गुरुवार, 29 जुलाई 2010

ड्रग ट्रायल्स आवश्यक हैं।

कोई भी औषधि जो अन्य देशों में प्रतिबन्धित हो, जिसके कारण खतरे व नुकसान होने की आशंकाएं अधिक हो उन्हें डी.सी.जी.आई. कभी ट्रायल में प्रयुक्त होने की अनुमति नहीं देता। यह सोचना गलत है कि अमेरिका वाले जिन दवाओं का प्रयोग उनके देश में नहीं करना चाहते, विकासशील देशों की भोली गरीब जनता को शिकार बनाते हैं । यह सम्भव नहीं है। हम इतने गये गुजरे व निरीह नहीं हैं। नाना प्रकार के षडयंत्रों के अंदेशों से हमें अनावश्यक रूप से दुबले होने और डरने की जरूरत नहीं है। भारत अब एक विश्वशक्ति है जिसका रूतबा बढ रहा है। भारत सरकार की नियामक संस्थाओं की अनुमति और सतत्‌ निगरानी के बगैर कोई ट्रायल संचालित नहीं हो सकता।
बौद्धिक संपदा सुरक्षा और गोपनीयताः पारदर्शिता का अपना महत्व है परन्तु उसी के साथ इस बात को भी स्वीकार किया जाता है कि जब कोई दवा कम्पनी किसी नई औषधि का विकास करने हेतु ट्रायल संचालित करती है तो अन्य प्रतिस्पर्धी कम्पनियों से उक्त जानकारी का साझा नहीं करना चाहती। बिजनेस सीक्रेट एक कानूनी अधिकार है। ट्रायल हेतु किसी डाक्टर का चयन करने के पहले दवा कम्पनी व ट्रायल के संचालन की व्यवस्था करने वाला कान्ट्रेक्टर रिसर्च आर्गेनाईजेशन, डाक्टर्स से गोपनीयता अनुबन्ध पर हस्ताक्षर करवाते हैं कि वह इस ट्रायल से संबंधित कोई जानकारी (जिसमें बजट भी शामिल है) नियामक संस्थाओं और अधिकारियों (अध्यक्ष एथिक्स कमेटी, डीन, विभागाध्यक्ष, या अधीक्षक) के अलावा किसी को भी जाहिर नहीं करेगा। ट्रायल में भाग लेने मरीजों की निजता (प्रायवेसी) का सम्मानपूर्वक ध्यान रखा जाता है। मरीज के रोग से सम्बन्धित क्लीनिकल जानकारी के अलावा अन्य बातें गोपनीय रखने के लिये प्रत्येक मरीज की पहचान एक कूट नम्बर से होती है। मरीज गुमनाम नहीं होता। उसकी प्रतिष्ठा और पहचान की रक्षा की जाती है। विज्ञान के विकास के लिये जरूरी है नई खोज में अपना दिमाग, बुद्धि और कौशल, समय और पैसा लगाने वाले व्यक्तियों और कम्पनियों को न्यायपूर्ण प्रतिफल मिले। वरना कोई क्यों शोध करेगा? इसलिये पेटेन्ट कानून का विकास हुआ। भारतीय मीडिया में पेटेन्ट को खलनायक की तरह वर्णित किया जाता है। १९९१ के बाद डॉ. मनमोहनसिंह के नेतृत्व में भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार हुए तो पेटेन्ट कानूनों को अन्तरराष्ट्रीय मानदण्डों के अनुसार परिवर्तित किया गया। उसके अच्छे परिणाम नजर आने लगे हैं। अब भारतीय कम्पनियॉं शोध व विकास में बढ रही हैं और अधिकाधिक पेटेन्ट्‌स के लिये आवेदन करने लगी हैं।
किस देश में किस राज्य में, किस शहर में किस अस्पताल में किस डाक्टर द्वारा ट्रायल संचालित हो रहे हैं यह गर्व का विषय है। हर किसी को नहीं मिलता। डाक्टर की अकादमिक योग्यता व शोध अनुभव देखा जाता है। उसकी क्लीनिक या आउटडोर या वार्ड में सम्बद्ध बीमारी के मरीजों की संख्या कितनी है। उसके विभाग में क्या सुविधाएं हैं? क्या वह ट्रायल करने का इच्छुक है ? क्या वह इस काम के लिये अतिरिक्त समय देने को वचनबद्ध रहेगा? यह गर्व की बात है कि महात्मागांधी स्मृति चिकित्सा महाविालयों, इन्दौर के मेडिसिन, शिशुरोग, कार्डियालाजी, चेस्ट मेडिसिन, न्यूरालाजी व कुछ अन्य विभागों में अन्तरराष्ट्रीय स्तर के अनेक प्रतिष्ठापूर्ण ट्रायल संचालित हुए हैं और जारी रखे हैं। चाचा नेहरू अस्पताल और शिशुरोग विभाग में पोलियो के नये टीके पर ट्रायल हुआ जिसमें परिणाम स्वरूप आगामी कुछ वर्षों में भारत से पोलियो का समूल नाश करने में मदद मिलेगी। नगर और राज्य का नाम होता है। उध कोटि की शोध पत्रिकाओं में छपने वाले आलेखों का उल्लेख होता है। ट्रायल के परिचालन की ट्रेनिंग हेतु देश या विदेश में जब वरिष्ठ व कनिष्ठ चिकित्सक शिरकत करते हैं तो उनका ज्ञान बढता है, सम्पर्क व पहचान बढते हैं ।
राष्ट्रीय स्तर पर मेडिकल कॉलेज इन्दौर की इथिक्स कमेटी अपनी गरीमामयी पहचान स्थापित कर नियमानुसार कार्य कर रही है। प्रदेश के जानी मानी हस्तियाँ कमेटी में शामिल हैं जिनमें न्यायमूर्ति (रिटा.) पी.डी. मुल्ये, पद्मश्री श्री कुट्टी मेनन, प्रोफेसर के.डी. भार्गव, अर्थशास्त्री डॉ. जयंतिलाल भण्डारी प्रमुख हैं। प्रस्तुत औषधि अनुसंधान प्रोटोकॉलों पर वैज्ञानिक मेम्बरों के साथ ये सभी लोग विस्तार से चर्चा करके संतुष्ट होने पर पूर्ण बहुमत से अनुमति प्रदान करते हैं । मेडिकल कॉलेज, इन्दौर की इथिक्स कमेटी के मेम्बर्स या सचिव अपने द्वारा प्रस्तुत प्रोटोकॉलों पर मंजूरी के लिये मतदान नहीं करते है जो कानून सम्मत है। मेडिकल कॉलेज, इन्दौर में हो रही सभी मान्यता प्राप्त क्लिनिकल ट्रायल्स पूर्णरूप से वैध हैं तथा हमारे प्रदेश को रिसर्च के नक्शे पर सम्मान वाला स्थान दिलवा रही हैं।
ड्रग ट्रायल के कारण रोजगार के नये अवसर प्राप्त होते हैं । बिजनेस वीक में प्रकाशित एक आकलन के अनुसार वर्ष २०१५ तक भारत में प्रतिवर्ष १०००० रिसर्च असिस्टेंट की जरूरत होगी। ड्रग ट्रायल्स अनुभव प्राप्त करने वाले अध्येता धीरे धीरे गुणवत्ता और कौशल की ऊंची पायदानों पर चढते हैं। किसी अन्य वैज्ञानिक द्वारा परिकल्पित व प्रस्तावित ट्रायल में अपने केन्द्र द्वारा थोडे से मरीजों का डाटा प्रदान करने की तुलनात्मक रूप से आसान प्रक्रिया के बाद अब वे स्वयं नई औषधियों के नये ट्रायल की डिजाईन/योजना बनाने का उधतर कोटि का काम करने लगते हैं।
गुमनाम दवा और दुहरा अन्धापन ? ड्रग ट्रायल्स में प्रयुक्त होने वाली औषधि गुमनाम नहीं होती। उसकी केमिस्ट्री और फार्मेकोलाजी की विस्तृत जानकारी डाक्टर्स व समस्त नियामक संस्थाओं को दी जाती है। कुछ औषधियाँ पुराने मालीक्यूल में थोडा परिवर्तन करके विकसित होती हैं। अन्य औषधियों के मालीक्यूल नये इजाद हुए होते हैं। इन्हें किसी नम्बर में पहचाना जाता है। नामकरण बाद में होता है।
चिकित्सा शोध में किसी भी ड्रग ट्रायल का डबल ब्लाईण्ड होना अनिवार्य है। डी.सी.जी.आई और एफ.डी.ए. इसके महत्व को जानते हैं और तभी शोध की अनुमति देते हैं। किसी औषधि से कितना लाभ या कितनी हानि हो रही है इसका आकलन करने के लिये औषधि की तुलना प्लेसीबो से करते हैं । प्लेसीबो का अर्थ है बिना असर वाली या निष्क्रिय गोली/केप्सूल/इन्जेक्शन जो दिखने में असली दवाई जैसा होता है परन्तु अन्दर उस औषधि के स्थान पर ग्लूकोज या स्टार्च जैसा कोई हानिरहित पदार्थ भरा होता है। ऐसा करना जरूरी है। वरना सायकोलाजिकल रूप से मरीज व डाक्टर्स दोनों पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो जाते हैं। वे कल्पना करने लगते हैं कि औषधि का ऐसा -ऐसा असर हो रहा है। अध्ययन समाप्त होने के बाद समस्त केन्द्रों से प्राप्त जानकारी की तालिका बनाते हैं और देखते हैं कि मरीज के दो (या अधिक)समूहों के परिणाम में क्या अन्तर रहा । जिन्हें वास्तविक औषधि मिली और जिन्हें प्लेसीबो मिला दोनों में हुए असर की तुलना करते हैं। चूंकि डाक्टर्स व मरीजों दोनों को औषधि और प्लेसीबो का भेद मालूम नहंी रहता है इसलिये इन ट्रायल्स को डबल ब्लाइण्ड कहते हैं। अध्ययन में शामिल करते समय सहमति पत्र भरवाने के पहले, मरीज व घरवालों को ये सारी बातें विस्तार से समझाई जाती है। कहा जाता है - आपको जो औषधि दी जावेगी उसमें वास्तविक दवा हो सकती है या बिना असर वाली प्लेसीबो। न आपको ज्ञात होगा न हमें।ङ्घ संतोष और सुखद आश्चर्य की बात है कि न केवल शहरी शिक्षित वरन अनपढ व ग्रामीण मरीज भी इस तर्क से वैज्ञानिक पहलू को भली भांति समझ जाते हैं और उसके बाद ही अनुमति पत्र पर हस्ताक्षर करते हैं।
ड्रग ट्रायल में शामिल होने वाले मरीजों को क्या लाभ ? सहमति पत्र भरवाने के पहले, शुरू में ही मरीजों को बताया जाता है कि अध्ययन में शामिल होने से आपको कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं होगा। जो दवाई दी जावेगी उसमें असली औषधि है या प्लेसीबो यह ज्ञात नहीं । यदि आपको संयोगवश असली औषधि मिल रही है तो सम्भव है कि कुछ लाभ हो। अंतिम परिणाम, ट्रायल समाप्त होने के बाद ही मिलेगा। ट्रायल प्रायः कुछ माह से लेकर एक - दो वर्ष तक चलते हैं। तत्पश्चात्‌ यह औषधि नहीं मिलेगी। बाजार में फिलहाल उपलब्ध नहीं है। कब मिलेगी कह नहीं सकते। जो पुराना इलाज है वह जारी रहेगा। ट्रायल की अवधि में आपको बार-बार आना पडेगा। आवागमन और नाश्ते का भत्ता मिलेगा। अन्य कोई राशि नहीं मिलेगी । अनेक उपयोगी जांचें ट्रायल बजट से हो जाती हैं। डाक्टर्स आपके स्वास्थ्य पर ज्यादा बारीकी से ध्यान देते हैं। अनेक मरीज इसी बात से संतोष महसूस करते हैं कि उन्होंने विज्ञान की प्रगति में योगदान दिया।
ट्रायल में भाग लेने वाले संभावित मरीजों को अनुसंधान प्रोटोकॉल तथा औषधि के बारे में सारी जानकारी हिन्दी में देते हैं एवं हिन्दी के सूचित सहमति पत्र पर हस्ताक्षर लेते हैं। हिन्दी में अंकित सूचित सहमति पत्र में दवाई से संबंधित आज तक की पूर्ण जानकारी रहती है, इसको पढने एवं समझने तथा मरीज के प्रश्नोत्तर के बाद संतुष्ट होने पर ही सहमति ली जाती है।
ड्रग ट्रायल्स संचालित करने वाले चिकित्सकों व अनुसंधान कर्ताओं ने अपने मरीजों को कभी गिनीपिग नहीं समझा। मरीजों के लिये चूहा या जानवर जैसे शब्दों का उपयोग करना न केवल वैज्ञानिकों का अपमान है बल्कि उन हजारों सयाने और समझदार (फिर चाहे वे अनपढ हों या पढे लिखे हों, ग्रामीण हों या शहरी हों) मरीजों व घरवालों का अपमान है जिन्होंने अपने पूरे होशों हवास में सोच समझकर ट्रायल में शामिल होने के सहमति पत्र पर न केवल हस्ताक्षर किये बल्कि अनेक महीनों या वर्षों तक नियमित रूप से, विश्वासपूर्वक बिना प्रलोभन या दबाव के, परीक्षण हेतु आते रहे।
क्लीनिकल ड्रग ट्रायल्स में भाग लेने वाले किसी भी मरीज को धन भुगतान या कोई प्रलोभन देना गैर कानूनी है। अतः ट्रायल में भाग लेने वाले मरीजों को इसके लिये कोई भुगतान नहीं किया जाता, उनकेआने जाने का खर्च तथा भोजन पर किये गये खर्चे की प्रतिपूर्ति ट्रायल मद से की जाती है। ट्रायल में भाग ले रहे मरीजों की सुरक्षा तथा हितों की रक्षा के लिये हर स्तर पर जागरूकता रखी जाती है जो कि (जी.सी.पी.) उत्तम क्लीनिकल व्यवहार के मूल सिद्धांतों अनुसार किया जाता है। रिसर्च में भाग ले रहे प्रत्येक मरीज की देखभाल भली-भांति की जाती है तथा उसे रिसर्च को कभी भी स्वैच्छिक रूप से छोडने की स्वतंत्रता दी जाती है। यदि कोई मरीज क्लीनिकल ड्रग ट्रायल हेतु अपनी सहमति वापस लेता है तो उसकी बाद में देखभाल तथा इलाज में कोई भी कमी नहीं रखी जाती है।
वैश्विक स्तर पर क्लीनिकल ड्रग ट्रायल प्रोटोकॉल कई देशों के अनेक केन्द्रों में एक साथ चलाया जाता है जिससे की कुल जरूरी मरीजों को कम समय में अध्ययन में शामिल किया जा सके, अन्यथा नई उपयोगी दवाओं के विकास, पुष्टिकरण और लाईसेंसीकरण की प्रक्रिया और भी लम्बी हो जायेगी।
इन सभी अंतर्राष्ट्रीय केन्द्रों से प्राप्त मरीजों में होने वाली किसी भी संभावित दुष्परिणाम की जानकारी ट्रायल हेतु बनाई गयी नियामक एजेन्सियों द्वारा मान्यता प्राप्त सुरक्षा आकलन समिति के पास लगातार सभी ओर से भेजी जाती है जो दवाई के असुरक्षित पाये जाने पर सभी भाग लेने वाले केन्द्रों में इसके प्रयोग को तत्काल बंद करने का आदेश देते हैं तथा ऐसी किसी घटना के होने के पश्चात प्रभावित मरीज के अनुगमन के विषय में जानकारी देते हैं।
ट्रायल के दौरान मरीज की हर विजिट पर पूर्ण शारीरिक परीक्षण व संभावित दुष्पभावों से बचने हेतु पहले से नियत खून व अन्य जांचें मान्यताप्राप्त प्रयोगशालाओं में ही की जाती है। दो विजिट के बीच में कोई भी लक्षण या परेशानी आने पर मरीज अपने चिकित्सक से कभी भी संपर्क कर सकता है एवं मार्गदर्शन तथा समुचित उपचार पाता है।
इस पूरे अनुसंधान प्रोटोकॉल में भाग लेने के दौरान मरीज को अनुसंधान औषधि से होने वाली कोई भी हानी का बीमा होता है और उसका आगे का उपचार करवाने का प्रबन्ध रहता है।
ऐसा नहीं है कि ड्रग ट्रायल्स की दुनिया में सब कुछ दूध का धुला है, कुछ अनियमितताएं और अनैतिक काम होते रहे हैं। सुधार और विकास एक सतत्‌ प्रक्रिया है। एडोल्फ हिटलर के जर्मन नाजी शासन में यहूदियों पर अत्यन्त क्रूर व अमानवीय प्रयोग हुए थे। किसी सभ्य समाज में ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती। १९२०-३० के दशक में टुस्कगी, अमेरिका में अश्वेत नीग्रो लोगों में सिफिलिस की बीमारी का अध्ययन, चिकित्सा विज्ञान के काले अध्यायों में से एक है। जोसेफ स्टालिन के सोवियत संघ में साईबेरिया के केम्पस्‌ में मानसिक रोगों का अध्ययन नितान्त अवैज्ञानिक व अनैतिक तरीके से किया जाता था। विश्व समुदाय अब बहुत सजग और चौकन्ना है फिर भी विवाद उठते रहते हैं, उठते रहेंगे और उठना चाहिये। लेकिन इमानदारी के साथ, जिम्मेदारी, परिपक्वता, खोज, अध्ययन और सन्तुलन के साथ।
अनेक प्रतिष्ठित अन्तरराष्ट्रीय मेडिकल जर्नल्स जैसे लेन्सेट, न्यू इंग्लैण्ड मेडिकल जर्नल आदि में समय-समय पर ड्रग ट्रायल्स के वैज्ञानिक, नैतिक, सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक पहलुओं पर विद्वत्तापूर्ण लेख छपते रहते हैं। इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स भारत में ड्रग ट्रायल्स के नकारात्मक पक्ष पर प्रायः लिखता रहता है। (मेरी राय में एक पक्षीय फिर भी विचारोत्तेजक तथा ज्ञानपूर्ण। हिन्दी व भारतीय भाषाओं में उक्त ऊंचे स्तर का कवरेज देखने को नहीं मिलता। इन पंक्तियों में लेखक के पास ऊपर उल्लेखित पत्रिकाऐं नियमित रूप से आती हैं। ड्रग ट्रायल्स की बुराई में कुछ बेहतर स्टोरी बनाने की इच्छा रखने वाले पत्रकार बन्धु यदि चाहें तो मुझसे रेफरेन्सेस ले सकते हैं।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा ड्रग ट्रायल का कारोबार विकासशील देशों में क्यों बढाया जा रहा है? इसका कारण है कि भारत जैसे देशों में शिक्षा, ज्ञान व कौशल का स्तर बढा है तथा उध कोटि के विश्वसनीय ट्रायल यहां तुलनात्मक रूप से कम खर्च में सम्भव है। जन संख्या अधिक होने से ट्रायल के लिये जरूरी मरीज जल्दी मिल जाते हैं। इसमें गलत क्या है? कुछ भी नहीं। यह हमारे लिये चुनौति भी है और अवसर भी। फिर भी कुछ मुद्दे हैं जो कभी-कभी चिन्ता का कारण बनते हैं। इस बात पर गौर किया जाना चाहिये कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ कहीं दोहरे मानदण्ड तो नहीं अपना रही? कुछ वर्ष पूर्व एड्‌स की एक औषधि पर ट्रायल पर एक अफ्रीकी देश (युगाण्डा ?) में वहां की सरकार की अनुमति से चला था। उक्त औषधि युगाण्डा में उपलब्ध नहीं थी और न ही निकट भविष्य में होने की उम्मीद थी। गैर सरकारी सामाजिक संगठनों ने आपत्ति ली थी कि ट्रायल की समाप्ति के बाद मरीजों का क्या होगा? युगाण्डा सरकार ने कहा कि यूं भी इन मरीजों को क्या मिल रहा है?
कमियाँ किस में नहीं होती ? लोग अच्छे और बुरे होते हैं। कम्पनियाँ अच्छी और बुरी होती हैंफिर वे चाहे बडी हों या छोटी, देशी हों या विदेशी, एक-राष्ट्रीय हों या बहुराष्ट्रीय। प्रश्न तुलनात्मकता का है। कुल लाभ अधिक है या कुल हानि? कुछ ट्रायल में गडबडियाँ हैं, कभी-कभी मरीजों के हितों पर नुकसान पहुंच सकता है- इन कारणों से ट्रायल्स पर रोक लगाना या उनके सुचारू संचालन को जकड देना वैसा ही होगा कि पत्रकारिता में बहुत कमियाँ हैं- इसलिये प्रेस की आजादी बंद कर दो, लोकतंत्र में कमियाँ है इसलिये तानाशाही ले आओ। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार आ पहुंचा है इसलिये राजतंत्र जैसी न्यायप्रणाली ले आओ।
इस समस्त प्रकरण में मीडिया की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका के साथ मीडिया को लोकतंत्र का चौथा पाया माना जाता है। फिर भी यह देखकर दुःख और क्षोभ होता है कि मीडिया से जितनी परिपक्वता, जिम्मेदारी, सन्तुलन और खोजपरकता की उम्मीद की जाती है, अनेक अवसरों पर वह उस पर खरा नहीं उतरता। ठीक वैसे ही जैसे कि डाक्टर्स, आम जनता की कसौटी पर खरे नहीं उतरतेहालांकि एक पक्ष की कमी, दूसरे पक्ष की माफी नहीं होती।
ड्रग ट्रायल्स को लेकर व्याप्त बेड-प्रेस (कुख्याति) के एक से अधिक कारण है। एक है अज्ञान, जानकारी का अभाव। खोज और अध्ययन के लिये जो मेहनत और बुद्धि लगती है उसमें कमी। दूसरा प्रमुख कारण है ईर्ष्या। सामने वाले की कमीज मेरी कमीज से अधिक सफेद क्यों? डाक्टर्स इतना क्यों कमा रहे हैं? यदि वह कमाई इमानदारी के साथ, अपनी योग्यता, साख, मेहनत और समय के बूते पर हो रही हो, पूरा आयकर अदा किया जा रहा हो तो भी यह ईर्ष्या कम नहीं होती। विडम्बना तो यह कि अनैतिक तरीके से कमाई करने वाले को लोग हसरत और रोल माडल के रूप में देखते हैं (जैसे कि हर्षद मेहता)। प्रख्यात लेखक चेतन भगत ने अभी कुछ ही सप्ताह पूर्व अपने स्तम्भ में लिखा था कि हम भारतीय अपने लोगों की सफलता से प्रभावित होने के बजाय जलन करते हैं। और अन्त में एक किस्सा : एक यूरोपियन म्यूजियम के एक हाल में कांच के बडे बडे बर्तनों में दुनिया भर के चींटे प्रदर्शन पर रखे हुए थे। अमेरिका से, रूस से, अफ्रीका से, आस्ट्रेलिया से और भारत से। भारत के चींटों की बर्नी खुली थी, ठन नहीं लगा था। दर्शकों की हैरानी के जवाब में गाईड ने बताया कि भारतीय चींटे किसी को ऊपर नहीं चढने देते। जहां एक चींटा कुछ बढा कि दूसरे उसकी टांग खींचकर नींचे उतार देते हैं। दुनिया के अन्य देशों की तुलना में भारत पिछडा क्यों है भारत के अनेक प्रान्तों की तुलना में मध्यप्रदेश पिछडा क्यों है ?- इसके अनेक कारण है। परन्तु एक प्रमुख कारण है मेरिट की सराहना के बजाय ईर्ष्या की अधिकता।

1 टिप्पणी:

विजय ने कहा…

चिकित्सा विज्ञान की प्रगति और मानव सभ्यता की सुरक्षा के लिए शोध का मैं भी पक्षधर हूं। यही वजह है कि मैं पोलियो और एच1एन1 वायरस से जुड़े ऐसे ट्रायल की तारीफ करता हूं जो देश के खातिर हुए। ड्रग ट्रायल को रोजगार का अवसर बताकर आप भ्रमित कर रहे हैं। जरा बताएं, आपके ट्रायल से कितने लोगों को रोजगार हासिल हुआ? आप ड्रग ट्रायल का केवल एक पक्ष देख रहे हैं। क्या आपको यह मालूम है कि ड्रग ट्रायल करने वाली कंपनियां एथिकल कमेटियों की शापिंग करती हैं। जो कमेटी पक्ष में रहती है, उसी की सहमति ली जाती है। क्या आपको पता नहीं है कि इंदौर में एक दर्जन से अधिक डॉक्टरों ने एथिकल कमेटियों को बदला? रही बात एमजीएम मेडिकल कॉलेज की एथिकल कमेटी की बात तो यह भी जान लें कि उसके सदस्य अंधेरे में हैं। भरोसा न हो, तो रिटायर्ड जस्टिस पीडी मूल्ये का वह साक्षात्कार पढ़ लें, जो मेरे ब्लॉग पर दर्ज है। ब्लॉग का पता है-

http://drug-trial.blogspot.com/

विजय चौधरी, इंदौर