शुक्रवार, 6 जून 2008

प्राग जाने से पहले (दिसम्बर २००७)

चेकोस्लोवाकिया की यात्रा पर जाने से पहले मैंने यादों के कोनों को खंगालकर पुरानी बातों को बाहर निकाला । ऐसा मैं प्रायः करता हूँ । उस स्थान के बारे में जो कुछ पहले सुना था, पढा था, जाना था, उसे पुनः जगाता हूँ, झाडता-पोछता हूं, अद्यतन करता हूँ, नया ढूंढता हूँ । मुझे लगता है ऐसा करने से, शायद मैं उस नगर, प्रान्त या देश की यात्रा का अधिक आनन्द उठा पाता हूँ, ज्यादा सघनता से उस सभ्यता-संस्कृति को देख पाता हूँ, या थोडी अधिक गहराई में डूब पाता हूँ ।

स्मरण करता हूँ वर्ष १९६८ का अगस्त । तब मैं १५ वर्ष का था, दसवीं कक्षा में । बी.बी.सी. की हिन्दी रेडियो सेवा सुनने का शौक लगा था । मैं और पापा शाम ८.३० बजने की प्रतिक्षा करते थे । सहसा समाचारों की सुर्खियों में चेकोस्लोवाकिया का नाम छाने लगा । मध्य यूरोप का छोटा सा देश । चारों ओर अन्य देशों से घिराहुआ । लेण्ड लाक्ड । धरती से बन्धा हुआ । अर्थात् कोई समुद्री किनारा नहीं । रूस की सेनाओं ने हमला बोल दिया । वारसा सन्धि की सेना के टैंक प्राग शहर की सडकों को रौंद रहे थे । कारण ? चेकोस्लोवाकिया की सरकार ने कम्युनिस्ट होने के बावजूद, रूस व पूर्वी युरोप की अन्य कम्युनिस्ट व्यवस्थाओं के ढांचे से बाहर निकलने की कोशिश की थी । आर्थिक और प्रजातांत्रिक स्वतंत्रताओं और सुधारों की नयी बयार १९६८ के बसन्त में शुरु हुई थी । लोग खुश थे कम्युनिस्टों के सर्वसत्तात्मक, तानाशाही, दमघोटू प्रोपेगण्डा से इतर, खुली हवा का झोंका आया था ।

इस सब का नायक था स्लोवाक प्रान्त से आया एक प्रथम नागरिक एलेक्सान्डर डूबचेक । चेकोस्लोवाकिया की शासन रूड कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव, अर्थात् शासन का भी सर्वेसर्वा । उसी ने हिमाकत की थी ये सब परिवर्तन लाने की । सोवियत रूस के नेताओं को यह गवारा न था । उनके प्रभाव क्षेत्र के पूर्वी यूरोप के देशों में से एक था चेकोस्लोवाकिया । जब चेतावनियों का असर न हुआ तो सेना भेजकर उस सौम्य, अहिसक, स्वतःस्फूर्त, नवजात बसन्त को कुचल दिया गया ।

भारत के समाचारा माध्यमों में अधिक कुछ न आता था । रेडियो सरकारी था । टी.वी था नहीं । भाषाई अखबारों की पहुंच सीमित थी । ऐसे में बी.बी.सी सुनना रोमांचक लगता था । निरीह निहत्थे लोगों पर बल प्रयग की लोमहर्षक बातें सुनकर मन व्यथित होता था । अलेक्सान्दर डूबचेक व अन्य चेक नागरिकों के साहस के प्रति मन में आदर जागता था । उन्हीं दिनों उस देश के भूगोल, इतिहास व संस्कृति के बारे में भी कुछ-कुछ जाना होगा । तब से मन में इच्छा थी, कौतुहल था, रागात्मक लगाव था कि यदि मौका मिलेगा तो चेकोस्लोवाकिया जरूर जाउंगा। पिछले ३९ वर्ष में ब्लातावा नदी में, जिसके किनारे प्राग बसा है, बहुत पानी गुजर चुका है। कम्युनिस्ट शासन का अन्त १९९१ में हो चुका है । प्रजातंत्र स्थापित है ।
चेक रिपब्लिक के सन्दर्भ में बोहेमिया और बोहेमियन इन शब्दों का उल्लेख प्रायः होता है । बोहेमिया चेक गणतंत्र का पश्चिमी भू-भाग है । कितना आसान अर्थ ? वहां के रहवासी कहलाएंगे बोहेमियन । नहीं, इतना सीधा अर्थ नहीं ।

पहले बोहेमियन अक्सर जिप्सी जाति के लोगों को भी कहा जाता था । जिप्सी लोग १५-१६ वीं शताब्दी में पश्चिमोत्तर भारत (राजस्थान, पंजाब, सिध) से निकलकर पूर्वी और मध्य यूरोप जा पहुंचे थे । घुमक्कड या खानाबदोश प्रकृति के थे । हमारे यहां आज भी पाये जाने वाले गाडोलिया लोहारों या रेबारियों के समान । यूरोपवासियों ने सोचा था कि ये शायद मिस्र (इजिप्ट) से आये हैं । इस इजिप्शियन से बना जिप्सी । फिर ये जिप्सी जब वर्तमान चेक रिपब्लिक के बोहेमिया भू-भाग से होकर फ्रांस पहुंचे तो कहलाये बोहेमियन । इस तरह जिप्सी लोग बोहेमियन के नाम से जाने गये ।

लेकिन कहीं अधिक बहुप्रचलित अर्थ है इस शब्द बोहेमियन का-साहित्यिक और कलात्मक अभिरूचि वाले बुद्धिजीवी जो प्रायः विद्रोही स्वभाव के होते हैं, अभिजात्यता से दूर, सरल विपन्नता का जीवन व्यतीत करते हैं, रूढ मान्यताओं और व्यवस्थाओं के बन्धन से स्वयं को मुक्त रखते हैं । १९ सदी के उत्तरार्ध और बीसवी सदी के पूर्वार्ध में ऐसे अनेक प्रसिद्ध कलाकार और लेखक हुए थे जिन्होंने प्राग शहर व चेक रिपब्लिक के बोहेमिया भूखण्ड को अपनी निवास व कर्मस्थली बनाया था । यूं इसके अनेक शताब्दियों पूर्व, से, (१३००-१४००) प्रसिद्ध राजा चार्ल्स के समय से, विद्वानों, दर्शनशास्त्रियों आदि को राज्याश्रय मिलने की परम्परा यहां रही थी । कला के नायाब नमूने, शैलियाँ और विद्यालय प्रस्फुटित हुए थे । बोहेमियन मतलब विद्रोही, लीक से हट कर अपरम्परागत, बुद्धिमान, सौन्दर्यपारखी होता चला गया । दूसरे दो पुराने रूढ अर्थ - बोहेमिया के रहने वाले या जिप्सी - गौण होते चले गये ।

इस आधुनिक सांस्कृतिक अर्थ में बोहेमियन होने के प्रति मेरे मन में सदैव से एक रोमान्टिक आकर्षण, जुगुप्सा और लगाव सुलगता रहा है । उस प्रकार के लोगों के सम्फ में आने का, उन्हें उन्हीं के भौगोलिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में समीप से जानने का या कुछ-कुछ खुद बोहेमियन हो जाने का मौका मिलने की इच्छा बनी रही पर उम्मीद कम है । भारत में, आपने प्रान्त या नगर में, जान पहचान के छोटे से दायरों म कुछ मित्रों व अन्य व्‍यक्तित्‍वों में बोहेमिया प्रवृत्तियों की कल्पना कभी-कभी कर लेता हूँ । उनके जूतों में पांव रखकर, उन जैसा कभी-कभी सोचने की व महसूस करने की कोशिश भी करता हूँ ।

बोहेमिया भू-भाग का देहाती परिदृश्य शान्त व रमणीय है । छोटी पहाडयां, घने जंगल । पतझड में निःसन्देह और सुन्दर हो जाता होगा जब गिरने वाले पत्ते अपने सुर्ख चटख लाल-पीले रंगों की छटा बिखेरते होंगे - या फिर मई में, ग्रीष्म ऋतु में जब हरी पत्तियों व फूलों से वृक्ष लद जाते हैं । हम पहुंचे मध्य दिसम्बर में, घोर शीत ऋतु । तापमान शुन्य से नीचे । सारे झाड नंगे । एक पत्ती नहीं । केवल टहनियाँ और महीन शाखाएं । यूं, इसकी सुन्दरता अलग है । सुन्दरता किसमें नहीं है ? देखने वाले की आंखों को छोडकर या फिर केवल देखने वालों की आंखों में ।

दक्षिणी बोहेमिया में , जर्मन सीमा के समीप सुपावा की घनी वनाच्छादित पहाडयां अनेक लोक कथाओं का स्रोत है, वहां से चेक गणतंत्र की प्रमुख नदी ब्लातावा का उद्गम होता है । ढेर सारे किले, महल, गढ और गढयां, बुर्ज आदि यहां के चप्पे-चप्पे पर मिलते हैं । मध्य युग और बींसवीं सदी के आगमन तक सामन्ती राज व्यवस्था का यूरोप में घनघोर बोलबाला था । आश्चर्य नहीं कि उसी अति के प्रति विद्रोह में सोशलिज्म की विचारधारा पनपी जिसकी दुर्भाग्यपूर्ण परिणित अति के दूसरे छोर पर कम्यूनिज्म - स्टालिनिज्म - माओइज्म के रूप में हुई । सामन्तवाद ने शोषण बहुत किया । केवल एक छोटा सा भला होता रहा - कला पनपती रही स्थापत्य के रूप में, चित्रकला, संगीत, मूर्तिकला, पाकशास्त्र, वस्त्राभूषण ना ना रूपों में । चेक रिपब्लिक का समृद्ध व बहुत परतों वाला, लम्बा पुराना इतिहास इसी परम्परा का नायाब उदाहरण है ।
यहां के छोटे-छोटे कस्बे और नगर आज भी मेडिवियल (मध्ययुगीन) वातावरण व सौन्दर्य को सहेजे रखे हुए हैं । क्षरण हुआ है। पुनरोद्धार भी जारी है । इतिहास के प्रति समझ है, आदर है, श्रद्धा है, अभिरुचि है और जेब में पैसा आने लगा है । इसलिये हालात सुधरे हैं । अपने देश में इन सब चीजों का अभाव है । पैसों की तुलना में दूसरे पक्षों का कहीं अधिक ।
प्रथम विश्वयुद्ध (१९१४-१९१९) की समाप्ति पर जब आस्‍ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य (राजधानी विएना) का अन्त हुआ तो चेक व स्लोवाक लोगों ने मिलकर एक सफल प्रजातंत्र की स्थापना की १९३० में हिटलर की जर्मन सेनाओं ने चेकोस्लोवाकिया पर कब्जा कर लिया । द्वितीय विश्वयुद्ध (१९३९-१९४५) में हिटलर की हार के बाद चेकोस्लोवाकिया, अन्य पूर्वी यूरोपियन देशों (पोलेण्ड, हंगरी, रोमानिया, बल्गारिया आदि) के साथ विजेता रूस के प्रभाव क्षेत्र में घिर कर, आजाद हो कर भी पुनः कैद जैसा हो गया । चेक व स्लोवाक क्षेत्रों व नागरिकों में बहुत से अन्तर रहे हैं । बोहेमिया और मोराविया क्षेत्रों से मिलकर बने चेक रिपब्लिक का इतिहास पुराना है । यूरोप में मचलने वाले अनेक राजनैतिक और धार्मिक परिवर्तनों में इस देश की महती भूमिका रही । स्लोवाकिया तुलनात्मक रूप से, अलग थलग कृषि प्रधान और पिछडा हुआ रहा ।

१९९० की प्रजातांत्रिक क्रान्ति में कम्युनिज्म को उखाड फेंका गया । जर्मनी के बर्लिन में दीवार को जनता ने तोड डाला था । प्राग और ब्रातिस्लावा में हजारों-लाखों नागरिकों ने सडकों पर आकर, शांति पूर्ण तरके से व्यवस्था परिवर्तन को अंजाम दिया । शासकों ने समझदारी का परिचय दिया । बल प्रयोग न किया । टूट चुकी दीवार पर लिखी इबारत उन्होंने अच्छे से पढ ली थी । आसान व मुलायम से प्रतीत होने वाले इस चेकोस्लाव राज्य परिवर्तन को आधुनिक राजनैतिक इतिहास में मखमली क्रान्ति (वेल्वेट रेवोल्यूशन) के नाम से जाना जाता है । यहां के लोगों की बोहेमियन जडों और आदतों के कारण ही शायद यह क्रान्ति व दो वर्ष बाद चेक व स्लोवाक लोगों का सौहार्द्रपूर्ण प्रथक्करण इतने सुभीते के साथ सम्पन्न हो पाया होगा ।

एक चेक नागरिक से मैंने पूछा कि एलेक्सान्दर डूबचेक को आजकल लोग किस रूप में याद करते हैं, कितना सम्मान देते हैं ? उत्तर में मुझे आश्चर्य हुआ । मामूली सम्मान । अधिक नहीं । इसलिये कि वह मूल रूप से कम्युनिस्ट ही था । केवल थोडा सा बेहतर । उसने चेक संविधान की उस प्रथम धारा को हटाने से इन्कार कर दिया था जिसके तहत कम्युनिस्ट पार्टी को ही राष्‍ट्र की शासन व्यवस्था में अग्रणी भूमिका देने की बात कही गई थी ।

मोत्सार्ट (मोजार्ट) संगीत की दुनिया का नाम अमर है । यूं तो मोत्सार्ट को प्रायः विएना या साल्जबर्ग के साथ जोडते हैं पर प्राग से भी उसका घना आत्मीय सम्बन्ध था । मोत्सार्ट ने कहा था कि प्राग के लोगों ने जितना मुझे समझा और सराहा उतना किसी ओर ने नहीं । वे जिस घर में रहे वहां आज संग्रहालय और स्मारक हैं । प्रसिद्ध हिन्दी लेखक श्री निर्मल वर्मा ने अपनी पुस्तक चीडों पर चांदनी में उस संग्रहालय को देखने जाने का सजीव वर्णन किया है । हम न जा पाये ।

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