको पहली बार महसूस कराया कि मानव मन में ट्रान्सिन्डेन्टल (अतीन्द्रिय, पराभौतिक) शक्ति होती है और इसीलिये यह विश्वास जागा कि शायद इन्सान के दिमाग में वे क्षमताएं हैं कि वह प्रकृति के गूढतम रहस्यों को जान सकें । क्या आप यह कहना चाहते थे कि ईश्वर के अस्तित्व का सवाल मनुष्य के दिमाग की पहुंच में हैं ?
ओलिवर - क्या मैंने ऐसा कहा ?
अपूर्व - हॉं. आपने कहा । क्या आप मानते हैं कि ईश्वर का प्रश्न मानव मन की ट्रान्सिडेन्टल शक्ति के दायरे में हैं ?
ओलिवर - मेरे शब्दों को कुछ-कुछ गलत समझा गया है । धार्मिक और वैज्ञानिक के बीच एक अजीब सी भ्रम की स्थिति है । पीरियाडिक टेबल मानव निर्मित है - एक ब्रह्माण्डीय कोटि का दर्शन है । जब कभी मैं ईश्वर का मनङ्ख ऐसे वाक्यांश का उपयोग करता हूँ तो वह महज दीइस्टिक रूप से होता है । एक ऐसी ईश्वर जिसने शुरु में दुनिया और नियम बनाए और फिर उसे उसके हाल पर छोड दिया ।
दर असल मैं किसी ऐसी सत्ता, शक्ति या चेतना को नहीं मानता जो प्रकृति से ऊपर या परे हो । दूसरी तरफ, स्वयं प्रकृति (नेचर) के प्रति मेरे मन में अथाह/असीम कौतूहल और आश्चर्य (वण्डर) है । यदि मुझे कभी ईश्वर शब्द का उपयोग करना पडे, जो बिरले मैं ही करता हूँ तो मैं उसकी पहचान प्रकृति से करूंगा ।
अपूर्व - एक अर्थ में क्या आप आइन्स टीनियन ईश्वर में विश्वास करते हैं ।
ओलिवर - बिलकुल सही ...
अपूर्व - और जीवोहा जैसे ईश्वर में नहीं जो ईर्ष्यालु है और सजा देता है।
ओलिवर - हाँ... लेकिन मैं ईश्वर को गढने और उसमें विश्वास करने की आम लोगों की भावनात्मक जरूरत को देख पाता हूँ .. हालांकि स्वयं मेरे मन के अन्दर वैसी कोई जरूरत महसूस नहीं होती ।
अपूर्व - क्या ईश्वर का प्रश्न वैज्ञानिक है या पारभौतिक ? (जैसा कि रिचर्ड डाकिन्स ने सुझाया है)
ओलिवर - (हंसते हुए) मैं नहीं सोचता कि यह किसी भी प्रकार की खोज या पूछ-परख का प्रश्न है । इस मुद्दे पर किसी प(कार का सबूत मिलना सम्भव नहीं है । ईश्वर का सवाल आस्था से जुडा है जो सबूत से परे है । इस दृष्टि से, व्यक्तिगत रूप से मैं आस्था को नहीं मानता । लेकिन रिचर्ड डॉकिन्स की तरह मैं धर्म के खिलाफ सार्वजनिक मोर्चा नहीं खोलूंगा । गौर करने की बात है कि मैंने वर्षों तक धार्मिक संस्थानों में काम किया - यहूदी और ईसाई । यदि वे संस्थाएं हिन्दू या मुस्लिम होती तो मैं वहां भी काम कर लेता । धार्मिक आस्थाओं से भरे वातावरण मुझे प्रिय हैं फिर चाहे मैं उन विश्वासों से स्वयं साझा न करूं । धर्म के अच्छे पहलुओं को मैं देखना चाहता हूँ, यपि उसके नुकसानदायक, कठमुल्ला पहलू मुझे आतंकित करते हैं ।
फ्रीमेन डायसन ने, जो मेरे अच्छे मित्र हैं, एक बार कहा - मैं व्यवहार में ईसाई हूँ पर आस्था में नहीं,ङ्ख मैं सोचता हूँ कि यह एक बहुत चतुराई भरा बयान है । मेरे मातापिता यहूदी धर्म का व्यवहार करते थे - पुरातनपन्थी यहूदी । मुझे कोई अन्दाज नहीं कि वे किसमें विश्वास करते थे । मैंने उन्हें कभी अपनी आस्थाओं के बारे में बात करते नहीं सुना । मैं सोचता हूँ कि खास बात सिर्फ इतनी है कि यहां और अभी की दुनिया को सलीके से जीने की कोशिश करी जावे । इसके परे और कुछ भी नहीं है । मेरे मन में एक धार्मिक संवेदना सदैव रही परन्तु उससे कहीं अधिक मेरे मन में ब्रह्माण्ड के प्रति आश्चर्य, कृतज्ञता और आदर का भाव है । मेरे धर्म का किसी ऐसी सत्ता से वास्ता नहीं जो सुपरनेचरल (प्रकृति से ऊपर, प्रकृति से पहले), परा भौतिक या अतीन्द्रिय हो । मेरा धर्म ईश्वरविहीन धर्म है । जब आइन्टीन ने परमाणु के रहस्यों की चर्चा में कहा कि ईश्वर पासा नही फेंकता है तो मैं सोचता हूँ कि वह महज कथन की एक शैली (मेनर ऑफ स्पीच) थी । वह विनम्र होना चाह रहे थे । अन्ततः मैं ट्रान्सीन्डेन्टल (पराभौतिक) से माफी मांगना चाहूँगा ।
अपूर्व - एक गर्भस्थ प्राणी के प्रजनक विकास (आंटोजेनी) में वे समस्त अवस्थाएं दोहराई जाती हैं जो निम्न प्राणियों से लेकर उक्त प्राणी के जीव वैज्ञानिक विकास (फायलोजेनी) में देखी जाती है । इस कथन के सन्दर्भ में आपने कैनिजारो को उद्दत किया है कि किसी नये विज्ञान को सीखने वाले व्यक्ति को स्वयं उन अवस्थाओं से गुजरना होता है जो उस विज्ञान के ऐतिहासिक विकास में देखी गई थी ।
ओलिवर - (केनिजारो का) यह कथन पढकर मुझे खुशी हुई थी क्योंकि वह मुझ पर लागू होता था । सौभाग्य से रसायन शास्त्र की मेरी शिक्षा २० वीं सदी की पाठ्य पुस्तक द्वारा शुरु नहीं हुई, बल्कि १८ वीं शताब्दी की पृष्ठभूमि के मेरे मामा द्वारा शुरु हुई जिन्होंने मुझे धातुविज्ञान और उस काल के सिद्धान्तों और धारणाओं से परिचित कराया - उसके बाद में मेरा सामना डाल्टन के परमाणुवाद में हुआ, फिर मेन्डलीफ (तत्वों की तालिका) और फिर क्वान्टम सिद्धान्त । मेरे अपने अन्दर ज्ञान का एक जीवित, विकास मान इतिहास फलीभूत होता रहा । मुझे यह स्वीकार करना होगा कि कैनिजारो की यह राय अधिकांश शिक्षाविदों को स्वीकार्य नहीं होगी । वे कहेंगे कि इतिहास में किसकी रुचि है ? समय क्यों व्यर्थ जाया किया जावे ? किसे फिक्र पडी है कि विचारों का विकास कैसे हुआ ? व्यक्तियों और घटनाओं का क्या महत्व ? हम तो जानना चाहेंगे कि आधुनिकतम क्या है । जहां तक मेरा सवाल है, रसायन शास्त्र, वनस्पति शास्त्र, न्यूरालाजी किसी भी विषय का विकास, ज्ञान की किसी भी शाखा की वृद्धि, एक जीवित प्राणी के समान है जो अनेक अवस्थाओं से होकर गुजरता है ।
अपूर्व - शैक्षणिक दृष्टि से इसका क्या महत्व है ? न्यूरालाजी विषय के एक प्राध्यापक के रूप में अपने छात्रों के सम्मुख आप न्यूरोविज्ञान के विकास के इतिहास को कितनी बार महत्व देते हैं ?
ऑलिवर - सदैव ... और यदि किसी को मेरा पढाना पसन्द न हो तो बेशक वह दूसरे टीचर के पास जा सकता है। मैं दावा नहीं करता कि अध्यापन में कैनिजारो का तरीका एक मात्र तरीका है । वह एक विधि है जो कुछ लोगों को ठीक लगती है तो कुछ को नहीं ।
अपूर्व - मैं भारतीय योग के बारे में कुछ कहना चाहूंगा । इसका सम्बन्ध आत्मपरकता (सेल्फहुड) से है और शरीर और चेतना से । आपने फ्रायड को उद्दत किया है कि सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्व का ईगोङ्ख (अहं), शरीर का ईगो है । मैंने थोडा बहुत योग करना सीखा है । हालांकि मैं उसे व्यवहार में नहीं लाता । योग सीखने वाले शिक्षक, विभिन्न आसन या मुद्राओं के दौरान सदैव शरीर के अहसास को जागृत करने, तीक्ष्ण करने, घनीभूत करने पर जोर देते हैं । विभिन्न सन्धियों (जोडों) पर क्या स्थिति है (प्रोप्रियोसेप्शन) इसे महसूस कराया जाता है । प्रत्येक पद पर कहा जाता है शरीर के बारे में सोचो, जोड कैसा महसूस कर रहे हैं, श्वास के अन्दर आने और बाहर जाने पर ध्यान दो, केवल अभीङ्ख और यहांङ्ख पर मन केंद्रित करो, आंखें मूंद कर ध्वनियों को सुनों, नीचे जमीन के स्पर्श पर गौर करो । मैं सोचता हूॅं कि यह सब हमें रिलेक्स (शान्त) करता है ।
ओलिवर - बिल्कुल सही ! मैं सोचता हूँ कि हमें शरीरवान होने के बारे में गहराई से सचेत होना चाहिये - यहां और अभी में शरीर की संवेदना । नीत्शे ने कहा था कि दर्शनशास्त्र में सभी गलतियां शरीर को ठीक से न समझ पाने के कारण पैदा होती हैं । संगीत पर मेरी किताब एक पहलू (थीम) संगीत की शारीरिकता पर है ।
अपूर्व - अब जबकि हम शरीर की चेतना की बात कर रहे हैं तो क्या एन्तोनियो दमासियो की पुस्तक द फीलिंग आफ व्हाट हेप्पन्सङ्ख (जो होता है उसका अहसास) में प्रतिपादित बात से सहमत हैं कि चेतना उस समय जागृत होती है जब मस्तिष्क में शरीर की अनुभूति को बिम्ब क्षण-क्षण बदलते हैं ।
ऑलिवर - हाँ, मूल रूप से .. (सहमत हूँ)
अपूर्व - मैंने आपके लेखन में अनेक द्वन्दों या विरोधाभासों के अक्ष या या पैमाने काफी करीब से देखे हैं - एक रूपता के विरुद्ध बहुरूपता, अद्वैत के विरुद्ध द्वैत, समांगी विरुद्ध विषमांगी और न्यूरालाजी में सर्वव्यापकता (होलिज्म) के विरुद्ध स्थानिकता (लोकेलाईलेजनिस्टिक) । आप इन द्वन्दों को कैसे साधते हैं ? क्या आप अपने आप को घुर सिरे की किसी स्थिति में पाते हैं या बीच का मार्ग पकडते हैं ?
ओलिवर - अजीब संयोग है, अभी कुछ देर पहले मित्र, न्यूरालाजिस्ट से चर्चा के दौरान मैंने एक शब्द कहा था, जो उन्हें मालूम न था - आयरीनिकङ्ख ग्रीक भाषा से आया है - शान्त या शान्तिपूर्ण । (धीरोदात्त, स्थितप्रज्ञ) इसे हम अति का विलोम मान सकते हैं । कोई भी शान्त व्यक्ति विचारों को लेकर कठोर मुद्राएं अख्तियार नहीं करता । वह सब के बारे में सोचता है और सन्तुलन की कोशिश करता है ।
अपूर्व - भारतीय दर्शन में, विशेषकर जैन और बौद्ध परम्पराओं में मध्यम मार्ग पर जोर दिया जाता है । अनेकान्तवाद है । कहते हैं कि सत्य के अनेक चेहरे हैं । कोई एक सत्य नहीं होता । प्रत्येक व्यक्ति सत्य तक अपने अलग मार्ग से पहुंचता है ।
ओलिवर - कुछ लोग जैसे कि रिचर्ड डॉकिन्स विज्ञान और धर्म को दो अतिवादी ध्रुवों के रूप में देखते हैं । लेकिन फ्रीमेन डायसन इसे अलग नजरिये से देखता है । वह उदाहरण देता है एक घर का जिसमें अनेक खिडकियांॅ हैं । एक खिडकी विज्ञान की है तो दूसरी धर्म की । बहुत साल पहले मेरे एक न्यूरालाजिस्ट सहकर्मी ने पूछा था - आप लम्पर हैं या स्प्लिटर ? भेल करने वाले, मिलाने वाले है या उधेडने वाले, वर्गीकृत करने वाले ? मैंने कहा कुछ भी नहीं ।ङ्ख मित्र बोला कुछ भी नहीं कैसे हो सकता है ।ङ्ख मैंने कहा - आपके लिये हो सकता है पर मेरे लिये नहीं ।
अपूर्व - मेरी पत्नी को मुझसे अक्सर शिकायत रहती है कि मैं प्रायः निश्चित राय नहीं देता ।मैं कहूँगा यह सही हो सकता है, पर वह भी सही हो सकता है । मेरी पत्नी और पुत्री मेरी इस बात पर असहजता महसूस करते हैं । वे पूछते हैं कि आप दृढमत धारण क्यों नहीं करते ?
ओलिवर - पर कुछ मुद्दों पर मेरे दृढ मत हैं ।
अपूर्व - हर एक के होते हैं ।
ओलिवर - मैं नहीं जानता कि इसे राजनैतिक कहूँ या इकॉलाजिकल (पारिस्थितिक) पर मैं सोचता हूँ कि राष्ट्रपति बुश (की नीतियों) ने जो नुक्सान किया है उसकी भरपाई (यदि कभी हुई भी तो) करने में अनेक दशक लग जायेंगे । मैं राजनैतिक मामलों पर कभी समाचार पत्र नहीं पढता था, आज से पांच छः साल पहले तक, अब पढता हूँ ।
अपूर्व - पर मैें उम्मीद करूं कि आप घनघोर इकालाजिस्ट (पर्यावरणवादी) या अतिवादी ग्रीन नहीं हैं ।
ऑलिवर - नहीं, मैं नही हूँ । मैं सोचता हूँ कि वे (ग्रीन) कुछ ज्यादा ही दूर तक जाते हैं । जो कुछ थोडा बहुत मैं कर सकता हूँ, करता हूँ । मेरे पास हायब्रिड कार है (पेट्रोल व बिजली दोनों से चलने वाली) । मैं जिस घर में रहता था उसकी छत पर सौर ऊर्जा की पट्टिकाएं लगी थी ।
अपूर्व - आपके लेखन की केन्द्रीय विषय वस्तु है - पहचान की न्यूरालाजी । आप कहते हैं कि इस दिशा में न्यूरालाजी ने पर्याप्त प्रगति नहीं करी है । आपको दुःख है कि मनोरोग विज्ञान न्यूरोमनोविज्ञान और भी ज्यादा साईंटिफिक होते जा रहे हैं और पहचान के विषय के रूप में वे नहीं उभरे हैं । न्यूरालाजी विषय को लेकर भी आप के मन में ऐसी ही चिन्ता है ।
ऑलिवर - मैं सोचता हूँ कि स्थिति बदल रही है । यह बात बहुत पहले से शुरु होती है । फीनिस गेज की कहानी याद है ? उसके सिर में से लोहे की मोटी छड बेध कर निकली थी । उसकी बुद्धि बची रही, उसकी वाचिक क्षमता, मानसिक विधाएं और मांसपेशियों की शक्ति, सब ठीक हो गये । पर उसके मित्र कहते थे - गेज, अब पहले वाला गेज न रहा । इन्सान की नैतिक या मॉरल पहचान में बदलाव की यह एक सुन्दर आरम्भिक कहानी थी । गेज विचारशून्य रूप से, यकायक आवेग में कुछ कर बैठता था । मस्तिष्क के फ्रोन्टल खण्ड की बीमारियों के कारण पैदा होने वाले लक्षणों की समझ के विकास में फीनिस गेज की केस हिस्ट्री (१८७०) एक खास मील का पत्थर थी । अवेकनिंग (जागरण) की कथाओं के मेरे मरीजों की चेतना की पहचान अवलम्बित (सस्पेन्डेड) हो गई थी । उनमें से कुछ के लिये, अनेक दशकों जक कुछ घटित ही नहीं हुआ । सब मातापिता जानते हैं कि उनके प्रत्येक बधे की अपनी एक अलग पहचान होती है । हमशक्ल जुडवां बधों का व्यक्तित्व एक सा नहीं होता । उनकी जीन्स एक जैसी हो, परन्तु दूसरे कारक अपना असर डालते हैं । मुझे क्यों कहानियां कहना भाता है ? मुझे क्यों कहानियाँ मिलती हैं ? क्योंकि ये पहचान की कहानियाँ हैं । और न्यूरालाजिकल दुर्घटना के कारण उस पहचान में आये बदलाव की कहानियाँ हैं । मैंने एक कथा लिखी थी देखना और न देखनाङ्ख (सी एण्ड नाट सी) - एक अन्धे व्यक्ति की कहानी जो अपने अन्धेपन की पहचान के साथ आराम से खुश था - और रोशनी पाने पर उस पहचान का नष्ट होना वह सहन नहीं कर पाता ।
अपूर्व - क्या आप सन्तुष्ट हैं कि न्यूरालाजी की मुख्य धारा के अध्यापन और व्यवहार दोनों में पहचान की न्यूरालाजी की परिकल्पना को अधिकता के साथ ग्राह्य किया जा रहा है ।
ऑलिवर - हाँ, मुझे ऐसा लगता है ।
अपूर्व - क्या आप आशावादी हैं कि यह भविष्य में बढेगी ?
ऑलिवर - हाँ यह ग्राह्यता बढ रही है । मैं सोचता हूँ कि आज से बीस साल पहले तक इस बात का डर था कि वैयक्तिक अधययन या प्रत्येक पहचानदार इन्सानों पर अध्ययन कहीं गुम न हो जाएं, सांख्यिकी के गणित में, औसत में डूब न जाएं । मैं अपना असली गुरु डॉ. अलेक्सान्द्र लूरिया को मानता हूँ । उनसे मैं कभी मिला नहीं पर पत्र व्यवहार हुआ । उनकी दो महान रचनाएं पहचान की न्यूरालाजी के देदीप्यमान उदाहरण हैं । आदमी जिसकी दुनिया बिखर गईङ्ख का पात्र अपनी तमाम बौद्धिक-सांज्ञानिक हानियों के बावजूद अपनी पहचान बनाये रख पाता है । जब पहचान को चोट किसी भारी-भरकम शक्ति के कारण पहुंचती है तो मेरी रुचि और भी बढ जाती है ।
अपूर्व - मैं भी लूरिया को उद्दत करते हुए कहना चाहूंगा कि काश बाह्य तंत्रिका तंत्र (पेरिफेरल नर्वस सिस्टम) की बीमारियों के सन्दर्भ में न्यूरालाजी वर्तमान पशुचिकित्सकीय सोच से ऊपर उठ पाये ...
ओलिवर - (रोकते हुए) ... ऐसा लगता है कि तुमने मेरा लिखा एक एक शब्द पढा है ।
नीरजा - बहुत गहराई में ।
अपूर्व - (जारी रखते हुए) .. एडलमेन ने कहा कि यदि न्यूरालाजी वेटरनरी (पशुचिकित्सा) स्तर के सोच व व्यवहार से ऊपर उठ पाये तो यह न्यूरालाजी के लिये वैसी ही युगान्तरकारी क्रान्ति होगी जैसी कि गैलीलियो की खोजें उस युग में भौतिक शास्त्र के लिये थीं । मुझे लगता है कि यह जरा ज्यादा ही जोर से कहा गया स्ट्रांग कथन है ।
ओलिवर - एडलमेन का केन्द्रीय योगदान पहचान की समझ को लेकर है । चेतना की न्यूरोवैज्ञानिक व्याख्या पर उसे नोबल पुरस्कार मिला ।
अपूर्व - क्या आप नहीं मानते कि उक्त कथन जरा ज्यादा (स्ट्रांग) ही है ?
ओलिवर - हाँ, वह है तो और ऐसा भी जो लोगों को संशंकित करे । जिस शब्द का तुमने शुरु में उपयोग किया था - ट्रान्सिन्डेन्टल, या अतीन्द्रिय, सुपर नेचरल, पराभौतिक आदि दृष्टि से सोचने वाले लोग, जो मानते हैं कि शरीर के अन्दर आत्मा नाम की कोई अन्य सत्ता निवास करती है - उन्हें पहचान की न्यूरालाजी का विज्ञान और विचार अच्छा न लगेगा । वे इससे अपमानित महसूस करेंगे और कहेंगे कि यह रिडक्शनिज्म है - किसी महान गुण की तुच्छ भौतिक रूप से व्याख्या कर उसे घटा देना, रिड्यूस कर देना । एडलमेन को मैं अच्छे से जानता हूँ और उसने कहा है - मैं यहां क्या कर रहा हूँ, शेक्सपीयर सब कह चुका है ।
अपूर्व - सबूत पर आधारित चिकित्सा (इवीडेन्स बेस्ड मेडिसिन) की फैशन के इस जमाने में क्या आप को लगता है कि एनीकडोटल (अर्थात्‌ कथा-किस्से पर आधारित) अपना स्थान बचा पायेगा ?
ऑलिवर - उसे बचाना चाहिये । और मैं सोचता हूँ कि वह बचेगा । मैं नहीं जानता कि सबूत-आधारित चिकित्सा का अर्थ क्या है ? मरीज कथाएं भी एक सबूत हैं । इसका विकल्प क्या है ? क्या आस्था पर आधारित चिकित्सा या होमियोपेथी ? सबूत अनेक प्रकार के होते हैं । केवल एक मरीज भी जिसका लम्बे समय तक विस्तार से अध्ययन किया गया हो ।
केट-एडगर - मुझे लगता है कि अब आप लोगों को समेटना होगा ।
अपूर्व - क्या मुझे पांच दस मिनिट मिल सकते हैं ?
केट - नहीं, दस मिनिट नहीं । ओलिवर, आपको मेरे साथ बैठना है । पांडुलिपि के प्रुफ आ गये हैं ।
ऑलिवर - (आश्चर्य से) क्या कहा - प्रुफ आ गये हैं ! (उनकी आगामी पुस्तक संगीत अनुराग के) मुझे समाप्त करना होगा । केवल पांच मिनिट । और प्रश्न नहीं ।
नीरजा - मुझे पांच मिनिट दीजिये । मैं भारत से कुछ भेंटे लाई हूँ ।
अपूर्व - जेम्स ह्यूग्स द्वारा प्रतिपादित परामानवतावाद (ट्रान्सह्यूमेनिज्म) के बारे में आप क्या सोचते हैं ? जीन-थेरापी द्वारा उपचार से परे जाकर मानव-जाति के उत्थान के बारे में आपकी क्या राय है ?
ऑलिवर - क्या स्टेम सेल्स (स्तम्भ कोशिकाएं) ?
अपूर्व - नहीं जीन उपचार और अभिवृद्धि ।
ऑलिवर - जीन उपचार व परिवर्धन में तकनीकी रूप से अपार सम्भावनाएं हैं परन्तु नैतिक और पारिस्थिकी दृष्टि से मामला जटिल है । थोडी बहुत अभिवृद्धि तो पहले भी होती रही है । खिलाडी लोग स्टीराइड लेते हैं । इन विषयों पर मैंने ज्यादा सोचा नहीं हैं ।
अपूर्व - अन्तिम प्रश्न । ब्लेज पास्कल ने बीमारी के भले उपयोग की प्रार्थना की चर्चा करी है । क्या आप मानते हैं कि व्यक्ति या समाज के जीवन में बीमारी का कोई उद्देश्य हो सकता है ।
ओलिवर - हाँ वे कुछ भरती तो हैं, पराभौतिक या अतीन्द्रिय दृष्टि से नहीं । फिर भी सोचता हूँ कि किसी भी सभ्यता का कुछ हद तक आकलन इस बात से किया जाना चाहिये कि वह अपने बीमार व विकलांग व्यक्तियों के साथ कितनी करुणा और समझ के साथ पेश आती है । बीमारी का उद्देश्य ? नहीं, उद्देश्य शब्द का उपयोग मैं नहीं करूंगा । यदि कोई बीमार पडे या मैं स्वयं बीमार पडूं तो मुझे खेद होगा - हालांकि मैं यह भी महसूस करता हूँ कि उसका (बीमार पडने के अनुभव का) अधिकतम सम्भव उपयोग किया जाना चाहिये ।
अपूर्व - आपने एक बार लिखा था कि मैं इन मरीज कथाओं की जटिलताओं से आल्हादित हूँ..
ओलिवर - हाँ, मेरी पुस्तक माईग्रेन की भूमिका में मैंने यह लिखा था । इनका तात्पर्य वास्तविकता की सघनता और समृद्धि से था। मैं मानता हूँ कि वर्तमान में विमान अधिकांश मरीज कथाएं बडी झीनी हैं । पार्किन्सोनिज्म का एक मरीज कैसे धीरे-धीरे उठकर एक कमरा पार करता है यदि इसे सघन और समृद्ध रूप से लिखना हो तो ३० से ४० पृष्ठ लगेंगे । तभी एक उपन्यासकार और एक चिकित्सक एक दूसरे के पास आ पायेंगे ।
ओलिवर - (केट एडगर से) मैंने जो लिखा है, उसका प्रत्येक शब्द इसने पढा है । उसे सब याद है और वह विषय को सीधे ऊपर लाता है और मुझे कहना पडता है कि अब मैं वैसा नहीं सोचता और मुझे माफ किया जावे ।
साक्षात्कार के बाद डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा लिखित भारतीय दर्शन के दो खण्ड हमने भेंट किये । अन्दर लिखा डॉ. ऑलिवर सेक्स के ज्ञान और बुद्धि के प्रति आदर और प्रेम के साथ।ङ्ख अरविंद आश्रम पाण्डिचेरी द्वारा टाइम्स म्यूजिक के लिये निर्मित भारतीय शास्त्रीय संगीत (हिन्दुस्तानी व कर्नाटक) पर बीस ऑडियो सीडी का सेट भी दिया और लिखा डॉ ऑलिवर सेक्स के कवित्ममय ग की संगीतमयता के प्रति आदर सहितङ्ख। उन्होंने कहा मुझे खुशी है कि आप लोग संगीत लाये । मैं स्वीकार करता हूँ कि संगीत में मेरी रुचियाँ संकीर्ण और स्थानिक या आंचलिक रही हैं । मैं उन्हें बढाना चाहता था । तुम्हे कैसे मालूम कि मैं संगीत पर पुस्तक लिख रहा हूँ ?
डॉ आलिवर व केट एडगर कुछ देर पशोपेश में रहे कि बदले में क्या दें ? वे अपनी कोई किताब दे रहे थे पर मेरे पास सब थी । अचानक उनके मन में विचार कौंधा । आगामी पुस्तक संगीत अनुराग के प्रूफ अभी-अभी आये थे । उस पांडुलिपी के बिना बन्धे (ढीले) पृष्ठों का पुलिन्दा हमें दिया गया और उस पर सुन्दर सी एक टिप्पणी । इस मुलाकात में मिले अनेक प्रथम सौभाग्यों में से यह सबसे अहम और नायाब था। प्रकाशन से छः माह पहले उसकी पांडूलिपी पा जाना ।
बिदा होते समय हमने फिर उनके पैर छुए । एक क्षण पुनः उनके चेहरे पर विमूढता का भाव आया और चला गया । पर अब वे जानते थे । आशीर्वाद रूपी सौम्य मुस्कान ओठों पर तिर रही थी ।
कुछ कहने और बताने का उनका आवेग और ऊर्जा वैसे ही थे । बाहर निकलने के द्वार तक ले जाये जाते समय, डॉ आलिवर सॉक्स पुनः रुके, हमें एक अंधेरे कोने में ले गये और अल्ट्रावायलेट रोशनी की टार्च के माध्यम से विभिन्न अयस्कों के प्रकाशवानगुण बताने लगे - इरीडिसेन्स, फास्फोरेसेन्स, फ्लूओरोसेन्स । मुलाकात के आखिरी क्षण तक हमारे अनुभवों की झोली भरते रहे । ज्ञान के प्रकाश के नाना रूप दमकाते रहे । काश ये रोशनियाँ सदैव हमारे साथ रहे ।

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