गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

र्डिंमेन्शिया में व्यवहारगत समस्याएं

एल्जीमर्स रोग के अनेक वृद्ध मरीज, र्जिंनकी स्मृर्तिं धीरे-धीरे कम होती चली जाती है, मेरे पास कई बार ऐसी समस्याओं के र्लिंये लाये जाते हैं र्जिंसका सीधा सम्बन्ध बुर्द्धिं या स्मृर्तिं से नहीं वरन्‌ स्वभाव या चर्रित्र या व्यर्क्तिंत्व से प्रतीत होता है। ७० वर्षीय बालमुकुन्द हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक पद से सेवार्निंवृत्त होकर सर्क्रिंय जीवन व्यतीत कर रहे थे। बागवानी और भजन मण्डली में गाने का शौक था। र्पिंछले दो वर्ष से भूलना बढ़ गया था। एल्जीमर्स रोग को आगे बढ़ने से रोकने की एक औषर्धिं चल रही थी। अब अकेले बाजार जाकर सब्जियाँ नहीं ला सकते थे। अखबार पढ़ने का पुराना शौक कम हो गया था। बड़े-बड़े शीर्षक उचरती र्निंगाह से देखकर पेपर पटक देते थे।
उनका बेटा तीन माह से परेशान था र्किं प्रर्तिंर्दिंन शाम वे ५ बजे के आसपास उन्हें भ्रम होने लगता था र्किं उनके आस पास लोग खड़े हैं, देख रहे हैं, आते-जाते हैं शायद कुछ नुकसान करने वाले हैं। बालमुकुन्द बड़बड़ाने लगते, उत्तेर्जिंत हो जाते, र्चिंल्लाते - जाओ, भागो, घरवालों ने बहुत समझाया, कोई नहीं है, आप खामख्वाह कल्पना करते हैं। कुछ देर के र्लिंये शान्त होते, र्फिंर वही बैचेनी और भ्रम। रोज शाम २-३ घण्टे सब लोग समझ न पाते र्किं क्या करें? एक डाक्टर ने कुछ नींद की दवा दी तो नशा सा रहने लगा, सो बन्द कर दी गई। मनोरोग र्विंशेषज्ञ ने सायकोर्सिंस (र्विंर्क्षिंप्तता) की औषर्धिं दी । उससे समस्याएं बढ़ गईं। स्मृर्तिं और कम हो गई। आसपास के, समय के और लोगों के ध्यान में गलती करने लगे।
मैंने और र्विंस्तार से र्हिंस्ट्री पूछने की कोर्शिंश करी मालमू पड़ा र्किं उन्हें अपने बारे में फ्रेम र्किंये हुए र्चिंत्र लगाने की आदत रही है। पर्रिजनों, र्रिश्तेदारों, र्मिंत्रों, सहकर्मिर्ंयों के ढेर सोर फोटोग्राफ या रेखार्चिंत्रों से उनका कमरा पटा पड़ा था। शाम के समय, शायद थकान या भूख या अर्धर्निंद्रा की अवस्था में उनकी स्मृर्तिं और चेतना कुछ और कम हो जाती होगी। उस अवस्था में उनके ये तमाम र्चिंत्र सजीव हो उठते, जीवन्त हो उठते, मानों सशरीर आ खड़े हुए हों। बालमुकुन्द पुराने सहपार्ठिंयों का नाम पुकारने लगते । मानो अपनी पाठशाला के र्दिंनों में पहुंच गये हों।
मैंने सलाह दी र्किं उनके कमरे से र्चिंत्रों को हटा र्दिंय जावे। एक र्खिंड़की जो सदैव बन्द रखी जाती थी, र्किं उससे ठण्डी हवा आती है, उसे खुलवाया गया और ताजी हवा तथा प्रकाश की आवक हुई। कुछ ही र्दिंनों में यह समस्या लगभग समाप्त हो गई। मूल रोग अपनी जगह है परन्तु घरवालों के जीवन की दूभरता थोड़ी कम हो गई।
संवेदनाओं की अर्धिंकता से ऐसा हुआ। दृश्य संवेदनाएं। आंखों देखे र्चिंत्र। र्डिंमेन्शिया रोग के कारण बालमुकुन्द इस सैलाब को प्रर्तिं सन्ध्या झेल न पाते थे। इस बात की स्मृर्तिं और बोध र्किं ये मेरे जाने पहचाने लोगों के र्चिंत्र हैं कुन्द हो जाता था। उनका र्दिंमाग कल्पना के घोड़ों पर सवार होकर न जाने क्या-क्या सोचने लगता।
इसकी र्विंपरीत र्दिंशा में संवेदनाओं की कमी भी नुकसान करती है। कुछ दूसरे मरीजों के साथ देखा गया है र्किं र्विंर्भिंन्न इर्न्द्रियों से प्राप्त जानकारी की मात्रा यर्दिं उनके जीवन में कम हो तो वे सुस्त, पस्त, उदास, चुप, गुमसुम, भूले भटके रहते हैं।

1 टिप्पणी:

Dr Parveen Chopra ने कहा…

ज़िंदगी का सफर ---है यह कैसा सफ़र, कोई जाना नहीं ......बहरहाल, आप के सुलझे हुये अनुभवों से रू-ब-रू होकर अच्छा लगा, डाक्टर साहब। यूं ही अपने अनुभव साझे करते रहिये। आप की पोस्ट सचमुच आंखने खोल देने वाली है।
धन्यवाद।