शुक्रवार, 6 जून 2008

ठंड में यूरोप का प्रथम अनुभव

ठंड के दिनों में किसी यूरोपीय देश की यह हमारी पहली यात्रा थी । तापमान अक्सर -२ से -५ डिग्री सेल्सियस के मध्य । प्रायः कोहरा या बादल । सूरज निकलता तो भला लगता । लोगों के चेहरे पर अपने आप मुस्कान आ जाती । चिडचिडापन कम हो जाता । पर धूप में उष्मा कहां ? तापमान जस का तस - शून्य डिग्री या नीचे । कभी-कभी -७ या -८ तक गया । हवा तीखी बेंधती हुई, घर, इमारतें, दुकानें, बस, ट्राम आदि सब जगहें अन्दर से गर्म रहते । भीतर अन्दाज भी न लगता । सादे सूती कपडों में काम चलता । बाहर आते ही चीख सी निकलती । पूरी तैयारी करना पडती । एक के ऊपर एक परतें । दो जोडी मौजे । स्वेटर के ऊपर मोटे लबादे वाला कोट । हाथों में दस्ताने । गरदन और सिर पर बन्दर टोपी या मफलर । गाल, होंठ, नाक, ठुड्डी को ढंकना मुश्किल। ये सब सुन्न हो जाते और रंग उनका सुर्ख । बार-बार रगडते रहो या हाथ से ढंके रखो । आंखों में जलन होती । जूतों और दस्तानों के अन्दर अंगुलियों के पोरों पर जलन, सुन्नपना और झुनझुनी होते । आवाज धीमी और कांपती हुई । जेब में से, पर्स में से, बटुए में से, कुछ निकालना हो, लिखना हो, कैमरा चलाना हो तो लगता मानों ऊंगलियां जकड गई हों, ठस हो गई हों ।

गर्म इमारत से बाहर आने पर शुरु के कुछ मिनिट अपने आप को हिम्मत बन्धाए रखते कि सहन कर लेंगे । धीरे-धीरे ठंड आफ शरीर को गहराई तक बेधती जाती । आधे-एक घण्टे बाद लगने लगता कि सब कुछ शून्य होता जा रहा है । यदि बैठ गये या केवल खडे रहो तो ठिठुरन बढेगी । यदि चलते रहो, दौडो, हाथ-पांव चलाते रहो तो ठीक रहेगा ।

इमारतों के अन्दर प्रवेश करते ही सूकून की आह निकलती । कुछ देर बाद कपडे उतारने पडते । इसीलिये सभी जगहों पर प्रवेश के बाद, बाहरी ऊनी कपडे टांगने की व्यवस्था होती । पत्तागोभी के समान लपेटे-लिपटाये रहना अजीब लगता । बाहर निकलते समय फिर वही सारी कसरत । दिन में अनेक बार हो जाता ।

सूरज नौ बजे बाद उगता । शाम चार के पहले डूब जाता । स्थानीय निवासी कहते हम काम पर जाते हैं तब अन्धेरा और घर लौटते हैं तब भी अंधेरा ।

दूसरे दिन के बाद थोडी-थोडी आदत होने लगी । यहां के लोग पूरी तरह आदी हैं । कपडे उन्हें भी पूरे पहनना पडते हैं । शीत किसी के साथ रहम नहीं करती । लेकिन जन जीवन सामान्य । लोग घूमते फिरते, काम करते, हंसते बोलते । पर्यटकों को कोई कमी नहीं । देर रात तक बाजारों व दुकानों में खूब चहल-पहल । भीड की अपनी गर्मी भी सुकून देती है ।

अनेक स्थलों पर, विशेषकर देहाती खुले क्षेत्रों में जमीन पर सफेद महीन चादर बिछी हुई या मानों चूने का पाउडर छिडक दिया गया हो, या सफेद पुताई हो । हमने पूछा बर्फ गिरी क्या ? घास पर तथा अनेक वृक्षों पर शुभ्र पतली परत । मिट्टी और वनस्पति में मौजूद पानी, जम कर बर्फ बन जाता है । आसमान से नहीं टपका था । पाला पडा था । पहले यह शब्द सुना था, पर इतने व्यापक रूप से देखा न था । इसे अंग्रेजी में फ्रास्ट कहते हैं । आश्चर्य है कि पौधे फिर भी जिन्दा रहते हैं । बसन्त और ग्रीष्म ऋतु में फिर बहार आयेगी ।

अधिकांश वृक्षों की पत्तियाँ झड चुकी । तमाम टहनियाँ और शाखाएं नंगी । कुछ गिने चुने किस्म के झाडों और झाडयों की पत्तियाँ सदैव हरी रहती । सदाबहार, एवर ग्रीन। पत्तियों के रहते शाखाओं और टहनियों का विन्यास हमें दिखाई नहीं पडता । शीतकाल में पूरा कंकाल, अपनी बारीकी के साथ नजर आता । हर वृक्ष का अपना अलग विन्यास । भिन्न-भिन्न रूपाकार । एक से दो, दो से चार किस क्रम से , किस डिजाइन में शाखाओं का जाल फैलता जायेगा, इस सौंदर्य को देखने का अवसर पहले न मिला था । गर्म सूप, चाय, काफी, भुने हुए चेस्टनट, भुट्टे, मफेट, ब्रेड आदि फुटपाथ के किनारे खूब बिकते । बीयर और वाइन का चलन भी खूब है । लेकिन हमेशा सीमा में रहकर, सभ्य तरीके से । लिमिट से ज्यादा पी लेना, बेकाबू होकर चिल्लाना, भटकना जैसे दृश्य देखने को नहीं मिलते ।

नदियों और तालाबों के ऊपर बर्फ की पतली परत जम जाती है जो बीच-बीच में टूटी रहती और नीचे पानी बहता दिखाई पडता । सुबह और शाम के धुंधलके में, कोहरे की अनेक अस्तरों में शहर की रंगत बदलती रहती । कभी भूरी, कभी रंगीन । कभी स्याह, कभी चटख । वो महल अभी छिपा हुआ है, अब प्रकट हो जाएगा । मायावी लोक । सुरमुई संसार । मोहक सुन्दरता ।
सडक फिसलनी हो जाती । डामर या सीमेंट या ऐरन वाले बडे पत्थर (काबल स्टोन) पर पांव जमाकर धीमे से रखना पडते । घास पर चलते समय जूतों के नीचे, चर-चर, कुर-मुर की आवाज का अहसास होता । बर्फ के कारण सख्त हुई घास जब पैरों के नीचे टूटती तो ऐसा होता । सडकों, हवाई अड्डों और एरोप्लेन्स पर बर्फ न जमने देने के लिये विशेष प्रकार के रसायन का छिडकाव करते हैं । सडक पर से जमी हुई बर्फ हटाने के लिये अलग महकमा - अलग स्टाफ उनकी बडी-बडी मशीनें ।

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